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कश्मीर : और कितना गिरेगा मीडिया

ये न्यूज़ चैनल कश्मीर मुद्दे का प्रस्तुतीकरण इस दावे के साथ कर रहे हैं कि वे ‘स्वतंत्र’और ‘मुक्त’ हैं परन्तु सच यह है कि उनके आलेख सरकार और सेना लिखती है

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मीडिया सेंशरशिप के खिलाफ कश्मीरी पत्रकारों का प्रतिरोध

एक छोटे से तबके को छोड़ कर, भारतीय मीडिया इन दिनों राज्य की विचारधारा और बहुसंख्यककों की सोच का भोंपू बना हुआ है। कहने का अर्थ यह नहीं है कि मुख्यधारा का मीडिया पहले पूरी तरह से निष्पक्ष था। परन्तु कश्मीर के मामले में तो उसने अपने ही पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं।

बुर्जुआ प्रजातंत्र में भी मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घटनाओं के प्रस्तुतीकरण में निष्पक्ष रहे और अपने पाठकों और दर्शकों के सामने किसी भी घटनाक्रम या मुद्दे के सारे पक्ष रखे। परन्तु भारतीय मीडिया, विशेषकर चौबीस घंटे के खबरिया न्यूज़ चैनलों, का किसी सिद्धांत से कोई लेनादेना नहीं हैं। ये चैनल कश्मीर मुद्दे का प्रस्तुतीकरण इस दावे के साथ कर रहे हैं कि वे ‘स्वतंत्र’ और ‘मुक्त’ हैं परन्तु उनके आलेख सरकार और सेना ही लिखती है। सिवाय पीड़ितों के विचारों के, ये चैनल सब कुछ दिखाते हैं।

पहले मैं लोकप्रिय हिंदी न्यूज़ चैनल ‘आज तक’की बात करूंगा। इस चैनल द्वारा हाल में प्रसारित एक समाचार कार्यक्रम में फोकस सेना के प्राधान्य वाले राज्यतंत्र के हाथों कश्मीरियों को जो भोगना पड़ रहा है उस पर न होकर, सैन्य बलों के सदस्यों की मौतों पर था। चैनल ने इस बात पर ढ़ेरों आंसू बहाए कि सैनिकों पर कश्मीरी अतिवादी क्रूर हमले कर रहे हैं और उनकी जानें खतरे में हैं।

दरअसल, यह एक अतिशयोक्ति है। विरोध प्रदर्शन करने वाले कभी राज्य की मशीनरी की ताकत का मुकाबला नहीं कर सकते और यही कारण है कि राज्य में सैकड़ों नागरिक घायल हुए हैं, अपनी आँखें खो बैठे हैं और दर्जनों को जान गंवानी पड़ी है। लगातार कर्फ्यू के कारण लोगों के पास खाने-पीने की सामग्री और दवाओं की कमी हो गयी है। राज्य द्वारा जब चाहे इन्टरनेट और मोबाइल सेवाएं बंद कर देने से उनकी समस्याएं बढ़ी हैं। परन्तु ‘आज तक’की निगाहों में केवल सैन्य बल ही पीड़ित हैं।

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बुरहान वानी की शवयात्रा में उमड़ा जनसमुद्र

इसी मीडिया ने दशकों से जारी कश्मीर के सैन्यीकरण को छुपाने का पूरा प्रयास किया। कश्मीर दुनिया के सबसे सैन्यीकृत इलाकों में से एक है। वहां लोगों को रोज़ सड़कों पर रोका जाता है, उनकी तलाशी ली जाती है, उनसे पूछताछ की जाती है और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे यह साबित करें कि वे सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है। पूरा क्षेत्र स्थाई रूप से निगरानी में रहता है और वहां हमेशा आपातकाल लागू रहता है।

फिर सैन्य बलों के हालात पर रिपोर्टिंग करने में भी मीडिया कितना ईमानदार है? क्या उसमें लोगों को यह बताने का साहस है कि सैनिकों– जिनमें से अधिकांश समाज के निचले तबके से आते हैं– की जान को असली खतरा अतिवादियों से नहीं वरन सैन्यीकरण से है।

दूसरा उदाहरण है मुद्दों को सनसनीखेज बनाने और उनका साम्प्रदायीकरण करने में सिद्धहस्त हिंदी न्यूज़ चैनल ज़ी टीवी का। इस चैनल ने जेएनयू में ९ फरवरी 2016 की घटना का साम्प्रदायीकरण करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। इस चैनल ने बुरहान वानी को सर पर हरे रंग का कपड़ा बांधे हुए दिखाया। इस कपड़े पर कुछ इस्लामिक धार्मिक प्रतीक बने हुए थे। वानी को इस तरह दिखाए जाने का उद्देश्य था यह सन्देश देना कि कश्मीर का संघर्ष और वहां के लोगों का आक्रोश किसी धर्म से प्रेरित है। यह एक शुद्ध राजनैतिक मुद्दे को धार्मिक रंग देने की कोशिश थी। इस तरह के सन्देश से भारत के राजनीतिक श्रेष्ठि वर्ग को बहुत लाभ होता है। इससे समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो जात है, पीड़ितों के समर्थन में कमी आती है और बहुसंख्यकवादी सोच को बढ़ावा मिलता है, जिससे चुनाव में लाभ मिलने की उम्मीद रहती है।

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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