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होलिका : वीरांगना का दहन मंजूर नहीं

ब्राह्मणवादी मिथकों के पुनर्पाठ और लोकमिथकों के समन्वय से आयोजकों ने 'होलिका दहन’ का अपना आख्यान भी पेश किया है। यह आख्यान, ब्राह्मण ग्रंथों के विपरीत, दावा करता है कि हिरन्यकश्यप सामानता का आग्रही और बहुजन संस्कृंति का संरक्षक राजा था

क्यों मनायें हम अपने ही लोगों की ह्त्या का जश्न? होलिका मेरी ही तरह बहुजन थी, मूलनिवासी थी। वह असुर कन्या थी, जिसे वैष्णव आर्यो ने मारा, जि़ंदा जला दिया, फिर हम उसे जलाये जाने का जश्न हर वर्ष क्यों मनायें?’, यह कहना है औरंगाबाद (बिहार) की शिक्षिका बेबी सिन्हा का। बेबी सिन्हा ‘वीरांगना होलिका शाहदत दिवस’ में शामिल होने आईं थीं। वे स्त्रियों को संगठित कर होलिका दहन के खिलाफ  मुहिम चलाना चाहती है।’

गत 20 मार्च को बिहार के औरंगाबाद शहर के सम्राट अशोक विजय चौक स्थित महाराजा सयाजीराव गायकवाड सभागार में राष्ट्रीय मूलनिवासी बुद्धिजीवी संघ की ओर से होलिक शहादत दिवस मनाया गया। भले ही मुख्यंधारा के मीडिया को इसकी खबर न हो और न ही जनता के कथित माध्यम ‘सोशल मीडिया’ पर इसकी चर्चा हुई हो, लेकिन इस आयोजन का यह लगतार पांचवा साल है। पिछले आयेाजनों में अच्छी संख्या में लोग जुटे थे। इस साल भी, जब भाजपा सरकार और आरएसएस द्वारा वैकल्पिक आवाजों को दबाने की मुहिम चल रही है, तब भी न सिर्फ यह आयोजन किया गया वरन अच्छी संख्या में लोग भी जुटे। इस अवसर पर हुई परिचर्चा के पूर्व पञ्चशील एवं आष्टांगिक मार्ग का पाठ हुआ।

दरअसल, होलिका शहादत दिवस का आयोजन उन आयोजनों में से एक है, जो देश भर में गैर-ब्राह्मण जातियां और जनजातीय समूह, ब्राह्मणवादी संस्कृति का विरोध करने और अपनी संस्कृति की खोज और स्थापना के लिए कर रहे हैं। गौरतलब है कि पिछले महीने संसद के बजट सत्र में दोनों सदनों में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल में हुए ऐसे ही एक आयोजन ‘महिषासुर शहादत दिवस’ पर  काफी हंगामेदार हमला किया था तथा इस तरह के आयोजनों को देशद्रोह की श्रेणी में ला खड़ा  किया था। ईरानी की इस कवायद का न सिर्फ  बुद्धिजीवियों की ओर से विरोध किया गया था बल्कि अखबारों में प्रकाशित विभिन्न रिपोर्टो के अनुसार, खुद भाजपा के ओबीसी, दलित व आदिवासी सांसदों ने भी इस पर पार्टी नेतृत्व के सम्मुख अपनी आपत्ति जतायी थी, जिसके बाद ईरानी को इस मामले में नर्म होना पड़ा था। दरअसल, इस तरह के आयोजन पिछले आधे दशक में भारत के उत्पीडि़त बहुजनों की अवचेतन स्मृतियों के उद्गार बनकर उभरे हैं। किसी भी बड़े राजनीतिक दल के लिए बहुसंख्य्कों की इन भावनाओं को अपमानित कर सत्ता में आना कठिन होगा। यही कारण है कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा और एक ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक संगठन के रूप में उसके पैतृक संगठन आरएसएस के बीच इसे लेकर रस्साकशी चल रही है।

बहरहाल, 20 मार्च को उपरोक्त ‘वीरांगना होलिका शहादत दिवस’ के अवसर पर ‘मूल निवासी संस्कृति : पर्व एवं पूर्वज’ विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गई। वक्ताओं ने कहा कि ‘मूलनिवासियों की संस्कृति, उनके पर्वों-त्योहारों का ब्राह्मणीकरण किया गया है।’ इस आयोजन से एक सप्ताह पहले 13 मार्च को ‘वीरांगना होलिका शहादत दिवस’  का आयोजन औरंगाबाद शहर से 15 किलोमीटर दूर होलिका नगर(चिल्ह्की मोड़) अम्बा में भी किया गया था।

20.03.2016......3डा. विजय कुमार त्रिशरण ने इस विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि ‘मूलनिवासी प्रकृति की पूजा करते थे, उनके मौसम व  फसल आधारित पर्व थे। ब्राह्मणवादियों ने होलिका की ह्त्या करके उसे हमारे पर्व पर प्रतिस्थापित कर दिया और अपनी खुशी भी मूलनिवासियों पर प्रतिस्थापित कर दी। इसलिए ‘होलिका दहन’ भी मूलनिवासियों पर थोपा गया पर्व है।’

ब्राह्मणवादी मिथकों के पुनर्पाठ और लोकमिथकों के समन्वय से आयोजकों ने ‘होलिका दहन’ का अपना आख्यान भी पेश किया है। यह आख्यान, ब्राह्मण ग्रंथों के विपरीत, दावा करता है कि हिरन्यकश्यप सामानता का आग्रही और बहुजन संस्कृंति का संरक्षक राजा था। उसके पुत्र प्रह्लाद को आर्यो ने मतिभ्रम उत्पन्न कर अपनी ओर मिला लिया था तथा प्रह्लाद की बुआ हेालिका, जो स्वयं एक विख्यात बहुजन वीरांगना थीं, को धोखे से जिंदा जला दिया था।

‘वीरांगना होलिका’ की शहादत मनाने वाले इन लोगों द्वारा जारी पैम्पलेट, बैनर आदि भी ध्यान खींचते हैं। इनमें महिषासुर समेत  बुद्ध, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, कबीर, रविदास, बिरसा मुंडा, जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, आम्बेडकर, पेरियार, संत गाडगे बाबा, जगदेव प्रसाद व कांशीराम के चित्र रहते हैं, जो विभिन्न बहुजन जातियों के प्रेरणा स्तंभ रहे हैं। वस्तुगत ब्राह्मणवादी सस्कृति से अपने युद्ध में वे उपरोक्त चित्रों का इस्तेमाल यह बताने के लिए कर रहे होते हैं कि कौन-कौन सी जातियां उनके साथ हैं। इसके अतिरिक्त, वे ‘वीरांगना होलिका’ का एक चित्र भी अपने बैनरों, पोस्टरों में प्रकाशित करते हैं, जिसमें उन्हें एक साधारण कृषक परिवार की महिला की तरह दिखाया जाता है।

मिथकों, लोककथाओं व इतिहास के पुनर्पाठ के साथ इन कार्यक्रमों के आयोजकों का मुख्य सरोकार वर्तमान के खतरों को समझना और व्याख्यायित करना भी है। मसलन, उपरोक्त अवसर पर आयोजित परिचर्चा में डा. विजय गोप ने कहा कि औरंगाबाद के मुहल्लों का ब्राह्मणीकरण किया जा रहा है, उनके नाम बदले जा रहे ह। जैसे पीपरडीह को गांधीनगर, दानीबिगहा को सत्येन्द्र नगर बना दिया गया है, कहीं चित्तौडग़ढ़ तो कहीं श्रीकृष्णनगर आदि नाम रखे जा रहे हैं जबकि वहां रहने वाले लोग ज्यादातर मूल निवासी है।

आयोजक एवं कार्यक्रम के अध्यक्ष पेरियार सरयू मेहता के अनुसार ‘हमेशा की तरह ब्राह्मणीकरण आज भी जारी है। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए मठों की स्थापना की गई थी, जिन्हें विहार  कहा जाता था। आज बिहार के मठों में ढेली बाबा, तेली बाबा बैठाकर पूजा अर्चना की जा रही है। इस तरह ब्राह्मणीकरण हो रहा है। औरंगाबाद के 60 किलोमीटर के दायरे पर गौर करें तो दिखता है कि ‘उमगा, देव, पतलगंगा, किशुनपुर, परता, डेमा, सिकरिया, सरैया, धुन्धुआ आदि मठों की हजारों एकड़ जमीन का लाभ ब्राह्मण उठा रहे है। इन मठों पर उनका कब्जा है।’ ब्राह्मणीकरण के इसी खतरे को भांपते हुए इस इलाके के बहुजन चेतना से सम्पन्न इन लोगों ने अपने तईं नामकरण भी किये है। इसी प्रयास के तहत महिषासुर चौक, होलिकानगर, सयाजीराव गायकवाड सभागार जैसे नामकरण भी किये जा रहे हैं तथा इन्हें सरकारी मान्यता दिलाने के लिए ये लोग संघर्ष कर रहे हैं।’

‘होलिका शहादत दिवस’ से संबद्ध समाजसेवी सरयू मेहता बताते हैं कि ‘यहाँ औरंगाबाद में हम लोग ‘कृष्ण शहादत दिवस’ भी मनाते है। वेदों में कृष्ण को असुर बताया गया है। उन्हें आर्यो के राजा इंद्र ने धोखे से मारा। आर्यो के राजा इंद्र से कृष्ण का युद्ध भी हुआ था। युद्ध में हारने के बाद इंद्र ने यमुना नदी का बाँध कटवा दिया था, जिससे आई बाढ़ से बचने के लिए कृष्ण को अपनी बस्ती के लोगों के साथ गोवर्धन पर्वत पर जाना पड़ गया था। ‘कृष्ण के पोते अनिरुद्ध का विवाह भी वाणासुर की पुत्री उषा से हुआ था, इससे भी सिद्ध होता है कि कृष्ण असुर थे।’ वे दावा करते हैं कि ‘होलिका भी बहुजन वीरांगना थीं। यही कारण है कि इस आयोजन में यादव, कुशवाहा, कुर्मी, रविदास, चंद्रवंशी, बैठा आदि समेत 13.03.06लगभग सभी दलित-ओबीसी जातियों के महिला-पुरूष बड़ी संख्या में शिरकत करते हैं।’ शिक्षिका उषा यादव कहती हैं, ‘सारे हिन्दू पर्वो में बहुजन मूलनिवासी नायकों की हत्या का जश्न जोड़ दिया गया है। यह हमारे पर्वो पर ब्राह्मण-वैष्णव प्रहार के कारण हुआ है। हम सब अब चेतना सम्पन्न हो रहे हैं। वीरांगना होलिका का दहन न हम करते हैं और न किये जाने के पक्ष में हैं।’ वे यह भी दावा करती हैं कि यह सिर्फ  बहुजनों की सांस्कृतिक आजादी का ही नहीं बल्कि स्त्रियों को पीटे जाने और जिंदा जलाये जाने से भी आजादी का मामला है। हमें बहुआयामी मार झेलनी पड़ती है इसलिए इसे ‘बहुजन स्त्रीवाद’ की एक कड़ी माना जाना चाहिए।

उषा यादव की ही तर्ज पर आयोजन में अन्य लोगों के पास भी कहने-बताने के लिए इतनी सारी नयी बातें हैं कि अगर सिर्फ उन्हें  ही नोट कर प्रस्तुत कर दिया जाए तो इस उपमहाद्वीप में मीडिया की नजरों से दूर, सतह के नीचे, जो व्याकुल तूफान मचल रहा है, उसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। आरएसएस इसी संभावना से भयभीत है। (फारवर्ड प्रेस के वेब संस्करण व जल्द ही प्रकाशित होने वाली पुस्ताकों में हम इन विषयों पर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करेंगे – संपादक)

उपरोक्त  परिचर्चा में आनंद बैठा (पत्रकार), डा. धीरेन्द्र वर्मा, डा. विजय गोप, धर्मेन्द्र राम (स्कूल शिक्षक), डा. रणजीत वर्मा (होमियोपैथी चिकित्सक), अनिल चन्द्रवंशी, कुलदीप मेहता, कुलदीप प्रजापति, सुरेन्द्र मेहता, बलराम मेहता (विद्यार्थी), जीतेंद्र राम (शिक्षक), रामसूचित पासवान (शिक्षक), फकीरानंद यादव (समाजसेवी), कालीप्रसाद यादव (पूर्व मुखिया), विनोद ठाकुर (वार्ड पार्षद) व शम्भू यादव (समाजसेवी) ने भाग लिया।

(उपेन्द्र कश्यप द्वारा अतिरिक्त रिपोर्टिंग)

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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