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उदास हो जाएंगी बहुजनों की आँखें

इसने बहुत सारे ऐसे लेखको को लिखने के लिए प्रेरित किया जो समाज में होने वाले बदलावो की आंच महसूस कर सकते थे। बहुजन वैचारिकी और साहित्य में 'बहुजन साहित्य’ की वैचारिकी इसी पत्रिका की देन है

DSCN1736मेरे जैसे पाठक के लिए यह स्तब्ध करने वाली खबर थी कि एक बड़े समुदाय की प्रिय पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ के मुद्रित संस्करण का प्रकाशन स्थगित होने जा रहा है। पढ़े-लिखे लोग कितने उदास होंगे, यह तो मैं नहीं कह सकता, परंतु बहुजन तबकों के वे लोग, जिन तक आज भी इंटरनेट तक पहुँच नहीं है, उनकी आँखे जरुर उदास होंगी। इस पत्रिका ने बहुतों का जीवन बदला है। मेरे संज्ञान में फारवर्ड प्रेस पूरे उत्तर भारत में  बहुजन हितों की पहली द्विभाषी पत्रिका है। प्रमाणिक तथ्यों के साथ इसका हर आलेख पठनीय होता है। यथासंभव हम इस पत्रिका के वेब संस्करण का प्रिंट निकालकर और उसे फोटोस्टेट कराकर लोगों तक पहुंचाने का काम करेंगे। बहुजन हितों और महिषासुर प्रसंग में जिस तरह की जागरूकता इस पत्रिका ने फैलाई और बिखरे हुए लोगों को लामबंद किया वह बहुजनों की आँखों में महसूस किया जा सकता है। यह पत्रिका हमारे बौद्धिक मानस का इस तरह खुराक बनती गई कि लगता है इससे सदियों पुराना कोई नाता है। हिंदी का शोधार्थी के नाते इसने मेरी दृष्टि को वैचारिक धरातल पर और मजबूत किया। मैं पत्रिका से बहुत देर से जुड़ा पर मेरी वैचारिकी की शुरुआत भी उसी पत्रिका की देन है।

एक बार प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने पूछा कि यह पत्रिका पढ़ते हो कि नहीं? फि र इस पत्रिका से जुडऩे के लिए उन्होंने ही कहा था। प्रो. दिनेश कुशवाह की प्रेरणा भी कुछ इसी तरह की थी। गया के हमारे मित्र आशीष उन दिनों फारवर्ड  प्रेस के लिए काम करते थे। संजीव चंदन के माध्यम से उनसे मुलाकात संभव हुई थी। उन्होंने ही गया के बहुत सारे लोगों को इस पत्रिका से जोड़ा, जिनमें मैं भी एक था। बाद के दिनों में पत्रिका के पीडीएफ  मुझे मिलने लगे और मैंने बहुत सारे लोगों को इसे फारवर्ड किया और पत्रिका से जुडऩे का अनुरोध किया। यह कोई ऐसी पत्रिका नहीं थी जिसके बारे में लोगों को कहा जाए कि आप पत्रिका की मदद कीजिए, बल्कि जिसने भी देखा वही मुरीद हुआ। हाँ, अपने संस्थानों में मैंने कुछ ब्राह्मणवादी लोगों को यह कहते जरुर सुना था कि इसका मालिक कोई ईसाई समुदाय का व्यक्ति है। मैंने पलटकर कहा था कंटेंट पर बात कीजिए। पत्रिका इतनी जंची की बहुत से पुराने अंक मंगा लिए। यह पहली पत्रिका है जिसने महसूस करने और अभिव्यक्त करने का साहसिक विवेक दिया। बहुत सारे ऐसे विषयों पर सामग्री और जानकारी जुटाई, जिन्हें इतिहास के रसातल में धूल ढंके पड़ा हुआ था। इसने बहुत सारे ऐसे लेखको को लिखने के लिए प्रेरित किया जो समाज में होने वाले बदलाओं की आंच महसूस कर सकते थे। बहुजन वैचारिकी और साहित्य में ‘बहुजन साहित्य’ की वैचारिकी इसी पत्रिका की देन है। साहित्य के सबाल्टर्न इतिहास और पुनर्लेखन पर बल के कारण भी इस पत्रिका को नई उंचाई मिली।

पुस्तक प्रकाशन और वेब संस्करण के लिए अग्रिम शुभकामनाएं। जय भीम।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

कर्मानंद आर्य

कर्मानंद आर्य दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया बिहार के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं।

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