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जाति उन्मूलन परियोजना क्या हो

आर्थिक पराधीनता के रहते जाति उन्मूलन परियोजना कभी सफल नहीं हो सकती। बता रहे हैं जनवादी लेखक संघ के पूर्व महासचिव चंचल चौहान। इसके लिए वे वाममोर्चे के साथ बहुत बड़ा साझा जनपक्षीय मोर्चा बनाये जाने की जरूरत पर बल दे रहे हैं

एक सामाजिक व्‍यवस्‍था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्‍तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्‍या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी  कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। इसमें आज पढें चंचल चौहान  को संपादक

 Plate42 (1)भारत भूमि पर जाति नामक संस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं, कि जाति के खात्मे के लिए तमाम संतों, सूफियों, समाज सुधारकों, कवियों, लेखकों के उपदेशों और सामाजिक आंदोलनों के बावजूद ये जड़ें उखड़ने के बजाय और अधिक मज़बूत होती गयी हैं। दरअसल, आदिम समाज के बाद जब ‘निजी संपत्ति’ का अधिकार हासिल करके मानव समाज वर्ग-विभाजित हो गया तो नाबराबरी के दौर में प्रविष्ट हुआ, फिर उस नाबराबरी को बनाये रखने के लिए तरह-तरह की दार्शनिक व धार्मिक व्यवस्थाएं संपत्तिशाली वर्गों ने ईजाद कीं। इन्हें मैं एक नाम से चिह्नित करता रहा हूं, वह है : ‘क्लासीकल विचारधारा’। इसे हम दास व्यवस्था के समय की ग्रीक सभ्यता में भी देखते हैं और बाक़ी समाजों में उसी से मिलती जुलती विचारधाराएं पाते हैं, जो नाबराबरी को वैध व स्वीकार्य बनाती रही हैं, ज्यादातर उसे ईश्वररचित बताती हैं। महाकाव्यों में व दार्शनिक विमर्शों में ‘क्लासीकल विचारधारा’ का वर्चस्व देखा जा सकता है। जातिव्यवस्था भी उसी ‘क्लासीकल विचारधारा’ का भारतीय संस्करण है। गीता में इसे भी व्यास ने कृष्ण के मुख से ईश्वर रचित कहलवा दिया है, ‘चातुर्वण्य मया सृष्टम्’। अब भला धर्मभीरु शोषित समाज ईश्वर के रचे गये विधान को कैसे चुनौती दे, सो यह व्यवस्था रूढ़ होती गयी और चेतना पर हावी हो कर एक भौतिक ताक़त बन गयी। अपने अपने जातिगत समूह में या अपने अपने क़बीलों में महफूज़ रहने में लोगों को सुकून भी हासिल होने लगा, यह अब तक चल रहा है।

क्लासीकल विचारधारा क्या है? ग्रीक समाज में दास व्यवस्था के वक्त़ सत्ताधारी प्रभु वर्ग ने एक दार्शनिक विचारधारा गढ़ी, जिसकी परिभाषा करते हुए अंग्रेज़ी कवि टी ई ह्यूम ने कहा कि क्लासीकल विचारधारा यह विचार फैलाती है कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’, उसके लिए जो भाग्य रचा गया है, उसका वह उल्लंघन नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता है तो त्रासद हालत में पहुंचता है। ग्रीक दर्शन और साहित्य को देखें तो पायेंगे कि वहां ऐसा नायक जो विधाता से तयशुदा नियति का उल्लंघन करता है, त्रासद हालत में पहुंचता है। इस तरह दास समाज को डराया जाता था। ग्रीक मिथकों में चाहे आप ‘इडिपस’ को देखें, ‘इकारस’ को देखें, ‘प्रामिथियस’ को देखें, ये सारे अपनी सीमाओं का उल्लंघन करने पर दंड पाते हैं। मगर इन सबके साथ होता वही है, जो मंजूरे खुदा होता है। ग्रीक त्रासद नाटकों में डर पैदा करना आदर्श रचना के लिए ज़रूरी माना जाता था। अरस्तू का काव्यशास्त्र  इसका उदाहरण है। यही क्लासीकल विचारधारा हमारे यहां भी पुराणों व महाकाव्यों में धागे की तरह पिरोयी हुई है। रावण का वध राम के हाथों होना है, सो होता ही है, कंस का वध कृष्ण के हाथों होना है तो लाख चतुराई करने पर भी विधि का विधान मिटता नहीं। यानी भाग्यवाद की वही विचारधारा हमारे यहां भी ब्राह्मणवाद के उन्नायकों ने गढ़ ली जिससे प्रभुवर्ग अपने दासों को वश में रखने के लिए यह उपदेश दे सके कि उसे अपनी सीमा को, अपनी नियति को स्वीकार करके जीवन इसी तरह जीना चाहिए, जिस तरह उसके लिए विधाता ने रच रखा है। यह विचारधारा आज भी हर किसी के होठ पर रहती है, ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा/को करि तर्क बढ़ावहि साखा’, या ‘होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है’।

पश्चिम में दास समाज का ख़ात्मा करके सामंती व्यवस्था क़ायम हुई तो नये दौर की विचारधारा ईसाइयत की शक्ल में आयी, मगर उसमें भी क्लासीकल विचारधारा को नयी शक्ल में अख्त़ियार कर लिया गया जो हमें डाक्टर फ़ास्टस पर लिखे नाटकों, मिल्टन के महाकाव्य, पैराडाइज़ लॉस्ट, में या अलैग्ज़ैंडर पोप की लंबी कविता, एन ऐस्से ऑन मैन में दिखायी देती है। बाइबिल के शुरू में आदम और हौवा अपनी सीमा का अतिक्रमण करते हैं और इसलिए शापित ताड़ित होते हैं। नये रूप में यह विचारधारा ईसाइयत में ‘चेन ऑफ़ बीइंग’ की शक्ल में प्रचारित की गयी जिसमें पत्थर, वनस्पति, इंसान, देवदूत, ईश्वर सबकी एक निश्चित जगह है और कोई उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता। कुरान में भी बाइबिल की कहानी ज्यों की त्यों ले ली गयी। पश्चिम में नवोदित पूंजीवाद के वैज्ञानिक विकास के असर में इन फ़लसफ़ों को एक ओर रूसो ने और रोमानी कवियों ने चुनौती दी तो दूसरी ओर डार्विन की शोधपूर्ण कृति, द ऑरिजिन ऑफ़ स्पीसीज़ ने। इसने तमाम धर्मों में झूठ पर आधारित सृष्टि की कहानी का बखिया उधेड़ दिया। मगर वर्गसमाज में चल रहे शोषण और नाबराबरी के खात्मे का वैज्ञानिक दर्शन मार्क्स और उनके सहयोगी दार्शनिक एंगेल्स ने दुनिया को दिया जिसे समृद्ध करके लेनिन ने रूस में सोवियत क्रांति की और दुनिया के सर्वहारा को यह संदेश दिया कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का ख़ात्मा सर्वहारावर्ग की रहनुमाई और उसके वैज्ञानिक दर्शन की मदद से सामाजिक क्रांति द्वारा किया जा सकता है। उसी से प्रेरणा ले कर चीन समेत दुनिया के कई देशों में क्रांतियां हुईं जहां-जहां विश्वपूंजीवाद पनप नहीं पाया था या जो देश विश्वपूंजीवाद की सबसे कमज़ोर कड़ी थे। आज नेपाल में इसी तरह क्रांति के हालात बन रहे हैं, बशर्ते वहां सर्वहारावर्ग से प्रतिबद्ध सारे कम्युनिस्ट एक हो जायें। नेपाल में क्लासीकल विचारधारा पर आधारित राजशाही और ‘हिंदू राष्ट्र’ की सड़ी व्यवस्था का खात्मा तो हो ही गया। वह एक आधुनिक राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया में है, हालांकि उसे भी चीन की तरह विकास के लिए पूंजीवाद का सहारा लेना पड़ेगा क्योंकि पूंजीवाद में अभी उत्पादक शक्तियों को मुक्त करने की क्षमता बनी हुई है। इसलिए सीधे समाजवाद में प्रवेश संभव नहीं, पहले जनता का जनवाद स्थापित करना होगा।

हमारे यहां शोषकों ने सदियों पुरानी क्लासीकल विचारधारा में एक और नयी कड़ी जोड़ दी, वह है पुनर्जन्म और अवतारवाद की। एक से एक आकर्षक मिथक, क़िस्से, कहानियां गढ़ कर इस विचार को काफ़ी पुख्ता कर दिया है कि मनुष्य का जन्म उसके अच्छे या बुरे कर्मों के फल के अनुसार होता है। इस मान्यता को बड़े पंडितों, विद्वानों व संतों के मुख से उपदेश के रूप में रातदिन हर किसी को सुनाया जाता है। यह सारा उपदेशात्मक तामझाम आज के समय में और अधिक विकराल रूप ले चुका है, असंख्य चैनल हैं जिन पर सभी धर्मेां के उपदेशक क्लासीकल विचारधारा के तत्वों को अवाम के दिलोदिमाग़ में भरते रहते हैं, साधु, साध्वियां, तरह-तरह के बाबा और बापू इसी के प्रचार में लगे हैं, कारपोरेट जगत और विदेशी पूंजी का अच्छा ख़ासा निवेश इस उद्योग में है, अंधविश्वास, अज्ञान और नियतिवाद के विचार फैलाने के लिए स्वतंत्र टी वी चैनल हैं, यहां तक कि न्यूज़चैनलों पर भी पैसा दे कर प्रचारकों ने स्लाट खरीद लिये हैं और उन पर इसी तरह के विचार फैलाये जा रहे हैं। यह लेख लिखते वक्त़ अभी-अभी अख़बार में सरकारी चैनल, दूरदर्शन का एक विज्ञापन देखा जिसमें एक स्लाट नीलाम करने की बोली मांगी गयी है। यह बिना संदेह कहा जा सकता है कि यह स्लाट भी कोई धनिक-बनिक ख़रीद कर अंधविश्वास और क्लासीकल विचारधारा के प्रचार के लिए ही इस्तेमाल करेगा। इस परियोजना में आर एस एस-भाजपा के सांसद, कई मंत्री, प्रधानमंत्री तक शामिल हैं, क्योंकि इससे उनके हि़ंदुत्व की फ़ासीवादी मुहिम को बल मिलता है।

इस तरह के विचार यथास्थिति को स्वीकार्य बनाने में काफी अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस सारे अज्ञानतंत्र के ख़िलाफ़ न कोई ढंग का पापुलर अख़बार है और न कोई टी वी चैनल। कुछ व्यक्ति या उनके संगठन अंधविश्वासों और ब्राह्मणवाद की क्लासीकल विचारधारा के खिलाफ़ मुहिम चला रहे थे वे आर एस एस के हाथों मारे जा चुके हैं। आगे भी मारे जायेंगे। इस तरह क्लासीकल विचारधारा एक ऐसी पुख्ता भौतिक शक्ति बन गयी है जो जाति को मिटाने के उद्देश्य से चलाये गये हर सुधार आंदोलन और वैचारिक संघर्ष को परास्त करती आ रही है।

droughtfarmers1शोषक वर्ग पहले शोषितों को विचारों से ही गुलाम बनाये रखने की कोशिश करते हैं, मगर जब विचारों के हथियारों से गुलामों को कब्ज़े में रखना मुश्किल हो जाता है तो वे दमनतंत्र यानी हथियारबंद सेना, पुलिस, न्यायपालिका आदि के माध्यम से या सीधे-सीधे खुद ही गुलामों पर हिंसात्मक कारर्वाई शुरू कर देते हैं। भारत में दोनों स्तरों पर शोषितों को अपने अधीन रखने की कार्रवाई चलती रही है। अभी विचारों के माध्यम से गुलाम बनाये रखने के लिए ज्यादा निवेश किया जा रहा है। आश्चर्यजनक बात यह है कि जिन संतों और समाजसुधारकों ने जातपांत, छुआछूत व इस तरह की इंसानी नाबराबरी के खि़लाफ़ मुहिम चलायी, या जातपांत में यक़ीन न रखने वाले मज़हब भारत में प्रचलित हुए, उन सबके भक्तजन फिर से उसी ब्राह्मणवादी कर्मकांड में फंस कर अपने गुरुओं के बताये रास्ते को भूल गये। मध्यकाल के कबीरदास हों या गुरु नानक या दूसरे निर्गुण विचारधारा के संत और सूफ़ी संत या आधुनिक भारत के जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले या बाबा साहब आंबेडकर या कांशी राम जैसे समाज सुधारक व राजनीतिज्ञ हों, इन सबके अनुयायी यथास्थिति के भंवरजाल में फंसकर जाति उन्मूलन के लक्ष्य को ही भूल गये और अपनी अपनी जातियों के लिए कुछ राहतें हासिल करने के प्रयासों तक ही उनकी गतिविधि सीमित रह गयी, बड़े लक्ष्य को भूल गये।

तो क्या यह मान लें कि जातिव्यवस्था अमरबेलि है, इसे विधाता का विधान मानकर हाथ पर हाथ रखे बैठना तो मनुष्यता का तक़ाज़ा नहीं है। यह सही है जाति उन्मूलन परियोजना एक बहुत ही मुश्किल और चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है, मगर उसे वैज्ञानिक और तर्कसंगत सोच से अंजाम देना ही होगा, देर सवेर। मेरे विचार से, सबसे पहले उन सभी विद्वानों और सत्यशोधकों को भारतीय समाज के विकास की मौजूदा मंज़िल को समझना होगा। इस शोध से यह साफ़ होगा कि जाति उन्मूलन परियोजना विफल करने वाली ताक़तें इस दौर में कौन सी हैं। ज़ाहिर है कि वर्गविभाजित समाज में शोषकवर्गों का हित साधन करने में ऐसी तमाम विचारधाराएं मददगार साबित होती हैं जिनसे समाज के शोषित दमित दलित हिस्से नाबराबरी के आधार पर आपस में बंटे रहें। ब्रिटिश शासकों ने भी ऐसा ही किया था और लंबे समय तक भारत के अवाम पर राज करते रहे। आजाद हिंदुस्तान के नये शासक भी यही चतुराई बरत रहे हैं। पूरा समाज नाबराबरी के महीन ताने बाने में ऐसे जकड़ा हुआ है कि पहले वर्णों के रूप में नाबराबरी, फिर हर वर्ण के तहत आने वाली जाति के भीतर उच्च व निम्न हैं, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों के भीतर भी अपने अपने घटक हैं, गोत्र हैं जिनके माध्यम से नाबराबरी का जाल बिछा दिया गया है। सवर्ण ही नहीं, दलित समाज भी इसकी पकड़ में आया हुआ है, इस तरह दलित समाज के बीच भी एकता मुमकिन नहीं, उनमें भी उच्च और निम्न हैं। नाबराबरी बरतने का शासकवर्गों का यह खेल पहले से चला आ रहा है और आज के नये शासक वर्गों ने भी अपने हित में इसे बरक़रार रखा है।

ये नये शासक वर्ग हैं कौन? आम धारणा शासक के रूप में किन्हीं व्यक्तियों या पार्टियों को देखती है, पहले राजा महाराजा, नवाब, बादशाह नामचीन शासक समझे जाते थे, अब उनकी जगह पर कोई न कोई व्यक्ति या पार्टी सामने दिखायी देती है। सब कहेंगे कि भारत को आज़ादी गांधी जी ने दिलायी, फिर नेहरू, और उनके परिवारजन या उनकी पार्टी के अन्य नेता शासक बने और आज भाजपा और नरेंद्र मोदी शासक बने हुए हैं। यह आम धारणा पर्दे के पीछे काम कर रहे उन वर्गों की पैदा की हुई है जिन्होंने शासन करते रहने के लिए अपनी पार्टियां बनायीं। वर्ग विभाजित हर देश में असली शासक तो शोषक वर्ग हैं, जनता को उनके सेवक या कठपुतली राजनेता ही सामने दिखते हैं। वास्तव में वे शासक नहीं होते, शासक तो सत्ताधारी वर्ग जैसे पूंजीपति या सामंत या साम्राज्यवादी इज़ारेदार ही होते हैं। इस लोकतंत्र में शोषक वर्गों के हाथों की कठपुतली यह व्यवस्था हमें शोषकवर्गों की उन पार्टियों को ही वोट देने को प्रेरित करती है जिनके सत्ता में आने से शोषण का खेल बरक़रार रहे, उन्हें ही सत्ता में लाने के लिए धनकुबेर पानी की तरह पैसा बहाते हैं। जब उनसे जनता ठगी जाती है तो शोषकवर्ग अपनी ही दूसरी पार्टी में किसी को नया नेता बना कर उसे जनता पर थोप देते हैं और फिर वही खेल चलता रहता है। शोषितजन वर्गीय चेतना के अभाव में धनकुबेरों का हितसाधन करने वाली इस या उस पार्टी को चुनते रहते हैं और ठगे जाते हैं। जाति उन्मूलन की परियोजना की सफलता, दर असल, भारत में शोषण और नाबराबरी पर आधारित समाज व्यवस्था के खात्मे से ही हासिल हो सकती है, और इस खात्मे के बिना हमारा समाज अपने विकास की अगली मंजिल में नहीं प्रवेश कर सकता यानी नाबराबरी और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं ख़त्म हो सकता।

Ambanis_Modiहमारा समाज इस समय विकास की किस मंज़िल में है और अगली मंज़िल क्या हो सकती है जिसे हासिल करने के लिए हम सब भारतीयों को मिलजुल कर संघर्ष करना चाहिए? इसके लिए आज के युग में शोषक वर्गों की पहचान पहले की करनी होगी, जैसे आज़ादी के युग में कर ली थी, सब जान गये थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद हम सबका दुश्मन है, उससे मुक्त होना है। उसके बाद भारत के सबसे बड़े पूंजीपतियों ने कांग्रेस के माध्यम से और दूसरी अनेक राजनीतिक व छद्म नामों से बनायी गयी संरचनाओं से भारत के अवाम पर अपना राज क़ायम किया, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से सीखते हुए उन्होंने भी बड़े सामंतों व भूस्वामियों के साथ गठबंधन बनाया और दूसरे देशों के पूंजीपतियों से कर्ज़ लेने के लिए उनके साथ भी समझौता किया। खुली आंखों से देखें तो यह सिलसिला आज़ादी के बाद से आज तक चल रहा है। इससे हमारी समझ साफ़ होनी चाहिए कि आम भारतीयों के बीच नाबराबरी और शोषण की व्यवस्था को चलाये रखने में ये ही वर्ग सबसे आगे हैं, यानी इज़ारेदार पूंजीपति और भूस्वामी, व इनसे सहयोग कर रही है अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी जो आइ एम एफ़ और विश्वबैंक के माध्यम से सभी विकसित समाजों का दोहन करते हुए फलफूल रही है, उसका शिकंजा दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है, सारे अर्थशास्त्री सलाहकार मनमोहन सिंह, मोंटेकसिंह अहलूवालिया, रघुराम राजन कांग्रेस के समय में और रघुराम राजन, अरविंद सुब्रहमनियन, अरविंद पनगडि़या आदि मोदी सरकार के समय में विश्वबैंक के ही भेजे हुए भारत की अर्थव्यवस्था पर क़ाबिज हैं, आगे भी आयेंगे वहीं से। शोषकवर्गों की पार्टियां इस तरह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की सेवा में लगी हुई हैं, इसलिए नाबराबरी और शोषण के तंत्र को मज़बूत करना विश्वपूंजीवाद के हितों की रक्षा के लिए हमारे शासकों ने ध्येय बनाया हुआ है।

तो शोषकों का यह जमघट है जिन से आज़ाद हुए बग़ैर इंसानी नाबराबरी की कोई भी परियोजना कामयाब नहीं हो सकती, जड़ की पहचान न हुई तो पत्तियां व टहनियां काट देने से कोई विषवृक्ष ख़त्म नहीं हो सकता। अब तक हमारे बहुत से संत, कवि, दार्शनिक, समाज सुधारक, दलित विचारक व राजनीतिज्ञ जातिवाद के विषवृक्ष की पत्तियां तोड़ कर उसे नष्ट करने के उपाय सुझाते रहे, भयानक वृक्ष की जड़ें समाज में और गहरी होती गयीं। इसलिए इंसान व इंसान के बीच बराबरी की परियोजना से अलग करके इसे देखना सिर्फ़ पेड़ के पत्तों पर निशाना साधने की तरह ही होगा।

अब सवाल उठता है कि समाज को विकास की अगली मंज़िल में ले जाने की जि़म्मेदारी इतिहास के इस दौर में किस वर्ग पर आयद होती है। चूंकि समाज पर कब्ज़ा किसी व्यक्ति या किसी पार्टी का नहीं, वह शोषक वर्गों का है जो अपनी सेविका पार्टियों के माध्यम से शासन करते हैं, शोषण चक्र को आगे बढ़ाते हैं और नाबराबरी बनाये रखने के सारे उपाय संभव बनाते हैं, तो उनसे संघर्ष करने का नेतृत्वकारी रोल भी वर्गों का ही होगा, किसी व्यक्ति या राजनेता का नहीं। मानव इतिहास ने यह ज़िम्मेदारी सर्वहारा वर्ग पर डाली है क्योंकि यह वर्ग ही शोषण व नाबराबरी की सारी पेचीदगियां समझने में व वर्ग-संघर्ष के माध्यम से समाज को आगे की मंज़िल में ले जाने में सक्षम हो सकता है, उसके पास वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा भी है, इसलिए वही हिरावल दस्ता हर जगह विश्वपूंजीवाद से टक्कर ले कर समाज को आगे ले जाने की ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है। वही वर्ग आधुनिक ज्ञान से लैस हो कर सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी क्लासीकल विचारधारा से टकरा सकता है। दूसरे वर्ग उसके सहयोगी हो सकते हैं, जो भी शोषण व नाबराबरी की आग में जल रहे हैं। इससे यह समझ में आता है कि सर्वहारा वर्ग की रहनुमाई करने वाले वाममोर्चे के साथ बहुत बड़ा साझा जनपक्षीय मोर्चा बनना चाहिए जिसमें वे सारे वर्ग शामिल हों, जो इज़ारेदार पूंजीपति व बड़े भूस्वामियों के गठबंधन वाले शोषणतंत्र व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के चंगुल से हमारे समाज को निकालकर एक सच्चे जनवादी जनतंत्र की नयी मंजिल में ले जा सकें। आर्थिक पराधीनता के रहते जाति-उन्मूलन परियोजना कभी सफल नहीं हो सकती।

लेखक के बारे में

चंचल चौहान

चंचल चौहान, डाक्टर एच. एस. चौहान का तकल्लुस है। फरवरी 1982 में जनवादी लेखक संघ की स्थापना के बाद उन्होंने उसे हिन्दू-उर्दू लेखकों का प्रभावी वामपंथी संगठन बनाने में उल्लेखनीय भूमिका अदा की। उन्हें संघ के वाराणसी सम्मलेन में उसका केन्द्रीय सचिव चुना गया। उसके बाद से वे जनवादी लेखक संघ के सचिव, अतिरिक्त महासचिव और फिर 2003 से 2014 तक महासचिव रहे। वे जनवादी लेखक संघ के हिंदी प्रकाशन ‘नया पथ’ के संपादक भी रहे। राजकुमार सैनी के साथ उनका पहला कविता संग्रह ‘प्रहार स्याह रात पर’ 1972 में प्रकाशित हुआ। उनका स्वतंत्र कविता संग्रह ‘खोलो बंद झरोखे’ 1982 में प्रकाशित हुआ। वे 1979 में प्रकाशित ‘जनवादी समीक्षा’ (जो बाद में ‘आलोचना यात्रा’ शीर्षक से पुनर्प्रकाशित हुई) के लेखक है। उनका पीएचडी शोधप्रबंध ब्रिटिश नाटककार सर अर्नाल्ड वेस्कर पर था। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के शिक्षक रहे हैं।

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