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लोहिया का जाति-विरोधी स्त्रीवाद

लोहिया की यह स्पष्ट मान्यता थी कि कोई भी समाज तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि उसकी आधी आबादी को विकास की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने की स्वतंत्रता और अवसर उपलब्ध न होगी

राममनोहर लोहिया

समाज को हिन्दू जाति व्यवस्था से कैसे मुक्त किया जाए, इस संबंध में राममनोहर लोहिया की सोच को उनके जीवन के अनुभवों और विशेषकर उनके राजनीतिक संघर्ष ने आकार दिया था। इस मुद्दे पर उनका व्यावहारिक दृष्टिकोण, जाति पर विचार करने वाले उनके समकालीन अध्येताओं से उन्हें अलग करता है।

उनका व्यावहारिक दृष्टिकोण, ठोस विश्लेषण पर आधारित था। उनका यह मानना था कि जाति व्यवस्था ने समाज को दो नहीं बल्कि अनेक स्तरों पर बांट दिया है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जाति व्यवस्था ने केवल समाज के एक तबके को ही तिरस्कृत नहीं किया है वरन् उसने पूरे समाज को ही दूषित कर दिया है। पदक्रम व जाति-आधारित व्यवस्था से ‘नीची जातियां’ ही नहीं वरन् महिलाएं भी पीडि़त और प्रताडि़त हैं। जाहिर है कि लोहिया ने जाति-व्यवस्था के समाज पर प्रभाव का गहराई से अध्ययन किया था।

लोहिया की यह सोच उन्हें उन आधुनिक स्त्रीवादियों की कतार में खड़ा करती है जो कामकाज, अवसर और आर्थिक स्वतंत्रता की दृष्टि से महिलाओं की स्थिति का अध्ययन और विवेचन करते हैं। जहां गांधी महिलाओं को एक अलग इकाई मानते थे-दूसरा लिंग-वहीं लोहिया उन्हें जातिग्रस्त समाज के हिस्से के रूप में देखते थे। लोहिया की यह स्पष्ट मान्यता थी कि कोई भी समाज तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि उसकी आधी आबादी को विकास की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने की स्वतंत्रता और अवसर उपलब्ध न होगी। भारतीय समाज में महिलाओं के दर्जे के संबंध में लोहिया ने जो चिंताएं व्यक्त की थीं, उन पर आज भी विचार नहीं किया जा रहा है।

लोहिया की सोच आज भी प्रासंगिक हैं। रोजगार, राजनैतिक व्यवस्था और कारपोरेट दुनिया के बारे में उनका चिंतन हमारे लिए आज भी उपयोगी है। नीची जातियों की महिलाएं आर्थिक दृष्टि से परतंत्र होती हैं और उन्हें जाति व्यवस्था और पुरूष के वर्चस्व वाली पारिवारिक व्यवस्था से सतत संघर्ष करते रहना पड़ता है। आज केवल नीची जातियों के हालात पर विमर्श होता है और नीची जातियों का लैंगिक दृष्टिकोण से अध्ययन नहीं किया जा रहा है। लोहिया को इस मुद्दे को समाज के समक्ष रखने का श्रेय दिया जाना चाहिए यद्यपि यह मुद्दा शीघ्र ही दलितों के संबंध में समकालीन विमर्श में खो गया।

लोहिया महिलाओं को किसी भी क्रांति का अविभाज्य हिस्सा मानते थे। उनका मानना था कि जब तक समाज के पुर्नगठन की प्रक्रिया में महिलाएं हिस्सा नहीं लेंगी तब तक समाजवाद को मजबूत नहीं किया जा सकेगा। प्लेटो महिलाओं को राज्य के अधीन सेवाओं में जगह देने के हामी थे। लोहिया ने इससे एक कदम आगे बढकर इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं की मुक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सभी क्षेत्रों और सभी अर्थों में पुरूषों के बराबर का दर्जा दिया जाए। लोहिया का अधिक उदार व समतामूलक समाज का स्वप्न उन्हें एक आधुनिक चिंतक के रूप में स्थापित करता है।

अन्य समाजसुधारकों के विपरीत, लोहिया केवल समस्याओं का वर्णन ही नहीं करते थे, वे उनके हल भी सुझाते थे। वे महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते थे, विशेषकर दलित महिलाओं को, जिन्हें संस्थागत और व्यावहारिक दोनों ही स्तरों पर सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेने का अवसर नहीं मिलता। लोहिया अंतरजातीय विवाहों के हामी थे। उनका कहना था कि इससे न केवल जाति व्यवस्था टूटेगी वरन्  महिलाओं को स्वयं को अभिव्यक्त करने का मौका भी मिलेगा और वे जीवन के उनके लिए वर्जित क्षेत्रों में भी सक्रिय हो सकेंगी।

आज भी अंतरजातीय विवाहों का कड़ा विरोध होता है। लोहिया को गए लंबा अरसा गुजर गया है परंतु हालात जस के तस हैं। आज भी समानता और स्वतंत्रता का अभाव महिलाओं की प्रगति में बाधक बना हुआ है। लोहिया कहा करते थे कि महिलाओं की मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि पितृसत्तामक सामाजिक व्यवस्था कायम रहेगी और महिलाओं के साथ भेदभाव होता रहेगा।

आज जब स्वतंत्रता और समानता अधिकांश महिलाओं के लिए स्वप्न ही बने हुए हैं लोहिया की बौद्धिक विरासत को पुन: देखने-समझने की आवश्यकता है। उनके विचारों की पुनर्व्याख्या कर उनमें आज के समाज-जिसमें बहुत कुछ बदला है परंतु महिलाओं और विशेषकर दलित महिलाओं के दर्जे में कोई बदलाव नहीं हुआ है- की समस्याओं का हल ढूंढने की जरूरत है।

लोहिया ने सात क्रांतियों के समाज की परिकल्पना की थी और चर्तुस्तंभ सिद्धांत को स्थापित किया था। उन्होंने एक नए किस्म के समाजवाद की वकालत की थी। उनके ये विचार आज भी प्रासंगिक हैं परंतु सबसे महत्वपूर्ण है महिलाओं की मुक्ति के संबंध में उनकी सोच। लोहिया एक दूरदृष्टा स्त्रीवादी थे। उन्होंने दशकों पहले उन समस्याओं का हल सुझाया था, जिनका सामना हम आज कर रहे हैं। परंतु उनके समाधानों की केवल चर्चा करने से काम नहीं चलेगा, उनको अमली जामा पहनाना भी आवश्यक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब ‘नीची जातियों’ की महिलाएं ‘ऊँची जातियों’ के पुरूषों से विवाह करेंगी तो जाति के बंधन ढीले पड़ेंगे। भारत की महिलाओं को स्वतंत्रता और समानता हासिल हो और वे आर्थिक दृष्टि से सशक्त बनें, यही लोहिया का स्वप्न था।

 

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

विवेक कुमार श्रीवास्तव

डॉ विवेक कुमार श्रीवास्तव, कानपुर के सीएसजेएम विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक व सीएसएसपी कानपुर के उपाध्यक्ष हैं

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