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मराठा : न बारिश, न नौकरियां

आरक्षण की उनकी मांग औचित्यपूर्ण हो सकती है और अगर महाराष्ट्र, तमिलनाडु के रास्ते पर चले तो वह पूरी भी हो सकती है

Maratha-Aarakshan-Rane सन् 1990 के दशक में जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं तब महाराष्ट्र सरकार ने कुनबी जाति को ओबीसी में शामिल किया परंतु मराठा जाति को नहीं। मराठा संगठनों ने इसका विरोध किया और विभिन्न आयोगों के समक्ष यह कहा कि मराठा और कुनबी एक ही जाति है। सन् 2009 के दिसंबर में ‘मराठा आरक्षण संघर्ष समिति’की स्थापना हुई। इस समिति में 18 मराठा संगठन शामिल थे। तब से लेकर अब तक मराठाओं ने कई आंदोलन किए। उनकी एकमात्र मांग यह है कि उन्हें ओबीसी माना जाए ताकि शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में उन्हें आरक्षण का लाभ मिल सके। अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में, जून 2014 में, पिछली कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार ने उनकी मांग को स्वीकार करते हुए मराठाओं को ‘विशेष शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग’घोषित कर दिया और उन्हें 16 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की। परंतु बंबई उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को असंवैधानिक करार दिया।

क्या मराठा और कुनबी एक ही हैं?

‘कुनबी’का शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जो अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है। मराठा कोई जाति नहीं है बल्कि जातियों का समूह है, जिसमें मराठा व कुनबी या कुलवाड़ी शामिल हैं (‘पीपुल ऑफ  इंडिया : महाराष्ट्र’, भाग दो, संपादक बी.वी. भानु, पृष्ठ 1434)। 14वीं सदी के बाद से कई कुनबी, जिन्हें विभिन्न शासकों ने अपनी सेनाओं में नौकरियां दीं, संस्कृतिकरण के प्रभाव में आकर स्वयं को मराठा बताने लगे। ‘मराठा’शब्द का इस्तेमाल, महाराष्ट्र के सभी निवासियों के लिए भी किया जाता है, जैसा कि महात्मा जोतिबा फुले ने उन व्यक्तियों से कहा था जो स्वयं को ‘जाति’से मराठा बताते थे (‘साहित्य संस्कृति आणि जगातिकरण’, भालचन्द्र निमाड़े, 2003)। सन् 1921 में जब एक कुनबी महिला ने मराठा पुरूष से विवाह कर लिया और मामला वर्धा सेशन्स कोर्ट में आया तब न्यायालय ने यह निर्णय सुनाया कि मराठा और कुनबी एक ही हैं।

खेती में मराठा

पहली नजर में मराठाओं की उन्हें आरक्षण दिए जाने की मांग औचित्यपूर्ण नहीं लगती। आम धारणा यह है कि मराठा एक समृद्ध कृषक जाति है। परंतु मराठाओं का आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक दर्जा पूरे महाराष्ट्र में एक-सा नहीं है। पश्चिमी महाराष्ट्र के मराठा अपेक्षाकृत समृद्ध हैं और इसका कारण है उस इलाके के सहकारी बैंक, सहकारी शक्कर कारखाने और सहकारी दुग्ध उद्योग आदि। पश्चिमी महाराष्ट्र में सहकारिता क्षेत्र के विकास ने स्थानीय मराठाओं को सत्ता, धन व प्रतिष्ठा तीनों दिए और कुछ मराठा परिवार, राज्य की राजनीति पर छा गए। महाराष्ट्र के अब तक के 18 मुख्यमंत्रियों में से 10 मराठा थे परंतु केवल तीन को छोड़कर, सभी पश्चिमी महाराष्ट्र से थे।

पिछले कुछ सालों में खेती की जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटते जाने, सिंचाई सुविधाओं के अभाव, फसलों के चौपट होने, कृषि उत्पादों का उचित मूल्य न मिलने, ऋण के बोझ और नए कर्ज की अनुपलब्धता के कारण राज्य के मराठवाड़ा, विदर्भ और खानदेश इलाकों में बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्याएं कीं। ये क्षेत्र वृष्टि छाया में हैं, जो कि प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का एक तिहाई है। राज्य सरकार के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि खेती की जमीन के टुकड़ों में बंटने की प्रक्रिया में तेजी आई है। जहां 1970-71 में 49 लाख जोतें (जिनमें से 21.20 लाख-43 प्रतिशत-छोटी व सीमांत थीं) थीं, वहीं 2000-01 में जोतों की संख्या बढ़कर 1.21 करोड़ हो गई (जिनमें से 88.86 लाख-73 प्रतिशत-सीमांत जोतें थीं)। इस कारण व खेेती के बढ़ते लागत मूल्य के कारण कृषि अलाभकारी बन गई है। जहां ओबीसी, ब्राह्मण व मुस्लिम कृषकों ने अन्य काम-धंधे अपना लिए वहीं मराठा-कुनबी समुदाय खेती से ही चिपका रहा और सबसे अधिक नुकसान में रहा।

मराठा वर्चस्वशाली या पिछड़े?

संविधान का अनुच्छेद 15(4) कहता है कि किसी भी सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए, राज्य विशेष प्रावधान कर सकता है। अनुच्छेद 16(4) राज्य को किसी भी पिछड़े वर्ग, जिसका, उसकी राय में, राज्य के अधीन सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है, के लिए पदों को आरक्षित कर सकता है। संविधान के अनुसार, पिछड़े वर्ग वे हैं जो सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हैं। इस संदर्भ में क्या मराठा दोनों आधारों पर पिछड़े हैं?

मराठाओं का राजनीति में तो पर्याप्त प्रतिनिधित्व है परंतु शिक्षा और प्रशासन में नहीं है। जिला स्तर की व तृतीय श्रेणी की नौकरियों में मराठाओं की पर्याप्त संख्या है परंतु आईएएस, आईपीएस, सेना, इंजीनियरिंग, चिकित्सा व प्रथम श्रेणी की अन्य वे नौकरियां, जिनके लिए तकनीकी कुशलता की आवश्यकता है, में अब भी मराठाओं की संख्या काफी कम है। यह आसानी से साबित किया जा सकता है कि मराठा, शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हैं। हां उनकी सामाजिक हैसियत पर अवश्य बहस की जा सकती है। चंद मराठाओं का बड़ी सहकारी संस्थाओं व शक्कर कारखानों पर नियंत्रण है। उनमें से कुछ सामंती ज़मींदार भी हैं परंतु अधिकांश सूखा-प्रभावित किसान हैं, जो अपने छोटे-छोटे खेतों को जोतकर किसी तरह अपना पेट भर रहे हैं।

सांख्यिकीय व कानूनी अस्पष्टटता

केन्द्र सरकार ने अब तक 2011 की जाति जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए हैं इसलिए मराठाओं की आबादी के संबंध में कोई विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। सन 1931 की आखिरी जाति जनगणना, जिसके आंकड़े सार्वजनिक किए गए थे, के अनुसार, महाराष्ट्र में 50 लाख से अधिक मराठा थे। इस आंकड़े के आधार पर नारायण राणे समिति का आंकलन है कि सन 2014 में मराठा, राज्य की कुल आबादी का 32 प्रतिशत थे। पिछले चार दशकों में राज्य के 2,430 विधायकों में से 1,336 (लगभग 55 प्रतिशत) मराठा थे। ऐसा कहा जाता है कि राज्य की आबादी का 52 प्रतिशत ओबीसी हैं परंतु ओबीसी विधायकों की संख्या कभी भी 25 से अधिक नहीं रही। राज्य के विधानसभा चुनावों में लगभग सभी क्षेत्रों में त्रिकोणीय संघर्ष होता है और इसलिए ओबीसी व मराठा सहित जो भी विधायक चुने जाते हैं, उन्हें 25 से 30 प्रतिशत मत प्राप्त होते हैं। इससे ओबीसी आबादी के प्रतिशत के आंकलन पर प्रश्नचिन्ह लगता है (पढ़ें, बालासाहेब सराटे पाटिल की ‘महाराष्ट्रातिल सत्यकरन : ओबीसी आरक्षण’, कलमनामा, 13 जुलाई 2014)।

बंबई उच्च न्यायालय ने सन 2014 में मराठाओं को 16 प्रतिशत और मुसलमानों को 5 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने पर इस आधार पर आपत्ति की थी कि इससे राज्य में कुल आरक्षण 73 प्रतिशत हो जाएगा, जो कि उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि ”इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ’’प्रकरण में आरक्षण की 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा निर्धारित करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने असाधारण परिस्थितियों में राज्यों को इस सीमा का उल्लघंन करने की इजाज़त दी थी। सन 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर आरक्षण का प्रतिशत 50 से अधिक किया जाना है तो संबंधित समुदायों के संबंध में परिमाणात्मक आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए।

”सेव ओबीसी रिजर्वेशन कमेटी’’के सचिव श्रवण देवरे कहते हैं कि एकमात्र रास्ता यह है कि महाराष्ट्र सरकार विधानसभा से इस आशय का संकल्प पारित करे कि 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने के लिए सुदर्शन नचियापन समिति की रपट लागू की जाए। महाराष्ट्र सरकार इस मामले में तमिलनाडु से सीख ले सकती है। राज्य सरकार ने सन 1993 में एक अधिनियम पारित किया और यह साबित किया कि राज्य की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी पिछड़ी है। वर्तमान में राज्य में 69 प्रतिशत आरक्षण है।

 

 (फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

युवराज साखरे

एशियन स्कूल ऑफ जर्नलिज्म, चेन्नई से पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा प्राप्त युवराज साखरे मुंबई में पत्रकार हैं

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