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जेएनयू चुनाव : बापसा का अपनेे दम पर शानदार प्रदर्शन

बापसा का प्रदर्शन सचमुच आह्लादकारी है क्योंकि उसने बहुत कम संसाधनों और बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के यह चुनाव लड़ा था। उसके अध्यक्ष पद के प्रत्याशी राहुल सोनपिम्पले पूनाराम केवल 409 वोटों से हारे।

jnusu-electionजेएनएसयू चुनाव में ब्राह्मणवादी-फासीवादी शक्तियों को पटखनी देने के लिए हम सब बधाई के पात्र हैं। हमें उम्मीद है कि इस विजय की गूँज देश के सभी विश्वविद्यालय प्रांगणों में सुनायी देगी। आईसा-एसएफ़आई की जीत की उम्मीद सभी को पहले से थी। ये दोनो संगठन पारंपरिक रूप से जेएनयू में शक्तिशाली रहे हैं और इन दोनों के हाथ मिला लेने से इनकी ताकत में इजाफा अवश्यम्भावी था। इस गठबंधन को कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन भी प्राप्त था। परन्तु बापसा का प्रदर्शन सचमुच आह्लादकारी है क्योंकि इसने बहुत कम संसाधनों और बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के यह चुनाव लड़ा था। उसके अध्यक्ष पद के प्रत्याशी राहुल सोनपिम्प्ले पूनाराम केवल 409 वोटों से हारे। बापसा के अन्य पदों (उपाध्यक्ष, महासचिव व सह-सचिव) के प्रत्याशियों ने भी खासे वोट हासिल किये। इसके पीछे था बहुजन विद्यार्थियों का ठोस समर्थन।

पिछले कई वर्षों से मूलनिवासी संघ, जो कि बामसेफ की एक शाखा है, बिना किसी शोरशराबे के जेएनयू में काम रहा था। जहाँ बापसा ने रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किये जाने के घटना की  फुले-आंबेडकर परिप्रेक्ष्य से लगातार चर्चा कर उसे जनमानस में जिंदा रखा, वहीं मूलनिवासी संघ ने अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के ज़रिये इस घटना की गंभीरता का अहसास पूरे देश को कराया।

मूलनिवासी बहुजन और एमवीएस व एएसए (आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन) सहित मूलनिवासी बहुजन विद्यार्थी संगठन और मूलनिवासी बहुजन बापसा के इस चमकदार प्रदर्शन की अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। बापसा में जश्न का माहौल है और उसने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि “इससे मूलनिवासी बहुजन विद्यार्थियों में यह आशा जागी है कि कैंपसों में उनकी स्वतंत्र व मजबूत उपस्थिति बन सकेगी।“  कुछ अन्य लोग अतिउत्साह से बचने की सलाह भी दे रहे हैं। हमारे पास खुश होने के पर्याप्त कारण हैं परन्तु समालोचनात्मक विश्लेषण की जरूरत से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

मूलनिवासी बहुजन विद्यार्थियों के कई सरोकार और चिंताएं हैं और वे सभी वास्तविक हैं, आधारहीन नहीं। क्या हमारे विद्यार्थी संगठन, वामपंथियों के इकठ्ठा होने के बाद भी उनके मुकाबले में खड़े हो सकेंगें? क्या विश्विद्यालय कैंपसों में वामपंथ के जबरदस्त प्रभाव के बावजूद वे अपना आधार बढ़ा सकेगें? क्या किसी राजनीतिक दल का समर्थन लिए बगैर वे जिंदा रह सकेगें? और अगर वे किसी राजनीतिक दल/संगठन से जुड़ना चाहें, तो वह कौन-सा दल या संगठन हो। ये कुछ प्रश्न हैं जो बापसा के लिए मौजूं हैं। जाहिर है कि उन्हें चुनाव दक्षिणपंथियों में से नहीं करना है, वामपंथियों और मध्यमार्गियों में से करना है। क्या बापसा बिरसा, फुले और आंबेडकर की विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध रह पायेगा?

रोहित वेमुला की मौत के बाद हुए प्रदर्शनों में जो नारे लगाये गए थे, उनमें “लाल सलाम, नीला सलाम” शामिल था। उस दौरान ब्राह्मणवाद और जातिवाद से मुक्ति के नारे भी बुलंद किये गए थे परन्तु आईसा-एसएफ़आई ने जेएनयू चुनाव में जो उम्मीदवार खड़े किये, उनका शीर्ष उच्च जातियों के हिन्दू  ब्राह्मण व अशरफ से बना था। आईसा के जो विद्यार्थी नेता कथित दलित संस्थाओं के साथ एक मंच पर खड़े होकर जय भीम के नारे लगाते थे, वे इन विरोधाभासों में समन्वय नहीं कर सके और ना ही यह स्पष्ट कर सके कि वे आखिर किसके साथ हैं। आश्चर्य नहीं कि वामपंथियों का नीला और लाल सलाम का नारा, बहुजनों को ख़ास प्रभावित नहीं कर सका। अंततः, बापसा ने एकला चलो रे की राह अपनाई और मूलनिवासी बहुजनों की ताकत दिखा दी। क्या यह कैंपसों के बाहर और उनके अन्दर एक नयी राजनीति की शुरुआत है?

लेखक के बारे में

मनीषा बांगर

डॉ. मनीषा बांगर पेशे से चिकित्सक और पीपुल पार्टी ऑफ इंडिया-डी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। वे हैदराबाद के डेक्कन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज में गेस्ट्रोएंटेरोलोजी व हेपेटोलोजी की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। पिछले एक दशक में उन्हें भारत और विदेश में अनेक विश्वविद्यालयों व मानवाधिकार और फुले-आंबेडकरवादी संगठनों व संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लैंगिक समानता, स्वास्थ्य व शिक्षा से लेकर जाति व फुले, पेरियार और आंबेडकर जैसे विषयों पर अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया जाता रहा है।

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