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असंतोष को मिली उचित दिशा

शोषण की कोई यांत्रिकी अगर शूद्र, स्त्री, विधर्मी, आदिवासी या दलित का किसी एक धर्म-दर्शन या एक ढंग के इतिहास के आधार पर शोषण कर रही है तो समाधान को लक्षित चोट उस यांत्रिकी के आधारभूत स्तंभों पर ही होनी चाहिए

2015_October_2015_Pdf-page-001दलित बहुजनों के सशक्तिकरण के लिए निकलने वाली अन्य पत्रिका, अक्सर साहित्यिक रुझान लिए हुए कहानियों, कविताओं और उपन्यासों या आत्मकथाओं से भरी हुई होती हैं। हालांकि पूरी जिम्मेदारी से यही कहना उचित होगा कि जिन भी लोगों ने अपने सृजन कर्म में दलितों-बहुजनों-आदिवासियों की समस्या को किसी भी तरह उठाया है, वे बहुत सम्मान और श्रेय के पात्र हैं। उनके सृजन ने कम से कम इतना तो किया कि इस बड़े शोषित वर्ग को मुख्यधारा के साहित्य और विमर्श में जगह मिली है। लेकिन यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि ऐसी पत्रिकाओं में असंतोष को उभारने की महारथ होती है। यह प्रचलित साहित्य की विशेषता और सीमा-दोनों ही है। असंतोष उभारना, शोषण व दमन को उभारना और उस उभर गए असंतोष को वापस उसी पुराने महाकाव्य के कम्पास और नक्शे के भरोसे छोड़ देना-यह सामान्य दलित बहुजन पत्रिकाओं का कुल जमा काम रहा है। ऐसी पत्रिकाएं भी हैं, जो पत्रकारिता के तत्वों को अधिक समेटे हुए आज के शोषण और दमन को आवाज देती हैं। प्रकारांतर से यह भी वही काम है -असंतोष को उभारना। यहाँ अब बड़ा प्रश्न ये है कि ये असंतोष किस दिशा में जाए, कौन इसका किस दिशा में उपयोग करे, क्या राजनीति इसे उपयोग करे, क्या नए धर्म की उभरती प्रस्तावना इसे उपयोग करे, क्या नए ढंग की पत्रकारिता इसे उपयोग करे, क्या केवल दलित इसे उपयोग करें, क्या सिर्फ ओबीसी या आदिवासी इसे उपयोग करें, क्या स्त्रियां इसे उपयोग करें? इन सबसे भी बढ़कर ये प्रश्न है कि क्या इन विभाजनों में अलग-अलग जाए बिना ऐसी कोई सम्मिलित दिशा हो सकती है, जो इन सबको इकट्ठा ही संभाल ले?

इस बिंदु पर आकर हम देख पाते हैं कि फारवर्ड प्रेस मासिक अभी तक क्या कर रही थी। मैं तो कम से कम इसे ऐसे ही देखता आया हूँ। इतने विभाजन और विस्तार हैं। उनसे जुड़ी समस्याओं का अगर एक-सा स्त्रोत है, तो उनके संभावित समाधानों में भी एक अनिवार्य संगति और संश्लेषण होना ही चाहिए। ये एकदम तर्कपूर्ण बात है। शोषण की कोई यांत्रिकी अगर शूद्र, स्त्री, विधर्मी, आदिवासी या दलित का किसी एक धर्म-दर्शन या एक ढंग के इतिहास के आधार पर शोषण कर रही है तो समाधान को लक्षित चोट उस यांत्रिकी के आधारभूत स्तंभों पर ही होनी चाहिए। इन आधारों को एकसाथ किस शैली में चुनौती दी जाए? इसके लिए जरुरी होगा कि साहित्य और पत्रकारिता का एक नया ही संयोग हो जो कि शोध पर आधारित हो। जो कि प्रवृत्तियों और दिशाओं के साथ साथ तथ्यों से उभर रहे वृहत कथानकों को भी उभार सके। ये वृहत कथानक (ग्रेण्ड नेरेटिव्स) असल में खंडित रूप में अलग-अलग नेरेटिव्स के साथ जब पेश किये जाते हैं तो भटकाते हैं, लेकिन इनका वृहत रूप जब एक साथ रखा जाए तो ये शोषण के अतीत सहित भविष्य की मुक्ति का पूरा मार्ग स्पष्ट कर देता है।

मौलिक शोध पर आधारित और अच्छी भाषा में ऐसे लेखन को सामने लाना जो अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह सधा हुआ हो -यह अब तक इस पत्रिका ने बखूबी किया है। एक अन्य पहल जो कि इसने की, वह थी द्विभाषी स्वरूप को अपनाना, जिससे कि दलित-बहुजनों को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार किया जा सके। अच्छी इंग्लिश जो पढ़ने, समझने और लिखने वालों की एक बड़ी संख्या बन सके, जो हिंदी सहित इंग्लिश में भाषा, शब्दों और सौंदर्यशास्त्र के आतंक से मुक्त हो। इस चुनाव के साथ प्रतिबद्धता से काम करते हुए इस पत्रिका ने बहुत सी चीजों को तोड़ा है। जिस महाकाव्य के उभार की उपर बात की गयी है, उसे अन्य किसी पत्रिका ने इतना मुखर समर्थन नहीं दिया है, और शायद इस बेबाकी के लिए ही इस पत्रिका को विराम भी लेना पड रहा है।

वह उभरता महाकाव्य-वह वृहद कथानक, जो कि इस देश की धर्म, दर्शन, संस्कृति और इतिहास की सामान्य समझ को एकदम से उलट देने वाला है – उस दलित विमर्श को पूरे विस्तार में प्रस्तुत करना मेरी नजर में इस पत्रिका का सबसे महत्वपूर्ण काम रहा है। महिषासुर की बात हो या रावण की बात हो उसे पूरे तथ्यों के साथ पेश करना,अतीत में खो गयी संस्कृति के वर्तमान वाहकों को सामने लाकर उस संस्कृति को जि़ंदा करने की तैयारी रखना एक बड़ी हिम्मत की बात है जो किसी अन्य पत्रिका या साहित्यिक पहल ने कभी नहीं की। वे कर भी नहीं सकते क्योंकि वेद-वेदांत और आत्मा-परमात्मा की गहरी और शोषक मान्यताओं में भीगे साहित्यकार या पत्रकार रावण और महिषा जैसे नायकों के धर्म और संस्कृति को सम्मान दे ही नहीं सकते। इन नायकों पर सोचते हुए वे कौतुहल की मुद्रा में सोचते हैं, उस सोच में एक खो गई संस्कृति की चीत्कार या उसके पुनर्जन्म की संभावना की पुलक शामिल नहीं होती। इसीलिये उनका लेखन शब्दों और भाषा के आतंक में डूबा रहता है और एक आम दलित या बहुजन को गहराई से जोड़ नहीं पाता। लेकिन फारवर्ड प्रेस ने जो बीड़ा उठाया था वह नई संस्कृति और नये धर्म की तरफ  बढ़ चला है। पत्रिका स्वयं में एक बड़े आंदोलन को जन्म दे चुकी है, जो मिथकों सहित मिथकीय इतिहास पर खड़े पूरे ढाँचे को तोड़ देने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसके लिए दलित-बहुजन समाज का बड़ा हिस्सा तैयार भी हो रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महत्वपूर्ण मुकाम पर पत्रिका का प्रिंट संस्करण बंद हो रहा है। लेकिन सब तरह की विवशताओं का सम्मान करते हुए यह आशा की जा सकती है कि इसका वेब वर्जन और अधिक प्रभावशाली बनकर उभरेगा और अपनी मौलिक प्रेरणा को बनाए रखते हुए दलित बहुजनो की मुक्ति के संघर्ष को निर्णायक रूप से आगे बढ़ाएगा।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

संजय श्रमण जोठे

संजय श्रमण जोठे एक स्वतंत्र लेखक और शोधकर्ता हैं,। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीस से अंतरराष्ट्रीय विकास में MA हैं और वर्तमान में TISS मुम्बई से पीएचडी कर रहे हैं। इसके अलावा सामाजिक विकास के मुद्दों पर पिछले 15 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत रहे हैं।जोतीराव फुले पर इनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है और एक अन्य किताब प्रकाशनाधीन है। साथ ही, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व वेब-पोर्टलों के लिए लेखन में सक्रिय हैं

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