पश्चिम बंगाल की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 27.01 है जबकि राज्य के गरीबों में उनकी हिस्सेदारी इससे कहीं अधिक है। पश्चिम बंगाल के 80 फीसदी मुस्लिम परिवार पांच हजार रुपए या इससे भी कम की मासिक आमदनी में जीने को विवश है. 38.3 फीसदी परिवार 2,500 रुपए या इससे भी कम आमदनी में अपनी जि़न्दगी बसर कर रहे हैं।
‘लिविंग रियालिटी: मुस्लिमस इन वेस्ट बंगाल’ (पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के जीवन की सच्चाई) शीर्षक से हालिया जारी रिपोर्ट से पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की दुर्दशा सामने आयी है। 14 फरवरी को कोलकाता के गोर्की सदन में इस रिपोर्ट को जारी किये जाने के मौके पर अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन भी मौजूद थे। प्रोफ सर सेन ने मीडिया को बताया कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार आने के बाद से मुसलमानों की स्थिति में थोड़ा सुधार जरूर आया है लेकिन यह उत्साहित करने वाला नहीं है।
भारतीय मीडिया में बहुत कम चर्चित इस रिपोर्ट में राज्य में मुस्लिम समुदाय के शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को विशेष महत्व दिया गया है। 368 पृष्ठों वाली यह रिपोर्ट, कोलकाता के दो अनुसंधान संस्थानों , ‘एसोसिएशन स्नेप’ और ‘गाइडेन्स गिल्ड’ ने प्रोफेसर सेन के ‘प्रतिचि इंडिया ट्रस्ट’ के साथ मिलकर तैयार की है।
सीपीएम और वर्तमान सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस यह दावा करते नहीं थकतीं कि उनके शासनकाल में मुसलमानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार सीपीएम की तुलना में तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में मुसलमानों की स्थिति में मामूली सा सुधार दर्ज किया गया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजग़ार की दृष्टि से मुसलमान पहले से कुछ बेहतर स्थिति में हैं। परन्तु फिर भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। मसलन, बंगाल में मुसलमानों की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से 7 फीसदी कम है।
रिपोर्ट बताती है कि अपनी पढ़ाई बीच में छोडऩे वाले लगभग 5 फीसदी मुसलमानों ने बताया कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें पढ़ाई का महत्व बताने वाला, पढऩे के लिए प्रेरित करने वाला कोई नहीं था। और इसलिए उन्हें लगा कि पढ़ाई से उन्हें कोई लाभ नहीं होगा।
पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से मुसलमानों की हालत दयनीय है। इस मामले में सरकारों द्वारा भेदभाव किये जाने के स्पष्ट प्रमाण हैं। इस नतीजे पर रिपोर्ट आधिकारिक आंकड़ों और सर्वेक्षणों के आधार पहुंची है। विभिन्न क्षेत्रों में अस्पतालों की संख्याए मुस्लिम आबादी के व्युत्क्रमानुपातिक है। जिन क्षेत्रों में 15 प्रतिशत से कम मुस्लिम आबादी है, वहां अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या औसत से दो गुनी है। जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी पचास फीसदी से अधिक है, वहां बिस्तरों की संख्या औसत से आधी है।
गौरतलब है कि रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य में मुसलमानों के साथ पश्चिम बंगाल में हो रहे भेदभाव से रिपोर्ट परिचित जरूर कराती है लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी का नाम लेने से बचती है। रिपोर्ट यह तो कहती है कि भेदभाव का अपराध हुआ है लेकिन यह अपराध किसने किया, नहीं बताती? यह तय करने से रिपोर्टसाफ बचती हुई नजर आती है कि इस स्थिति के लिए कौन-सा राजनैतिक दल जि़म्मेदार है। रिपोर्ट किसी सरकारी संस्थान को भी कटघरे में खड़ा नहीं करती।
पश्चिम बंगाल में मुसलमान दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय हैं। कई विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतों के जरा से हेरफेर से चुनाव का नतीजा बदल सकता है। यह जानते हुए भी तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों ने मुस्लिम मतदाताओं के साथ इस तरह का भेदभावपूर्ण व्यवहार क्यों किया होगा? संभवत: इसलिए क्योंकि ये दोनों पार्टियां सोचती हैं कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के पास तीसरा विकल्प नहीं है। वे तुणमूल कांग्रेस और वाम मोर्चे को छोड़कर कहाँ जायेंगें?
यदि ये पार्टियां ऐसा सोच रहीं हैं तो भारी भल कर रहीं हैं। यह रिपोर्ट चुनाव के मौसम में जारी हुई है और इस पर चुनावी रंग नहीं चढ़ेगा, यह संभव नहीं है।
बहरहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक पार्टियां इस रिपोर्ट की क्या व्याख्या करती हैं और इस स्थिति के लिए अपनी जि़म्मेदारी किस हद तक स्वीकार करती हैं?
(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )