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मैं दलित हूँ, आपकी गाय नहीं

मैं दलित हूँ, मैं आपकी वाली गाय नहीं, जिसे दुहकर मरने के लिए छोड़ देते हैं। मुझे आपकी गाय पर भी दया आती है। मैं आपसे और इस व्यवस्था से अंत-अंत तक लड़कर अपना बराबर का हिस्सा लूँगा। वैसे मैं आपकी गाय के अधिकार के लिए भी, आपके खिलाफ संघर्ष करूंगा

rohith-vemulaमैं दलित हूँ और आपके दमन का वह इतिहास हूँ, जो आपके मानव अथवा सभ्य होने पर बार-बार प्रश्न खड़ा करता है। मैं आपकी सभ्यता पर वह सवाल हूँ, जिसका आपके पास कोई जबाब नहीं है। आज भी आपमें इतिहास की तरफ़ झाँकने की हिम्मत नहीं है। अगर आप उस दमन के इतिहास को सही मानते हैं तो आपसे मुझे कोई शिकायत नहीं है। तो मैं खुश हूँ आपकी झूठी सभ्यता का ढोंग देखकर। मैं आपको उस इतिहास में ले जा रहा हूँ, जहाँ आपने मुझे मानव भी नहीं समझा, मेरे अस्तित्व को भी नहीं माना। मुझे छूना भी दुस्वार समझा, आपको मेरी परछाई भी गवारा नहीं थी। आपने, अपने को देवता कहा और मैंने मान लिया, वह भी बिना किसी सवाल किये। वह मेरी निष्ठा थी और मेरी निष्ठा को आपने मेरी मूर्खता समझा। इतिहास गवाह है कि मैं उस समय भी “एकलव्य” था, मैं “कर्ण” था, मैं “शम्बूक” था, मैं उस समय भी “बरबरीक” था। आप डर गए थे मुझसे और आपने मेरा अंगूठा, मेरा कवच, मेरा जीवन, सब ले लिया था और मैंने उफ़ तक नहीं किया था। मैं आपके इस समाज की वह जरूरत था, जिसके बिना आप अपनी सभ्यता का झूठा ढोंग नहीं रच पाते। मैं था, इसिलए आप सभ्य थे अन्यथा आप कचड़े का ढेर होते, आप सड़ रहे होते, आप के शरीर से बदबू आ रही होती, आपके घर, दुर्गन्ध का पर्याय बन रहे होते, आपका सारा वातावरण दूषित हो रहा होता। मैंने आपको साफ़-सुथरी जिन्दगी दी, और आपने मुझे क्या दिया? वो “अपवित्रता का सिद्धांत”, उस “अस्पृश्यता”का दंश? अगर आप अपने को मानव कहते हैं तो मैं खुश हूँ कि आपने मुझे “आपके मानव” वाली केटेगरी में नहीं रखा। मुझे आप जैसे मानव बनने में कोई दिल्चस्प्पी नहीं हैं। आप उस धार्मिक मान्यता वाले लोग हैं, जो परिवर्तन को सत्य मानते हैं। अच्छा है। आपने कई बार मुझसे भी कहा कि अब आप उस इतिहास के कलंक को धोना चाहते हैं, इतिहास बदलना चाहते हैं। मैंने भी सोचा की आपका ह्रदय परिवर्तन हो गया होगा। मैंने फिर से आप पर विश्वास किया। मुझे लगा कि शायद अब आप सभ्य हो गए होंगे। शायद आपमें वह सच्ची मानवीय चेतना आ गयी होगी, शायद उस इतिहास ने आपको झकझोर दिया होगा। शायद आप सच्चे अर्थ में मानव बन गए होंगे। मुझे लगा था कि आप अंत में इंसान तो बन ही जायेंगे। मुझे लगा कि आप “बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर” की पूजा कर रहे हैं, पढ़ रहे हैं, तो कुछ तो बदल ही रहा होगा। मैंने सोचा कि अब तो आप “तथागत बुद्ध” के ज्ञान को अपना रहे होंगे। लेकिन अब समझ में आया कि आप आज भी अपने को “देवता” ही मानते हैं। आप अभी तक इंसान नहीं बन पाए। मैंने जाति व्यवस्था तोड़ने की पहल की, अपने नाम से टाइटल हटाया, लेकिन आप तो अपने टाइटल को ही अपना गौरव मानते रहे। आज भी, आप अपने जाति को लेकर इतराते हैं। मेरी लड़ाई कुछ जातियों से नहीं बल्कि पूरी “जाति-व्यवस्था” से है।

जब मैंने आपको ‘”ऊना” गुजरात’ में हुए अत्याचार के खिलाफ उठकर खड़ा होते नहीं देखा, जब मैंने आपके आँखों को भींगा हुआ नहीं देखा, जब आपको मैंने इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाते नहीं देखा, जब आपको मैंने परेशान नहीं देखा, जब मैंने आपके रोंगटे खड़े नहीं देखे। जब मैंने आपके मन में आपकी पवित्र गाय के लिए स्नेह देखा और मेरे लिए वही अत्याचार की ऐतिहासिक पुनरावृति, तो मैंने मान लिया की आप इंसान बन ही नहीं सकते या आप इंसान बनना हीं नहीं चाहते। वैसे आप देवता तो कभी भी नहीं थे। मैंने आपके झूठ और प्रपंच को त्याग दिया है। मैं “अपवित्र” नहीं बल्कि “पवित्र” हूँ, इसीलिए तो आप सदियों से हमारी बलि चढ़ाते आये हैं। आप पवित्र चीजों की ही तो बलि चढ़ाते हैं। बाबा साहेब और करपात्री महाराज के डिबेट को पढ़िए, आपके दिमाग की कलई खुल जाएगी। आपकी गाय पवित्र नहीं इसीलिए उसकी बलि वर्जित कर दिया गया। अब आप रखिये अपनी वाली पवित्र गाय अपने पास। मैंने भी ठान लिया है कि, मैं आपकी गाय को छूंऊगा तक नहीं। मेरे पास भी गाय है, आपसे ज्यादा दूध देने वाली गाय। मैं उसके मरने पर उसे अपने हाथों से उठाकर, उसे विदा करता हूँ। आपकी तरह झूठा ढोंग नहीं। जब तक उपयोगी है वो माँ है और अंत में वह बस मरी हुई गाय होती है।

dalit_protestअब मैं न तो आपके समाज में हूँ, न हीं उस व्यवस्था में। मैंने आपके लिए रहने वाली निष्ठा तोड़ दी है। आज भी निष्ठावान हूँ, लेकिन निष्ठा अब सिर्फ संविधान के लिए है। मैं आपके वाले देश को नहीं मानता, जिसमें आपके बनाये हुए दानवी कानून हैं। अगर कोई देश आपके वाले कानून से चलता है तो वो मेरा देश नहीं। मेरे देश में सब हैं, आप भी हैं, वो भी बराबर। अगर कोई सामाजिक कानून हमपर लागू करेंगे तो पहले समाज बनाइये। आपने मेरे स्किल, मेरे मेरिट को अन्यथा कोसा है, क्या आप भूल गए इतिहास को, आपने पढने की वजह से हमारे कानों में गरम तेल डाला था। मुझे प्रथम स्थान लाने का कोई गौरव नहीं, बल्कि मैं अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को भी उतना ही स्किल्ड और मेरिटोरियस मानता हूँ। हमने आपकी तरह का संविधान नहीं बनाया, जिसमे कुछ देवता थे और बाकी को जानवरों से भी कमतर आँका था। मैंने जब संविधान बनाया तो आप भी बराबर थे, सबके और सब आपके बराबर थे। लेकिन आपको बराबरी पसंद कहाँ हैं? कोई पुल मैंने नहीं बनाया जो गिर गया, आपने बनाया था, रिपोर्ट है देख लीजिये। किसी पेट में मैंने कैंची नहीं छोड़ा था, अगर ऐसा हुआ तो दुनिया को प्रमाण दीजिये। झूठ और प्रपंच पर हवा बनाने में आपसे ज्यादा कौन माहिर है। माया रचना ही तो आपका काम है। मैंने आपको सम्मान दिया और आपने उसे मेरी दासता समझा। मैं आपके मायाजाल से बाहर निकल आया हूँ। मैं उठ खड़ा हुआ हूँ, आज भी आपके खिलाफ नहीं बल्कि उन तमाम अत्याचारों के खिलाफ, जो आपने, आपकी सोच ने हमारे साथ किया है। आपने और आपकी इस व्यवस्था ने कितने शम्बूक मार दिए, कितने रोहित मार दिए, कितने एकलव्य ने अपना अंगूठा खो दिया। मैं कल भी आपकी तरह नहीं था, आज भी आपकी तरह नहीं हूँ। मैं आपसे घृणा नहीं करता। बाबा साहेब ने कहा था कि घृणा व्यक्ति से नहीं बल्कि व्यक्ति की सोच से करनी चाहिए। मुझे आपकी तरह, सारी दुनिया नहीं चाहिए बल्कि मेरा अपना हिस्सा, बराबर का हिस्सा, मेरी पहचान, मेरा आत्मसम्मान चाहिए। मैं बराबरी चाहता हूँ, साम्राज्य नहीं। मैं दलित हूँ, मैं आपकी वाली गाय नहीं, जिसे दुहकर मरने के लिए छोड़ देते हैं। मुझे आपकी गाय पर भी दया आती है। मैं आपसे और इस व्यवस्था से अंत-अंत तक लड़कर भी अपना बराबर का हिस्सा लूँगा। वैसे मैं आपकी गाय के अधिकार के लिए भी, आपके खिलाफ संघर्ष करूंगा।

लेखक के बारे में

दीपक भास्कर

दीपक भास्कर दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, में पढ़ाते हैं तथा जे एन यू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेश्नल स्टडीज से पीएचडी कर रहे हैं।

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