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सामाजिक न्याय की अवधारणा पर खतरे

सामाजिक न्याय का सपना तो सभी प्रकार के भेदभाव से रहित समाज का सपना है। इस अर्थ में यह बुद्ध, ईसा, कबीर और मार्क्स के भावों का विस्तार है

जो लोग सोचते-समझते हैं तथा एक बेहतर समाज का स्वप्न देखते हैं, उन्हें भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा पर पिछले कुछ वर्षों से मंडरा रहे खतरों ने चिंतित कर रखा है। ये खतरे सामाजिक न्याय के विरोधियों की ओर से भी हैं, और आंतरिक भी। सबसे बड़ा खतरा इस अवधारणा के संकुचन का है। सामाजिक न्याय का अर्थ है उन सभी व्यक्तियों को न्याय उपलब्ध करवाना, जिन्हें किसी भी प्रकार के वर्चस्व के कारण अन्याय का सामना करना पड़ रहा है। यह अन्याय चाहे वर्ण अथवा नस्ल आधारित हो, पेशा आधारित, लिंग आधारित, धन आधारित, भौगोलिक क्षेत्र पर आधारित, धर्म आधारित, संस्कृति आधारित, परंपरा आधारित, भाषा आधारित, अथवा शारीरिक संरचना पर ही आधारित क्यों न हो। सामाजिक न्याय अपने मूल रूप में विशेषाधिकार आधारित योग्यतावाद के विरूद्ध एक निरंतर युद्ध है। मानवतावाद और करूणा इस यु़द्ध के स्थायी भाव हैं तथा जीवन के हर क्षेत्र में सभी को समान अवसर की उपलब्धता के लिए संघर्ष व सामाजिक विविधता का सिद्धांत, इस युद्ध के शस्त्र और अस्त्र।

लेकिन आज सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ वंचित तबकों से आने वाले कुछ लोगों का चुनाव जीत जाना माना जाने लगा है। व्यवस्थागत स्तर पर इसे सरकारी नौकरियों और निम्न गुणवत्ता वाली शिक्षा देने वाले ठस्स सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण तक सीमित कर दिया गया है। अधिक से अधिक कुछ लोग निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग करते हैं। इसे ही ‘सामाजिक न्याय’की लड़ाई का अंतिम छोर मान लिया गया है।

सामाजिक न्याय का यह अर्थ प्रचलित होना कि- यह वंचित तबकों को मात्र कुछ डिग्रियां दिलाने अथवा सरकारी-निजी क्षेत्र में नौकर बनाने के लिए है – अपने आप में ही इस अवधारणा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। सामाजिक न्याय का सपना तो सभी प्रकार के भेदभाव से रहित समाज का सपना है। इस अर्थ में यह बुद्ध, ईसा, कबीर और मार्क्स के भावों का विस्तार है। इस भाव के संकुचन के लिए इस लड़ाई को लडऩे वाले भी जिम्मेवार हैं, लेकिन वास्तव में भारतीय समाज की वर्चस्ववादी शक्तियां भी यही चाहती हैं कि यह लड़ाई इसी संकुचित रूप में रहे तथा उनके अधीन विभिन्न प्रकोष्ठों में चलती रहे।

इसे भारतीय राजनीति के एक उदाहरण से समझ सकते हैं। भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष मुख्य रूप से द्विजों और शूद्रों-अतिशूद्रों-आदिवासियों के बीच है। द्विज अल्पसंख्यक हैं जबकि शुद्र-अतिशूद्र-आदिवासी बहुसंख्यक। देश के लोकतंत्र पर राज करने वाली दोनों प्रमुख पार्टियां – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी – अपने संगठन में ओबीसी प्रकोष्ठ, दलित प्रकोष्ठ, आदिवासी प्रकोष्ठ आदि रखती हैं। यह बहुजन तबकों के संघर्षों को एक प्रकार से कोष्ठकों में बंद करने का तरीका है। जब ये बहुजन समुदाय उनके प्रकोष्ठों में बंद हो जाते हैं तो स्वत: ही अल्पसंख्यक द्विज भारतीय राजनीति की मुख्यधारा बन जाते हैं। बहुजनों का काम सिर्फ  इतना रह जाता है कि वे संसद, मंत्रीमंडल में अपने समुदाय के प्रतिनिधियों तथा प्रधानमंत्री कार्यालय और अन्य प्रमुख सत्ता संस्थानों में अपने समुदायों के अधिकारियों की घटती-बढती संख्या की गिनती करते रहें! भारतीय राजनीति ने इस वर्चस्व  को बनाए रखने के लिए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द के अर्थ को ही भ्रामक बना दिया है। आज भारतीय राजनीति में इसका प्रचलित अर्थ है मुसलमान। मुसलमानों के लिए सभी पार्टियों में अलग प्रकोष्ठ होते हैं। देश में 13.4 फीसदी आबादी की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमान वास्तविक अल्पसंख्यक नहीं हैं, वोटों की संख्या की दृष्टि से तो कतई नहीं। अगर मुसलमान अल्पसंख्यक हैं तो बहुसंख्यक कौन है? कोई कह सकता है कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। तो फिर हिंदुओं के लिए दलित प्रकोष्ठ और ओबीसी प्रकोष्ठ क्यों हैं? लोकतंत्र में यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि बहुसंख्यक कौन है। यही कारण है कि मुसलमानों का पसमांदा (शूद्र) तबका तथा दलित, बहुजन और आदिवासी तथा अन्य वास्तविक अल्पसंख्यक ईसाई (2.3 प्रतिशत) और बौद्ध (0.8 प्रतिशत) को मिलाकर जिस ‘बहुजन’की अवधारणा तैयार होती है, उसे तोडने के लिए भारत का प्रभु वर्ग इस प्रकार की तिकडमें राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर अपनाता है।

दूसरी ओर, बहुसंख्यकवाद और समाजिक न्याय एक दूसरे के एकदम विपरीत हैं। इसलिए बहुजनवाद और बहुसंख्यकवाद के बीच के फर्क को भी समझना चाहिए। ‘बहुजन’शब्द बुद्ध के सूत्र वाक्य ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’से आया है। बहुजनवाद का अर्थ हैं, जो अधिकतम लोगों के हित के लिए हो। वर्चस्व स्थापित करने की इच्छुक अल्पसंख्यक शक्तियों के स्वार्थों का निषेध इसमें समाहित है। बहुजनवाद का अर्थ है, सभी फलें, फूलें, खिलें, कोई किसी पर वर्चस्व  स्थापित न करे। जबकि बहुसंख्यकवाद का अर्थ है बहुसंख्यक लोगों का अल्पसंख्यकों पर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व व उनकी संस्कृति का हरण।

हिंदुत्व की राजनीति अपने मूल रूप में यही करने की कोशिश करती है। हालांकि हिंदुस्तान में वास्तव में हिंदुत्ववाद से अधिक मजबूत ब्राह़मणवाद की राजनीति रही है, जो वास्तविक में अल्पसंख्यकवाद है, न कि बहुसंख्यकवाद।

सामाजिक न्याय की अवधारणा को इन दोनों अतियों से हमें बचाना होगा तथा इसे उस अंतिम समुदाय और अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना होगा, जिसे किसी भी कारण से वंचना झेलनी पड़ी है।

आरक्षण निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। यह सामाजिक प्रतिनिधित्व को प्रदर्शित करने के लिए एक आवश्यक उपकरण है। वास्तविकता यह भी है कि राज्य की ओर से भारत के बहुजन तबकों को जो एकमात्र चीज आज तक मिली है, वह ‘आरक्षण’ही है। इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता के केंद्रो में उनकी कोई भागीदारी है ही कहां?

विश्व के सबसे अमीर लोगों की सूची में भारतीयों की संख्या निरंतर बढती जा रही है। इस प्रकार की सूचियां पिछले कई वर्षों से समाचार-माध्यमों की सुर्खियां बन रही हैं। उन खरबपतियों की तो छोडिए, भारत के सबसे अमीर सैंकड़ों लोगों की सूची में भी न कोई ओबीसी है, न कोई दलित, न कोई आदिवासी, न कोई पसमांदा मुसलमान। हो सकता है आपको इस संदर्भ में दलित चैंबर ऑफ कामर्स (डिक्की) से जुडे उद्योगपतियों की याद आए। जाति आधारित प्रताडना के बावजूद सफल हुए उन उद्योगपतियों का हौसला काबिले तारीफ है, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत के जिन अमीर लोगों की सूचियां समय-समय पर जारी होती रहती हैं, उनके सामने डिक्की से जुडे उद्योगपतियों की आर्थिक हैसियत कुछ भी नहीं है। वहां तो वे पहाड़ के नीचे खडे उंट की तरह ही दिखेंगे।

उदाहरण के लिए हम यह विचार करें कि आखिर क्या कारण है कि राजनीतिक रूप से इतनी जीतों के बावजूद आज तक, कम से कम उत्तर भारत में, बहुजन समुदाय के किसी व्यक्ति के पास कोई अखबार या टीवी चैनल नहीं है, जिसे ‘मुख्यधारा’का कहा जा सके? यह एक बडा सवाल है, जिसका सीधा सा उत्तर है कि उत्तर भारत के बहुजन समुदायों के किसी व्यक्ति की आर्थिक हैसियत इतनी नही हैं, जितना उन मुख्यधारा के अखबारों, टीवी चैनलों का मुकाबला करने लायक एक नया अखबार या टीवी चैनल खडा करने के लिए होनी चाहिए। इस संदर्भ में इसका या उसका नाम लेना व्यर्थ की बातें हैं। मीडिया मेनोपॉली के इस समय में एक नये समाचार-माध्यम समूह की स्थापना करना, एक नये साम्राज्य की स्थापना करना है, उसके लिए जितना धन चाहिए, उतना सिर्फ  उन्हीं के पास है, जो भारत के सबसे अमीर 100-150 लोगों की सूची में हैं। और उस सूची में कोई बहुजन नहीं है।

बहरहाल, सामाजिक न्याय का उद्देश्य निश्चित रूप से न तो बहुजन तबकों को नौकरियों तक सीमित रखना है, न अरबपति पैदा करना ही। लेकिन इस मामाले में हमें भारत में ‘बहुजन डायवर्सिटी मिशन’के संस्थापक एचएल दुसाध से सहमत होना होगा कि सत्ता के सभी केंद्रो और सभी प्रकार के संसाधनों के मालिकाना हक में सामाजिक-विविधता ही सामाजिक न्याय का कारगर उपाय है। आरक्षण उस दिशा में चलने के लिए जरूरी आरंभिक कदम भर है। लेकिन आवश्यक यह है कि हम पहली मंजिल पर ही न रूक जाएं बल्कि आगे के रास्तों पर भी नजर रखें।

फारवर्ड प्रेस का यह अंक ‘सामाजिक न्याय’के विभिन्न आयामों पर विमर्श की दिशा में एक शुरूआत है। अगले अंकों में भी हम इस विषय पर और सामग्री प्रकाशित करेंगे तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा को और विस्तार देने की कोशिश करेंगे।

 

 (फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

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