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फिल्मों में नस्लीय हिंसा का अंतहीन सिलसिला

अब तक आदिवासी जीवन व समाज को प्रमुखता से चित्रित करने वाली 100 से अधिक फिल्में भारत में बन चुकीं हैं। इसमें वे फिल्में शामिल नहीं हैं, जिनमें आदिवासी चरित्रों को सिर्फ नाचते-गाते यानि 'झींगा ला-ला हुर्र, हुर्र...’ करते हुए दिखाया गया है

सिनेमा शुरू से ही एक नस्लीय हथियार रहा है, जिसके द्वारा आदिवासियों का सांस्कृतिक संहार आज भी जारी है। दुनियाभर की फिल्मों में आदिवासियों को जंगली, बर्बर, असभ्य और हिंसक बताना तथा आदिवासी औरतों को ‘माल’ की तरह दिखाना-परोसना आम है। चाहे वह 1915 में अमेरिका में बनी ‘द बर्थ ऑफ  ए नेशन’ हो या भारत में 1917 में बनी ‘लंका दहन’, 1936 में बनी ‘इज्जत’ और 1938 में बनी तमिल फिल्म ‘वनराज कर्जन’ या हाल में प्रदर्शित हुई और कुछ राज्यों में प्रतिबंधित कर दी गयी ‘मैसेंजर ऑफ गॉड 2’। सभी में आदिवासियों को ‘शैतान’ और ‘लाचार’ के रूप में चित्रित किया गया है।

‘ब्लैकफेस’ की शुरुआत 1830 के आसपास अमरीकी थिएटर में हुयी। लोकप्रिय चरित्र टार्जन का आविष्कार 1912 में एडगर राइस बर्रो ने किया, जो सिनेमा के पर्दे पर पहली बार 1918 में आया ‘टार्जन ऑफ  द एप्स’ के रूप में। तब से लेकर आज तक टार्जन पर 200 से अधिक फिल्में बन चुकी हैं। टार्जन फिल्मों ने जंगल में रहने वालों को किसी अन्य ग्रह के निवासियों की तरह परोसा, जो दिखते तो इंसान जैसे हैं, मगर इंसान हैं नहीं। ‘जंगल राज’ शब्द इसी सोच से उपजा है। जंगल राज यानी एक ऐसी व्यवस्था जहां कोई व्यवस्था ही नहीं है, जहां लोग अराजक हैं, हिंसक हैं, बर्बर हैं, असभ्य हैं और जहां बलवान कमजोर को मारकर खा जाता है। कला, साहित्य, सिनेमा, मनोरंजन और विज्ञापनों के बाजार में इस जंगल राज को या जंगलीपन को ‘वाइल्डनेस’ के रूप में बेचा जाता है। ‘वाइल्डनेस’ का यहां अर्थ सिर्फ और सिर्फ चरम उत्तेजना है। चरम बर्बरता की हद तक उत्तेजना। टार्जन फिल्में और कंडोम एवं विभिन्न किस्मों के बॉडी स्पे्र के विज्ञापन इसके सबसे बढिय़ा उदाहरण हैं।

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मैसेंजर ऑफ गॉड 2 फिल्म का दृश्य

भारतीय फिल्मों में ‘जंगली’ आदिवासियों पर केन्द्रित पहली फिल्म ‘इज्जत’ 1936 में बनी। इसे फ्रैंज ऑस्टन ने निर्देशित किया और हिमांशु राय ने बॉम्बे टॉकीज के लिए बनाया था। उस समय की स्टार और बोल्ड अभिनेत्री देविका रानी ने इसमें भील आदिवासी युवती और जाने-माने कलाकार अशोक कुमार ने भील युवक की भूमिका निभायी थी। भारत की पहली टार्जन फिल्म भी ‘इज्जत’ के साथ 1937 में आई। होमी वाडिया के निर्देशन में वाडिया मूवीटोन कंपनी ने ‘तूफानी टार्जन’ नाम से यह फिल्म बनायी। यह हिंदी के साथ-साथ तमिल में भी प्रदर्शित हुई थी। इसमें एक आदिवासी चरित्र ‘दादा’ जिसकी भूमिका बोमन श्राफ  ने निभायी थी, को आधा आदमी, आधा वनमानुष बताया गया है। 1937 से 2000 तक भारतीय फिल्मोद्योग ने 22 टाजऱ्न फिल्मों का निर्माण किया है।

अब तक आदिवासी जीवन व समाज को प्रमुखता से चित्रित करने वाली 100 से अधिक फिल्में भारत में बन चुकीं हैं। इसमें वे फिल्में शामिल नहीं हैं, जिनमें आदिवासी चरित्रों को सिर्फ नाचते-गाते यानि ‘झींगा ला-ला हुर्र, हुर्र…’ करते हुए दिखाया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय फिल्मोद्योग और लोकप्रिय संस्कृति का अरबों रुपये का बाजार नस्लीय रंगभेद, जातिगत पूर्वाग्रहों और धार्मिक एवं लैंगिक उत्पीडऩ पर खड़ा है।

हिन्दू सिनेमा के पिता

बहुजातीय संस्कृति वाले भारतीय समाज में एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा का नस्लीय फिल्मी मनोरंजन का बाजार खड़ा करने का काम दादा फाल्के ने किया। सिनेमा और फाल्के के आने के पहले तक मनोरंजन का बाजार पारसी थिएटर और नौटंकी कंपनियां थीं, जिनमें डाकुओं, ऐतिहासिक चरित्रों और ऐय्यारों के किस्से हुआ करते थे। रामलीला और रासलीला जैसी नाट्य परंपराएं मनोरंजन की बजाय विशुद्ध रूप से धार्मिक अवसरों से जुड़ी थीं। फाल्के ने 1917 में ‘लंका दहन’ बना कर धर्म को मनोरंजन के सिनेमाई बाजार में बदलने का काम किया। 1913 में आई ‘हरीशचंद्र तारामति’ के बाद ‘लंका दहन’ उनकी दूसरी फिल्म थी, जिसकी ब्लॉकबस्टर कमाई ने मनोरंजन के बाजार में धार्मिक यानी नस्लीय ट्रेंड को पूरी तरह से स्थापित कर दिया। ‘लंका दहन’ के आठ साल बाद 1925 में 27 सितंबर को भारत के बहुसंख्यकवादी नस्लवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। विजयादशमी के दिन, रावण वध के दिन, अनार्यराक्षसों, असुरों, आदिवासियों के संहार के पारंपरिक वार्षिक उत्सव दशहरा के दिन।

20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका में एक ऐसी फिल्म आई जिसे फिल्मी इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग दुनिया की पहली पूरी लम्बाई की फीचर फिल्म मानता हैै। डी.डब्ल्यू. ग्रिफिथ (1875-1948) की फिल्म ‘द बर्थ ऑफ  ए नेशन’ (1915) नि:संदेह सिनेमा की ताकत और सिनेमाई कला का बेजोड़ नमूना है। पर इस के साथ ही, यह दुनिया की सबसे नस्लीय फिल्म भी है, जिसमें गोरों का महिमामंडन और काले लोगों का स्टीरियोटाइपड, नकारात्मक चित्रण हुआ है। क्या यह महज संयोग है कि ठीक इसी समय भारत में दादा फाल्के ‘लंका दहन’ (1917) बनाते हैं, जो नस्लीय और धार्मिक फिल्म है और जिसमें असुर आदिवासियों की हत्या करने वाले आर्यों का महिमामंडन करते हुए ब्राह्मणवादी मूल्यों का गुणगान किया गया है। वास्तव में दादा फाल्के भारतीय सिनेमा के नहीं हिन्दू सिनेमा के ‘पिता’ हैं। उन्होंने सिर्फ और सिर्फ धार्मिक और मिथकीय फिल्में बनायी और सिनेमा के जरिए हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया। दादा फाल्के ने भारत की साँझा सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासत की अवहेलना ही नहीं की बल्कि अपनी फिल्मों से नस्लीय भेदभाव और हिंसा को भी भरपूर खाद-पानी दिया। उनकी सारी फिल्में देश के मूलनिवासियों, आदिवासियों, राक्षसों और असुरों की हत्याओं का महिमामंडन करती हैं।

सन 1909 में पंजाब में और फिर 1910 में अखिल भारतीय स्तर पर हिंदू महासभा का गठन हुआ। बताया जाता है कि 1909 में मुस्लिम लीग की स्थापना की प्रतिक्रिया में हिंदू महासभा अस्तित्व में आयी। इसके बाद, 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना होती है और आदिवासी इलाके में हमें वनवासी कल्याण आश्रम पहली बार 1952 में दिखाई देते हैं। इसी के आसपास, 1953 में ‘जंगल का जवाहर’ सिनेमाघरों में प्रदर्शित होती है, जिसमें जंगली लोगों की सेवा करने वाले एक डॉक्टर और उसकी बेटी के रोमांचक कारनामों को होमी वाडिया ने ग्लैमरस तरीके से प्रस्तुत किया है। साथ ही 1954 में क्लासिक मानी जानेवाली, ‘प्रगतिशील’ बिजन भट्टाचार्य की कहानी पर आधारित हिंदी फिल्म ‘नागिन’ आती है जिसमें आदिवासियों को ‘जहर बेचनेवाला’ बताया जाता है। ध्यान रहे कि यह वही समय है जब दक्षिण के तेलंगाना, पूरब में तेभागा व (तत्कालीन मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल सहित) ग्रेटर झारखंड और उत्तर-पूर्व के आदिवासी अपने नैसर्गिक अधिकारों व स्वायत्तता की लड़ाई लड़ रहे थे। उसी समय पहले वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना आरएसएस ने सरकार के सहयोग से तत्कालीन मध्यप्रदेश के जशपुर में की थी। विश्व हिंदू परिषद 29 अगस्त, 1964 को अस्तित्व में आयी।

बीसवीं सदी के दूसरे से सातवें दशक तक हिंदू नस्लवादी संगठनों के गठन व उनके सामाजिक और राजनीतिक उभार के पीछे फाल्के की नस्लीय फिल्मी परंपरा की nagin-film-posterभयावह भूमिका है। हिमांशु राय, होमी वाडिया, बिमल राय, सत्यजीत रे, बिजन भट्टाचार्य, ऋ त्विक घटक, सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास और आर नारायण मूर्ति जैसे गंभीर व प्रगतिशील माने जानेवाले फिल्मकार और लेखक नस्लीय परंपरा के इस यथास्थितिवाद को अपनी फिल्मों से बनाये रखते हैं।

2015 तक की 10 भारतीय नस्लवादी फिल्में निम्नांकित हैं, जिनमें आदिवासियों का स्टीरियोटाइपड, नकारात्मक और नस्लीय चित्रण हुआ है –

  1. नागिन (1954) हिंदी
  2. अरण्येर दिनरात्रि (1970) बांग्ला
  3. ये गुलिस्तां हमारा (1972) हिंदी
  4. अल्लुरी सीताराम राजु (1974) तेलुगू
  5. आक्रोश (1980) हिंदी
  6. मैसी साहब (1985) हिंदी
  7. टैंगो चार्ली(2005) हिंदी
  8. ओंगा (2012) उडिय़ा/हिंदी
  9. अरवान (2012) मलयालम/तेलुगू
  10. मैसेंजर ऑफ गॉड 2 (2015) हिंदी

1954 में रिलीज हुई बॉलीवुड की ‘नागिन’ संभवत: उत्तर-पूर्व की झलक दिखलाने वाली पहली पॉपुलर मसाला फि ल्म है। ऐसी ही चार अन्य बॉलीवुड फिल्में हैं – ‘ये गुलिस्तां हमारा’ (1972), ‘दिल से’ (1998), ‘टैंगो चार्ली’ (2005) और ऑस्कर के लिए 2014 में भारत की ओर से नामांकित  ‘लायर्स डाइस’ (2013)। ‘नागिन’ फि ल्म की शुरुआत इन शब्दों के साथ होती है कि ‘यह फिल्म किसी भी मौजूदा या पुरानी जाति के जीवन से संबंध नहीं रखती’। लेकिन फिल्म का पहला ही दृश्य किरदारों की वेशभूषा के जरिए बता देता है कि यह उत्तर-पूर्व के आदिवासियों की कहानी है। फिल्म में दो कबीले बताए गए हैं जो जहर का व्यापार करते हैं और व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता के चलते एक दूसरे के खून के प्यासे हैं। सबसे शोचनीय पक्ष यह है कि फिल्म की कहानी प्रगतिशील वामपंथी नाटककार बिजन भट्टाचार्य ने लिखी है। गैर-आदिवासी चाहे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, वह आदिवासियों के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखता है और उनसे किस हद तक नस्लीय घृणा करता है, इसका सिनेमाई दस्तावेज है ‘नागिन’।

इसी तरह, 1972 में आई देवानंद अभिनीत और आत्माराम निर्देशित ‘ये गुलिस्तां हमारा’ भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर है। इसमें भी उत्तर-पूर्व के आदिवासियों को देश के लिए जहरीला यानी ‘देशद्रोही’ दर्शाया गया है। इसका एक गाना ‘मेरा नाम आओ…’ सीधे-सीधे अरुणाचल प्रदेश के ‘आओ’ आदिवासियों पर केन्द्रित था, जिसे उत्तर-पूर्व के आदिवासियों के विरोध के कारण संपादित करना पड़ा था। ‘टैंगो चार्ली’ (2005) में भी उत्तर-पूर्व के विद्रोही आदिवासियों को इसी तरह से दिखाया गया, जिसे उत्तर-पूर्व में जबरदस्त विरोध के कारण प्रतिबंधित करना पड़ा था।

2014 में भारत की ओर से ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित फिल्म ‘लायर्स डाइस’ हिमाचल की पृष्ठभूमि पर है। इसमें एक पहाडिऩ महिला (जिसका किरदार सिक्किम की एक अभिनेत्री ने निभाया है) अपनी बच्ची के साथ दिल्ली में मजदूरी करने आए और फि र गुम हो गए पति को ढूंढने आती है। उसकी इस तलाश में सेना का एक भगोड़ा सिपाही उसका साथ देता है। मतलब फिल्म बताती है कि सेना ही भारत के आदिवासियों की रक्षक है और यह भी कि सेना का भगोड़ा फौजी भी कितना ‘मानवीय’ होता है। यहां यह याद रखना होगा कि उत्तर-पूर्व के आदिवासी सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को समाप्त करने और अपने इलाके से सेना को हटाने के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

अश्विनी कुमार पंकज

कहानीकार व कवि अश्विनी कुमार पंकज पाक्षिक बहुभाषी आदिवासी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ तथा रंगमंच प्रदशर्नी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंग वार्ता’ के संपादक हैं।

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