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महिषासुर शहादत दिवस : जिज्ञासाएं और समाधान

महिषासुर दिवस का अयोजन अश्विन पूर्णिमा के दिन किया जाता है। इस दिन असुर समुदाय के लोगों ने अपने नायक महिषासुर की हत्‍या के बाद शोक सभा आयोजित की थी। इस वर्ष महिषासुर शहादत दिवस 15 अक्‍टूबर को है। आइए जानें कि प्रतिरोध की बहुजन संस्‍कृति के निर्माण में अहम स्‍थान रखने वाले इस त्‍योहार को कैसे मनाया जाना चाहिए।  

बालाघाट, मध्‍यप्रदेश में महिषासुर शहादत दिवस का दृश्‍य
बालाघाट, मध्‍यप्रदेश में महिषासुर शहादत दिवस का दृश्‍य

महिषासुर और दुर्गा के बारे में क्या जानकारियां उपलब्ध हैं?

भारतीय उपमहाद्वीप में सुव्यवस्थित इतिहास लेखन की परंपरा नहीं रही है, इसलिए महिषासुर के जीवनकाल अथवा शहादत का ठीक-ठीक काल-निर्धारण बहुत कठिन है। दुर्गा की एक कथा ‘मार्कण्डेय पुराण’ में है। इतिहासकारों ने इस पुराण का लेखन-काल 250 से 500 ईसवी के बीच माना है। इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महिषासुर का काल इससे पूर्व रहा होगा। यानी, इस प्रकार की घटनाएं 2000 से 2500 वर्ष पहले हुई होंगी। लेकिन महिषासुर से संबंधित संस्कृति को समझने के लिए मार्कण्डेय पुराण मात्र एक सहायक ग्रंथ है, जिससे मिलने वाली जानकारियां विकृत हैं। दूसरी ओर, इस संबंध में बहुजन गाथाओं और लोकपरंपराओं में अधिक विश्वसनीय जानकारियां उपलब्ध हैं। हलांकि इनसे भी महिषासुर का वास्तिविक काल निर्धारण नहीं हो पता है, लेकिन इतना साफ तौर पर मालूम चलता है कि महिषासुर एक ऐतिहासिक चरित्र रहा होगा, मिथकीय नहीं। अतएव, इस परंपरा की बेहतर समझ के लिए ब्राह़मणेत्तर परंपराओं, संस्कृतियों की पडताल की जानी चाहिए। प्रसिद्ध इतिहासकार डी.डी कोशाम्बी ने महिषासुर को पशुपालकों का अराध्य बताया है, जिसकी हत्या ब्राह्मण धर्म में महिषासुर मर्दिनी करती है (प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, राजकमल प्रकाशन)। दूसरी ओर, देवीप्रसाद चट़टोपाध्याय ने 1959 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ ‘लोकायत: अ स्टडी इन इनिसिएंट इंडिया मेटरलिज्म‘ के उपअध्याय दुर्गा पूजा का मूल स्रोत में सप्रमाण साबित करते हुए लिखा है कि “दुर्गा पूजा में ऐसी बात नहीं है, जिसे स्पष्ट रूप से आध्यात्मिक या धार्मिक कहा जा सके। यह कृषि संबंधी जादू टोना मात्र है‘‘। विभिन्न श्रोतों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि एक देवी के रूप में दुर्गा वास्तव में मिथकीय चरित्र है, ब्राह़मणों की कल्पना मात्र है। जबकि महिषासुर एक वास्तविक चरित्र है, जो कि प्रतापी, समतावादी जननायक था।

महिषासुर शहादत/स्मरण दिवस किस तारीख को मनाया जाना चाहिए?

महिषासुर शहादत दिवस हर वर्ष शरद (आश्विन) पूर्णिमा को मनाया जाना चाहिए। अगर आप चाहें तो इसे महिषासुर स्मरण दिवस का नाम भी दे सकते हैं। शहादत दिवस और स्मरण दिवस, दोनों ही नाम ठीक हैं। आदिवासी कथाओं के अनुसार विदेशी आक्रमणकर्ताओं (जिन्हें ब्राह्मण धर्मग्रंथों में देवता कहा गया है, तथा जो आज

बुंदेलखंड के महोबा से 70 किमी‍दूर चौका-सोरा गांव स्थित भारतीय पुरात्तव विभाग द्वारा संरक्षित महिषासुर स्मारक मंदिर व जोतिबा फुले द्वारा लिखित विवाह गीत का सोशल मीडिया पर मौजूद पोस्‍टर। पुरात्तव विभाग ने महिषासुर स्‍मारक मंदिर का निर्माण काल निर्धारित नहीं किया है। लेकिन इसकी प्राचीनता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये साइनबोर्ड के अनुसार इसी क्षेत्र में स्थित खजुराहो के मंदिर को क्षति पहुंचाने पर जुर्माना है – 5 हजार रूपये अथवा तीन माह का कारावास (अथवा दोनों), जबकि महिषासुर स्मारक मंदिर को क्षति पहुंचाने पर जुर्माना है – 1 लाख रूपये अथवा दो वर्ष की जेल (अथवा दोनों)। ध्यातव्य है कि खजुराहो के मंदिर लगभग 1000 वर्ष पुराने हैं।
बुंदेलखंड के महोबा से 70 किमी‍दूर चौका-सोरा गांव स्थित भारतीय पुरात्तव विभाग द्वारा संरक्षित महिषासुर स्मारक मंदिर व जोतिबा फुले द्वारा लिखित विवाह गीत का सोशल मीडिया पर मौजूद पोस्‍टर।

‘द्विज’ के रूप में जाने जाते हैं) द्वारा भेजी गयी दुर्गा आश्विन मास के 16 वें दिन (शुक्ल पक्ष का प्रथम दिन) को महिषासुर के दुर्ग में पहुंची थी। इसके सातवें दिन रात में दुर्गा ने महिषासुर के दुर्ग का द्वार (पट) खोल दिया, ताकि आसपास छिपे देवता आक्रमण कर सकें। इस दौरान देवतागण महिषासुर के दुर्ग के इर्द-गिर्द झाड़-झाडियों में अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ बहुत बुरी हालत में कंद-मूल खाकर छुपे रहे थे। दो दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। छलपूर्वक अचानक हुए हमले के बावजूद महिषासुर व उनके गणों को हराना देवताओ के लिए संभव न था। इसलिए उन्होंने नौवें दिन फिर दुर्गा को आगे किया। महिषासुर की प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्रियों और पशुओं का संरक्षण करेंगे। उनकी इस प्रतिज्ञा का लाभ दुर्गा को सामने कर देवताओं ने उठाया और अपने समय के प्रतापी सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक नेतृत्वकर्ता महिषासुर की हत्या कर दी तथा भयानक नरसंहार किया। इसी हत्या और नरसंहार के उपलक्ष्य में आश्विन मास के दसवें दिन ‘दशहरा’ का त्योहार आयोजित किया जाता है। यह आज के बहुजनों के पूर्वजों तथा उनके नायक की हत्या का जश्न है।

आदिवासियों व विभिन्न अद्विज जातियों के बीच प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार महिषासुर के पराजित अनुयायियों ने इस घटना के पांच दिन बाद शरद पूर्णिमा (दशहरा के ठीक पांच दिन बाद) को एक विशाल सभा की थी तथा अपनी संस्कृति को जीवित रखने व अपनी खोयी हुई संपदा को वापस लेने संकल्प किया था। इसी घटना की याद में ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का अयोजन शरद पूर्णिमा को दिन अथवा रात में किया जाना चाहिए। ज्ञातव्य है कि असुर-श्रमण-बहुजन परंपरा में शरद पूर्णिमा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। कृष्ण की कथाओं में यह ‘कौमुदी महोत्सव’ का अवसर है, जबकि बुद्ध के जीवन चरित में यह नई यात्रा की शुरुआत का दिन माना जाता है।

आधुनिक काल में भारतीय बहुजनों के नायक सामाजिक क्रांतिकारी जोतिबा फुले ने भी लिखा है कि जिस युवक का विवाह हो रहा हो, वह विवाह के दिन सुबह पूर्व निश्चित स्थान पर अपने निर्माणकर्ता और महिषासुर की पूजा करें। (महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, राधाकृष्ण प्रकाशन, सत्यशोधक समाज के लिए उपयुक्त विवाह संबंधी विधि शीर्षक अध्याय)

 

शहादत दिवस का आयोजन कैसे करें?

पिछले कुछ वर्षों में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन के कुछ सर्वमान्य तरीके निम्नांकित हैं:

  1. महिषासुर शहादत दिवस में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।
  2. आयोजन सात दिवसीय होना चाहिए। यानी, महिषासुर की हत्या के दिन के बाद (आश्विन माह के 24 वें दिन/ दशहरा की नवमी) से शरद पूर्णिमा के दिन तक यह चले। मुख्य आयोजन शरद पूर्णिमा के दिन हो। लेकिन जहां समय की कमी हो वहां आयोजन एक दिवसीय हो और इसे शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाए।
  3. शहादत दिवस का अयोजन निजी स्तर पर परिवार अथवा मित्रों के साथ भी किया जा सकता है। महिषासुर का एक बड़ा चित्र बनाकर माल्यार्पण करना चाहिए तथा तत्तसंबंधी विचार गोष्ठी का अयोजन करना चाहिए। इस दौरान बिरसा मुंडा, जोतिबा फुले, नारायण गुरू, डा. आंबेडकर आदि से संबंधित साहित्य का वाचन किया जाना चाहिए।
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    झारखंड के गुमला जिला के बिशुनपुर प्रखंड के एक गांव में असुर जनजाति के लोग

    अगर संभव हो तो आयोजन स्थल से दुर्गासप्तशती, मार्कण्डेय पुराण समेत विभिन्न ब्राह्मण पुराणों, स्मृतियों व अन्य धर्मग्रंथों की प्रतीकात्मक शव-यात्रा निकाली जानी चाहिए। इस शव यात्रा की समाप्ति तथा शव दहन का कार्यक्रम संवैधानिक सत्ता केंद्रों (यथा, राज्य स्तरीय कार्यक्रम में राजधानी में स्थित विधान सभा सचिवालय, जिला स्तरीय आयोजन में समाहारणालय, प्रखंड स्तरीय कार्यक्रम में प्रखंड कार्यालय तथा गांव स्तरीय कार्यक्रम में पंचायत भवन के समक्ष अथवा ऐसी जगह न उपलब्ध होने की स्थिति में किसी अन्य सामुदायिक सार्वजनिक परिसर) में आयोजित किया जाना चाहिए।

  5. शव दहन यथासंभव क्षेत्र की किसी सम्माननीय महिला के हाथ से हो।
  6. अगर संभव हो तो, महिषासुर के नाम पर विभिन्न खेल व चित्रकला प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाए।
  7. महिषासुर उत्सव के दौरान विभिन्न बहुजन जातियों द्वारा पारंपरिक तौर पर गाये जाने वाले श्रम गीतों (यथा, बिरहा, फरूवाही, कहरवा, जतसार व रोपनी-सोहनी के गीत आदि) का गायन हो।
  8. संभव हो तो, विभिन्न बहुजन नायकों के संबंधित पारंपरिक गाथाओं का मंचन किया जाए तथा बहुजन दृष्टिकोण से सृजनात्मक लेखन कर सकने की क्षमता रखने वाले युवक-युवतियों को इन विषयों पर नये नाटक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए व उनका मंचन किया जाए।
  9. इन आयोजनों का फिल्मांकन किया जाए तथा नवीनतम संचार माध्यमों व तकनीकों के माध्यम से इसका प्रसार किया जाए व इन्हें संरक्षित किया जाए।
  10. सर्वाधिक स्मरणीय यह है कि शहादत दिवस बहुजन समुदाय की एकता, अपनी संस्कृति की पुनर्स्थापना और अपनी खोयी हुई भौतिक संपदा की वापसी के लिए संकल्प लेने का कार्यक्रम हो। कार्यक्रम के दौरान होने वाले संभाषण आदि इन्हीं विषयों पर केंद्रित हों।

[यह सामग्री महिषासुर दिवस, जेएनयू के आयोजकों द्वारा वर्ष 2013 में अन्य विश्वविद्यालयों के सांस्कृतिक आंदोलनकारियों के सहयोग से तैयार की गयी थी। यहाँ इसे महिषासुर पुस्तिका, 2014 से साभार प्रस्तुत किया गया है । यहां यह संशोधित रूप में है। फॉरवर्ड प्रेस किसी भी रूप में मूर्ति पूजा का समर्थन नहीं करता है और महिषासुर दिवस के आयोजकों से महिषासुर की मूर्ति स्थापना न करने का आग्रह करता है – संपादक]

पुनर्संशोधित : 30 अक्टूबर, 2018, अपराह्न : 4 बजे

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एफपी डेस्‍क

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