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असुर : जीवन से मरण तक

असुरों को सिन्धु-सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में जाना जाता है। मानवविज्ञानी एससी राय ने इन्हें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से सम्बंधित बताया है तथा इन्हें ताम्र-कांस्य और लौह-युग का यात्री माना है। असुर शब्द का उल्लेख ऋग्वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों में हुआ है

12273650_542224119276442_5140908479540868618_oझारखण्ड के अत्यंत प्राचीन एवं अल्पसंख्यक आदिवासी समुदायों में से एक हैं असुर, वे समुद्र तल से करीब 3500 फीट की उंचाई पर छोटानागपुर के पठारों में मुख्यतया गुमला, लोहरदगा, पलामू जिले तथा विशेष रूप से बिशुनपुर, महुआ डांड की घाटियों में बसे हुए हैं। छोटानागपुर क्षेत्र में चर्चित मानव विज्ञानी एस. सी. रॉय ने अनेक गाँवों में ‘प्राचीन ईंट की इमारतों, पत्थरों से बने मंदिर, अन्य इमारतें और कब्र के बड़े पत्थरों के स्तंभ’ की खोज की है। वे स्थानीय स्तर पर असुर नाम के प्राचीन लोगों से सम्बंधित हैं। लोहा गलने के निशान, तांबे के गहने, पत्थर के औजार आदि कुछ खुदाईयों में पाए गए हैं। यह माना जाता है कि गुमला जिले के डुमरी ब्लाक में टांगीनाथ में स्थित विशाल ज़ंग रहित त्रिशूल, असुरों के कई महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। इनकी कुछ आबादी झारखण्ड के अतिरिक्त उड़ीसा तथा मध्य-भारत राज्यों में भी फैली हुई है। असुरों को सिन्धु-सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में जाना जाता है। राय ने इन्हें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से सम्बंधित बताया है तथा इन्हें ताम्र-कांस्य और लौह-युग का यात्री माना है। असुर शब्द का उल्लेख ऋग्वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों में हुआ है। इनकी भाषा असुरी है, जो मुंडारी भाषा परिवार के अन्तर्गत आती है।

असुर अपने गाँवों को ऊँचे पठारों पर बसाना पसंद करते हैं। उनके गाँव लगभग 30 परिवारों के होते हैं, और वे खुद को अन्यों से दूर रखना पसंद करते हैं। वे मिट्टी की दीवार, झुकी हुई छतों के निर्माण के लिए भिन्न प्रकार के लकडिय़ों का उपयोग करते हैं। महलियन के छाल का उपयोग छप्पर बाँधने के लिए किया जाता है।

बच्चे और युवा

युवागृह (बैचलर हाउस-घोटूल) को ‘गीटीओरा’ के नाम से जाना जाता है। आखरा (नृत्य स्थल) गाँव के बीच होता है। घरेलू सामानों में खाना पकाने के बर्तन, चटाई, कृषि और शिकार के उपकरण और दैनिक उपयोग के लिए औज़ार प्रमुख हैं। उनके पास एक विशिष्ट छतरी ‘गुन्गु’ मिलती है और लकड़ी के पात्र तथा बैठने के लिए पीठा बनाने में वे माहिर होते हैं। वे खजूर के पत्तों से चटाई भी बुनते हैं।

असुरों की तीन उप-जनजातियां होती हैं- ‘बीर असुर’, ‘बिरजिया असुर’ और ‘अगारिया असुर’। बीर शब्द असुरी भाषा में ‘वन’ को संबोधित करता है, और इसका और एक अर्थ है ‘शक्तिशाली वन वासी’। असुरों में कई गोत्र ‘अइंद (मछली), ‘टोप्पो’ (चिडिय़ा), ‘दारोठे’ (मेढक का डिंभकीट), ‘खुसार’ (उल्लू), ‘केरकिटिया’ (केरकिटिया), ‘महतो रोठे’ (दादुर-बड़ा मेढ़क), ‘सिन्दुरिया रोठे’ (जमीन पर रहने वाली मेढ़क जिसके पीठ पर लकीर होते हैं) ‘छोटे अइंद’ (छोटी मछली), ‘छोटे टोप्पो’ (छोटी चिडय़िा), ‘छोटे केरकिटिया’ (एक प्रकार का चिडिया), ‘कोयबरवा’ (जंगली जानवर जिसके मुख पर काला धाग होता है) होते हैं और ये विजातीय विवाह करते हैं। जिस वस्तु या प्राणी विशेष से गोत्र के नाम दिए जाते हैं, उनसे वह समूह दूरी रखते हैं। ऐसा माना जाता है कि इसका उल्लंघन किये जाने पर वे दुर्भाग्यशाली हो जायेंगे। कुल/गोत्र के बाद परिवार सबसे महत्वपूर्ण सामजिक इकाई है। असुर पितृ-वंशीय हैं और यहाँ एकल, संयुक्त और विस्तृत परिवार मिलते हैं।

इस समुदाय में बच्चे परिवार के बीच पलते हैं। जब बच्चा माँ के बिना रहने में सक्षम हो जाता है तब वह युवागृह में प्रवेश करता है और विवाह होने तक अविवाहित लड़के, लड़कियों के साथ रहता है। युवागृह में लड़के लड़कियाँ खाना पकाने, घरेलू गतिविधियों को संभालने में प्रशिक्षित होते हैं। यहाँ उनसे एक अच्छे  नर्तक, वादक और गीतकार बनने के साथ-साथ एक अच्छा शिकारी बनने की उम्मीद भी की जाती है।

परिवार में बच्चे के जन्म के पांच दिनों तक मां को दूषित माना जाता है। छठे दिन में माँ स्नान करती है। बच्चे का औपचारिक मुंडन होता है। अगर पिछले संतान की मृत्यु हुई हो तो नवजात बच्चे को एक पल के लिए गोबर के ढेर पर कुछ समय के लिए सुला दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि, बच्चा पहले ही मर चुका है । उसके बाद रिश्तेदार उसे लेकर माँ के हवाले कर देते हैं।

विवाह-मृत्यु

is their traditional music instruments..which is essential to carry in marriage.असुरों में वधु मूल्य का प्रचलन होता है और इसमें सुअर एक आवश्यक वस्तु होती है। इसके अलावा, नकदी और कपड़े भी इसमें शामिल होते हैं। कभी-कभी विवाह से पहले ही दंपती को संतान हो जाती है , लेकिन इसे कलंक नहीं माना जाता।

असुरों में विवाह के कई रूप होते हैं, जैसे- सेवा विवाह, पलायन विवाह और बलपूर्वक विवाह। इनमें ‘घर जमाई’ और बहनों का आदान-प्रदान भी किया जाता है। पति या पत्नी एक दूसरे के साथ रहना नहीं चाहते तो तलाक की मांग करने का अधिकार दोनों को होता है। निस्संतान दंपती आम तौर पर लड़के को गोद लेते हैं।

मृत्यूपरांत  शव को दफ नाया जाता है। इनके तीन प्रकार के श्मशान होते हैं। एक है नवजात शिशुओं के लिये- अन्न ग्रहण करने से पहले जिन बच्चों की मृत्यु हो जाती है उनके लिये अलग श्मशान होता है। असामयिक मृतकों का श्मशान- जिन लोगों की मृत्यु समय से पहले अर्थात् आत्महत्या, दुर्घटना आदि से होती है उनके लिये अलग श्मशान होते हैं। इस प्रकार की मृत्यु प्राप्त लोगों को बुरी आत्माओं की श्रेणी में गिना जाता है। इन्हें दफनाने के लिए  केवल पुरुष ही जाते हैं। तीसरा स्वाभाविक मृतकों की श्मशान- जिनकी सहज मृत्यु होती है, उनके लिये अलग श्मशान होता है। इनकी आत्माएँ अच्छी मानी जाती हैं और इन्हें पूजा जाता है। इनकी यह धारणा है कि वे हर समय, हर जगह पर लोगों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन्हें परम्परागत रीति-रिवाज, अनुष्ठानों के साथ दफनाया जाता है।

मृत्युपरांत लाश को ज़मीन पर चटाई बिछाकर सुलाते हैं। बगल में पानी से भरा हुआ काँसे के लोटे को रखते हैं। जो भी मृतक को देखने के लिये आते हैं, वे अपने बाँये हाथ से लोटा लेकर मृतक के मुंह में थोडा पानी डालते हैं – यह विदाई की रस्म है। बगल में उपलब्धता के अनुसार बाँस व सकुआ के लकड़ी से अरथी तैयार की जाती है। यदि मृतक खेती-बाड़ी कर रहा हो तो उसके नाम पर घर में उपलब्ध विविध प्रकार के थोड़े-थोड़े अनाज, उसके हल से छोटा सा टुकड़ा फाल निकाल कर मृतक के साथ श्मशान ले जाते हैं। अरथी उठने के बाद घर को गोबर से लीपकर राख छिड़कते हैं और घर को ताला लगाते हैं,  ताकि कोई अंदर न जा सकें। मृतक को दफनाने से पहले पुआल जलाकर तीन बार गड्ढे  की परिक्रमा की जाती है और जलते हुए पुआल को गड्ढे में डालते हैं। इस प्रक्रिया को ‘सेंगेल सुकुल देखाऊ’ कहते हैं। मृतक के सिर को उत्तरी दिशा में रखते हैं और मृतक के कपड़ों के साथ-साथ उसके नाम पर लाये गये अनाज, फाल, हल के टुकड़े को गड्ढे में डालकर दफनाते हैं, ताकि वह अपनी दुनिया में जाकर खेती करे। लाश को दफ नाने के बाद स्मृति चिन्ह के रूप में पत्थर खड़ा करते हैं। इसके बाद जो लोग श्मशान आये हुए हैं, वे अपने अपने घरों में जितने सदस्य हैं उतने गिट्टी चुन लेते हैं। बैगा श्मशान में ही एक छोटा सा गड्ढा, खोदता है, और छोटी सी अरथी बनाकर उससे अण्डे को बांधता है। दो लोग उस अंडे की अरथी अपने -अपने कन्धों पर उठाकर गड्ढे को भरते हैं, और वहाँ जाकर गिरा देते हैं। अण्डा फूट जाता है। बैगा अरवा चावल लेकर गड्ढे में फेंकते हुए मृतक के नाम पर मंत्र पढ़ता है और कहता है ‘आज के बाद तुम्हारी दुनिया अलग हो गई है, किसी को डराना नहीं, तुम लोगों की रक्षा करना’ और इसके बाद बैगा पहली गिट्टी को गड्ढे में डालते हुए कहता है- ”ने तिसिङआम के पैसा एमा:दीमी जामाकू आला नूमूरे, आम भीतर पुर रे किरिङ जोमेमे आलुम नुमु बाड़ा केले आलेके आलुम बोरो बाड़ा चिके (आज तुम्हें गाँव के पूरे परिवारों की ओर से पैसे दे रहे हैं (गिट्टी को पैसा माना जाता है) तुम अपनी दुनिया में इन पैसों का उपयोग करो, तुम हमारा नाम मत लेना और हमें डर, भय नहीं दिखाना)’’ इस प्रकार बैगा के बाद सारे लोग एक के बाद एक चुने हुए गिट्टी को गड्ढे में डालते हैं। इस रस्म को ‘घूटी लेखा खाऊँ’ कहते हैं।

दफनाने के बाद महिलायें और पुरुष नदी में अलग अलग स्थानों पर नहाने के लिये चले जाते हैं। मृत्यु के कारणों को जानने की प्रक्रिया प्रचलन में है। वे तेल को बहते हुए पानी में डालते हैं। यदि तेल बिना बुलबुले उडाये पानी के साथ बह जाता है तो माना जाता है कि उस व्यक्ति की आयु यहीं तक थी। यदि बुलबुले उठते हैं तो माना जाता है कि उसे कोई आंतरिक रोग था, जिसे पहचानने में देर हुई और उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार मृत्यु के कारणों को घर लौटने के बाद भी देखा जाता है। बंद किये गये घर को खोलकर देखा जाता है कि राख पर कोई निशान है या नहीं। बिल्ली के पाँव की छाप हो तो माना जाता है कि मृत्यु जादू-टोने से हुई। इसी प्रकार रस्सी का चिह्न हो तो- माना जाता है कि मृतक के रिश्तेदारों में किसी ने प्रेम किया और अपने घर वालों को बिना बताये घर में लाकर रख लिया है। आम तौर पर ऐसा होने पर बैल की बली दी जाती है, किसी के घर में यह घटित हुआ और बली नहीं दी गई और उसका प्रभाव मृतक पर पड़ा, जिससे इसकी मृत्यु हो गई। इसी प्रकार कई चिन्हों के कई अर्थ निकलते हैं। मृतक की छाया को वापस बुलाने ‘उम्बेर अडेर’ की रस्म होती है। मृत्यु की दावत ‘कमान’ को मौत के 8-15 दिनों के बाद आयोजित किया जाता है। मृत्यु भोज पर, एक छोटे मचान पर  बिछाये छप्पर के घास और मृतक के  कुछ कपड़ों को आग में डालकर जलाते हैं।

आजीविका

असुर पारंपरिक रूप से लोहा गलाने का काम करते हैं और कृषि भी करते हैं। लोहा गलाने के लिए साल की लकड़ी से बने अच्छे गुणवत्ता वालेdownload कोयले की आवश्यकता होती है। नेतरहाट क्षेत्र में विशेष रूप से और सामान्यत: छोटानागपुर पठार में  लौह – खनिज के चट्टान प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। वे इन्ही चट्टानों को गलाकर लोहा निकालते थे और उस लोहे से कृषि करने उपकरण बनाते थे।

असुर सिंग बोंगा में विश्वास रखते हैं, जोकि उनके सबसे प्रमुख देवता हैं। इसी तरह मरंग बोंगा और अन्य बोंगा भी देव समुदाय में गिने जाते हैं। ‘सोहराई’, ‘सरहुल’, ‘फागुड़’, ‘नवाखानी’, ‘काठडेली’ और ‘सरही कुटासी’ इनके महत्वपूर्ण त्यौहार हैं। ‘सरही कुटासी’ त्योहार लोहा गलाने के उद्योग की समृद्धि के लिए मनाया जाता है। वे पूर्वज, जादू-टोना में विश्वास रखते हैं और समस्याओं में बैगा से परामर्श करते हैं।

असुरों का एक पंचायत ‘ग्राम परिषद’ होता है, जिसके पदाधिकारी ‘महतो’, ‘बैगा-धार्मिक प्रमुख’, ‘पुजार’, ‘गोरैत’ आदि होते हैं। जब कभी भी रिवाज़ या प्रथा का उल्लंघन होता है,महतो, गोरैत को  पूरे  समुदाय को गाँव के आखरा में एक समय पर इकठ्ठा होने के लिए सूचित करने को कहता है। दोषी को जुमार्ना भरना होता है, और यदि मामला गंभीर हो तो व्यक्ति को समाज से बहिष्कृत भी किया जाता है।

असुर अब मुख्य रूप से किसान हैं, लेकिन अभी भी शिकार करते हैं और जड़ी-बूटी, फल और फूलों का संग्रह करते हैं। प्रमुख रूप से बाजरा, मक्का, धान, दलहन और विभिन्न प्रकार की फल्लियाँ उगाते हैं। वे कपास की खेती भी करते हैं। असुर समय के अनुसार असम के चाय बागानों और अंडमान द्वीप समूह में भी पलायन करते हैं। आज यह आदिम जनजाति भयंकर गरीबी से पीडित है तथा सरकार और समाज की उपेक्षा झेल रही है।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

सुरेश जगन्नाथम

डॉ. सुरेश जगन्नाथम आदिवासी मामलों के अध्येता व स्वतंत्र लेखक हैं जिनकी विशेष रुचि आदिवासी मौखिक साहित्य के संकलन और दस्तावेजीकरण में है। इन्होंने हैदराबाद विश्वविद्यालय, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय सहित अनेक संस्थानाओं में अध्यापन किया है। इसके अलावा इन्होंने आईसीएसएसआर द्वारा सहायता प्राप्‍त शोध परियोजना के तहत दक्षिण, मध्य, पूर्वोत्तर भारत तथा अंडमान के आदिम आदिवासियों के मौखिक साहित्य के संग्रह पर विशेष अध्ययन किया है।

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