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परिप्रेक्ष्य-विहीन संवाद

रोजाना जिस तरह से सामान्यजनों को कई-कई तरह की बातें परोसी जा रही है, उससे अपने नजरिये से सोचना-समझना मुश्किल हो गया है। सूचना क्रांति की यही कोशिश है कि आप केवल सूचनाएं ग्रहण करें

30-x-40_Irfan_Hurdleजवरीमल पारख को लोग बड़ा विद्वान कहते हैं लेकिन वे बिल्कुल सामान्य लोगों की तरह सोचते हैं। पिछले दिनों हमारी संस्था ‘मीडिया स्टडीज ग्रुप’ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होने दो फिल्मों के बारे में बात की। पहली ‘पान सिंह तोमर’, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के उस खिलाड़ी के जीवन के उतार-चढावों को दिखाया गया है। पान सिंह तोमर को जब न्याय नहीं मिला तो उन्होंने बंदूक उठा ली और आखिरकार वे मारे गए। लेकिन जब दर्शक ‘पान सिंह तोमर’ फिल्म देखकर निकलता है तो उसकी सहानुभूति हिंसा पर उतारू पान सिंह तोमर के साथ होती है। दर्शक हिंसा करने के लिए पान सिंह तोमर को कोसता नहीं है बल्कि उसे उचित बताता है। जवरीमल पारख दूसरी फिल्म ‘कहानी’ के बारे में बताते हैं। उसमें विद्या बालन को एक आतंकवादी मिलन दामजी को मारते दिखाया गया है। इस फिल्म में विद्या बालन के साथ दर्शक खड़ा होता है। आखिर मिलनदामजी के साथ वह क्यों नहीं खड़ा होता? दर्शक मिलनदामजी को आतंकवादी मानकर उसकी हत्या को स्वीकार कर लेता है। क्या इन दोनों फिल्मों के अंत में दर्शकों की प्रतिक्रिया एक-सी हो सकती थी, बशर्ते इनकी पटकथा में थोड़ा परिवर्तन कर दिया जाता? ‘कहानी’ में मिलनदामजी के आतंकवादी बनने की पृष्ठभूमि बताई जाती। मिलनदामजी को केवल आतंकवादी मानने की वजह यह है कि उसे केवल एक आतंकवादी बताया गया है और उसके बारे में और कुछ भी नहीं बताया गया है।

जवरीमल पारख द्वारा बतायी गई इन दो फिल्मों की कहानी के जरिये वक्त यह बात करने का है कि जो भी बातें लोगों के सामने पेश की जाती हैं, उनका परिप्रेक्ष्य क्या होता है। सामान्य लोगों का बड़ा हिस्सा उन लोगों की बातों को दोहराता रहता है, जो किसी संवाद का ढांचा खड़ा करते हैं। संवाद का ढांचा फिल्म, पत्रकारिता, कहानी और दूसरे मीडिया के जरिये खड़ा किया जाता है। जिस तरह आर्थिक क्षेत्र के योजनाकार और रणनीतिकार होते हैं उसी तरह, संवाद के क्षेत्र के भी योजनाकार और रणनीतिकार होते हैं। बहुत कम लोग अपने सामने प्रस्तुत होने वाली बातों के हर पहलू पर गौर करते हैं। जो करते हैं, वे विद्वान बन जाते हैं। विद्वान बनने की प्रक्रिया सामान्य बातों पर सोचने, उन्हें समझने, उनका विश्लेषण करने और योजना बनाने से शुरू होती है। यानी समाज को बेहतर बनाने की कल्पना और योजना एक चितंन की मांग करती है।

एक सामान्य व्यक्ति को किसी भी मुद्दे पर सोचने का नजरिया कहां से मिलता है? वह जिस तरह के परिवार और वातावरण में पलता-बढ़ता है, वही उसका नजरिया तय करता है। कोई भी सामान्य व्यक्ति अपने नजरिये में तभी कुछ बदलाव लाने की स्थिति में होता है, जब वह अपने सीमित दायरे से बाहर निकलकर एक बड़े दायरे के अनुभव हासिल करता है। कोई भी व्यक्ति एक नागरिक की परिभाषा में तभी आ सकता है जब वह अपना एक नजरिया विकसित करे। हम अपने आसपास के समाज पर नजर डालें तो हमें कितने जवरीमल पारख दिखाई देते है, जो कि एक बिल्कुल सामान्य-सा सवाल खड़ा करते हैं कि यदि हिंसा गलत है तो पान सिंह तोमर के प्रति सहानुभूति क्यों और मिलनदास के प्रति क्यों नहीं?  समाज का एक छोटा सा वर्ग मीडिया के जरिये एक नजरिये से संवाद का ढांचा विकसित करता है। वह ढांचा एक सिद्दांत की तरह का होता है, जो हर जगह लागू होता है। टेलीविजन आज घर-घर में हैं। टेलीविजन कार्यक्रमों के जरिये जिस तरह के नजरिये को दर्शकों पर लादा जाता है, उसे मनोरंजन कहा जाता है। मनोरंजन भी एक तरह का नजरिया होता है। मनोरंजन के मायने क्या होते हैं? मनोरंजन लोगों को कुंठित नहीं बनाता। मनोरंजन कुछ खास तरह के पहनावे, बोलने, रहने-सहने वाले लोगों को सम्मानित करना और दूसरे तरह के पहनावे-ओढ़ावे वालों के खिलाफ घृणा का नाम हो सकता है। मैं अपनी बेटी के साथ थिएटर की एक प्रशिक्षणशाला में गया था। वहां अन्य बच्चों के kahaani3माता-पिता भी आए थे। सब लोग अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग थे, सभ्य कहे जाने वाले लोग थे, शिक्षित कहे जाने वाले लोग थे। प्रशिक्षक ने कहा कि एक-दूसरे से हाथ मिलाएं और एक-दूसरे के हालचाल पूछें तो लगा कि हम सब कितने कमजोर लोग हैं। हाथ मिलाने में सबको संकोच हो रहा था। हाथ मिलाने की रस्म अदायगी के बाद कहा कि एक दूसरे से नजरें मिलाए और मुस्कुराएं। नजरें मिलाना और एक दूसरे को देखकर मुस्कुराना कितना मुश्किल लग रहा था, इसका अंदाजा कोई भी व्यक्ति अपने आसपास यह प्रयोग दोहराकर लगा सकता है। प्रशिक्षण के पूरे एक महीने तक एक-दूसरे से घुलना-मिलना लगभग असंभव सा बना रहा। कब, किस तरह के मनोरंजन ने अपने आसपास के लोगों के लिए एक दूसरे से नजरें मिलाकर बात करना मुश्किल कर दिया, जरा इस पर सोचकर देखा जाए। दरअसल, सारी बातों को सामान्य तरीके से लेने और उसे व्यावहारिकता कहने की आदत जीवन को मुश्किलों में ला खड़ा करती है। यह जीवन पूरे समाज का होता है। जब समाज का एक बड़ा हिस्सा इस तरह का हो जो एक छोटे-से समूह द्वारा खड़े किए जाने वाले ढांचे को हर तरह से स्वीकार करने की आदत बना ले तो समाज का जीवन मुश्किलों में ही खड़ा दिखाई देगा क्योंकि सोचने-समझने की सामान्य प्रक्रिया से भी हमने मुक्ति पा ली है। सोचने समझने को तनाव की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।

आज हालात ये हो गए हैं कि एक छोटा-सा साधन संपन्न समूह समाज के बड़े हिस्से को जैसा चाहता है वैसा सोचने के लिए बाध्य कर देता है। समाज में जिन्हें सचेत कहा जाता है, वे भी उसी बाध्यता की स्थिति में खुद को खड़ा पाते हैं। रोजाना जिस तरह से सामान्यजनों को कई तरह की बातें परोसी जा रही है, उससे अपने नजरिये से सोचना-समझना मुश्किल हो गया है। सूचना क्रांति की यही कोशिश है कि आप केवल सूचनाएं ग्रहण करें। नजरिया बनाने की फुर्सत न होने की सीमा तक। जवरीमल पारख ने हमें नजरिया दिया, उनका धन्यवाद। हमारे आसपास ढेर सारे जवरीमल हो तो कितना अच्छा होता।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

 

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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