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जेएनयू चुनाव : ‘ब्राह्मण छोकरों की टोली’ को चुनौती दे रहा रिक्शाचालक का बेटा

बीएपीएसए के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार सोनपिम्पले राहुल पूनाराम हमेशा से कहते आये हैं कि दमन के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व दमितों को ही करना होगा। अभय कुमार के साथ इस साक्षात्कार में वे इसी बात पर जोर दे रहे हैं

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सोनपिम्पले राहुल पूनाराम

जेनएनयू छात्रसंघ (जेएनयूएसयू) के चुनाव जल्द ही होने वाले हैं और विशाल जेएनयू कैम्पस में राजनीतिक गर्मागर्मी अपने चरम पर है। नौ फरवरी की घटना के मद्देनजर, 9 सितंबर को होने वाले चुनाव की अहमयित पहले की तुलना में बहुत अधिक हो गई है। जहां एक ओर कट्टर प्रतिद्वंद्वियों एआईएसए और एसएफआई ने ‘हिन्दुत्ववादी शक्तियों से जेएनयू को बचाने’ के लिए ‘सिद्धांतों पर आधारित एकता’ का नारा देते हुए हाथ मिला लिया है, वहीं बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बपसा) का मानना है कि केवल दबों-कुचलों की एकता से ही ब्राह्मणवाद को राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परास्त किया जा सकता है।

बपसा के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार सोनपिम्पले राहुल पूनाराम, समाजशास्त्र में पीएचडी कर रहे हैं। उन्होंने “आत्मानुभव” के उस ढ़ांचे पर बात की, जिस पर दलित बुद्धिजीवी जोर देते आये है।।

राहुल को स्वयं यह ‘अनुभव’ भरपूर मिला है। उनका जन्म नागपुर की एक झोपड़पट्टी में हुआ था। उनके पिता साईकिल रिक्शा चलाते थे और मां भवन निर्माण मजदूर थीं। जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उन्हें यह अहसास हुआ कि उनकी दलित बस्ती के बाहर की दुनिया और अधिक क्रूर है। उन्हें अपने गाँव, जिसकी अधिकांश आबादी गैर-दलित थी, में भेदभाव का सामना करना पड़ा। स्कूल में भी अध्यापक भेदभाव करते थे, परन्तु बहुत खुले रूप में नहीं।

फिर खैरलां में दलितों का हत्याकांड (2006) हुआ। इस कुख्यात, अमानवीय घटना ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। पर उन्हें यह देखकर प्रेरणा भी मिली कि बड़ी संख्या में दलित महिलाएं, प्रभावशाली जातियों और वर्गों के खिलाफ उठ खड़ी हुईं। “दमन तब तक बंद नहीं होगा जब तक कि दमित वर्ग उठ खड़े नहीं होते और अपनी आवाज़ बुलंद नहीं करते”, वे कहते हैं।

उनकी इसी सोच ने उन्हें बपसा की ओर आकर्षित किया। जब महाराष्ट्र छोड़ कर, उन्होंने एमफिल विद्यार्थी के तौर पर जेएनयू में दाखिला लिया, तब बपसा एक नया संगठन था। अन्य विद्यार्थियों के साथ मिलकर, राहुल ने उसे मजबूती देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

बपसा अपनी शुरुआत से ही कैंपस की राजनीति में सक्रिय रहा है। भेदभाव और दमन से जुड़े मुद्दों पर उसने कई बैठकें और प्रदर्शन आयोजित किये और लोगों को एक किया। राहुल के उग्र भाषणों और आंबेडकर के परिप्रेक्ष्य से तथ्यों की उनके आक्रामक प्रस्तुतिकरण ने उन्हें समर्थक और विरोधी दोनों दिए।

उनका हमेशा से यह कहना रहा है कि दमन के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व दमितों को ही संभालना होगा। इस बातचीत में उन्होंने इसी बात पर जोर दिया। उनका कहना है कि दमन का अनुभव, दमन के खिलाफ संघर्ष के लिए आवश्यक है। वे कहते हैं कि दमित वर्गों के विपरीत, अन्य वर्ग केवल दमन की ‘बातें’ करते हैं और उसका ‘जश्न’ मनाते हैं। वे उन लोगों, जिनने दमन का कभी सामना नहीं किया और जो केवल उसकी बातें करते हैं और उनमें जिनके मन पर दमन के गहरे घाव हैं, के बीच स्पष्ट विभेद करते हैं। उनका कहना है कि दमित वर्ग, दमन की पीड़ा को कहीं बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकते हैं। तथाकथित प्रगतिशील व वामपंथी ताकतों पर निशाना साधते हुए वे कहते हैं कि ये तत्त्व कैंपस में व्याप्त असमानता को ज़ोरदार ढंग से उठाने से परहेज़ करते हैं।

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चुनाव के लिए जेएनयू मार्च का नेतृत्व करते राहुल और बपसा के अन्य उम्मीदवार

जेएनयू चुनाव के अन्य उम्मीदवारों से अलग हटकर, वे यह आश्वासन देते हैं कि अगर वे चुने गए तो वे समावेशीकरण और समानता के लिए अनवरत संघर्ष करेंगे, फिर चाहे उनका सामना किसी से भी क्यों न हो।

अपने चुनाव अभियान में जो मुद्दे वे प्रमुखता से उठा रहे हैं, उनमें शामिल हैं बड़ी संख्या में विद्यार्थियों का बीच में पढ़ाई छोड़ देना, मौखिक परीक्षा में भेदभाव और एससी, एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण। वे लैंगिक न्याय की बात भी करते हैं, विशेषकर उन कश्मीरी महिलाओं के सन्दर्भ में, जिनके अधिकारों पर ड़ाका डाला गया है।

वे कहते हैं कि जो विद्यार्थी बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं, उनमें से अधिकांश कमज़ोर वर्गों के होते हैं। उनके अलावा, जो विद्यार्थी अंग्रेजी में कमज़ोर होते हैं, उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उनका दावा है कि इसी तरह के  कई मामलों, जिन पर जेएनएसयू ने ध्यान नहीं दिया, उन्हें वे अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के समक्ष ले गए।

उन्होंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर, विद्यार्थियों के पढ़ाई बीच में छोड़ने की प्रवृत्ति का विस्तार से अध्ययन किया।  उनका निष्कर्ष यह है कि भेदभाव करने में “वामपंथी” और “दक्षिणपंथी” दोनों शामिल हैं।

उनका कहना है कि 60 से 70 प्रतिशत अंक हासिल करने वाले कमज़ोर वर्गों के विद्यार्थियों को अध्यापक मौखिक परीक्षा में शून्य अंक देते हैं, जिससे उनका दाखिला नहीं हो पाता।

यह भी महत्वपूर्ण है कि कई आरक्षित सीटें खाली रह जाती हैं। बपसा  की तरह, नवगठित यूनाइटेड ओबीसी फोरम भी इस मुद्दे को उठा रहा है। राहुल को दक्षिणपंथी शक्तियों से बहुत अपेक्षा नहीं है, परन्तु वामपंथियों के रुख से वे निराश हैं। उनका मानना है कि वामपंथियों को संवैधानिक आरक्षण नीति का प्रशासन द्वारा समुचित पालन किया जाना सुनिश्चित करना चाहिए था।

कैंपस के मुस्लिम विद्यार्थियों को अपने से जोड़ने के लिए, उन्होंने उनसे जुड़े मुद्दों को भी अपने घोषणापत्र में शामिल किया है। उर्दू, फारसी और अरबी को छोड़ कर, अन्य पाठ्यक्रमों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। कई वर्षों से यह मांग की जाती रही है कि स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज, इंटरनेशनल स्टडीज व नेचुरल साइंसेज के पाठ्यक्रमों में अधिक संख्या में मुसलमान विद्यार्थियों का प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए उन्हें ‘डिप्राईवेशन पॉइंट्स’ (वंचना अंक) दिए जाने चाहिए।

अब तक तो ऐसा ही लग रहा है कि लैंगिक न्याय का विमर्श जेएनयू चुनाव पर छाया रहेगा क्योंकि आइसा  के पूर्व दिल्ली प्रदेशाध्यक्ष के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कर लिया गया है। राहुल का आरोप है कि उसे निष्कासित कर, आइसा  ने केवल प्रतीकात्मक कार्यवाही की है। इस प्रकरण में आइसा  के बुद्धिजीवियों की चुप्पी,  लैंगिक न्याय की लड़ाई के प्रति उनकी  प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, ऐसा राहुल का मानना है। वे कहते हैं कि यह एक तरह से आरोपी का बचाव करना है।  उनके अनुसार, आइसा  अकेले चुनाव लड़ने में डर रही है क्योंकि उसे अहसास है कि लैंगिक न्याय के प्रति संवेदनशील विद्यार्थी उसका साथ नहीं देंगें। यही कारण है कि उसने कैंपस में अपने तीन दशक से भी पुराने प्रतिद्वंद्वी एसऍफ़आई से हाथ मिला लिया है। एसएफआई को लगता है कि इस गठबंधन से सेंट्रल पैनल में उसकी  सीटें सुरक्षित हो जायेगीं और वह अपने दुर्दिन से उबर सकेगा।

राहुल का कहना है कि कैंपस का वाम खेमा, दरअसल नर्म ब्राह्मणवादी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है और उसकी रूचि  केवल दमित वर्गों के विद्यार्थियों के वोट पाने में है। तथाकथित वामपंथियों के विपरीत, वंचित तबके, ब्राह्मणवादी दक्षिणपंथी शक्तियों के खिलाफ अपनी लड़ाई को राजनीति के क्षेत्र तक सीमित न रखते हुए, उसे सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों तक ले जाने में सक्षम हैं।

इस सबके बावजूद, क्या आंबेडकरवादियों और वामपंथियों के बीच किसी प्रकार के समझौते की सम्भावना है? राहुल का कहना कि वंचित समूहों की एकता सबसे ज्यादा ज़रूरी है। उनके विचार दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवानी से अलग हैं, जो आंबेडकरवादियों और वामपंथियों के संयुक्त मोर्चे के हामी हैं।

परन्तु क्या दमित वर्गों में भी परस्पर विरोधाभास नहीं हैं। उदाहरण के लिए, जब यूनाइटेड ओबीसी फोरम ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम में पीएमके नेता अंबुमणि रामदास को आमंत्रित किया था, तब बपसा  ने इसका विरोध किया था। राहुल का कहना है कि इन विरोधाभासों को दूर कर एकता स्थापित करने की ज़रुरत है।

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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