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अस्मिताविहीन ओबीसी: हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

उत्पीड़ित अस्मिता की वास्तविक पहचान के पक्ष के साथ लेखक इस लेख में बता रहे हैं कि किसान और गरीब के नाम पर लेखकों का एक समूह भ्रमित चेतना से खुद को प्रस्तुत करता रहा है, जबकि वास्तविक किसान और गरीब इस कारण से अलक्षित रह जाते हैं । लेखक साथ ही इतिहास की इस भूल की ओर भी इशारा कर रहे हैं कि दलित-आदिवासी जातियां तो अंग्रेजों के शासनकाल में ही अनुसूचित कर ली गईं थीं, लेकिन पिछड़े वर्ग की किसान और श्रमिक जातियां नहीं

हिन्दी साहित्य के निर्माण में पिछड़ी जातियों की भूमिका पर विचार करने की सख्त जरूरत है। यहीं यह भी जरूरी है कि हिन्दी साहित्य में इन जातियों से बना समाज किन रूपों में चित्रित हुआ है — इस पर विचार किया जाए। ‘ओबीसी’ के नाम से पहचाना जानेवाला यह जाति-समूह भारत का बहुसंख्यक वर्ग है। बहुसंख्यक है इसलिए वैविध्य से भरा है। राजनीति और धर्म के बारे में यह समाज अनेक प्रकार की दृष्टि रखता है। इन दृष्टियों में परस्पर विरोध भी मिलता है। पिछड़ी जातियों की पहचान निर्धारित करने में कोई भी एक शब्द समर्थ नहीं है। ‘अस्पृश्यता’ शब्द ने दलित समाज की सुनिश्चित पहचान बताई, जिसके आधार पर पूरा विमर्श खड़ा हुआ और राजनीति के साथ साहित्य का विकास हुआ। मगर, पिछड़ी जातियों के लिए ‘पिछड़ापन’ शब्द पूरी तरह से सक्षम नहीं लगता।

weaverकहा जा रहा है कि ‘ओबीसी साहित्य’ दूर की कौड़ी है,यह साहित्य का जातिवादी पाठ है, इसका कोई विमर्श नहीं है, इसकी कोई वैचारिकी नहीं है, इसकी पैरवी ‘ऐरे गैरे नत्थू खैरे’ कर रहे हैं। दलित चिन्तक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि पिछड़ी जातियाँ ब्राह्मणवाद का पोषण करती हैं और दलितों का शोषण करती रही हैं। पिछड़ी जाति में जन्मे वामपंथी विद्वानों को ‘न तीन में न तेरह में’ गिना जा रहा है। वहीं यह भी कहा जा रहा है कि ओबीसी तो संवैधानिक शब्द है, इसलिए ओबीसी साहित्य का विरोध करनेवाले पर मुक़दमा दर्ज किया जाएगा। इस तरह की अनेक बातें सामने आ रही हैं, जिनके बीच ओबीसी साहित्य की गति-दुर्गति को निर्धारित होना है।

30 अगस्त 2016 को दयाल सिंह कॉलेज, दिल्ली में आयोजित सेमिनार की चर्चा इस परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है। यह सही है कि ‘ओबीसी साहित्य’ पर आयोजित इस सेमिनार के अधिकतर वक्ता इसके बारे में असहमति और संशय से भरे हुए थे। कुछ लोग सरलीकृत तरीके से इसके पक्ष में खड़े थे। विरोध करनेवालों के पास संशयात्मक आपत्तियाँ थीं और समर्थन करनेवालों के पास, ठोस आधार नहीं होने के बावजूद, दृढ़ पक्षधरता थी। इस सेमिनार की विशिष्टता यह लगी कि श्रोताओं में इस विषय को लेकर जबरदस्त उत्सुकता थी, मगर वक्ताओं में एकजुट दिशा-निर्देश का अभाव था।

आरोप-प्रत्यारोप से अच्छा है कि इस विषय पर व्यवस्थित तरीके से सोचा और लिखा जाए। सभी विवादों और दृढ़ताओं को अपनी जगह रहने भी दें तो इस पर तो सबकी सहमति होगी कि भारत में ओबीसी नाम का एक जाति-समूह मौजूद है। इसकी प्रकृति के बारे में अनेक प्रकार के दावे किये जा सकते हैं, इसके स्वभाव को परिभाषित करने में मतभेद हो सकते हैं! बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजी सरकार के द्वारा करायी गई जनगणना ने ‘दलित’ और ‘ओबीसी’ की पहचान बताई। इन दोनों में अंतर यह रहा कि अस्पृश्य और जन जातियाँ सूचीबद्ध हो गईं और बची हुई जातियाँ अन्य पिछड़ी जातियाँ (जो अस्पृश्य नहीं थीं) कह दी गईं। इनकी पहचान ‘अनआइडेंटिफाइड’ रह गयी। संयोग देखिए कि ‘पहचान की संकट’ से यह समाज अपनी शुरुआत से ही परेशान रहा। वह बहुसंख्यक आबादी के रूप में मौजूद है, मगर ‘पहचान’ बिखरी हुई है। केवल जाति के आधार पर बनी पहचान की सीमा छोटी होती है, भले वह पक्की होती है; मगर उसके आधार पर लंबी दूरी तय नहीं की जा सकती है। जाति-समूह का सामाजिक-राजनीतिक विस्तार बढ़ जाता है और इसके आधार पर अनेक प्रकार के हस्तक्षेप की संभावना बढ़ जाती है।

आज इतना ही विचारणीय है कि पिछड़ी जातियों के विशाल समूह की साहित्यिक अभिव्यक्ति को कैसे पहचाना जाए? क्या इसे ‘अनआइडेंटिफाइड’ छोड़ दिया जाए! साहित्यकार की जाति-आधारित जनगणना एक तथ्य तो है, मगर साहित्य की यात्रा इसके सहारे तय करना संभव नहीं होगा। साहित्य के अस्मितामूलक विमर्शों का एक अनिवार्य पक्ष है — जन्म-आधारित पहचान। जाति, नस्ल, जेंडर, रंग आदि के आधार पर बात की शुरुआत भर हो सकती है; मगर इसी के गीत गाते रहने से काम नहीं चल पाएगा। गैर-दलित को गाली देते रहने से दलित-विमर्श का विकास नहीं हो सकता, पुरुषों को गाली देकर स्त्री-विमर्श लंबी दूरी तय नहीं कर सकता; उसी तरह से केवल जाति की रट लगाने से ओबीसी साहित्य का विकास नहीं हो सकता।

farmerपिछड़ी जातियों का समाज जिस तरह से विस्तृत है, उसी तरह से हिन्दी साहित्य में उसका विस्तार भी मौजूद है। दरबारी और शुद्ध रोमानी साहित्य को छोड़ दिया जाए, तो समाज के विस्तार को चित्रित-वर्णित करनेवाले प्रत्येक साहित्यकार की रचनाओं में आपको यह समाज नज़र आएगा। कबीर और सूर ही नहीं तुलसी की रचनाओं के समाज में भी इनकी उपस्थिति मिलेगी। कथा-साहित्य के कुछ हिस्से को छोड़ दीजिए तो हिन्दी के उपन्यासों की बड़ी संख्या इसी समाज से जुड़ी है। किसान-जीवन का साहित्य मुख्यतः इसी वर्ग के विश्लेषण से जुड़ा है। ग्रामीण जीवन को आधार बनाकर लिखा गया साहित्य इसी वर्ग के इर्द-गिर्द रचा गया है। भारत के विस्तार को जिसने भी चित्रित किया है, उसने इस समाज का ही विवरण प्रस्तुत किया है। वर्णाश्रम की चिंता करनेवाला साहित्य भी इस स्वर को उभारता है कि यह व्यवस्था कमजोर पड़ रही है क्योंकि शूद्रों (पिछड़ी जातियाँ) में उभार आ रहा है! सारांश यह कि हिन्दी साहित्य ही नहीं, अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय साहित्य की प्रत्येक सामाजिक रचना में पिछड़ी जातियों का समाज मौजूद है।

कहा जा रहा है कि ‘ओबीसी साहित्यकार’ के रूप में आज कोई भी रचनाकार अपनी पहचान बनाना नहीं चाहेगा। जब साहित्यकार ही नहीं तो साहित्य कैसा! दरअसल ‘दलित साहित्य’ की पैरोडी के रूप में ‘ओबीसी साहित्य’ के विकास के बारे में सोचने के कारण ऐसी जिज्ञासा पैदा हो रही है! ‘दलित’ एक विषय है जिस पर लिखनेवाला साहित्यकार ‘दलित साहित्यकार’ कह दिया जाता है। आंबेडकर को लम्बे समय तक ‘दलित विचारक’ माना गया; मगर अब भूल-सुधार करके उन्हें एक ‘विचारक के रूप में पहचाना जा रहा है, क्योंकि वे मूलतः एक बड़े विचारक हैं, जिन्होंने ‘दलित’ विषय पर महत्त्वपूर्ण चिंतन किया है। यहीं इस सवाल का जवाब है कि साहित्य तो साहित्य होता है, मगर उसे ‘दलित साहित्य’ के रूप में ‘विषयगत पहचान’ दी जा सकती है और दी भी गई है। उसे ‘दलित’ विषय और ‘साहित्य’ की विधा- दोनों की रक्षा करनी होगी। यही कारण है कि विषय की रक्षा करने के बावजूद साहित्य की उपेक्षा के कारण अनेक दलित रचनाकारों की रचनाएँ अच्छी कृति नहीं बन पाई हैं। जरूरी नहीं है कि हम ‘ओबीसी रचनाकार’ का टैग लगाते फिरें, हमें ध्यान इस बात पर देना चाहिए कि ओबीसी समाज इतना विस्तृत और व्यापक है कि इसे दलित साहित्य की रणनीति अपनाने की कोई जरूरत नहीं है। अल्पसंख्यकता की राजनीति से बहुसंख्यक समाज को हमेशा बचाना चाहिए, क्योंकि वह विराट है इसलिए उसे उदार होना ही पड़ेगा। अल्पसंख्यकता आत्मसुरक्षा की चिंता में जीती-पलती है और बहुसंख्यकता का भविष्य लचीलेपन में सुरक्षित रहता है। ओबीसी समाज का साहित्य और साहित्यकार — दोनों बड़ी मात्रा और संख्या में मौजूद हैं, उनपर टैग न भी लगाएँ तो कोई हर्ज नहीं है।

ओबीसी साहित्य को अस्मितामूलक विमर्शों की तरह पूरी तरह से नहीं देखा जाना चाहिए। अस्मिता का संबंध उन सामाजिक समूहों से है जिनके साथ जन्म-आधारित पहचान के आधार पर अत्यधिक भेदभाव किया गया है। यह भेदभाव प्रत्यक्ष रहा है, जिसकी सैद्धांतिकी भी विकसित कर ली जाती है। जैसे, स्त्री, दलित, आदिवासी आदि के खिलाफ होनेवाले भेदभाव प्रत्यक्ष रहे हैं और इन भेदभावों को लोक और शास्त्र की तरफ से सिद्धांत के आवरण भी प्रदान किये गये हैं। पिछड़ी जातियों की स्थिति इस तरह की नहीं रही है। यही कारण है कि दलित साहित्य के समर्थक गैर-दलित विचारकों ने पिछड़ी जातियों के बारे में उसी पद्धति पर विचार करने से असहमति जताई। राजेन्द्र यादव ने एक बार साफ-साफ मना कर दिया था कि वे ‘ओबीसी साहित्य’ की अवधारणा से सहमत नहीं हैं। चौथीराम यादव और प्रेमकुमार मणि भी अपनी असहमति प्रकट कर चुके हैं।

premchand-and-wifeमंडल राजनीति के कारण हुए सामाजिक परिवर्तन के दौर में पली-बढ़ी पीढ़ी की सामाजिक चिंता इन विद्वानों से भिन्न नज़र आती है। यह पीढ़ी व्यग्र है कि विभिन्न क्षेत्रों में उसका प्रतिनिधित्व बढ़े। वह अपनी योग्यता, प्रतिभा और परिश्रम से परिचित है, उसे पता चल चुका है कि ‘मेरिट’ के कारण वह पीछे नहीं है; बल्कि भेदभावपूर्ण व्यवस्था के कारण उसे पीछे ठेल दिया जाता है। यह पीढ़ी चाहती है कि विभिन्न क्षेत्रों की तरह साहित्य में भी उसकी उपस्थिति को रेखांकित किया जाए। इस नई इच्छा-शक्ति का स्वागत तो करना ही पड़ेगा, अन्यथा हिन्दी साहित्य इस नयी ‘सभ्यता-समीक्षा’ का सही मूल्यांकन नहीं कर पाएगा। यह पीढ़ी देख रही है कि प्रेमचंद का प्रत्येक किसान-पात्र पिछड़ी जाति का है, मगर हिन्दी आलोचना में इसका उल्लेख तक नहीं है। हिन्दी आलोचना प्रेमचंद के किसान को शोषित-पीड़ित तो बताती है, मगर इस जाति-समूह को ‘अनआइडेंटिफाइड’ रखना चाहती है। इसके पीछे मंशा चाहे जो भी रही हो, क्योंकि रामविलास शर्मा-जैसे बड़े आलोचकों पर कोई सतही आरोप लगना उचित नहीं है। उनके प्रति पूरा सम्मान रखते हुए यह कहा जा सकता है कि समाज का यह तबका उनकी आलोचना में पहचाना नहीं गया है। आज की पीढ़ी चाहती है कि प्रेमचंद के किसान को पिछड़ी जातियों के समूह के रूप में पहचाना जाए। इस समूह की प्रवृत्तियों को रेखांकित किया जाए। यह भी कहा जाए कि भारतीय संस्कृति यदि कृषि-संस्कृति है तो इसके निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका पिछड़ी जातियों की है, क्योंकि किसान तो केवल पिछड़ी जातियाँ थीं। ओबीसी साहित्य-दृष्टि के अभाव में इस तरह का विश्लेषण संभव नहीं है।

‘भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की यात्रा’ करते हुए ओबीसी समाज और हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध पर विचार-प्रक्रिया को तेज करना चाहिए। फ़िलहाल सर्वाधिक संभावना इसकी आलोचना-दृष्टि के विकास में है। आलोचनात्मक विवरण से दृष्टि का पता चलेगा जिससे वैचारिकी के निर्माण में सहयोग मिलेगा। हिन्दी साहित्य को ओबीसी समाज की दृष्टि से देखने-पहचानने का क्रम ज्यों-ज्यों मजबूत होगा, इसके स्वरूप में क्रमशः स्पष्टता आती जाएगी।

भारत का समाज जाति-आधारित विभागों के आधार पर तीन हिस्सों में प्रायः बँटा हुआ पहचाना गया है — ऊँची जातियाँ, पिछड़ी जातियाँ और दलित-आदिवासी जातियाँ। इन तीनों की पहचान के लिए तीन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है — वर्चस्व, योगदान और पीड़ा। ऊँची जातियाँ वर्चस्वकामी रही हैं, उन्होंने प्रायः ‘वर्चस्व’ कायम रखने की दृष्टि से श्रम किया है, उनकी तमाम कोशिशों का सारांश यही रहा है कि उनका ‘वर्चस्व’ बना रहे। पिछड़ी जातियों का ‘योगदान’ सबसे बड़ा है, कृषि और शिल्प के क्षेत्र में इन जातियों के श्रम ने भारत का निर्माण किया है। उत्पादक होने के कारण इनके ‘योगदान’ के सामने सभी जाति-समूह फीके नज़र आते हैं। ‘दलित-आदिवासी’ समूह ने जितनी ‘पीड़ा’ झेली है, उसकी तुलना किसी दूसरे समूह से नहीं की जा सकती है।

ओबीसी साहित्य-दृष्टि का उद्देश्य होना चाहिए कि वह उन प्रकरणों को प्रकाश में लाए, जिनसे ओबीसी समाज के योगदान के महत्त्व को समझा जा सके। किसान का अर्थ केवल शोषित समुदय के रूप में नहीं समझ लिया जाए, बल्कि उसके सांस्कृतिक महत्त्व को रेखांकित किया जाए। जाति-समूह के रूप में किसानों की पहचान करने पर हम किसान-राजनीति में घुसे हुए भू-पतियों को चिह्नित कर पाएँगे। कुबेरनाथ राय का एक निबंध है — ‘संस्कृति का शेषनाग’। उसमें उन्होंने स्वयं को ‘किसान ब्राह्मण’ कहा है। यह एक प्रकार का छद्म रचा जा रहा है कि ब्राह्मण को किसान समझा जाए। किसान की एक संस्कृति है, जिससे ब्राह्मण जाति का तालमेल बन ही नहीं सकता। ऊँची जातियाँ भू-स्वामी तो हो सकती हैं, कृषि उनके लिए आय का जरिया हो सकती है; मगर वे किसान नहीं हो सकते हैं। समाजवादी/वामपंथी दौर में ऊँची जाति के लेखकों ने अपनी पुस्तकों के फ्लैप पर अपना परिचय लिखवाया — ‘किसान परिवार में जन्म’। ऐसे लेखकों की मंशा पर संदेह करना जरूरी नहीं है, मगर यह एक प्रकार की छद्म चेतना से ज्यादा कुछ नहीं है कि ऊँची जाति में जन्मा कोई व्यक्ति खुद को किसान कहे। लोकतान्त्रिक भारत में ‘जनवादी’ होने के अनेक छद्म रचे गए हैं। स्वयं को ‘गरीब’ कहकर महिमामंडित करने का पाखंड तो रचा ही गया, इसके द्वारा असली गरीब को पुनः वंचित बनाए रखने में षड्यंत्रकारियों को सफलता मिली है।

ओबीसी साहित्य के रचयिता को आत्मकथा लिखने की जरूरत नहीं पड़ी है और आगे भी नहीं पड़ेगी। यह सब अस्मितामूलक विमर्श से जुड़े लेखकों को करना पड़ता है। आत्मकथा के माध्यम से प्रायः अपनी ‘पीड़ा’ की अभिव्यक्ति का व्यापक अवसर मिलता है। पिछड़ी जातियों को अपनी पीड़ा रोने की जरूरत नहीं, वे तो श्रम, निर्माण और उत्पादन के उल्लास से भरी हैं। प्रेम कुमार मणि ने ठीक लिखा है कि कबीर उल्लास के कवि हैं। कबीर का सम्बन्ध श्रम, निर्माण और उत्पादन से है वे भला क्यों रोएँगे! पिछड़ी जातियाँ श्रम, निर्माण और उत्पादन के सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं। शायद यही कारण है कि कबीर को प्रकृति का सौन्दर्य आकर्षित नहीं करता है। उनकी कविता में प्रकृति-चित्रण नहीं मिलता है। किसान साहित्य में भी प्रकृति-चित्रण की प्रधानता नहीं मिलती। प्रेमचंद के किसान चरित्रों को प्रकृति के प्रति ज्यादा लालायित आप नहीं देखेंगे। प्रकृति के प्रति उनका आकर्षण प्रयोजनमूलक रूप में कहीं-कहीं जरूर दिखाई पड़ेगा। वहीं कुबेरनाथ राय के उपर्युक्त निबंध में पचास प्रतिशत स्थान प्रकृति-चित्रण ने ले रखा है। असली और नकली किसान होने के कारण यह फर्क आ गया है।

पिछड़ी जातियाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों हैं। दोनों धर्मों की इन जातियों ने धर्म को पूरी तरह कभी नहीं नकारा है। मुस्लिम पिछड़ी जातियों के लिए धर्म कभी समस्या के रूप में उभर कर नहीं आया है, यद्यपि धार्मिक वर्चस्व वहाँ भी अशराफ के हाथों में रहा है। हिन्दू धर्म की पिछड़ी जातियों ने ब्राह्मण के वर्चस्व से सदैव घुटन महसूस की है, मगर हिन्दू धर्म को छोड़ने का कोई बड़ा कारण उन्हें कभी नहीं मिला है। धर्म-परिवर्तन की प्रवृत्ति प्रायः दलित और आदिवासी समाज की रही है। इसलिए हिन्दू धर्म के खिलाफ खड़ी वामपंथी राजनीति को पिछड़ी जातियों का व्यापक समर्थन नहीं मिल पाया। पिछड़ी जातियाँ ऊँची जातियों के वर्चस्व को तोड़नेवाली राजनीति के प्रति खूब आकर्षित रही हैं, मगर हिन्दू धर्म के प्रति व्यापक आक्रोश की कोई पृष्ठभूमि कभी नहीं बन पाई है। हिन्दू धर्म को व्यापक रूप प्रदान करने में पिछड़ी जातियों की भूमिका पर विचार किया जाना चाहिए। लगता नहीं है कि इतनी बड़ी धार्मिक परंपरा को पल्लवित-पुष्पित करने का श्रेय केवल ब्राह्मण जातियों को मिलना चाहिए। इस विशाल धर्म-परंपरा पर वर्चस्व बनाने में ब्राह्मण जातियों को सफलता जरूर मिली, क्योंकि सत्ता के किसी भी रूप-प्रतिरूप पर ‘वर्चस्व’ कायम करने की प्रवृत्ति ऊँची जातियों में मौजूद रही है।

कृषि-संस्कृति और शिल्पी-वर्ग में धर्म और अध्यात्म की गहरी पैठ रही है। उनके प्रत्येक काम में कुछ भाववादी धारणाएँ मौजूद रही हैं। उनके पेशे के विभिन्न चरणों में कुछ धार्मिक विधि-विधान रहे हैं। इन सबको संपन्न करने में प्रायः पुरोहित की आवश्यकता नहीं पड़ती। किसान अपने परिवार की सहायता से इन विधानों को पूरा करता है। शायद यही वजह है कि पिछड़ी जातियाँ ऊँची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने के प्रति तो सजग रही हैं, मगर धार्मिक प्रकरणों में हिन्दू धर्म के विरोध की गहरी प्रवृत्ति उनमें नहीं रही है। उसके इस धार्मिक स्वरूप को ब्राह्मणवादी कहना ठीक नहीं है। वह धार्मिक है, मगर ब्राह्मणवाद का पोषक नहीं है। वह दलित चेतना की तरह अन्य धर्म में अपने लिए सम्मानजनक जगह की तलाश के लिए विवश नहीं है। यदि पिछड़ी जातियाँ प्रयास नहीं करतीं, तो ऊँची जातियों के वर्चस्व के खिलाफ खड़े होने की ताकत दलित जातियों में आती भी नहीं। पिछड़ी जातियों को धर्म से परेशानी नहीं है, उन्हें परेशानी है ऊँची जातियों की वर्चस्वकामी प्रवृत्ति से और अपने ‘योगदान’ को उचित सम्मान न मिल पाने से।

ओबीसी साहित्य एक संभावना लेकर आया है कि अंग्रेजी सरकार से लेकर भारत के संविधान तक में ‘पहचान के संकट’ से गुजरते बहुसंख्यक समाज की महत्ता को इस माध्यम से समझने-समझाने का प्रयास किया जाए। आश्चर्य की बात है कि भारत के निर्माण में जिस जाति-समूह का योगदान सबसे बड़ा रहा है, वह अपनी साहित्यिक पहचान के लिए सवालों से घेर लिया जा रहा है। दरअसल ये सवाल टूटते ‘वर्चस्व’ की पीड़ा से पैदा हो रहे हैं और ‘पीड़ा’ पर जिनका वर्चस्व बन चुका है उनकी तरफ से भूलवश उठाए जा रहे हैं। मंडल राजनीति से ओत-प्रोत नई पीढ़ी उपर्युक्त दोनों जाति-समूहों के छल-छद्मों से अघा चुकी है। अब उसे कोई बहला-फुसला नहीं सकता। यह पीढ़ी समझ गयी है कि हमारा ‘योगदान’ गर्व करने योग्य है, हम श्रेष्ठ हैं क्योंकि हमारे पास श्रम और उसकी संस्कृति का सौन्दर्य है। किसी दूसरे के मंच पर हमारी बात नहीं सुनी जाएगी, इसलिए अपनी बात अपने मंच से कहने की व्यवस्था उत्पन्न करो; तभी दूसरे मंचवाले  भी आपके महत्त्व को स्वीकार करेंगे।

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लेखक के बारे में

कमलेश वर्मा

राजकीय महिला महाविद्यालय, सेवापुरी, वाराणसी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष कमलेश वर्मा अपनी प्रखर आलोचना पद्धति के कारण हाल के वर्षों में चर्चित रहे हैं। 'काव्य भाषा और नागार्जुन की कविता' तथा 'जाति के प्रश्न पर कबीर' उनकी चर्चित पुस्तकें हैं

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