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प्रोफेसर पद पर ओबीसी आरक्षण की आंख मिचौली

ओबीसी की बदहाली का कारण यह है कि समाज के छोटे लेकिन प्रभावशाली तबकों के मन में ओबीसी के प्रति वैमनस्यता का गहरा भाव मौजूद है। यह भाव स्वतः अथवा किसी प्रकार मान-मनुहार से नहीं मिटने वाला है। इसके लिए एक व्यापक आंदोलन छेड़ने की आवश्यकता है

ugcकुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जो पीछे मुड़कर देखने के लिए मजबूर कर देती हैं। गत 3 जून, 2016 को विश्वविद्यालय  अनुदान आयोग ने देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों  को एक चिट्ठी भेजी है। चिट्ठी के माध्यम से यूजीसी ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों को कहा है कि वे एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पदों पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण न दें। पत्र में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अनुसूचित जाति और जनजाति को पूर्व की भांति असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर- तीनों स्तरों पर आरक्षण का लाभ पूर्ववत् मिलता रहेगा।

यह सूचना मुझे ‘दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स‘ नामक व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से जब मिली तो वर्ष 2011 की वह घटना याद आई, जिसमें जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद के लिए कुछ रिक्तियां घोषित की गईं थीं, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए तो ये पद आरक्षित थे लेकिन ओबीसी को इससे वंचित रखा गया था। तब मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहा था और ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम का सक्रिय कार्यकर्ता था। फोरम ने जेएनयू में विद्यार्थियों के नामांकन में ओबीसी आरक्षण को व्यवहारिक रूप से लागू करवाने के लिए लंबा संघर्ष किया था और हम सफल भी हुए थे। अब फैकल्टी पदों पर इसे लागू करवाने के लिए संघर्ष करने की चुनौती हमारे सामने थी। उस समय जेनयू में सिर्फ दो-दो ओबीसी प्राध्यापक थे – अफ्रीकन स्टडीज में एस.एन. मालाकार और पर्यावरण अध्ययन संस्थान में प्रमोद कुमार यादव। इन दोनों की दशकों पूर्व ‘सामान्य’ कोटि में नियुक्त हुई थी और वे अनेक प्रकार की कठिनाइयां उठाते हुए यहां तक पहुंचे थे। (चार्ट देखें)

आज 2016 में भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। आज भी जेएनयू के कुल लगभग 250 प्रोफेसरों में मात्र वही दो प्रोफ़ेसर ओबीसी हैं।

जे एन यू में एस सी/एस टी/ओ बी सी कोटा के तहत और अन्य शैक्षणिक कर्मियों की संख्या

प्रोफसररीडरलेक्चररएसएल/एसजीअन्यकुल
आवंटित पद165287271---5728
मौजूदा संख्या22319567---5490
एससी68134031
एसटी3470014
ओबीसी200002
उच्च जाति2121834705343(?)
एससी +एसटी +ओबीसी1112204047
एससी + एसटी + ओबीसी 4.9%6.1%29%100%0%9.5%

(आर टी आई न. 6-4/2009, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, यू जी सी, दिनांक – 7th Jan, 2011)

जेएनयू में हमारे आंदोलनों के दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन से जुडे लोगों ने बताया कि ओबीसी तबके को इन पदों पर आरक्षण नहीं देने का फैसला यूजीसी के निर्देश के मद्देनजर किया गया है। तब हम लोगों ने यूजीसी से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी कि उसने किस अधिनियम के तहत ऐसा निर्देश दिया है?

हमने ‘सामाजिक न्याय’ के कंधे पर सवार पार्टियों के कई सांसदों से भी संपर्क किया और उनसे सवाल किया कि आपके संसद में रहते हुए आरक्षित श्रेणियों के बीच इस प्रकार का भेदभाव क्यों किया जा रहा है? अन्य पिछडा वर्ग में शामिल अधिकांश जातियां शूद्र रही हैं, जिनका मूल पेशा खेती-बाडी, पशुपालन व विभिन्न प्रकार की कारिगरियां रही हैं। इसी तबके ने अपने उत्पादनों से देश का निर्माण किया है। प्राचीन काल का इतिहास उठाएं या मध्यकाल काल का – इस तबके ने एक से एक क्रांतिकारी संतों तथा विलक्षण मस्तिष्क के धनी दार्शनिकों, विद्वानों को पैदा किया है। लेकिन आज इनके रोजी-रोजगारों पर सवर्ण जातियों ने कब्जा कर लिया है। आज डेयरी उद्योग किसके हाथ में है? क्या यह यादवों के पास है? यादव तो वहां सिर्फ कनस्तरों में दूध पहुंचाने वाले बन गये हैं। आज सब्जी का का व्यापार कोयरी-कुर्मी नहीं रिलायांस सहित बडी-बडी बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रही हैं। शहरों में बाल काटने के सैलून और चमकते-दमकते ब्यूटी पार्लर किसके हैं? क्या वे नाईयों के हैं? नहीं, नाई तो अब बस वहां दिहाडी मजदूर हैं। उन्हें दिन के हिसाब से ‘सैलरी‘ मिलती है। एक दिन भी नहीं आए तो ‘सैलरी‘ काट ली जाती है।  फर्नीचरों की जो विशाल दुकानें दिखती हैं और वहां मालिक की विशालकाय गद्देदार कुर्सी पर जो बडी सी तोंद वाले आदमी बैठे दिखते हैं, क्या वे बढई हैं? बुनकर, तेली, चुडीहारा, भडभूंजा, नोनिया, धानुक, कबाडी, चैरसिया, कहार, पंसारी, भिश्ती, दर्जी, कलवार, चिडीमार आदि समेत जो 5000 हजार जातियां आज ओबीसी की सूची में हैं, उनमें से लगभग सभी का परंपरागत रोजगार उदारीकरण का सब्जबाग दिखाकर सवर्णों द्वारा छीना जा चुका है।

हमारे सांसद इन सवालों का जबाव तो क्या देते, लेकिन उन्होंने हमारी बातों में गहरी दिलस्पी ली तथा हमें आवश्वस्त किया वे अपने पार्टी आलाकमान तक ओबीसी शोधार्थियों का दुख पहुंचाएंगे। शरद यादव, जाबिर हुसेन, प्रेमकुमार मणि, उपेंद्र कुशवहा, अली अनवर आदि कुछ राजनेताओं ने हमे अपने आंदोलनों को आगे बढाने के लिए वैचारिक संबंल दिया तथा इनमें जो उस समय संसद में थे उन्होंने संसद में आवाज भी उठायी, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा।

बडे खेल का हिस्सा

sukhadeo thorat
सुखदेव थोराट

बहरहाल, यूजीसी ने हमारी आरटीआई का उत्तर दिया। उसने यह तो नहीं बताया कि ओबीसी को किस नियम अथवा अधिनियम के तहत आरक्षण से वंचित किया गया है लेकिन यूजीसी के अध्यक्ष रहे सुखदेव थोराट की चिट्ठी की प्रतिलिपि अपने उत्तर के साथ संलग्न करते हुए बताया कि यूजीसी अध्यक्ष के इस पत्र के आलोक में ये निर्देश जारी किये गये हैं। ख्यात शिक्षाविद सुखदेव थोराट ने अपने उस पत्र में आश्चर्यजनक रूप से केंद्रीय विश्वविद्यालयों को एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर अन्य पिछडा वर्ग को आरक्षण नहीं देने का आदेश जारी किया था। हमें उपलब्ध करवाये गये पत्र में श्री थोराट का तर्क था कि ओबीसी को केवल इंट्री लेवल पर आरक्षण मिलना चाहिए। उन्होंने एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद को ‘इंट्री लेवल‘ नहीं माना था तथा केवल अस्टिटेंट प्रोफेसर के पद को ही इंट्री लेवल के पद के रूप में स्वीकार किया था। गौरतलब है वह उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू होने का शुरूआती दौर था, ऐसे दौर में नियमों की व्यख्या का बडा महत्व होता है। श्री थोराट ने प्राध्यापक पदों पर ओबीसी आरक्षण की एक मनुवादी व्याख्या प्रस्तुत कर डाली थी। अपने उस पत्र में वे वेदों की व्याख्या करने वाले कुटिल वेदांतियों की भूमिका में थे, या दूसरे शब्दों में कहें तो शंकर उर्फ ‘आदि शंकराचार्य’ की भूमिका में। फर्क सिर्फ इतना था कि आदि शंकरचार्य जन्मना ब्राह्मण थे, और थोराट जन्मना दलित।

वास्तविकता यह है कि एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद भी इंट्री लेवल के ही पद हैं,  क्योंकि इन पदों के लिए भी सीधी नियुक्तियां होती हैं तथा इनके लिए अलग से पूरी नियुक्ति प्रकिया अपनायी जाती है व साक्षात्कार आदि होते हैं। इन पदों के लिए प्रायः कुछ वर्षों तक शिक्षण अनुभव मांगा जाता है,  लेकिन पोस्ट डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त उम्मीदवार तथा विशिष्ट योग्यता वाले उम्मीदवारों को बिना किसी शिक्षण अनुभव के ही इन पदों के उम्मीदवार होते हैं। ‘शिक्षण का अनुभव‘ कुतर्क के अलावा और कुछ नहीं है। अस्टिटेंट प्रोफेसर के पद के लिए भी शिक्षण के अनुभव के आधार पर अतिरिक्त अंक दिये जाते हैं। तो क्या उन्हें भी इंट्री लेवल का पद नहीं माना जाएगा?

थोराट द्वारा पत्र जारी करने के पहले तक अनेक विश्वविद्यालय ओबीसी तबकों को एसोसिएट प्रोफेसर तथा प्रोफेसर पदों पर आरक्षण दे रहे थे। जिन दिनों हमने यूजीसी से आरटीआई के तहत जेएनयू मामले में जानकारी मांगी थी, उन्हीं दिनों ओडीसा केंद्रीय विश्वविद्यालय और केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय में उपरोक्त पदों की रिक्तियां घोषित की गयीं थीं तथा उनमें ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था।

वस्तुतः एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पदों पर ओबीसी को आरक्षण के दायरे से बाहर धकेल देना एक बड़ी साजिश का हिस्सा है, जिसके परिणाम आने वाले समय में दिखेंगे। प्राध्यापकों की सेवा निवृति की उम्र तथा काम के घंटे बढाये जाने की चल रही कवायद उसी खेल का आरंभिक भाग हैं।

केद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति

केद्रीय विश्वविद्यालयों में वर्ष 2011 में देश भर के अन्य पिछडा वर्ग से आने वाले केवल चार प्रोफेसर थे। अस्टिटेंट प्रोफेसर के कुल 7078 पदों में से ओबीसी के केवल 233 लोग थे (चार्ट देखें)। अगर आप इन यूनिवर्सियों के गलियारों में घूमते हों तो जानते होंगे कि यहां समान्य श्रेणी के पदों को सवर्णों के आरक्षित माना जाता है।

Human Chain by Pro-reservation students of JNU

आप नेट की परीक्षा के परिणाम देखें, आपको सामान्य श्रेणी में बडी संख्या में ओबीसी मिलेंगे। विश्वविद्यालयों में नामांकन के लिए होने वाली लिखित परीक्षाओं के परिणाम देखें, वहां भी आपको न सिर्फ सामान्य श्रेणी में ओबीसी दिखेंगे बल्कि उन्हें आप टॉप टेन के अनेक स्थानों पर भी अपनी प्रतिभा के बूते स्थान पाते हुए आसानी से देख सकते हैं। आप समझ सकते हैं कि प्राध्यापक पद की नियुक्तियों के दौरान ऐसा क्या घटित हो जाता है कि सामान्य श्रेणी के लिए सारे से सारे सवर्ण उम्मीदवार ही योग्य पाये जाते हैं?

दरअसल, सामान्य श्रेणी के पदों के लिए आयोजित परीक्षा, जो कि महज एक साक्षात्कार पर आधारित होती है, में केवल सवर्ण उम्मीदवार ही भाग लेते है। अगर कोई दलित, आदिवासी और ओबीसी उम्मीदवार अपनी जाति छुपा कर ‘सामान्य‘ श्रेणी में आवेदन कर डाले और यह बात इन विश्वविद्यालयों के भाग्य विधाताओं को पता लग जाए तो वे इसे घनघोर छल मानते हैं। ऐसे ‘छली‘ उम्मीदवारों की नियुक्ति भविष्य में आरक्षित कोटे में भी न हो पाए, इसकी पक्की व्यवस्था की जाती है। वे आपस में मित्र हों या शत्रु, अपने सभी मतभेदों को भुलाकर इस सर्वस्वीकार्य नियम का कड़ाई से पालन करते हैं। ओबीसी आरक्षण के आने के बाद तो यह ‘छल‘ ब्रह्म हत्या जैसा जघन्य पाप माना जाने लगा है, ऐसे उम्मीदवार के लिए अपने कृत्य के प्रायश्चित का भी कोई प्रावधान नहीं होता। वे हमेशा के लिए अकादमिक दुनिया से बहिष्कृत कर दिये जाते हैं।

इस प्रकार अभी अस्टिेंट प्रोफेसर के पद पर सवर्णों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है तथा यूजीसी द्वारा जारी उपरोक्त पत्र के बाद एसोसिएट प्रोफेसर व प्रोफेसर के पद पर 50 फीसदी सवर्ण और 27 फीसदी ओबीसी के आरक्षण को मिलाकर कुल 77 फीसदी पद सवर्ण समुदाय के लिए आरक्षित हो गये हैं।

केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एस सी/एस टी/ओ बी सी कोटा के तहत और अन्य शैक्षणिक कर्मियों की संख्या

प्रोफ़ेसररीडरएसएल/एसजीलेक्चररअन्यकुल
आवंटित पद19433744---707874913514
मौजूदा संख्या2563293145123275808852
एससी25793042212568
एसटी1129102117268
ओबीसी4412333245
पीएच67030245
उच्च जाति2523281941014615587771
एससी +एसटी +ओबीसी4011241866221081
एससी + एसटी + ओबीसी1.5%3.8%9%3.7%3.7%12.2%

(आर टी आई न.- 6-4/2009, केंद्रीय विश्वविद्यालय, यू जी सी ,दिनांक  – 7th Jan, 2011)

जिस ‘अस्टिटेंट प्रोफेसर‘ पद पर कथित रूप से ओबीसी तबके को 27 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है, उसमें भी बडे पैमाने पर धांधली हो रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय में तो आरक्षण रोस्टर का खुले तौर पर उल्लंघन हो रहा है। रोस्टर के अनुसार जो सीट ओबीसी की है उस पर तदर्थ रूप ( ऐड –हॉक) से गैर-ओबीसी पढा रहे हैं।

अपने ‘ ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम‘ के आंदोलनों के दिनों को याद करता हूं तो पाता हूं कि ओबीसी आरक्षण के शत्रु सिर्फ एक ओर ही नहीं है। इसे चारों तरफ से घेरा जा रहा है।

अन्यथा ऐसा कौन सा नियम है, जिसके तहत 1971 में स्थापित होने के बाद से जेएनयू का हिंदी विभाग अब तक एक भी ओबीसी प्राध्यापक बहाल नहीं कर पाया। जबकि इस विभाग से लगातार ओबीसी विद्यार्थी ही शीर्ष स्थान प्राप्त करते रहे हैं। पीएचडी की डिग्री प्राप्त अन्य पिछडा वर्ग के अधिकांश शोधकर्मी या तो बेरोजगार हैं या सरका विद्यालयों में शिक्षक हैं। वे पढाने के लिए विश्वविद्यालयों का मुंह नहीं देख पाए।

अभी मैं इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल साईंस रिसर्च ( आईसीएसएसआर) में पोस्ट डाक्टरेट फेलो हूं। पोस्ट डाक्टरेट के लिए भी ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया जाता। इस उच्च अध्ययन संस्थान के लिए काम शोधकार्य करते हुए मुझे दो वर्ष बीत चुके हैं तथा मेरा काम अब अंतिम चरण में है, लेकिन मुझे आज तक कोई अन्य ओबीसी शोधार्थी नहीं मिला। इस क्षेत्र में दलित शोधार्थियों की संतोषजनक संख्या है तथा कुछ आदिवासी शोधार्थी भी हैं, लेकिन ओबीसी के नैसर्गिक अधिकारों को सवर्णों ने पूरी तरह लील लिया है।

pro-reservation-rallyयूजीसी शोध के क्षेत्र में दर्जनों फेलोशिप देती है, जिससे हजारों- हजार शोधार्थी हर वर्ष लाभान्वित होते हैं। इनके तहत मिलने वाली राशि 5 हजार रूपये लेकर 60 हजार रूपये प्रतिमाह तक है। लेकिन इनमें भी ओबीसी आपको ढूढने पर बडी मुश्किल से मिलेंगे। हलांकि यह सुखद है कि मौजूदा राजग सरकार ने दो वर्ष पहले इस तबके को उच्च अध्ययन में प्रेरित करने के लिए ‘नेशनल फेलोशिप फॉर ओबीसी‘ की शुरूआत की है, लेकिन यह महज 300 विद्यार्थियों के लिए है, जो इस विशालकाय बंचित आबादी के लिए यह उंट के मुंह में जीरा के समान ही है।

ओबीसी की बदहाली का कारण यह है कि समाज के छोटे लेकिन प्रभावशाली तबकों के मन में ओबीसी के प्रति वैमनस्यता का गहरा भाव मौजूद है। यह भाव स्वतः अथवा किसी प्रकार मान-मनुहार से नहीं मिटने वाला है। इसके लिए एक व्यापक आंदोलन छेड़ने की आवश्यकता है। कहते हैं, सोए हुए सिंह के मुंह में भी हिरण खुद प्रवेश नहीं करता! अन्य पिछड़ा वर्ग के युवाओं को इस कहावत के निहतार्थों पर गंभीरता से मनन करना चाहिए।

लेखक के बारे में

अरुण कुमार

अरूण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से 'हिन्दी उपन्यासों में ग्रामीण यथार्थ' विषय पर पीएचडी की है तथा इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल साईंस एंड रिसर्च (आईसीएसएसआर), नई दिल्‍ली में सीनियर फेलो रहे हैं। संपर्क (मोबाइल) : +918178055172

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