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जेएनयू में पब्लिक मीटिंग पर पहरा : हंगामा है क्यों बरपा

मैं अतंकवादियों, माओवादियों और सरकार विरोधियों की तरह सोचने में यकीन नहीं करता हूँ। मैं सरकार की तरह सोचने में यकीन करता हूँ ताकि हम कल सरकार चला सकें। देश के वंचित, शोषित, उपेक्षित वर्गों में जो सरकार विरोधी विचार ठूस-ठूस कर भरते हैं उनका एक विशेष उद्देश्य है। उनका उद्देश्य है कि इस वर्ग से किसी ऐसे बौद्धिक वर्ग का उदय न हो, जो उनके नेता को सरकार चलाने में सहयोग कर सके। हमें भविष्य में सरकार चलाने की सोचना चाहिए, और इसके लिए जरुरी है कि हमें सरकार की तरह सोचना भी आना चाहिए

वामपंथ का गढ माना जाने वाला दिल्‍ली का प्रसिद्ध जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय पिछले कुछ समय से भारत की मौजूदा सत्‍ताधारी पार्टी में शामिल दक्षिणंथी-प्रतिक्रियावादी शक्तियों के हमले का शिकार है। विश्‍वविद्यालय ने छात्र संगठनों द्वारा आयोजित किये जाने वाले सभी सार्वजनिक समारोहों, संगोष्ठियों की विडियो रिकार्डिंग का आदेश दिया है। कुछ छात्र संगठन इसे उचित मान रहे हैं तो कुछ अभिव्‍यक्ति की आजादी पर पहरा बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं। समाजशास्‍त्र के प्राध्‍यापक रहे अनिल कुमार का यह लेख इसके एक पक्ष को सामने लाता है। फारवर्ड प्रेस में हम इसके अन्‍य प‍हलुओं पर भी लेख प्रकाशित करना चाहेंगे। इस संबंध में अन्‍य लेखों का स्‍वागत है –संपादक 

JNU Teacher with Student during a protest against for the release of the Students A student of the prestigious Jawaharlal Nehru University (JNU) in Delhi was arrested for sedition over a controversial event held in support of Parliament attack convict Afzal Guru,in New Delhi on Tuesday-16/02/2016 Photo By Qamar Sibtain

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) की एक खासियत, जो इसे किसी भी अन्य विश्वविद्यालय से अलग करती है, वह है इसके कैंपस का लोकतान्त्रिक संवाद। इसमें कोई भी हिस्सा ले सकता है। इसके लिए आपको जेएनयू का विद्यार्थी होना जरुरी नहीं है। यही “सामाजिक संवाद” इसे समाज की वास्तविकता से जोड़े रखता है। इसकी यही विशेषता समाज को मौका देती है कि वह कोई वैचारिक आयोजन जेएनयू में करके इसके विद्यार्थियों से संवाद स्थापित कर सके। इसी संवाद संस्कृति का परिणाम है कि पूरा देश ही नहीं, बल्कि विदेश भी जेएनयू की तरफ देखता है। इसके विद्यार्थी देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर की समस्यायों पर विचार कर उन्हें संबोधित करते हैं। इसकी यह “सामाजिक संवाद की संस्कृति” विश्वविद्यालय को और भी प्रासंगिक बना देती है।

जेएनयू के पूर्व कुलपति प्रो. वाई. के. अलघ (1992-97) नागोया विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय, जापान के एक स्कॉलर के हवाले से कहते हैं कि, “जेएनयू हॉस्टल, दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा लोकतान्त्रिक है। हर रात कुछ अलग सोचने वाले चिंतको, नेताओं और पूर्व छात्रों को वर्तमान समस्याओं पर बोलने के लिए बुलाया जाता है। कोई भी सत्र,  सभी समस्याओं के समाधान, अर्थात अंतिम प्रश्न के जबाब के बाद ही ख़त्म होता है”। “जन-सामान्य के राष्ट्रपति (1997-2002) माने जाने वाले डॉ. के. आर. नारायणन (1920–2005) भी जेएनयू के कुलपति (03.01.1979–14.10.1980) रहे हैं। जेएनयू के बारे में उनके विचार जानना रोचक होता परन्तु लेखक उनके विचार खोजने में असमर्थ रहा।

पब्लिक मीटिंग, जेएनयू का “सार्वजानिक संचार क्षेत्र” है – वाद-विवाद, विचार-विमर्श, चिंतन-मनन, आलोचना-प्रत्यालोचना और संवाद का सार्वजानिक मंच । यही उसका मूल है; उसका दर्शन है; उसकी रीढ़ की हड्डी है।

यह इतना महत्वपूर्ण है कि इसे सावधानी से देखा-समझा जाना चाहिए। हम इसे वामपंथी या माओवादी या आतंकवादी केंद्र मानकर नहीं समझ सकते। यहाँ राज्य एक प्लेयर/खिलाड़ी/कर्ता है लेकिन उसका जन्म भी इसी समाज से हुआ है और वह इसी समाज का अभिन्न अंग है। जेएनयू का जन्म भी इसी समाज से हुआ है और यह भी समाज का अभिन्न अंग है। फिर जेएनयू के लिए अलग नियम कैसे हो सकते हैं? और क्यों होने चाहिए? फिर भी, यह कहना पड़ेगा कि जेएनयू ने समाज से अलग अपनी एक संस्कृति विकसित की है।

मैं असमंजस में था कि जेएनयू की हाल की घटनाओं और बहसों को कैसे देखूं? मैंने निश्चय किया कि अगर किसी को देश का शासक बनना है, तो उसे शासक की तरह सोचना भी आना चाहिए। मैंने जानबूझकर “सोचना चाहिए”  की जगह “सोचना आना चाहिए”  लिखा है क्योकि बहुत से लोगो को सोचना भी नहीं आता। कई लोग सरकार के हर कदम का विरोध इसलिए नहीं करते कि सरकार का हर निर्णय गलत होता है या उन्हें ऐसा लगता है या उससे उन्हें कुछ मिलने वाला है या वे सरकार को चुनौती देना चाहते हैं, बल्कि वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि कोई बहुत शातिर व्यक्ति उनके चेतन और अवचेतन मस्तिष्क में ठूंस-ठूंस कर यह भर देता है कि ऐसा करके वे दुनिया का कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं और ऐसा करने या करते दिखने पर उन्हें बहुत प्रगतिशील माना जा रहा है या माना जाएगा। यह शातिराना विचार मस्तिष्क में इसलिए ठूंस-ठूंस कर भरा जाता है ताकि वे कभी शासक बनने की न सोचें, कभी शासक की तरह न सोचें, कभी शासक वर्ग का हिस्सा न बनें। अगर जननायक कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद,  कांशीराम आदि ने भी ऐसा ही सोचा होता तो वे कभी भी शासक वर्ग का हिस्सा नहीं बन पाते।

मैं इस गंभीर विषय को जर्मन समाजविज्ञानी उरगेन हाबेरमास, इंग्लैंड के दार्शनिक, न्यायविद और समाजसुधारक जेरमी बेन्थैम और फ्रेंच दार्शनिक मिशेल फूको के सन्दर्भ में समझना चाहूँगा।

जर्मन समाजविज्ञानी उरगेन हाबेरमास (जन्म 1929) अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द थ्योरी ऑफ़ कम्यूनिकेटिव एक्शन” (1981; दो भागो में) में कहते हैं कि कोई समाज या देश कितना लोकतान्त्रिक है, यह इससे निर्धारित होता है कि उसके सदस्यों या नागरिकों के बीच कितना और कैसा संचार है? क्या वे अपनी बातों को खुले रूप में अभिव्यक्त करने, प्रेषित करने, संबोधित करने और संचार करने के लिए स्वतंत्र हैं? वे किस रूप में ऐसा करने में सक्षम हैं। उरगेन हाबेरमास अपनी इसी पुस्तक में “सार्वजानिक संचार क्षेत्र” (पाब्लिक स्फीअर) शब्दावली का उपयोग करते हैं। उनका कहना है कि संचार के सार्वजानिक क्षेत्रों का विकास आधुनिक राज्य की पहचान और पैमाना है। उनका कहना है कि संचार के सार्वजानिक क्षेत्र को “लोकतंत्र और राजनीति के ऐसे बिंदु के रूप में देखा जाना चाहिए, जहाँ समाज स्वयं एक उच्चतम स्तर पर अपनी सहमति बनाता है। समाज में जितना ज्यादा आलोचनात्मकता का उभार होगा, समाज उतना ही ज्यादा लोकतान्त्रिक होगा। इसका आभाव समाज की अलोकतांत्रिकता को प्रदर्शित करता है”।

उरगेन हाबेरमास अपनी पहली पुस्तक “द स्ट्रक्चरल ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ़ पब्लिक स्फीयर: ऍन इन्क्वायरी इन्टू ए केटेगरी ऑफ़ बुर्जुआ सोसाइटी”, (196२) में कहते हैं कि सार्वजानिक संचार क्षेत्र का विकास यूरोप में पुनर्जागरण के समय हुआ। इसका विकास व्यापार, लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकप्रिय संप्रभुता के साथ हुआ। इसका स्थान व्यक्ति और सरकार के बीच था, जहाँ लोग सार्वजानिक विषयों  पर आलोचनात्मक विचार-विमर्श किया करते थे, जो सरकार के लिए भी उपयोगी था।

अगर हम पब्लिक स्फीअर पर सरकार के नियंत्रण की बात करें तो यह न सिर्फ लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होगा बल्कि यह लोकतंत्र के विकास में भी बाधक होगा और स्वस्थ विचार-प्रवाह को रोकेगा। लेकिन इसके साथ-साथ, द्वंदात्मकता यह है कि सरकार को अन्य बातों  के अलावा, सुरक्षा और समाज की कार्यक्षमता को भी बनाए रखना पड़ता है। यहाँ सरकार किसका पक्ष लेती है, किससे कैसे निपटती है, वह जनसुरक्षा और समाज की कार्यक्षमता को बनाए रखने के लिए किसकी स्वतंत्रता को कम करती है – यह सब उसकी विचारधारा पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, राम के बारे में बोलने पर वह प्रो. बी. पी. महेश गुरु को गिरफ्तार करके समाज को सुचारू रूप से चलाती है या उन पर हमला करने वालों को सजा देती है। सरकार ने प्रो. बी. पी. महेश गुरु को गिरफ्तार करने का विकल्प चुना। फॉरवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक की प्रतियाँ जब्त करने,  इसके संपादक पर मुक़दमा दायर करने,  फ़रवरी 2016 में तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी के महिषासुर पर बयान से लेकर अन्य कई वक्तव्यों और कार्यो को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए।

mahishasurभाजपा द्वारा फ़रवरी 2016 में स्मृति ईरानी का लोकसभा और राज्यसभा में महिषासुर के बारे में बयान हो, या भाजपा की गौमाता राजनीति या राम-भक्ति-आतंक की राजनीति या कोई अन्य “जन भांति की राजनीति” – हम इन्हें भी उरगेन हाबेरमास के नजरिये से समझ सकते हैं। उरगेन हाबेरमास इसी पुस्तक में “बुर्जुआ सार्वजानिक संचार क्षेत्र” की भी बात करतें हैं। उनका कहना है कि यह जनता के रूप में पेश किये गए निजी व्यक्तियों की एकजुटता है अर्थात वह जनता नहीं है, लेकिन वह स्वयं को जनता के रूप में प्रस्तुत करता है। मैं इसमें यह जोड़ना चाहूँगा कि वह अपने को जनता की आवाज और विचार के रूप में प्रस्तुत करता है। हाबेरमास के अनुसार, सार्वजानिक संचार क्षेत्र का मौलिक सिद्धांत यह है कि सरकार के कानून और उसकी नीतियां, जनता के संचार से निर्देशित होनी चाहिए और सिर्फ वही सरकार वैध है, जो सार्वजानिक संचार को सुनती है। यहाँ “बुर्जुआ सार्वजानिक संचार क्षेत्र”, सरकार की तरफ से कृत्रिम जन-विचार पैदा करता है। इसे जर्मन तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर (1889-1945) के मंत्री जोसफ गोयबेल्स  (1897-1945) की मान्यतायों की दृष्टि से भी देख सकते हैं। इसलिए जिराड हौसर (जन्म: 1983) का मानना है कि “कोई सरकार कितनी लोकतान्त्रिक है इसे परखने का एक तरीका यह है कि नागरिकों के पास बौद्धिक बहस करने की कितनी क्षमता और अवसर हैं”।

लेकिन एक मौलिक सवाल यह भी है कि मानव, जानवर से सामाजिक मनुष्य कैसे बनता है? वह बनता है समाजीकरण की प्रक्रिया से। यह एक जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें निगरानी, प्रोत्साहन और सजा के प्रावधान भी शामिल हैं।

समाज अपनी सामाजिकता, व्यवस्था और संतुलन बनाए रखने के लिए समाजीकरण का सहारा लेता है। इसे बनाए रखने के लिए निगरानी, प्रोत्साहन और दंड का भी सहारा लिया जाता है। लेकिन हर बार दंड देना न व्यावहारिक है, न उचित है और ना ही उपयोगी। अपराध और सजा दोनो से बचने के लिए समाज निगरानी का सहारा लेता है। लेकिन निगरानी जितना आपको अपराधी होने से सुरक्षा देती है उतनी ही आपकी स्वतंत्रता को कम भी करती है। यहीं पर निगरानी पर सवाल उठाये जाते हैं कि यह हमारी स्वतंत्रता को कम कर रही है।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड ( जन्म चेक गणराज्य 1856 – मृत्यु इंग्लैंड 1939) कहते हैं कि मानव, स्वाभाविक रूप से समाजविरोधी होता है। उन्होंने मानव स्वभाव को तीन स्तरों पर विभाजित किया है – “इड”, “ईगो” और “सुपरईगो” जिसे हिंदी में क्रमशः मूल-प्रवृत्ति, अहम् और विवेक-पराहम कह सकते हैं। फ्रायड कहते हैं कि मनुष्य “इड” के साथ जन्म लेता है और सारे काम स्वार्थवश करता है, लेकिन उसका समाजीकरण उसमें “सुपरईगो” विकसित करता है। वह “इड” और “सुपरईगो” के द्वंद पर नियंत्रण या उसके बीच का रास्ता अपने “ईगो” से निकलता है।

सिग्मंड फ्रायड के अनुसार, व्यक्ति अपराध इसलिए करता है क्योकि हमारा “ईगो” हमारे “सुपरईगो” को नजरंदाज कर देता है। या फिर हमारे “सुपरईगो” का विकास गलत तरीके से और/या गलत लोगों के साथ हुआ है। इसलिए व्यक्ति अपराध करता है। वह कई अपराध किसी को सजा देने के लिए भी करता है। व्यक्ति के अपराध के लिए समाज में सजा का प्रावधान होता है। इस “सुपरईगो” या समाजीकरण का विकास, सामाजिक नियंत्रण, निगरानी, पुरुस्कार और दंड के विधान-प्रावधान से होता है। इसलिए व्यक्ति को अच्छे या गलत काम के लिए पुरुस्कार या सजा दी जाती है ताकि उसे और अन्यों को पता चले कि क्या सही और क्या गलत है।

हर समाज की कोशिश होती है कि अपराध होने से पहले ही उसे पता लगाकर रोका जाए या व्यक्ति को सुधारा जाए। इसलिए दुनिया का हर समाज एक निगरानी व्यवस्था विकसित करता है। कई बार निगरानी व्यवस्था बहुत कड़ी होती है, कई बार सिर्फ नाममात्र या दिखावे की। बहुत कड़ी निगरानी व्यवस्था से समाज का सामान्य रूप से चलना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि इससे व्यक्ति और समाज का गुस्सा बाहर न आने से या तो वह मनोरोगी हो जाएगा या समाज में इतने बगावत और उथल-पुथल होगें कि उसका चलना मुश्किल हो जाएगा। मेरी समझ में, वर्तमान फ्रांस इसका बेहतर उदाहरण है। दूसरी ओर, नाममात्र के दिखावे की निगरानी में भी हर कोई शतप्रतिशत आश्वस्त नहीं हो सकता है कि उसे कोई नहीं देख रहा है। इस परिस्थित में हर कोई इस भुलावे/भ्रम में रहता है कि उस पर निगरानी रखी जा रही है इसलिए वह सामाजिक मूल्यों के अनुसार अपना आचरण करता है। आप यह फर्क दिल्ली के बसअड्डों और दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों में देख सकते हैं। जो व्यक्ति दिल्ली के बस स्टैंड पर थूकता है वही दिल्ली के मेट्रो स्टेशन पर नहीं थूकता क्योकि स्टेशन पर सीसीटीवी कैमरा लगा होता है और व्यक्ति को लगता है कोई उसे देख रहा है।

जेल के कैदियों के सन्दर्भ में निगरानी सिद्धांत का प्रतिपादन सबसे पहले इंग्लैंड के दार्शनिक, न्यायविद और समाजसुधारक जेरमी बेन्थैम (1747 – 1832) ने किया। इसके लिए उन्होंने “पैनाप्टिक” मॉडल का प्रतिपादन किया। बाद में इस सिद्धांत का प्रयोग और विस्तार फ्रेंच दार्शनिक मिसेल फूको (1926 – 1984) ने अपनी किताब ‘डिसिप्लिन एंड पनिश: बर्थ ऑफ़ प्रिजन’ (1975) में विस्तार से किया। इस सिद्धांत की अपनी सीमाएं और आलोचनाएँ हैं लेकिन अभी उसमें जाना प्रासंगिक नहीं है।

अब हम ऊपर के सिद्धांतों के सन्दर्भ में जेएनयू के ताजा सर्कुलर को समझने का प्रयास करते हैं।

अगर हम अगस्त, 2016 में आये जेएनयू के सर्कुलर को देखें तो उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए हायतौबा मचाई जाए। सर्कुलर के अनुसार, किसी कार्यक्रम की अनुमति इन शर्तों पर दी जाएगी – (1) जेएनयू प्रशासन प्रोग्राम की रिकॉर्डिंग करेगा, (2) सुरक्षा अधिकारी कार्यक्रम स्थल पर मौजूद रहेंगे, (3) कार्यक्रम में बुलाये गए लोगो के नाम, संस्थान, उनका फोन नंबर और ईमेल जेएनयू प्रशासन को देना होगा, (4) सुरक्षा अधिकारियो को पहचानपत्र देखने का अधिकार होगा और (5) कार्यकम के बाद प्रतिभागियों का ब्यौरा डीन ऑफिस अर्थात जेएनयू प्रशासन को देना होगा। इसमें कार्यक्रम रिकॉर्ड करना और जेएनयू के सुरक्षा अधिकारियो को पहचानपत्र देखने का अधिकार देना नए प्रावधान हैं।

यहाँ यह अहम है कि विद्यार्थियों द्वारा कराये जाने वाले सारे कार्यक्रम सार्वजानिक होते हैं, जिनमें कोई भी व्यक्ति प्रतिभागी हो सकता है। फिर इससे क्या फर्क पड़ेगा कि जेएनयू प्रशासन किसी कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग करा रहा है। बल्कि आजकल आयोजक खुद प्रोग्राम रिकॉर्ड कर यूटूयूब पर प्रसारित कर रहे हैं। जेएनयू से तो इससे आगे बढ़ कर यह मांग की जानी चाहिए कि प्रशासन इसका लाइव प्रसारण भी करा दे ताकि पूरा देश-दुनिया देखे, कि जेएनयू में क्या हो रहा है।

जेएनयू प्रशासन की इस कार्यवाही का मुख्य कारण जेएनयू कैंपस में चरम वामपंथ और देश में वामपंथी आतंकवाद का उदय है। जेएनयू में जो आजादी थी, उसका उपयोग कई बार किसी सकारात्मक कार्य या विमर्श या नए विमर्श में न करके कुछ लोगो ने भारत की बर्बादी तक के नारे लगाने में किया। भारत की बर्बादी के नारे बाहर से आये लोगों ने कश्मीर के सन्दर्भ में लगाए। उन्हें जेएनयू में अपनी बात कहने की आजादी थी लेकिन अगर आप भारत को बर्बाद करेंगें तो आप कहाँ रहेंगें। भारत आपका, हम सबका घर है। एक शासक-प्रशासक या राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत ही नहीं, बल्कि एक घर के सदस्य के रूप में भी यह हम सबका कर्तव्य है कि ऐसे लोगो को नियंत्रित किया जाए। विश्विद्यालय का ताजा सर्कुलर यही करने का प्रयास है। यह जेरमी बेन्थैम और मिसेल फूको का “पैनाप्टिक” निगरानी मॉडल है, जो सबको आजादी भी देता है और भ्रम भी कि आप पर निगरानी रखी जा रही है। लेकिन न तो कोई भ्रम में रह सकता है और न शतप्रतिशत आश्वस्त कि उसपर नज़र नहीं रखी जा रही है।

यह सही है कि जेएनयू में अधिकतर विमर्श सकारात्मक और नए विचारों के होते हैं। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, अगर मैं सरकार या शासक के नजरिये से देखूं तो क्या यह सर्कुलर देश और स्वयं विश्विद्यालय के हित में नहीं है? मैं स्वयं या इस लेख को पढ़ रहे पाठक अगर जेएनयू के कुलपति होते और उन्हें इस विश्विद्यालय को चलाना होता तो वो इस तरह की घटना को रोकने या होने पर सही व्यक्ति की पहचान करने के लिए क्या करते?  फिर, अगर आप सार्वजिक कार्यक्रम कर रहें हैं तो प्रशासन को वक्ताओं के नाम के साथ उसका फोन नंबर और ईमेल देने में क्या परेशानी है? नाम और सम्बद्धता पहले भी दिया जाता था। अगर कोई अतिवादी या आतंकवादी या विखंडनवादी या समाजविरोधी काम न किया जा रहा हो तो रिकॉर्डिंग से किसी को क्या परेशानी है? रिकॉर्डिंग से सिर्फ इतना होगा कि विश्विद्यालय प्रशासन के पास एक सबूत होगा कि किसने क्या कहा। दूसरी ओर. आज कल हर किसी की जेब में मोबाइल होता है और लोग शौकिया तौर पर रिकॉर्डिंग करते रहते हैं। इनमें से कुछ लोग इसे फेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल साइटों पर भी अपलोड करते रहते हैं। आप कहीं धरना– प्रदर्शन–जुलूस करने जाते हैं तो सम्बंधित पुलिस आपकी रिकॉर्डिंग करती है। यह पुलिस और आप दोनों के हित में है। इसलिए मेरे समझ में इसको ज्यादा तूल देना, चरम वामपंथियों, माओवादियों और विघटनकारी गतिविधियों में लिप्त रहने वालो का काम है।

stand-with-jnuउदहारण के लिए जब मैं एआईबीएसएफ में था तब एआईबीएसएफ द्वारा जेएनयू में महिषासुर शहादत/स्मृति दिवस मनाया जाता था। 2014 के बाद, समाज से लेकर संसद तक भाजपा-आरएसएस आदि हमारे संगठन और हमारे साथियों के खिलाफ इसलिए भ्रम फैला सके कि हमारे पास भी इन कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग नहीं थी। फरवरी 2016 में संसद में स्मृति ईरानी एक फर्जी पर्चे को हमारा पर्चा कह कर देश में सनसनी फैलाती हैं। अगर हम जनता को बता सकते कि हमने क्या कहा और क्या किया था तो वे भ्रम फ़ैलाने में सफल न होतीं और जनमानस ज्यादा मजबूती से हमारे साथ होती। हुआ यह कि जिनके लिए हम काम कर रहे थे वही लोग हमारे विरोध में चले गए। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए हमें बहुत मेहनत करनी पड़ी। अब जेएनयू प्रशासन की क़ानूनी जिम्मेदारी होगी कि ऐसे किसी विवाद के मामले में, कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग उपलब्ध कराये। गुजरात के ऊना में हिंदुवादियो द्वारा अनुसूचित जातियों पर गाय के मुद्दे पर हमले और इसके विरोध में हुए आन्दोलन विषय पर बीएएसओ ने 20 अगस्त, 2016 को लोहित हॉस्टल, जेएनयू में एक कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसमें इस आन्दोलन के नेता जिग्नेश, पत्रकार अनिल चमडिया सहित कई लोग अपनी बात रखने आये थे। मैं भी वहां था और मैंने पाया कि न तो किसी ने मेरा पहचान-पत्र देखा और ना ही जेएनयू प्रशासन कोई रिकॉर्डिंग करवा रहा था। जो रिकॉर्डिंग हो रही थी वह स्टूडेंट्स शैकिया तौर पर और यूटूयूब और अन्य सोशल साईट पर अपलोड करने के लिए कर रहे थे।

यहाँ यह तर्क दिया जा सकता है कि इस कार्यक्रम में भले ही जेएनयू प्रशासन ने किसी से पहचान-पत्र न माँगा हो या रिकॉर्डिंग न की हो लेकिन वह इस “हथियार” का प्रयोग करने के लिए अधिकृत था। लेकिन जब कोई स्वयं सार्वजानिक कार्यक्रम कर रहा है तो ऐसे में जेएनयू का यह कदम उसके खिलाफ क्यों हो गया? जेएनयू कोई खुफियागिरी नहीं कर रहा है। वह तो आपके इस सार्वजानिक कार्य को और भी सार्वजानिक और अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर रहा है। जेएनयू के क्रन्तिकारी छात्र संघ नेता चंद्रशेखर उर्फ़ चंदू की बहुत सी बातो से हम अनभिज्ञ हैं क्योकि उनके भाषणों की रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है।

मैं जिराड हौसर से पूर्णतः सहमत हूँ कि “कोई सरकार कितनी लोकतान्त्रिक है, इसे परखने का एक तरीका यह है कि नागरिक के पास बौद्धिक बहस करने की कितनी क्षमता और अवसर हैं।” मेरे लिए भी लोकतंत्र का यह एक पैमाना है। दूसरी ओर, यह सर्कुलर उरगेन हाबेरमास की जनसंचार और लोकतंत्र की थ्योरी के विरुद्ध नहीं है और ना ही यह “सामंती सार्वजानिक संचार क्षेत्र” का हिस्सा है। लेकिन यह निश्चित रूप से जेरेमी बेन्थैम और मिशेल फूको का “पैनाप्टिक” मॉडल है, जो समाज में व्यवस्था बनाए रखे जाने के लिए जरुरी है।

मैंने शुरू में ही यह स्पष्टकर दिया था कि अगर हमें शासक बनना है तो हमें शासक की तरह सोचना भी आना चाहिए। इस लेख को लिखते समय मैंने निश्चित किया था कि मैं एक शासक की तरह सोचूंगा।

एक प्रसांगिक सवाल उठ सकता है कि क्या जेएनयू प्रशासन किसी विषय पर होने वाले सार्वजानिक कार्यक्रम को अनुमति न देकर उसपर होने वाली बहस को रोक सकता है? लोकतंत्र में ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। सर्कुलर में ऐसा कुछ कहा भी नहीं गया है। लेकिन अनुमति न देने का विकल्प पहले भी था, हालांकि शायद ही कभी इस विकल्प का प्रयोग किया गया हो। उदाहरण के लिए, अगर भविष्य में सांस्कृतिक पहचान या महिषासुर जैसे मुद्दे पर कोई कार्यक्रम हो और जेएनयू प्रशासन इसकी अनुमति न दे तो जेएनयू प्रशासन के उच्चतम पद पर बैठे लोगों से लेकर उच्चतम बॉडी कार्य परिषद को यह जबाब देना होगा कि विश्विद्यालय को यह अधिकार कहाँ से मिला कि वह बहस के विषयों का निर्धारण करे जबकि विश्विद्यालय बनते ही इसके लिए हैं।

ऐसा ही एक घटना इस वर्ष हुई थी। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च 2016) के अवसर पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की जेएनयू इकाई के उपाध्यक्ष जतिन गौरैया जेएनयू परिसर में मनुस्मृति जलाना चाहते थे क्योकि मनुस्मृति, महिलाओं के खिलाफ है। इसके लिए पहले तो प्रशासन ने उन्हें अनुमति दी लेकिन कार्यक्रम के एक घंटा पहले वापस ले ली। फिर भी जतिन गौरैया के नेतृत्व में एबीवीपी और जेएनयू के लगभग अन्य सभी संगठनों और सामान्य स्टूडेंट्स ने मनुस्मृति दहन में हिस्सा लिया। मैंने भी लिया। जेएनयू प्रशासन ने सबको बिना अनुमति कार्यक्रम करने के जुर्म में कारण बताओ नोटिस भेजा। सभी ने कहा कि जेएनयू प्रशासन बहस के मुद्दे और विषय निर्धारित या नियंत्रित नहीं कर सकता है। और अंततः किसी को कोई सजा नहीं दी गई।

मैं अतंकवादियों, माओवादियों और सरकार विरोधियों की तरह सोचने में यकीन नहीं करता हूँ। मैं सरकार की तरह सोचने में यकीन करता हूँ ताकि हम कल सरकार चला सकें। देश के वंचित, शोषित, उपेक्षित वर्गों में जो सरकार विरोधी विचार ठूंस-ठूंस कर भरते हैं उनका एक विशेष उद्देश्य है। उनका उद्देश्य है कि इस वर्ग से किसी ऐसे बौद्धिक वर्ग का उदय न हो, जो उनके नेता को सरकार चलाने में सहयोग कर सके। हमें भविष्य में सरकार चलाने की सोचना चाहिए और इसके लिए जरुरी है कि हमें सरकार की तरह सोचना भी आना चाहिए।

इस मुद्दे पर भाजपा की “गौ-माता राजनीति”, या “राम-भक्ति-आतंक राजनीति” की तरह ही सर्कुलर-विरोधी भी “जन-भ्रान्ति की राजनीति” कर रहे हैं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था की तमाम कमियों, खामियों और बाधाओं को मान लेने के बाद भी आप जेएनयू में सार्वजनिक कार्यक्रम करके ऐसा क्या बोलना चाहते हैं, जिसे नहीं बोलने दिया जा रहा है? या आप सार्वजानिक रूप से ऐसा क्या बोलना चाहते हैं जिसे आप नहीं चाहते है कि रिकॉर्ड कर लिया जाए? आप इतने गुप्त तरीके से काम करना चाहते हैं तो यह आपकी कैसी सार्वजनिकता है? अगर आपको रिकॉर्ड किये जाने से इतना भय या दिक्कत है तो क्या कल आप यह भी मांग नहीं कर देंगें कि कोई भी व्यक्ति मोबाइल लेकर आपके सार्वजनिक कार्यक्रम में शिरकत न करे, क्योकि बिना किसी अपवाद के आज हर मोबाइल में रिकॉर्डिंग की सुविधा उपलब्ध है! इसलिए हम कह सकते हैं कि यह सर्कुलर अंततः जेएनयू की लोकतान्त्रिक बहस के संस्कृति के खिलाफ नहीं है। यह सीधा-सीधा सिर्फ अराजकतावादियों, विध्वंसकारियो, माओवादियों और आतंकवादियों के खिलाफ है।

लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

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