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दाना माझी के काँधे पर यह किसकी लाश है?

दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े के ऊपर हो रहे अत्याचार को संविधान की अवहेलना क्यूँ नहीं मानते।संविधान तो मानता है वैसे संविधान को तो आप मानते हीं नहीं हैं। आज तक ये समझने की कोशिश कर रहा हूँ की आप कौन सी भारत माता की बात करते हैं, वो जो किसी तस्वीर में हैं। मुझे तो दाना माझी के कंधे पर 'भारत-माता' हीं दिखी हैं

Dana Manjhiदाना माझी के कंधे पर जो लाश हम देख रहे हैं, वो उसकी पत्नी की नहीं बल्कि “भारत-माता” की लाश है। हमारी मरी हुई सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था का जनाजा है। दाना माझी की पत्नी नहीं मरी है बल्कि भारत माता के प्राण गए हैं। लेकिन क्या फर्क पड़ता है, ये कौन सी नई बात है, ऐसा तो रोज होता ही है। मांझी आदिवासी समुदाय से हैं। वैसे घबराने की कोई बात नहीं हैं, दलित हैं, आदिवासी हैं, अतिपिछड़े हैं इनके तो भाग्य ही फूटे हुए हैं। मैं इस समाज से कोई उम्मीद नहीं रखता हूँ। ऐसे विडियो तो आये दिन सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते हैं।आप ओडिशा में आदिवासियों के खिलाफ हुए दंगे को भूल गए होंगे।आप गुजरात के ऊना में हुए अत्याचार को भूल गए हैं? दलितों-आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार सिर्फ ऊना की तरह नहीं बल्कि इस तरह भी किया जाता है। आपसे आपका देश छिनकर, आपको गरीब बनाकर, आपके आत्मसम्मान को रौंदकर। आदिवासियों से देश छिनने के क्रम में उन्हें वनवासी कहा जाने लगा अब उनसे उनकी जल-जंगल-जमीन भी छीन ली गयी मतलब अब वो कहीं के वासी नहीं। इसको आप सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्था की असफलता  की तरह मत देखिये बल्कि यही ब्राह्मणवादी चरित्र वाली व्यवस्था की असली तस्वीर है।

सरकारी महकमे से स्टेटमेंट दे दिया गया है की दाना माझी ने एम्बुलेंस का इंतजार ही नहीं किया। आप उन्हें इंतजार करने को कहते हैं जिन्होंने आपके इंसान बनने का इंतजार सदियों से किया है। ये कहना कितना आसान है। पहले उनके मरने का इंतजार करे और फिर उनकी लाश उठाने का। वो टी बी की पेशेंट थी और यह संक्रामक बिमारी है तो सरकारी मुलाजिम इस संक्रमण से बचना चाहते थे। इस संक्रमण से तो आप बच रहे थे लेकिन क्या कभी आपने सोचा की ब्राह्मणवाद तो टी बी से ज्यादा संक्रामक रोग है जो इस भारत को हजारों साल से संक्रमित करता आ रहा है। असल में तो इस रोग से बचना था। बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था की “ब्राह्मणवाद जहर है” लेकिन आप इसे अमृत मानकर पीते रहे और इस समाज को भी पिलाते रहे। आपके लिए ब्राह्मणवाद जहर नहीं बल्कि इस देश के “दलित-आदिवासी-अति-पिछड़े” जहर हैं। इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था से कोई उम्मीद कभी भी नहीं थी। सोशल मीडिया पर दिख गया तो आप थोड़े वक्त के लिए रुआंसे हो गए, जो नहीं दिखा उसका क्या। दलित आदिवासी रोज ऐसे अमानवीय कृत्य देखते नहीं बल्कि झेलते हैं।

दिल्ली के रामलीला ने कई लीलाएं देखी है। आप सब इकठ्ठा हुए थे लाखों की भीड़ में करप्शन के खिलाफ लेकिन दलितों के अत्याचार के खिलाफ आपको ऑफिस से छुट्टी नहीं मिली। आप इनके लिए उठते तो हम मानते की आप देश के लिए उठ खड़े हुए हैं। आपको बलूचिस्तान में हो रहे मानवाधिकार की चिंता है लेकिन अपने देश में दलितों-आदिवासियों के खिलाफ सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अत्याचार की चिंता नहीं, सही भी है आपके राष्ट्रवाद के दायरे में शायद ये लोग नहीं। तभी तो प्रधानमंत्री में कह जाते हैं की उनकी पार्टी राष्ट्रवादियों की पार्टी है और जो आपकी पार्टी में नहीं उनका क्या? पाकिस्तान नरक है या नहीं, उस पर आप टिपण्णी करिए लेकिन भारत को आपने दलित-आदिवासियों-अतिपिछड़ों के लिए नरक जरूर बना दिया है। एक तरफ आप कहें आप जाति में विश्वास नहीं रखते और दूसरी तरफ रोहित  वेमुला की जाति खोजने के लिए कमीशन बिठाते हैं। आप मैकियावेली के प्रिंस का वो राजा हैं जिन्हें उदार दिखना होता है वो भी संवेदना के बोध के बिना।

ओड़िसा में दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े की जनसँख्या राज्य के जनसँख्या का 80 प्रतिशत है और गरीबी के आकड़ों में शत प्रतिशत। ज्यादातर दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े राज्य के दक्षिण एवं उत्तरी भाग में हैं। राज्य के ज्यादातर उच्च जातियों का जमावड़ा राज्य के कोस्टल एरिया में है और इन जातियों में आर्थिक गरीबी का प्रतिशत बहुत कम है। NSS डाटा 1992-2000 के अनुसार राज्य के दक्षिणी और उत्तरी भाग में गरीबी लगभग 90 प्रतिशत है। ये कितना द्वंदात्मक है की ओडिशा सरकार के आंकड़ो में गरीबी के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या महज 39 प्रतिशत है। जबकि सच यह है की राज्य में रहने वाले दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े ‘एब्सोल्यूट पोवर्टी’ में जीते हैं। ये आँकड़े सरकारी हैं और इकनोमिक सर्वे 2014-2015 में ओडिशा सरकार के द्वारा प्रकाशित किये गए हैं। ख़ास बात यह है कि इन आँकड़ों में कई दशकों से दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े के जीवन स्तर में कोई ख़ासा बदलाव नहीं हुआ है। ग्रामीण परिवारों के सामाजिक-आर्थिक सर्वे 1992 जो की पंचायती राज विभाग ओडिशा सरकार द्वारा किया गया है, उसमे ओडिशा सरकार खुद यह कहती है की ओडिशा के 80 प्रतिशत जनसँख्या गॉवों में रहते हैं और गावं में रहने वाले लोगों के पास न सड़क की सुविधा है, न ही शिक्षा की, न स्वास्थ्य  की, न तो ये लोग बैंकिंग से जुड़े हुए हैं, न माइक्रो फाइनेंसिंग से, और ये लोग कौन है? ये दलित हैं, आदिवासी हैं, और अतिपिछड़े हैं तो साफ है की ब्राह्मणवादी चरित्र की सरकार इन्हें मुख्य धारा में क्यूँ जोड़ेगी।

गौर करने वाली बात यह है की राज्य के उत्तरी-पश्चिम-दक्षिणी भाग राज्य के प्राकृतिक संशाधनों से परिपूर्ण है। जो भी सड़के बनी हैं वो सब प्राइवेट कम्पनीज के ट्रकों को आसानी से खादानों तक पहुँचाने के लिए हैं। क्या यह सही है की इनके संसाधन और ये लोग हीं जिल्लत भरी जिंदगी भी जियें। आप इन्हें नक्सल कहते रहिये और इनके संसाधन लूटते रहिये। आपके मंदिरों में सोना निकले तो वो राष्ट्रीय सम्पदा नहीं बल्कि आपके मंदिर की सम्पदा होती है लेकिन दलित-आदिवासियों के घर के नीचे के खादान, राष्ट्रीय सम्पदा मतलब आपकी संपदा और आप न्याय का ढिंढोरा पिटते रहते हैं। राष्ट्र की संकल्पना भी कई बार इस धोखे और फरेब की उपज हीं लगती है। जब भी दलित-आदिवासियों ने आपके अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई आपने उन्हें या तो नक्सल बनाकर या देशद्रोही कहकर उनपर गोलियां बरसाईं। मेरिट का इतना बड़ा झांसा लोगों को देते है लेकिन वहाँ तो विदेशों में पढ़ें मेरिटोरिउस लोगों की सरकार है। आपके चरित्र और मेरिट का पर्दाफाश तो बहुत पहले ही हो गया था बस अब आवाज प्रखर हो गयी है। आप दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े का सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थिति पर सर्वे करना बंद करिए और सर्वे के पैसे उनपर खर्च कीजिये। प्रसिद्द अमेरिकन कोलुमनिस्ट बिल बौगन ने लिखा है की “ये ज्यादा अच्छा होगा की गरीबी पर होने वाले स्टडी का आधा पैसा भी गरीबों पर खर्च किये जाएँ।” किस दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े को आप खोज रहे हैं? जहाँ गरीबी शत-प्रतिशत है वहाँ कौन से सर्वे की आवश्यकता है? संसाधनों को औने-पौने दामों पर किसके लिए बेचा जा रहा है। आपके घरों में हमारे संसाधनों  को बेचकर इतावली झूमर खरीदें जाते हैं। जिस जमीं पर हजारों साल से हम रह रहें हैं वो जमीन के मालिक आप कैसे हो जाते है?

जब इस देश में धरमपुरी, ऊना, लक्ष्मणपूर बाथे, ओडिशा जैसी घटनाएँ हों तो आप इसे राष्ट्रीय आपदा नहीं मानेंगे, राष्ट्रीय शोक घोषित नहीं करेंगे। आप ऐसा करेंगे भी नहीं क्यूंकि आपमें मानवीय और राष्‍ट्रीय चेतना है ही नहीं।आप तमाम तरह के प्रपंचो से राष्ट्रपति शासन लगाते रहते हैं दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े के ऊपर हो रहे अत्याचार को संविधान की अवहेलना क्यूँ नहीं मानते।संविधान तो मानता है वैसे संविधान को तो आप मानते हीं नहीं हैं। आज तक ये समझने की कोशिश कर रहा हूँ की आप कौन सी भारत माता की बात करते हैं, वो जो किसी तस्वीर में हैं। मुझे तो दाना माझी के कंधे पर ‘भारत-माता’ हीं दिखी है।

लेखक के बारे में

दीपक भास्कर

दीपक भास्कर दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, में पढ़ाते हैं तथा जे एन यू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेश्नल स्टडीज से पीएचडी कर रहे हैं।

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