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फारवर्ड विचार, अप्रैल 2016

जहां महाराष्ट्र में उन्हें बार-बार यह याद दिलाया जाता था कि वे अछूत हैं, वहीं न्यूयार्क और लंदन में वे अपने अछूत होने का तथ्य आसानी से भुला सकते थे -कम से कम भारत लौटने तक

Ambedkar-and-Phule
फुले और अम्बेडकर

भारत के चुप्पी साधने को मजबूर कर दिए गए बहुजनों को आवाज़ देने के लिए जब 2009 में हमने फारवर्ड प्रेस का प्रकाशन करने का निर्णय लिया तब मेरी यह दिली इच्छा थी कि इसका पहला अंक अप्रैल में निकले। अप्रैल क्यों? क्योंकि अप्रैल ही वह माह है, जिसमें दलितबहुजन उनके दो महानतम आधुनिक नेताओं महात्मा जोतिबा फुले और डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंतियां मनाते हैं। परंतु भारतीय नौकरशाही के कारण यह संभव नहीं पाया। उद्घाटन अंक मई 2009 में आया और आधिकारिक रूप से पंजीकृत पहला, जून 2009 में। परंतु हर वर्ष हम पत्रिका का स्थापना दिवस अप्रैल में ही मनाते आए हैं, विशेषकर 11 व 14 अप्रैल के बीच, जो कि इन दो दलितबहुजन विभूतियों की जयंतियां हैं।

शुरूआत में एफ पी का अप्रैल अंक फुले पर केंद्रित हुआ करता था और दिसंबर, आंबेडकर पर। फिर हमने अप्रैल के अंकों में दोनों पर फोकस करना शुरू कर दिया। इस अप्रैल का एफ पी ऐतिहासिक है। इस वर्ष देश आंबेडकर की 125वीं जयंती मना रहा है। इसके अतिरिक्त, जून के बाद एफ पी अपने नए अवतारों-वेब और पुस्तकों-में जारी रहेगी। इसलिए कम से कम निकट भविष्य में यह एफ पी का आंबेडकर पर केंद्रित आखिरी अप्रैल विशेषांक है।

फुले और आंबेडकर दोनों सहमत थे कि आधुनिक भारत में दलितबहुजनों की मुक्ति के लिए शहर एक उपयुक्त स्थान है। फुले यह बात अपने परिवार के पिछली तीन पीढिय़ों के अनुभव से समझते थे। पुणे में ही माली जाति के उनके दादा और पिता, पेशवाओं के फूल प्रदायक (फुले) बने। इस प्रकार वे सब्जी उगाने वाले किसानों से लघु उद्यमी बन गए। फुले भी अंतत: व्यवसाय की दुनिया में आए और उन्होंने इमारतों के निर्माण और मरम्मत के ठेके लेने शुरू कर दिए। आंबेडकर को भी यह अहसास था कि ग्रामीण महाराष्ट्र-जहां उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा ली थी-और न्यूयार्क व लंदन जैसे शहरों में विद्यार्थी के रूप में उनके अनुभव में कितना फर्क था। जहां महाराष्ट्र में उन्हें बार-बार यह याद दिलाया जाता था कि वे अछूत हैं, वहीं न्यूयार्क और लंदन में वे अपने अछूत होने का तथ्य आसानी से भुला सकते थे -कम से कम भारत लौटने तक। हमारी इस माह की आवरणकथा में संजय जोठे, आंबेडकर की शहरों व दलितबहुजनों के संबंध में सोच का वर्णन कर रहे हैं। उनका कहना है कि दलितबहुजनों पर शहरीकरण के असर को समझने के लिए मार्क्सवादी दर्शन पर्याप्त नहीं है। केवल फुले-आंबेडकर परिप्रेक्ष्य ही उन्हें दिशा दिखा सकता है और आशा भी। परंतु अब तक उपलब्ध प्रमाणों से ऐसा लगता है कि शहरों में भी दलितबहुजनों के वे स्वप्न पूरे नहीं हो रहे हैं, जो फुले-आंबेडकर ने उनके लिए देखे थे।

हम हमारे नियमित लेखक अनिरूद्ध देशपांडे का पुन: स्वागत करते हैं जो आंबेडकर की एक आधुनिक इतिहासविद के रूप में कार्यपद्धति और निष्कर्षों का वर्णन कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आंबेडकर अपने समय से बहुत आगे थे। वे आंबेडकर को ”एक ऐसा मिथक विरोधी इतिहासविद बताते हैं जिसने भारत में इतिहास के विखंडन के कार्य की शुरूआत की’’। यह इस तथ्य के बावजूद कि वे मूलत: आधुनिकतावादी थे। यह बात सन 2011 में मेरे द्वारा ‘महिषासुर व मैकाले: उत्तरआधुनिकता की सीमाएं’ विषय पर दिए गए व्याख्यान से मेल खाती है, जिसमें मैंने कहा था कि विखंडन के उत्तर-आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए भी दलितबहुजनों को फुले और आंबेडकर की तरह आधुनिकतावादी होना चाहिए और इतिहास के एक ऐसे संस्करण को स्वीकार करना चाहिए जो उन्हें आगे की तरफ  ले जाएं।

फारवर्ड प्रेस का यह प्रस्ताव है कि अप्रैल 2017 से फुले व आंबेडकर जयंतियों के आस-पास हम दलितबहुजन सप्ताह मनाएं और अंतत: अप्रैल, दलितबहुजन माह हो सकता है।

जिस समय वामपंथी और दक्षिणपंथी-दोनों ही ताकतें आंबेडकर पर अपना ठप्पा लगाने का प्रयास कर रही हैं दलितबहुजनों को अपने इन दोनों प्रकाशस्तम्भों की असली विचारधारा को समझना होगा क्योंकि वे ही हमें मुक्ति की राह दिखा सकते हैं।

21 मार्चको प्रधानमंत्री मोदी ने छठवें डॉ. आंबेडकर स्मृति व्याख्यान देने के लिए जाते वक्त ”भारत माता की जय’’ के नारों का जवाब ”जय भीम’’ से दिया। हम इस अप्रैल, हर अप्रैल और हर मौके पर ”जय जोति, जय भीम से जवाब दें क्योंकि ”हम भारत के लोग’’ ही इस राष्ट्र को बनाते  हैं।

अगले माह तक…, सत्य में आपका

 

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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