आज से कुछ साल पहले फॉरवर्ड प्रेस का एक अंक जब मुझे पहली बार मिला और मैंने उसमें छपे कुछ लेखों को पढ़ा तो उससे बहुत प्रभावित हुआ। इस प्रभाव का एक कारण तो यह था कि उसमें दलितों-बहुजनों के प्रश्नों को उठाया गया था, जिसमें मेरी दिलचस्पी थी। मेरे विचार से डॉ. आंबेडकर के आंदोलन से, संवैधानिक प्रावधानों से और उसके बाद मंडल कमीशन के लागू होने से भारत के सामाजिक ढांचे में लोकतांत्रिक और अहिंसक ढंग से एक क्रांतिकारी बदलाव की प्रक्रिया तेज हो गई, जिससे भारतीय सामाजिक शक्ति-समीकरण में उलट-फेर होना शुरू हो गया। यह एक महत्वपूर्ण क्रांति थी, जो भारतीय समाज में मौन रूप से घट रही थी, अब भी जारी है। इसी सामाजिक संदर्भ में मुझे फॉरवर्ड प्रेस एक महत्वपूर्ण पत्रिका लगती है, जो हिन्दी में निकल रही तमाम पत्रिकाओं से अलग ढंग की है।
लेकिन इससे प्रभावित होने का इससे भी बड़ा एक दूसरा कारण था पत्रिका द्वारा हमारी बहुत सी स्थापित मान्यताओं पर सवाल उठाना, उनकी वैधता को चुनौती देना। पत्रिका में ऐसे लेख छपे थे और अगले अंकों में भी छपते रहे, जिनमें उन धारणाओं और मान्यताओं की वैधता को चुनौती दी गई थी, जिन्हें हम सभी आमतौर पर सहज-स्वाभाविक इतिहास मानकर चलते रहे हैं। इस तरह के लेखों से मुझे एक नई बौद्धिक उत्तेजना महसूस हुई।
पत्रिका में इस तरह के जो लेख छपे उनमें सबसे महत्वपूर्ण लेख प्रेमकुमार मणि का महिषासुर वध के पुनर्पाठ से संबंधित था। इस लेख का मुझपर ही नहीं, औरों पर भी जबरदस्त असर पड़ा। इस लेख ने दुर्गापूजा जैसे आम और व्यापक रूप से मनाए जाने वाले उत्सव पर सवालिया निशान लगा दिया और मेरे जैसे बहुतों को (स्वयं धार्मिक वृत्ति का न होने पर भी) जो अपने बचपन से दुर्गापूजा का उत्सव एक रंग-बिरंगे मेले में घूमने और आनंदित होने के भाव से मनाते आए थे, एक बौद्धिक द्वंद्व और पुनर्विचार की स्थिति में डाल दिया। प्रेमकुमार मणि के इस लेख को मैं हिन्दी के बौद्धिक इतिहास में एक उपलब्धि समझता हूूं। इस लेख के बाद से इस तरह की परम्परागत और स्थापित सांस्कृतिक-पौराणिक मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाना आसान हो गया और सचमुच (कम से कम जेएनयू में) इसका एक आन्दोलन जैसा चल पड़ा। वास्तव में इस लेख ने उन्नीसवीं सदी में महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा पौराणिक हिन्दू कथाओं के पुनर्पाठ की परम्परा को फि र से जीवित कर दिया। मैंने सुना है कि यह लेख प्रेमकुमार मणि द्वारा ही पटने से प्रकाशित पत्रिका जनविकल्प में कई साल पहले छप चुका था। लेकिन तब इसकी ओर लोगों का ध्यान नहीं गया और न इसकी इतनी चर्चा हुई। यह ठीक वैसी ही घटना है जैसे फणीश्वरनाथ रेणु का कालजयी उपन्यास मैला आंचल जब पहली बार पटने से छपा, तब उसकी किसी ने नोटिस नहीं ली, लेकिन जब वह दुबारा राजकमल प्रकाशन से छपा तो हिन्दी साहित्य जगत में चारो ओर उसकी चर्चा होने लगी।
प्रेमकुमार मणि के दूसरे लेख भी मुझे पसंद हैं, जो फॉरवर्ड प्रेस में छपे हैं। जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गोरा उपन्यास के सौ वर्ष पूरे होने पर छपा लेख। फॉरवर्ड प्रेस में छपा एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख अंग्रेजों और पेशवा के बीच 1818 में हुए युद्ध के बारे में है जिसमें पेशवा पराजित हुआ। उस युद्ध में अंग्रेजी फौज के दलित सैनिकों की जो भूमिका थी उसकी याद में कोरेगांव में जो स्मारक बना है, यह लेख उसी से संबंधित है।
मैं कहना चाहता हूं कि उपरोक्त लेखों ने और इसी प्रकार के प्रश्नों को लेकर फॉरवर्ड प्रेस में छपे दूसरे लेखों ने वर्तमान दौर में दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों के बीच जैसे एक बौद्धिक नवजागरण की शुरुआत की है। हालांकि फॉरवर्ड प्रेस में बहुजन साहित्य की अवधारणा को सीधे-सीधे जातियों से जोड़कर बहुत ही स्थूल ढंग से प्रतिष्ठित करने के असफ ल प्रयासों की – जिनमें राजेन्द्र प्रसाद सिंह के लेख सबसे मुख्य रहे हैं – मैं सराहना नहीं कर सकता। इसके बावजूद आज हिन्दुत्ववादी और ब्राह्मणवादी आरएसएस के राजनीतिक और सांस्कृतिक हमलों के खिलाफ साहित्यिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक मोर्चे को कायम करने की जरूरत है और इस मोर्चे में फॉरवर्ड प्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इस पत्रिका ने हमारे देश के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में इधर कुछ सालों से पढ़ रही दलित-पिछड़ी जातियों की युवा पीढ़ी को एक नई बौद्धिक धार दी है और एक नया वैचारिक परिप्रेक्ष्य दिया है। इस पत्रिका को हरगिज बंद नहीं होना चाहिए। इसके उलटे इसका प्रसार हर तरह से और बढऩा चाहिए। इसे गांव में भी पहुंचाने की जरूरत है। मुझे इस बात का भी गर्व है कि इस महत्वपूर्ण पत्रिका के असली सम्पादक जेएनयू में रिसर्च कर रहे हम लोगों के विद्यार्थी श्री प्रमोद रंजन हैं जो अब पूरे देश के सामने पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई तेजस्वी और शोधपरक दृष्टि के साथ सक्रिय हैं।
(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)