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आगे बढ़ते हुए अतीत पर दृष्टिपात

हमें पत्रिका के मुद्रित संस्करण को बंद करने का कष्टदायक निर्णय लेना पड़ा। यह एक ऐसा बच्चा था, जिसे हमने जन्म दिया था और बड़ी कठिनाईयों से बड़ा किया था। अब हमें इसका गला घोंटना था

Silvia speaks at FP 1st_10April10
डॉ. सिल्विया फर्नांडिस

वह 13 जनवरी 2007 की सुबह थी। मैं मुंबई की तरफ भागी जा रही कोंकण रेलवे की ट्रेन के एक डिब्बे में नीचे की बर्थ पर बैठकर चाय की चुस्कियां ले रही थी। तभी ऊपर की बर्थ से मुझे जींस से ढंके दो पैर लटकते हुए दिखाई दिए और फिर आयवन नीचे कूदे। ”मैं पूरी रात पलक तक नहीं झपका सका हूं’’, उन्होंने मुझे बताया। वे रोमांचित थे। ”ईश्वर ने मुझे एक द्विभाषी पत्रिका शुरू करने की प्रेरणा दी है!’’

वे भी अपना चाय का कप लेकर मेरे साथ बैठ गए और फिर उन्होंने मुझे अपनी उस ईश्वरीय प्रेरणा के बारे में विस्तार से बताया, जो आगे चलकर फारवर्ड प्रेस पत्रिका बनने वाली थी। मेरे पिता की आयु 90 के आसपास थी और उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। जब मुझे यह पता चला कि इस प्रेरणा का अर्थ है कि हम भारत लौटेंगे तो मैं बहुत प्रसन्न हुई। परंतु आयवन स्पष्ट थे कि हम नई दिल्ली में रहेंगे, एक ऐसे शहर में जो हम दोनों के लिए नया था-पुणे में नहीं, जहां हमारा घर, दोस्त और कर्मचारी थे।

हमने एक साथ प्रार्थना की। दोस्तों से विचार-विनिमय किया। हां, पददलित बहुसंख्यकों के लिए एक पत्रिका की आवश्यकता थी। मूक कर दिए गए दलित-बहुजनों को आवाज़ देना ज़रूरी था। एक ने कहा, आयवन ही वह व्यक्ति हैं, जो ऐसी पत्रिका निकाल सकते हैं। दिल्ली के एक सज्जन ने कहा कि, ”ब्रदर, हम लोग इसका ही इंतज़ार कर रहे थे। जल्दी करो। यहां आ जाओ’’।

उसी दिन आयवन कनाडा के लिए उड़ गए, जहां हम उन दिनों रहते थे। मैं अपने पिता की 89वीं वर्षगांठ, जो कि 11 फरवरी को थी, मनाने के लिए भारत में ही रूक गई।

ईश्वरीय इच्छा

मैं एक व्यवहारिक व्यक्ति हूं। मैं दिल्ली गई और वहां पर रहने के स्थान की उपलब्धता और जीवनयापन के खर्च आदि के बारे में जानकारियां इकठ्ठा की। उस समय हमारे पास पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं था, परंतु वही ईश्वर, जिसने प्रेरणा दी थी, वही ईश्वर जो दमितों के प्रति करूणामय है, हां, बाईबल का ईश्वर, जिसने मिस्र से हिब्रू गुलामों को मुक्ति दिलाई थी, ने चमत्कारिक ढंग से हमारे लिए धन की व्यवस्था की। कुछ दिन बाद मुझे एक बिल्डर का फोन आया और महीना खत्म होने के पहले मैंने ज़मीन का एक टुकड़ा, जो मेरे पिता ने कई साल पहले खरीदा था, बेच दिया। यह ज़मीन पुणे के बाहरी इलाके में थी और उसे बेचने के पहले मैंने उनकी इच्छानुसार, उसमें से 10 एकड़ ज़मीन ज्ञानांकुर नामक अंग्रेज़ी माध्यम के उस स्कूल को भेंट कर दी, जिसे उन्होंने मुख्यत: बहुजन बच्चों के लिए शुरू किया था।

बिक्री से प्राप्त धन में मेरा हिस्सा इतना था कि हम पत्रिका शुरू करने के बारे में सोच सकते थे। कनाडा छोडऩे के पहले हमने इस बात के लिए प्रार्थना करना शुरू कर दी थी कि हमें रहवास के लिए ठीक जगह मिल जाए। मेरे पिता के हिस्से से हम लोगों ने दिल्ली में एक अपार्टमेंट खरीद लिया और अप्रैल 2008 में हम उसमें रहने चले गए।

मेरे पिता और मेरी बहन हमारे परिवार का हिस्सा बन गए। मेरी लड़की ने न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी-जहां बाबासाहब आंबेडकर ने भी पढ़ाई की थी-से अंतरराष्ट्रीय शिक्षा नीति में अपनी एमए की पढ़ाई पूरी कर ली और वह भी हमारे साथ दिल्ली में रहने लगी। उसका स्वप्न था शिक्षा व्यवस्था में ऐसे सुधार करना, जिससे वह गरीबों के लिए उपयोगी बन सके। तेईस साल की आयु में वह वरिष्ठ परामर्शदाता के रूप में सर्व-शिक्षा अभियान से जुड़ गई।

प्रसव पीड़ा

उसके बाद एक पत्रिका शुरू करने के लिए जो कानूनी औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं उनकी कठिन और उबाऊ प्रक्रिया शुरू हुई। मैं पेशे से डॉक्टर हूं-एक प्लास्टिक सर्जन। परंतु यहां ईश्वर ने मुझे एकदम ही नया काम सौंप दिया। हमने एक कंपनी पंजीकृत करवाई। मैंने पत्रिका के लिए ‘ फारवर्ड शीर्षक’ का सुझाव दिया, क्योंकि हमारी दृष्टि में फारवर्ड (आगे) ही वह दिशा थी, जिसमें पिछड़ी जातियों को बढऩा था। परंतु यह नाम उपलब्ध नहीं था। फिर हमने तीन अन्य विकल्प दिए और ‘फारवर्ड प्रेस’ शीर्षक स्वीकृत कर दिया गया। फिर मैंने असंख्य फार्म भरे और डीसीपी लाईसेंसिंग कार्यालय के दर्जनो चक्कर लगाए। इसका कारण यह था कि हम न तो सीधे और न ही एजेंटो के ज़रिए रिश्वत देना चाहते थे। कनाडा में एक लंबा समय बिताने के बाद मैं भ्रष्टाचार के उस स्तर के लिए तैयार नहीं थी, जो मैंने भारत में देखा। मैं अक्सर बहुत परेशान हो जाया करती थी। एक बार तो पुलिस के कार्यालय में मैं लगभग रोने लगी थी। अंतत: लगभग एक साल बाद हमें सारी अनुमतियां मिल गईं और रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज़पेपर्स फॉर इंडिया (आरएनआई) से पंजीयन क्रमांक भी।

हमने कार्यालय और स्टॉफ के लिए भी प्रार्थना की। कनाडा में हमारे मकान को गिरवी रखकर हमने दिल्ली के व्यावसायिक क्षेत्र नेहरू प्लेस में एक छोटा सा कार्यालय खरीद लिया। इमारत बहुत गंदी और बदबूदार थी, परंतु हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञ थे, क्योंकि दिल्ली में किराए बहुत अधिक थे। ईश्वर ने ही स्टॉफ की व्यवस्था भी की। कई प्रयोग करने के बाद हम उस टीम का निर्माण कर सके जो अब हमारे साथ है। यह एक अलग कहानी है। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि हमारी टीम में आरएसएस का एक घुसपैठिया भी शामिल हो गया था, जो टीम को बिखेर देना चाहता था।

मासिक प्रसूति

BAMCEF_2009 003मई 2009 में, जब देश में आम चुनाव हो रहे थे, हमने एफ पी के ट्रायल अंक की एक लाख प्रतियां छापीं। पीछे मुड़कर देखने पर ऐसा लगता है कि हमने शायद बहुत ज्यादा प्रतियां मुद्रित कर ली थीं। हमने, उपलब्ध धन का एक बड़ा हिस्सा शुरू में ही डुबो दिया। परंतु ईश्वर हमारी गलतियों से भी हमारा भला करता है। कुछ माह बाद बामसेफ के एक कार्यकर्ता श्री वीर सिंह ने अंक की एक प्रति रद्दी की एक दुकान में देखी। वे पत्रिका से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपने एक मित्र को हमारे कार्यालय भेजा और उससे कहा कि जितनी भी प्रतियां उपलब्ध हों वह उन सब को खरीद लें। कई दिन बाद वे दलित-बहुजन मित्रों के एक समूह के साथ हमारे कार्यालय आए। और इसके साथ ही बामसेफ  के साथ हमारा लंबा साथ शुरू हुआ। हम लोगों के बीच अच्छी मित्रता हो गई और बामसेफ  के कार्यकर्ताओं की मदद से हम बिना रिश्वत दिए पोस्टल पंजीयन क्रमांक हासिल कर सके।

जून 2009 में पहला ‘आधिकारिक’ अंक प्रकाशित हुआ। बहुत कम कर्मचारियों के साथ मैंने सारे काम निपटाने के लिए कमर कस ली। नई दिल्ली रेलवे यार्ड और करोलबाग स्थित एक छोटी सी वितरण एजेंसी के कार्यालय में मुझे जाना होता था, सुबह-सुबह आई पत्रिकाओं को उतारने में मदद करनी होती थी और पत्रिका को डाक से भेजने के दिन लाईन में खड़ा होना पड़ता था। यह सब आपरेशन थियेटर के वातानुकूल वातावरण से मीलों दूर था परंतु मैं प्रसन्न थी, क्योंकि यह एक ऐसी सर्जरी थी, जो दमनकारी जाति व्यवस्था को निकाल फेकने के लिए की जा रही थी।

हर महीने एक बड़ी राशि हमारे बैंक खातों से निकल जाती थी और उसके वापिस आने के कोई चिन्ह नहीं थे। मेरे पति दिन-रात उनको मिली प्रेरणा के अनुरूप कार्य करने में जुटे रहते थे और अंतत: इस कड़ी मेहनत ने उनका स्वास्थ्य खराब कर दिया। मैं किसी भी तरह से खर्च कम करना चाहती थी। हमारे बीच जमकर विवाद होते थे और यहां तक कि कब-जब तो ऐसा लगता था कि कहीं हमारा विवाह ही खतरे में न पड़ जाए। परंतु एक दिन प्रभु ने मुझे रास्ता दिखाया। उन्होंने मुझ से कहा कि मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए और मुझे जो चाहिए, उसकी पूर्ति वो करेगा। उसने मुझे याद दिलाया कि सालों पहले पुणे में एक दिन जब मुझे धनिया पत्ती की बहुत ज़रूरत थी, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई, मैंने दरवाजा खोला तो पाया कि मेरे पिता की ज़मीन पर काम करने वाला एक माली धनिया की दो बड़ी गड्डियां लेकर खड़ा है। मेरी चिंता काफूर हो गई। वह माली न तो उसके पहले कभी हमारे घर आया था और ना ही उसके बाद कभी आया।

और ईश्वर ने व्यवस्था की भी-कई तरीकों से। कई ऐसे मित्र कंपनी में धन निवेश करने के लिए सामने आए, जिनसे हमारी कभी ऐसी अपेक्षा नहीं थी। हमने पूरी पत्रिका रंगीन और चिकने कागज़ पर मुद्रित करने की बजाए केवल कुछ पेजों को रंगीन छापना शुरू कर दिया। हमने आकार कम किया, हमने स्टॉफ  घटाया, हमने डिजाइनर बदले और किसी तरह हमने पत्रिका को जिंदा रखा।

बढ़ता प्रभाव और कटु आक्रमण

इस बीच एफपी का प्रभाव परिलक्षित होने लगा। यहां तक कि आरएसएस उससे नाराज़ हो गया। सन 2014 के अक्टूबर में हम पर हमला हुआ। हमारे खिलाफ  एक एफ आईआर दर्ज कराई गई, परंतु हमारे ईश्वर ने हमारी रक्षा की। उसने आयवन की आंट को अपने पास बुला लिया और हम उनकी अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए मुंबई चले गए। इसलिए जब पुलिस हमारे घर आई तब हम वहां पर नहीं थे। आयवन, जैसा कि बताया गया, भूमिगत नहीं थे, बल्कि वे अपनी एक प्रिय आंट की अंत्येष्टि में थे।

जब हमें इस हमले की खबर मिली तो उन्होंने अग्रिम ज़मानत के लिए आवेदन किया और हम दिल्ली तभी लौटे जब हमें ज़मानत मिल गई। उसके बाद अदालतों के चक्कर शुरू हुए। पुलिस ने हमारी दोनों कारें जब्त कर लीं थीं। अदालतों के कई चक्कर लगाने के बाद और अपराधियों के बीच घंटों इंतजार करने के बाद हमें हमारी कारें वापिस मिल सकीं। हमारे कंप्यूटर अभी भी पुलिस के पास हैं। कई बार एफ पी को चलाने का तनाव इतना बढ़ जाता था कि मैं अपने पति से कहती थी कि वे उसे बंद कर दें। परंतु इस हमले के बाद हमने यह दृढ़ निश्चय किया कि अब हम डटे रहेंगे।

अविश्वसनीय ढंग से हम सात साल तक मुद्रित संस्करण निकालते रहे। यह एक चमत्कार से कम नहीं था। ईश्वर ने हमारे थोड़े से धन को कई गुना बना दिया, ठीक उसी तरह जिस तरह प्रभु ईसा मसीह ने एक लड़के के थोड़े से चढ़ावे से हज़ारों लोगों को भोजन कराया था। प्रिंट मीडिया के बदलते चेहरे को देखते हुए हमें पत्रिका के मुद्रित संस्करण को बंद करने का कष्टदायक निर्णय लेना पड़ा। यह एक ऐसा बच्चा था, जिसे हमने जन्म दिया था और बड़ी कठिनाईयों से बड़ा किया था। अब हमें इसका गला घोंटना था। हम बहुत दु:खी थे, परंतु हमारे संपादक प्रमोद रंजन ने अंत की बजाए किताबों और वेबसाईट के रूप में रूपांतरण का प्रस्ताव रखा।

हमने इस बारे में प्रार्थना की और ईश्वर ने हमें शांति प्रदान की। यही आगे का रास्ता है। इससे खर्च कुछ कम होंगे यद्यपि फिर भी हमें काफी धन व्यय करना होगा।

हमें यह विश्वास है कि जिस ईश्वर ने हमारी अब तक मदद की, वह इस काम में-जो उसके दिल के नज़दीक है, में भी हमारी मदद करता रहेगा।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

डा. सिल्विया कोस्का

डा. सिल्विया कोस्का सेवानिव‍ृत्त प्लास्टिक सर्जन व फारवर्ड प्रेस की सह-संस्थापिका हैं

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