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गुलबर्ग हत्याकांड : देरी से मिला अधूरा न्याय

गुजरात दंगे के कुख्यात गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड के कुछ आरोपियों को पिछले दिनों गुजरात के एक न्यायालय ने सजा दी और बहुतों को छोड़ दिया। सवाल है कि क्या न्याय हुआ? पड़ताल कर रही हैं नेहा दाभाड़े

फैसले के बाद आरोपी और सजाप्राप्त कैदी पुलिस वैन में

गत 2 जून 2016 को एक विशेष न्यायालय ने गुजरात के गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड मामले में निर्णय सुनाया। छियासठ में से 24 लोग दोषी पाए गए और 36 को बरी कर दिया गया।

सन 2002 में गुजरात में हुए कत्लेआम के दौरान गुलबर्ग सोसायटी में 69 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इस निर्णय पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं सामने आईं हैं। कुछ लोगों ने संतोष व्यक्त किया है कि 24 आरोपियों को सज़ा मिली है। अन्य, जिनमें इस भयावह घटना के शिकार लोगों के परिजन शामिल हैं, ने निराशा व्यक्त की है कि 14 वर्ष के लंबे इंतजार के बाद भी 36 आरोपियों को बरी कर दिया गया।

भारत में सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित मामले बहुत लंबे समय तक अदालतों में घसिटते रहते हैं और अक्सर इनमें बहुत कम लोगों को सज़ाएं दी जाती हैं। स्टेनफोर्ड लॉ स्कूल के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में दंगों से संबंधित प्रकरणों में दोषसिद्धी की दर सन 2012 तक 18.5 प्रतिशत (39,450 अरोपियों में से मात्र 7,281 को दोषसिद्ध पाया गया) है। गुजरात दंगों से संबंधित मामलों में, सन 2012 तक, दोषसिद्धी की दर मात्र 1.18 प्रतिशत थी। और यह भी इसलिए संभव हो सका क्योंकि सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस की तीस्ता सीतलवाड़ व अन्य नागरिक संगठनों ने इसके लिए एक लंबी और कठिन लड़ाई लड़ी।

इस मामले में न केवल दोषमुक्त आरोपियों की संख्या, दोषसिद्ध आरोपियों से कहीं ज्यादा है वरन अदालत ने इस हिंसा के पीछे किसी आपराधिक षड़यंत्र के होने से इंकार किया है। यद्यपि सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले, उसे प्रयोजित करने वाले, उसकी योजना बनाने वाले और उसे अंजाम देने वाले लोगों का हमेशा यह दावा रहता है कि दंगे स्वस्फूर्त और अनियोजित होते हैं परंतु पॉल ब्रास जैसे कई अध्येता यह मानते हैं कि दंगे सुनियोजित साजिश के तहत भड़काए जाते हैं और राजनीतिक दल, नफरत और अफवाहें फैलाकर लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाते हैं। गुजरात में इतने बड़े स्तर पर दंगे इसलिए हो सके क्योंकि वे सुनियोजित थे। जूनागढ़ व नवसारी जैसे स्थानों, जहां भाजपा मज़बूत थी और जहां उसे और वोट कबाड़ने की आवश्यकता नहीं थी, वहां दंगे नहीं हुए। उसी तरह भावनगर जैसे स्थान, जहां पुलिस अधिकारियों ने सांप्रदायिक हिंसा को नियंत्रण में लाने के गंभीर प्रयास किए, वहां भी हिंसा नहीं हुई। सबसे ज्यादा हिंसा खेड़ा और आणंद जैसे इलाकों में हुई, जहां भाजपा के लिए चुनाव जीतना अपेक्षाकृत मुश्किल था और उसे समाज के सांप्रदायिक धुर्विकरण से लाभ मिलने की उम्मीद थी। यह प्रश्न कई बार पूछा जा चुका है कि गुजरात में अलग-अलग स्थानों पर दंगों की भीषणता में अंतर क्यों था। अगर ये दंगे लोगों के गुस्से से उपजे थे और मोदी के शब्दों में, क्रिया की प्रतिक्रिया थे, तब पूरे प्रदेश में हिंसा होनी थी और गोधरा, जहां हुई ट्रेन आगजनी को दंगे भड़कने का कारण बताया जाता है, वहां तो सबसे ज्यादा हिंसा होनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि दंगों के पीछे एक सुनियोजित षड़यंत्र था। अदालत ने यह कहकर कि दंगे किसी आपराधिक षड़यंत्र के तहत नहीं भड़काए गए थे, भाजपा के इस दावे को वैधता प्रदान की है कि दंगे, गोधरा की घटना की स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया थे। इसके विपरीत, नरोदा पाटिया प्रकरण के निर्णय में षड़यंत्र के आरोप को सही बताया गया और गुजरात सरकार में मंत्री व भाजपा नेता मायाबेन कोडनानी और विहिप नेता बाबू बजरंगी को दोषसिद्ध घोषित किया गया। इस प्रकरण में अपने निर्णय में न्यायाधीश ज्योत्सना याज्ञनिक ने कहा कि कोडनानी इस षड़यंत्र की ‘सरगना’ थीं। निर्णय में कहा गया कि, ‘‘यह एक सुनियोजित षड़यंत्र था और इसकी गंभीरता को मात्र यह कहकर कम नहीं किया जा सकता कि यह गोधरा ट्रेन घटना की प्रतिक्रिया थी’’। इस निर्णय के बाद से याज्ञनिक को जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं और राज्य सरकार उन्हें पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवा रही है। प्रश्न यह है कि अगर नरोदा पाटिया और गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड एक ही घटना की प्रतिक्रिया थे और एक ही समय में हुए थे तो ऐसा कैसे संभव है कि एक के पीछे षड़यंत्र था और दूसरे के पीछे नहीं।

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सजा के बाद दो प्रतिक्रियाएं

कुछ लोग इस निर्णय को इसलिए महत्वपूर्ण बता रहे हैं क्योंकि इसमें 24 आरोपियों को दोषसिद्ध घोषित किया गया है। परंतु जो बात नज़रअंदाज की जा रही है वह यह है कि केजी इरडा और बिपिन पटेल जैसे लोगों, जिन्होंने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया, को बरी कर दिया गया है। गुलबर्ग सोसायटी जिस इलाके में है, इरडा उसके पुलिस उप अधीक्षक और बिपिन पटेल भाजपा पार्षद थे। इस तरह के लोगों को बरी कर और षड़यंत्र की संभावना से इंकार कर न्यायालय ने उन लोगों को क्लीन चिट दे दी है, जिन पर नागरिकों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी थी और जिनके पास ऐसा करने के लिए शक्तियां थीं। इस हत्याकांड में मारे गए 69 लोगों में से एक पूर्व सांसद एहसान जाफरी थे। एसआईटी की जांच में यह सामने आया है कि उन्होंने पुलिस कमिश्नर को कई बार फोन लगाए परंतु छः घंटे तक दंगाई वहां हिंसा का तांडव करते रहे और पुलिस नहीं पहुंची। किसी भी बड़े शहर में किसी स्थान पर पुलिस बल को पहुंचने में सामान्यतः कुछ मिनट और अधिक से अधिक एक घंटा लगना चाहिए। परंतु न तो पुलिस और न ही राजनेताओं ने ज़ुनूनी भीड़ से गुलबर्ग सोसायटी के लोगों की रक्षा करने की कोशिश की। भीड़, जिसमें विहिप के कार्यकर्ता शामिल थे, तलवारों से लैस थी (जो कि पूर्व तैयारी का सुबूत है)। भीड़ ने सोसायटी के रहवासियों को उनके घरों से बाहर निकालकर क्रूरतापूर्वक मार डाला। पुलिस घटनास्थल पर क्यों नहीं पहुंची? इसका एकमात्र तर्कसंगत उत्तर यह है कि राज्य और दंगाईयों के बीच मिली भगत थी।

प्रजातंत्र की रक्षा और राज्य की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के विभिन्न अंग स्वतंत्रतापूर्वक काम करें। परंतु हमारे देश में हालात ऐसे हैं कि अगर पुलिस या न्यायपालिका निडर होकर अपना कर्तव्यपालन करना चाहे तो भी वह ऐसा नहीं कर सकती। जो अफसर सरकार के निहित स्वार्थों को पूरा करने में उसकी मदद नहीं करते उन्हें किस तरह से प्रताड़ित किया जाता है, यह हम सब जानते हैं। संजीव भट्ट (जिनका कहना था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पुलिस से यह कहा था कि वे हिंदुओं को मुसलमानों पर अपना गुस्सा निकाल लेने दें) जैसे अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया है और याज्ञनिक जैसे न्यायाधीशों को धमकियां दी जा रही हैं।

मालेगांव धमाके प्रकरण में विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान को एनआईए ने यह निर्देश दिया था कि वे हिंदुत्व संगठनों से जुड़े आरोपियों के साथ नरमी बरतें। साध्वी प्रज्ञा, जिनकी इन धमाकों में संलिप्तता को हेमंत करकरे के नेतृत्व वाली एटीएस ने उजागर किया था, का नाम चार्जशीट से हटा दिया गया है।

पुलिस की यह अहम ज़िम्मेदारी है कि वह निर्दोष नागरिकों  को सुरक्षा दे और यदि कोई अपराध घटित होता है तो उसे अंजाम देने वालों को सज़ा दिलवाने के लिए निष्पक्ष जांच करे और सबूत इकट्ठा करे। किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाकर की जाने वाली सांप्रदायिक हिंसा, विशेषकर ऐसी हिंसा जिसमें हज़ारों लोग मारे गए हों, अपने घरों से बेदखल कर दिए गए हों और गायब हों, दरअसल, मानवता के खिलाफ अपराध है। पुलिस को ऐसे मामलों में और मुस्तैदी से जांच करनी चाहिए परंतु होता इसका उलट है।

गुलबर्ग सोसायटी के पीड़ित और गुजरात दंगों के शिकार अन्य व्यक्तियों को न्याय के लिए दर-दर भटकना पड़ा। शक्तिशाली  हिंदुत्व नेताओं को एक के बाद एक बरी किए जाने से व्यथित पीड़ितों ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने इन प्रकरणों को गुजरात से बाहर स्थानांतरित कर दिया। इससे यह स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय को गुजरात की आपराधिक न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं था। सन 2008 में उच्चतम न्यायालय ने एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया, जिसे गुलबर्ग सोसायटी व आठ अन्य मामलों की जांच की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। परंतु एसआईटी ने उच्च पदस्थ राजनीतिक नेताओं और मंत्रियों को क्लीन चिट दे दी। इसके बाद, उच्चतम न्यायालय ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य शीर्ष व्यक्तियों की दंगों में भूमिका की जांच के लिए राजू रामचंद्रन को न्यायमित्र नियुक्त किया। रामचंद्रन ने एसआईटी के निष्कर्षों से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री के विरूद्ध मुकदमा चलाने के पर्याप्त आधार हैं। इसके बाद भी जिस बड़ी संख्या में आरोपी बरी किए जा रहे हैं उससे दंगा पीड़ितों का एसआईटी पर विश्वास डोल गया है।

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सजा प्राप्त एक कैदी का परिवार

यह पहली बार नहीं है कि सांप्रदायिक दंगे के दोषियों को सज़ाएं न मिली हों। स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक देश में सैंकड़ों छोटे-बड़े दंगे हुए और इनकी जांच के लिए समय-समय पर 31 न्यायिक आयोग नियुक्त किए गए। इनमें से कुछ आयोगों, जिनमें श्रीकृष्ण आयोग शामिल है, ने अपनी रपटों में शिवसेना और उसके नेता बाल ठाकरे की दंगों में भूमिका को चिन्हित किया। रपट में ठाकरे को एक दक्ष जनरल बताया गया है, जिसके नेतृत्व में उसके वफादार शिवसैनिकों ने मुसलमानों पर संगठित हमले किए।

इसके बावजूद शिवसेना और उसके नेताओं के खिलाफ कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं किया गया। रपट में भाजपा को महाआरतियां, जुलूस और रैलियां आयोजित कर और नफरत फैलाने वाले भाषण देकर सांप्रदायिक हिंसा की आग को भड़काने का दोषी बताया गया। यह विडंबनापूर्ण है कि जब स्वयं सरकार द्वारा नियुक्त न्यायिक जांच आयोग इतने स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तब उनकी रपटों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है। दूसरी ओर, गुजरात में ट्रेन में आग लगाए जाने की घटना के तुरंत बाद, बिना किसी जांच के, तत्कालीन मुख्यमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की कि घटना के लिए मुसलमान ज़िम्मेदार हैं। इस बहाने से पूरे प्रदेश में मुसलमानों के विरूद्ध वीभत्स हिंसा की गई। गुलबर्ग सोसायटी मामले में 69 लोगों की हत्या के लिए केवल 11 आरोपियों को हत्या के आरोप में सज़ा दी गई। अन्यों को कम गंभीर आरोपों में दोषसिद्ध पाया गया।

इस सबसे यह स्पष्ट है कि सांप्रदायिक हिंसा, जिसमें स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक लगभग 40,000 लोगों ने अपनी जाने गंवाई हैं, के मामलों में पीड़ितों को न्याय नहीं मिलता।

इस स्थिति को बदलने के लिए और राज्य में नागरिकों के विश्वास को पुनर्स्थापित करने के लिए कुछ कदम उठाए जाने चाहिएः

(1) पुलिस को एफआईआर दर्ज करने में देरी नहीं करनी चाहिए और फरियादियों की शिकायत की निष्पक्षतापूर्वक जांच कर सबूत इकट्ठे करने चाहिए।

(2) पुलिस तंत्र और न्यायपालिका को राजनीतिक दलों के दबाव से मुक्त किया जाना चाहिए।

(3) इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि दंगा पीड़ित डरे-सहमे होते हैं और उनके मन में असुरक्षा का भाव होता है। अतः इस तरह का वातावरण निर्मित किया जाना चाहिए जिसमें पीड़ित और गवाह बिना किसी डर के अदालतों में अपने बयान दर्ज करवा सकें।

(4) सांप्रदायिक दंगों से संबंधित प्रकरणों के निपटारे की समय सीमा तय की जाना चाहिए।

(5) लक्षित हिंसा पर रोक के लिए नया कानून बनाया जाना चाहिए।

प्रजातंत्र और कानून का राज तभी कायम रह सकता है जब नागरिकों की न्यायिक व्यवस्था में आस्था हो और पीड़ितों को त्वरित व निष्पक्ष न्याय मिल सके।

(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

लेखक के बारे में

नेहा दाभाड़े

नेहा दाभाड़े विधि स्नातक और टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल सांईसेस से एमएसडब्ल्यू हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और वर्तमान में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म, मुंबई में उपनिदेशक हैं

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