h n

पंजाब में दलितों का भूमि आंदोलन

पंचायत की जमीनों पर मालिकाना हक़ के लिए जागरूक हो रहे हैं, पंजाब के दलित। अपने हक़ के लिए आंदोलित दलितों के खिलाफ पुलिस और स्थानीय दबंग किसानों की सांठगाँठ कहर बरपा रही है- पड़ताल कर रहे हैं ईश मिश्रा और बता रहे हैं व्यापक जनांदोलन की संभावना

protest25 मई 2016 के पंजाब के अखबारों में प्रदेश के संगरूर जिले की भवानीगढ़ तहसील के बालद कलां गांव में जमीन के अधिकार के लिए आंदोलित दलितों पर पुलिस की बर्बर कार्रवाई की खबर छपी। जनहस्तक्षेप के साथियों ने वहां जाकर सच्चाई जानने का फैसला किया 28-29 मई को हमारी टीम ने आंदोलन के कुछ गांवो का दौरा किया। बालद कलां के दलित अनसूचित जाति समुदाय के लिए आरक्षित पंचायती जमीन की नीलामी में ‘फर्जीवाड़ा’ का विरोध कर रहे थे।

पंजाब की ग्रामीण संरचना में जातीय वर्चस्व का आधार आर्थिक संसाधनों, मुख्यतः खेती की जमीन पर मिलकियत में गैरबरारी है। इसीलिए जमीन कि यह लड़ाई जातिवादी दमन तथा जातिवाद के विरुद्ध भी है, क्योंकि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रही हैं। जमींदार या बड़े-छोटे-मझले किसान ज्यादातर ऊंची जातियों (प्रमुखतः जाट) के हैं, दलित ज्यादातर भूमिहीन। गांवों में दो तरह की शलमात (सामूहिक) जमीनें हैं, नजूल और पंचायती। नजूल  जमीन ज्यादातर ऐसी जमीनें हैं, जिनके मालिक बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये और जो पंजाब के उस तरफ से आये लोगों को आबंटित करने के बाद बच गयी तथा जिन जमीनों के मालिक बिना उत्तराधिकारी या विरासत के मर गये। हर ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में कुछ सार्वजनिक जमीन पंचायत के आधीन होती है। पंजाब विलेज कॉमन लैंड रेगुलेसन ऐक्ट, 1961 के तहत खेती की सार्वजनिक जमीन में एक-तिहाई पर अनुसूचित जातियों के आरक्षण का प्रावधान है। आंदोलन से जुड़े पंजाबी कवि तथा नवजवान भारत सभा के कार्यकर्ता सुखविंदर सिंह पप्पी ने बताया कि कागजों पर 56,000 एकड़ जमीन दलितों को आबंटित थी, लेकिन जमीन पर एक इंच भी नहीं। पंचायती जमीन की सालाना नीलामी होती है। धनी किसान किसी डमी दलित किसान के नाम से बोली लगाकर जमीन पर काबिज रहते रहे हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ आई दलित चेतना में उभार से दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए।

पंजाब में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास है। लेकिन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ज़ेडपीयससी) के तत्वावधान में पंजाब के मालवा क्षेत्र के बहुत से गांवों में चल रहा भूमि आंदोलन कई मायनों में पहले के आंदोलनों से अलग है। यह एक नये किस्म का जातीय/वर्ग संघर्ष है। एक तरफ पंचायती ज़मीन की एक-तिहाई के असली हक़दार गांव के दलित हैं, दूसरी तरफ फर्जीवाड़े से उस पर, प्रशासन की मिलीभगत से काबिज रहे ऊंची जातियां। इस आंदोलन की एक खास बात है सामूहिकता। संघर्ष की सामूहिकता की बुनियाद पर जिन गांवों के दलितों ने खेती की जमीन हासिल की है वहां उन्होंने सामूहिक खेती के प्रयोग से, सामूहिक श्रम तथा उत्पादों के जनतांत्रिक वितरण की प्रणाली के सिद्धांतों पर ज़ेडपीयससी के परचम तले दलित सामूहिक की नींव डाली। यहां कुछ आंदोलनों के मार्फत दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) की व्याख्या की कोशिस करेंगें।

बनरा संघर्ष : एक नई शुरुआत

धोखाधड़ी तथा प्रशासन की मिलीभगत के फर्जीवाड़े से दलितों के लिए आरक्षित पंचायती जमीन पर ऊंची जातियों के धनी किसानों का नियंत्रण बना रहा। 2008 में बरनाला जिले के बनरा गांव के बहाल सिंह ने क्रांतिकारी पेंदू मजदूर यूनियन के परचम तले गांव के 250 दलित परिवारों को लामबंद किया। आंदोलित लामबंदी ने ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि जाट जमींदारों तथा धनी किसानों के लिए कोई बिकाऊ डमी दलित मिलना असंभव हो गया। आंदोलन से सामूहिकता की विचारधारा ने जन्म लिया। सामूहिक बोली से बनरा के दलितों ने गांव की 33% पंचायती जमीन (9एकड़) का सामूहिक पट्टा करवा। आत्मसम्मान तथा मानवीय प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह 9 एकड़ जमीन बनरा के दलितों के लिए संजीवनी साबित हुई। उत्पीड़न की साझी यादों तथा साझे संघर्ष के उत्पन्न हुई सामूहिकता की समझ। खाद्यान्न उत्पादन के लिए जमीन बहुत कम है, प्रति परिवार 10 बिस्सा। सोची-समझी योजना के तहत वे धान-गेहूं की पारम्परिक फसल चक्र की बजाय सामूहिक जमीन पर चरी और बरसीम जैसी चारे की खेती का बारहमासी फसलचक्र अपनाया। 11 लोगों की निर्वाचित समिति उत्पादन तथा समुचित वितरण की देख-रेख करती है।  वितरण अगले साल की बोली की रकम की बचत के बाद होता है। मवेशियों के चारे के लिए गांव की महिलाओं को दूर दूर जाना पड़ता था या जमींदारों के खेतों में जहां उन्हें अपमानित होना पड़ता था। जमीन का यह संघर्ष जातीय वर्चस्व के विरुद्ध आर्थिक संघर्ष है।

बनरा प्रयोग का प्रसार 5 साल से अधिक समय तक स्थिर रहा, लेकिन दलित सामूहिकता का विचार पूरे मालवा में फैल गया।

शेखा : सामूहिकता का अगला चरण

बनरा दलित सामूहिकता के प्रयोग से उत्साहित पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीयसयू) के छात्रों ने सरकारी दस्तावेजों की छान-बीन से बनरा गांव की पंचायती जमीन में दलितों का हिस्सा मालुम किया तथा गांव के दलित परिवारों को लामबंद किया। छात्रों के नेतृत्व में दलित लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप सामूहिक बोली से दलितों के लिए आरक्षित जमीन हासिल करने में सफल रहे।  इन्होंने भी प्राप्त जमीन पर साझा खेती की प्रणाली को ठोस रूप दिया। शेखा के दलितों ने भी पारंपरिक फसलचक्र से हट कर चारे की सामूहिक खेती शुरू की। महिलाओं को चारे के लिए घास की तलाश में के लिए दूर-दूर जाना होता था या जमींदारों की जमीन में। जमींदारों के खेतों से घास काटने की अवमानना से मुक्ति मिल गयी। बनरा की सफलता से उत्साहित पूरे राज्य में आंदोलन के विस्तार, संघर्ष को सांगठनिक आयाम देने तथा विभिन्न आंदोलनों के समन्वय के उद्देश्य से जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी(ज़ेडपीयससी) का गठन किया गया। आज मालवा के सैकड़ों गांवों में ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में आंदोलन चल रहे हैं।

बालद कलां : आंदोलन का समीकरण

इन आंदोलनों में मौजूदा विवाद का कारण, बालद कलां का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है।  यहां कुल शालमात जमीन का रकबा काफी है– 375 एकड़ जिसमें दलितों के लिए आरक्षित जमीन का रकबा 125 एकड़ है। पंचायती जमीन की नीलामी में पुलिस-प्रशासन तथा ऊंची जातियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़े के विरुद्ध 24 मई 2016 को संगरूर जिले की भवानीगढ़ के बालद कलां के दलितों के सड़क-रोको आंदोलन पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया। महिलाओं समेत कई आंदोलनकारी बुरी तरह घायल हो गये और कई गिरफ्तार। दो लड़कियां कोचिंग सेंटर जा रही थीं उन्हें भी पुलिस ने घसीट-घसीट कर पीटा। 28 मई को जब जनहस्तक्षेप की टीम संगरूर जिले के कुछ आंदोलित गांवों के दौरे पर उन महिलाओं से मिली तो पैरों पर 4 दिन पुरानी चोट के ताजे नीले घाव दिखाते हुए उनके चेहरे पर खौफ नहीं, आत्मविश्वास और संघर्ष के दृढ़ संकल्प के भाव थे। उनके लिए भी यह सिर्फ आर्थिक मुद्दा नहीं है। यह इज्जत का मामला है। पंजाब में खेती के मशीनीकरण तथा कीटनाशकों के प्रयोग से पशुओं के चारे के लिए घास की संभावनाएं कम होकर नहरों के तटों तथा खेतों की मेड़ों तक सिमट गयी हैं। दलितों के पास खेत नहीं थे। महिलाएं जब ऊंची जातियों के किसानों के खेतों से घास काटने जातीं तो उन्हें जमीन वालों के हाथों काफी अपमान एवं दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता था। अब उन्हें यह अपमान बर्दाश्त करने की बाध्यता नहीं है।

1961 में कानून बनने के बावजूद गांव के दलित अपने हिस्से की जमीन से वंचित थे तथा धनी किसान डमी दलित की बोली के आधार पर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पते रहे। अपने अधिकार तथा सामूहिकता की ताकत की चेतना से लैस दलितों ने खुद को ज़ेडपीयससी की इकाई के रूप में संगठित कर अप्रेल 2014 में संघर्ष छेड़ दिया। सामूहिक बोली से नीलामी में पट्टा हासिल कर साझा खेती शुरू कर दिया। यहां भी 11 लोगों की निर्वाचित कमेटी सामूहिक उत्पादन-वितरण की देखरेख करती है। अगली बोली के लिए आमदनी बचाकर उत्पाद सब परिवारों में बंट जाता है। थोड़ी जमीन में चारे की फसलें, चरी व वर्सीम, बाकी ज़मीन पर खाद्यान्न उपजाते हैं। कल तक जमींदार जिन्हें पैर की जूती समझते थे आज उनका सम्मान से जीना उन्हें रास नहीं आ रहा है। वे प्रशासन की मिलीभगत से इस बार फिर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पने के चक्कर में हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर डटे हैं, कुछ भी हो जाये वे जमीन न छोड़ने को कटिबद्ध।

Pendu and Khet Mazdoor Union2014 के आंदोलन में पुलिस की बर्बर मार से हफ्तों कोमा (बेहोशी) में रही गांव की 40 वर्षीय परमजीत कौर पुलिस की बर्बरता की याद कर रो पड़ीं, लेकिन उन्होंने बताया कि अपनी जमीन के चलते जमींदारों के अपमान से मुक्ति की खुशी में पुलिस की यातना की पीड़ा छोटी दिखती है। बालद कलां की सफलता के बाद संगरूर और बरनाला जिलों के लगभग 20 गांवों में दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) बन चुके हैं, बाकी गांवों में भी दलित लामबंद हो रहे हैं। छोटी जमीनों पर सांझा खेती के बाद इतनी बड़ी जमीन पर साझा खेती एक चुनौती थी जिसे दलितों ने स्वीकार किया तथा साझा खेती के फायदे को चिन्हित। यहां भी सामूहिकता का सैद्धांतिक आधार सामूहिक स्वामित्व, सामूहिक श्रम प्रक्रिया तथा जनतांत्रिक वितरण है।

दलित महापंचायत

मई में पंचायती जमीन की नीलामी से पहले अप्रैल 2015 में जेडपीयससी ने भवानीगढ़ में दलित महापंचायत का आयोजन किया जिसमें मालवा के 5 जिलों के लगभग 100 गांवों से हजारों लोगों ने भागीदारी की। पंचायत ने जिन गांवों में दलित सामूहिकता बन चुकी है उन्हें और सुदृढ़ करने तथा अन्य गांवों में इसके विस्तार पर विचार-विमर्श किया। 20 मार्च को ग्राचों गांव में एक और दलित पंचायत हुई। इस गांव के दलितों ने भी जमीन हासिल कर सामूहिकता का निर्माण कर लिया है। 102 गांवों के लगभग 400 दलितों ने इस सम्मेलन में भागीदारी की।

मतोई : महिला सशक्तिकरण की मिशाल

वैसे तो कई गांवों में दलितों के संघर्ष जारी हैं लेकिन मतोई का संघर्ष गौरतलब इसलिए है कि इस गांव के आंदोलन की शुरुआत और नेतृत्व छात्राओं ने किया। शहर में पढ़ने वाली संदीप कौर के नेतृत्व में कॉलेज में की छात्राओं ने दलित परिवारों को लामबंद किया तथा लंबे संघर्ष के बाद जमीन हासिल कर साझा खेती और दलित सामूहिकता का गठन किया।

खेड़ी : सामाजिक न्याय का मजाक

1976 में खेड़ी गांव के भूमिहीन किसानों को आवासीय प्लॉट आबंटित किए गये। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के एक आदेशानुसार, आबंटन के 3 साल के अंदर अगर मकान न बने तो पंचायत जमीन वापस ले लेगी। लेकिन 4 साल पहले तक उन्हें इसकी सूचना ही नहीं थी।   खेड़ी के दलितों ने जेडपीयससी के नेतृत्व में अपनी जमीन को लाल झंडे से घेर कर वहीं डेरा डाल दिया है। धनी किसानों तथा पुलिस के उत्पीड़न तथा धमकियों की परवाह न कर वे अपनी जमीन पर डटे हैं तथा सामूहिक खेती का मामला तो नहीं है लेकिन साझा रसोई का प्रयोग वे कर रहे हैं। धनी किसानों, पुलिस तथा प्रशासन के दमन-उत्पीड़नों को धता बताते हुए, आंधी-बारिस से लड़ते हुए वे अब अपनी जमीन से हटने के लिए तैयार नहीं हैं, कुछ भी हो जाये।

इनकी जमीन छीनने के लिए धनी किसान पुलिस-प्रशासन की मदद से फर्जीवाड़े की कोशिश में लगे हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर आखिरी सांस तक कब्जा न छोड़ने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपमान झेलते हुए बड़ी जातियों के किसानों के खेतों में बुआई-कडाई करने वाले इन दलितों के लिए अपनी जमीन का विचार ही किसी सपने सा है। ज़ेडपीयससी के 54 साल के एक कार्यकर्ता, बात करते-करते 2 साल पहले की अनुभूतियों में खो गये जब ज़िंदगी में पहली बार ‘अपने’ खेत में फावड़ा चलाया था। वे उन 700-800 के आंदोलनकारियों में थे जिन्होंने 2014 के संघर्ष किया। उस समय भी पुलिस ने ऐसी ही बर्बरता दिखाई थी। वे इतनी बुरी तरह घायल हुए थे कि जटिल सर्जरी करनी पड़ी थी। ‘‘चोट का दर्द काफी था लेकिन अपने खेत के विचार की मन की खुशी से दब गया था।’’ शासन की पुरानी रणनीति है आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमें। लेकिन पंजाब के दलितों ने मुकदमों से डरना बंद कर दिया है। इस पूरे आंदोलन में पुलिस-प्रशासन की भूमिका दलित विरोधी रही है।

निष्कर्ष

ये आंदोलन इस धारणा के खंडित करते हैं कि पंजाब के खेतिहर संबंध सामंती की बजाय पूंजीवादी हैं क्योंकि जैसा कि स्पष्ट है कि ऊंची जातियों तथा प्रशासन में दलितों के प्रति भेदभाव आज भी एक सच्चाई है। 1961 में जमीन आरक्षण का कानून पास हुआ लेकिन अब तक वह कागजों पर ही रहा। वैसे तो सरकार को चाहिए कि पंचायती जमीन की हर साल नीलामी के बजाय सामूहिक किसानों को लंबी अवधि के लिए पट्टे पर दे दे। छात्रों की पहल पर दलितों ने जमीन के हक़ की जो लड़ाई शुरू की है, उसमें व्यापक जनांदोलन की संभावनाएं छिपी है।

लेखक के बारे में

ईश मिश्रा

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग में पूर्व असोसिएट प्रोफ़ेसर ईश मिश्रा सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहते हैं

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...