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‘ओबीसी विमर्श से हिन्दी साहित्य बेचैन क्यों’

पिछले दिनों देश की राजधानी में एक दिशा-प्रवर्तक विमर्श हुआ-ओबीसी साहित्य विमर्श। इसकी शुरुआत 2006 में महाराष्ट्र में हुई थी, इसकी यात्रा 10 सालों में देश की राजधानी तक पहुँच गई। इस विमर्श के भागीदार प्रवक्ताओं ने क्या कहा और विमर्श किन निष्कर्ष-संकेतों के साथ आगे के लिए स्थगित हुआ, बता रहे हैं उत्पलकांत अनीस

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(बाएं से) केदार कुमार मंडल, राजेंद्र प्रसाद सिंह, चौथीराम यादव, दिलीप मंडल

दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कालेज में 30 अगस्त को ‘ओबीसी साहित्य की अवधारणा : ‘संभावनाएं और चुनौतियां’ विषय पर एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दो सत्रों में संपन्न हुआ। भाषाविद् प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह की अध्यक्षता में सम्पन्न हुए इस सेमिनार में आलोचक प्रोफेसर चौथी राम यादव (मुख्य अतिथि), मारीशस के लेखक-आलोचक डॉ. प्रहलाद रामशरण (विशिष्ट अतिथि), पत्रकार दिलीप मंडल, राजनीति विज्ञानी प्रो़. एस. एन. मालाकार (जेएनयू), समाज विज्ञानी श्रावण देवरे, युवा आलोचक डॉ. कमलेश वर्मा, मराठी लेखिका प्रो. वंदना महाजन, सामाजिक चिंतक और प्रोफेसर डॉ. तुलसी राम कनौजिया प्रमुख वक्ता थे।

संयोजक डॉ. केदार कुमार मंडल ने विषय प्रस्तावना के अंतर्गत ओबीसी साहित्य की जरुरत को रेखांकित करते हुए बताया कि “दलित और आदिवासी साहित्य, दलित और आदिवासी विमर्श बहुत जरूरी है, होना भी चाहिए, उसी तरह से अब ओबीसी साहित्य और विमर्श अब शुरू होना चाहिए। शुरू में हम इसे बहुजन विमर्श के रूप में लेना चाहते थे, लेकिन समस्या यह है कि अगर इसे हम बहुजन कहेंगे, तो हमारे जो दलित और आदिवासी साथी हैं, वे इससे जुड़ेंगे या नहीं, यह सवाल था। यह विमर्श जब आगे बढ़ेगा तो एक जरूरत महसूस होगी बहुजन विमर्श की और आने वाले समय में हम इसे प्रोत्साहित करेंगे।

हिंदी के साहित्यकार और आलोचकों ने एक साजिश के तहत ओबीसी साहित्यकारों की रचनाओं को साहित्य माना ही नहीं, तो दूसरी तरफ ओबीसी के जो साहित्य और साहित्यकार है, उनको दलित साहित्य भी शामिल नहीं कर पा रहा है, जिससे ओबीसी साहित्यकार उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। भारत की जनसंख्या का लगभग 60% समुदाय, जिसे ओबीसी कहा जाता है, उसका साहित्य और आलोचना में प्रतिनिधित्व न हो, उनके दुख-दर्दों का चित्रण न हो तो यह समाज कितने समय तक चुप बैठा रह सकता है, कभी तो विद्रोह करता। श्रम से जुड़ी ओबीसी जातियों की अपनी एक संस्कृति है, इतिहास है, साहित्य है। जरूरत है इसे खोजने की। हम उम्मीद करते है कि दलित और आदिवासी विमर्श की तरह ओबीसी विमर्श भी आने वाले समय में अपना मुकाम हासिल करेगा।”

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इस प्रस्तावना के बाद आइये देखते हैं अलग –अलग वक्ताओं ने क्या कहा :

डॉ. प्रहलाद रामशरण : मारीशस के भारतवंशियों में पहले कोई भी जाति नहीं थी, लेकिन बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में जब ब्राह्मण मारीशस आने लगे, तब वहां का समाज अगड़ी और पिछड़ी जातियों में बटना शुरू हुआ। वहां पर दलित और आदिवासी वर्ग के लोग नहीं हैं। वहां पर दलित साहित्य नहीं है और दलित साहित्य का उल्लेख भी नहीं करते हैं। वैसे भी मारीशस में हिंदी साहित्य 1970 से शुरू हुआ है और अभी शैशव अवस्था में है। मारीशस के साहित्य में जातिवाद तो नहीं है, लेकिन एक खास वर्ग का कब्ज़ा है।

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कमलेश वर्मा ने ओबीसी साहित्‍य पर अपने विचार रखे

कमलेश वर्मा- जाति भारत की एक सच्चाई है, और जब जाति आधारित पहचान, जाति आधारित शोषण ख़तम ही नहीं हो रहा है, तब उसके नाम पर अगर कोई विमर्श खड़ा हो रहा है तो हिंदी साहित्य को क्या दिक्कत है? ओबीसी समाज की अपनी चुनौतियां हैं और ओबीसी साहित्य के जरिये ही उनसे पार पाया जा सकता है। डॉ. धर्मवीर कहतें हैं कि अगर दलित बौद्ध धर्म में जाता है या क्रिश्चन बनता है फिर भी वह दलित बना रहता है, उसकी दलित पहचान ख़त्म नहीं होती तो जब मूल पहचान समाज से खत्म ही नहीं हो रही है, तब उसी मूल पहचान पर ओबीसी साहित्य क्यों नहीं बन सकता है। ओबीसी साहित्य का मुख्य लक्ष्य शोषण से मुक्ति पाना है। अपने साथ जो अन्याय हो रहा है उससे मुक्ति के लिए प्रयास करने में क्या दिक्कत हो सकता है। लेकिन ओबीसी साहित्यकारों को इस बात के लिए भी सजग रहना पड़ेगा कि जाति आधारित जो भेदभाव आपके साथ जो हुआ है, वह आप किसी दूसरे के साथ न करें।

तुलसीराम कनौजिया – राजनीति और साहित्य में संबंध है और होना भी चाहिये। ओबीसी साहित्य की अगर बात उठ रही है तो उसका राजनीति से संबंध भी होना चाहिये और ओबीसी साहित्य को, बिखरे ओबीसी जातियों को एकसाथ लाने की कोशिश करनी चाहिए। ओबीसी साहित्य की अवधारणा को दो स्तरों पर निर्धारित किया जा सकता है – पहला, वर्ग के अनुसार जिसमें ओबीसी वर्ग के लोगों के द्वारा लिखा गया साहित्य है, चाहे जो कुछ भी लिख गया हो। और दूसरा, जिसमें ओबीसी समाज के लोगों के जीवन की अनुभूतियों के बारे में, ओबीसी लोगों की भावनाओं, समस्याओं का चित्रण किया गया है, और चाहे वह किसी के द्वारा किया गया हो वह ओबीसी साहित्य हो सकता है।

प्रो़. एस. एन. मालाकार – अभी ओबीसी साहित्य, स्वतंत्र साहित्य के रूप में विकसित नहीं हुआ है। लेकिन इसका व्यापक फलक है। हमें बौद्धकालीन समय से इसका विश्लेषण करना होगा। उस समय के महत्वपूर्ण 76 भिक्षुणी आज के संवैधानिक दर्जा के अनुसार ओबीसी समाज से थीं,  जिसमें से कई महत्वपूर्ण बौद्धकालीन रचनाओं की रचनाकार रहीं। इतिहास में जब हम ओबीसी साहित्य की खोज करेंगे तो इसका एक बहुत बड़ा फलक पहले से मौजूद है। ओबीसी समाज श्रमण संस्कृति का रहा है, श्रम आधारित जातियों की श्रमण संस्कृति के कारण ओबीसी साहित्य की संभावनायें है। लेकिन ‘ओबीसी साहित्य’ शब्द बोलने में लगाव महसूस नहीं हो पाता है जितना इसके बदले ‘पिछड़ा साहित्य’ से लगाव उत्पन्न होता है। जितनी संवेदनशीलता ‘दलित साहित्य’ बोलने और सुनने में लगता है उतना ही पिछड़ा साहित्य। ओबीसी की संवैधानिक सीमा भी हमारी विश्लेषण को बांध देती है। इसलिए पिछड़ा साहित्य कहना बेहतर होगा।

प्रो. श्रावण देवरे – ओबीसी साहित्य का महाद्वार हमने 2005 में पुणे शहर से खोला है। अखिल भारतीय ओबीसी साहित्य को संगठित करने के लिये हमने पुणे मे 2006 मे पहला ‘अखिल भारतीय ओबीसी साहित्य सम्मलेन’ किया। उस वक्त से आजतक महाराष्ट्र मे ओबीसी साहित्य उमड पडा है। परिणामस्वरूप आप देख रहे है की भारत के साहित्य का सबसे बडा राष्ट्रीय पुरस्कार माना जानेवाला ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ पिछले दो साल से ओबीसी साहित्यिकारों को मिल रहा है। 2014 मे भालचंद्र नेमाडे जी को और 2015 मे गुजरात के रघुवीर चौधरी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दोनो ओबीसी हैं। यह ओबीसी साहित्य के आंदोलन का परिणाम है। ओबीसी साहित्य का मुलभूत आधार, तत्वज्ञान  ”फुलेवाद” ही होगा। जब 10 साल पहले हमने ओबीसी साहित्य का आयोजन किया था, तब हमने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी दिल्ली में ओबीसी साहित्य का आयोजन होगा।

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सेमिनार को संबोधित करते चौथीराम यादव

चौथीराम यादव – मेरे लिए ओबीसी साहित्य की कल्पना दूर की कौड़ी जैसी लगती है। लेकिन नया है, अच्छा है, होना चाहिए। मेरे सामने ओबीसी साहित्य की कोई अवधारणा नहीं है। पहले अवधारणा बताइये तब ओबीसी साहित्य पर बात होगी। पहले ओबीसी विमर्श करिये लेकिन उससे पहले ओबीसी समाज के बारे में विमर्श करना होगा। जब विमर्श होगा, वैचारिकी तय होगी, तभी तो उसका कोई साहित्य बनेगा। आप ओबीसी साहित्य की वैचारिकी बताइये तभी तो साहित्य बनेगा। सिर्फ जाति के आधार पर देखने से नहीं होगा। ओबीसी साहित्य का एक कोई केन्द्रीय स्वर तो बनेगा न, जैसे दलित साहित्य का है, जैसे जातिवाद का विरोध, ब्राह्मणवाद का विरोध और इसका मूल एजेंडा होता है अपने जिये जीवन का यथार्थ। तो आपका मुख्य एजेंडा क्या है? अब इस आधार पर नहीं कि सिद्धों-नाथों में हमारे बहुत सारे ओबीसी रहे। आप कह दीजिये कि विजयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त ओबीसी थे, और जातियों के नाम गिना दीजिये तो इससे नहीं होता है। अब तो कबीर की भी जाति खोजी जा रही है। लेकिन 600 साल पहले कबीर ने जो सामाजिक प्रतिरोध का आन्दोलन चलाया वह बाद के भी सभी प्रगतिशील समाजों ने अपनाया। जो सताया हुआ मनुष्य है, जो पीड़ित है उसके पक्ष में कबीर बोल रहा है। हिंदी साहित्य हमेशा से विरोध का साहित्य रहा है। वह वर्चस्ववादी सता के खिलाफ हमेशा संघर्ष करता रहा है और परिवर्तन करता रहा है। ओबीसी साहित्य की प्रेरणा कहां से लेंगे, वैचारिकी कहां से लेंगे। अगर कोई वैचारिकी बनेगी तो वह  फूले-अम्बेडकर की बनेगी, बुद्ध-कबीर की वैचारिकी बनेगी। चाहे वह दलित साहित्य हो, आदिवासी साहित्य हो या फिर ओबीसी साहित्य हो। ब्राह्मणवाद अगर जिन्दा है, हिन्दू धर्म अगर जिन्दा है तो बहुत कुछ श्रेय इसका ओबीसी को जाता है। ओबीसी समाज पहले अपनी हैसियत तो खड़ा,  करे तमिलनाडु में 69% आरक्षण मिला हुआ है और आप 27% में झूल रहे हैं। पहले ओबीसी को आन्दोलन खड़ा करने की जरूरत है। ओबीसी के लोग सता के हमेशा गुलाम रहे है। अवैतनिक गुलाम रहे हैं। आज पहले इस गुलामी से मुक्त हों तब विमर्श करें, साहित्य रचें। सिर्फ जाति के आधार पर ओबीसी साहित्य नहीं हो सकता है। दलित चिंतन को आगे बढाने वाले कौन लोग रहे हैं, ओबीसी के लोग ही तो रहे हैं, आप उनसे भी तो कुछ सीखिये। पेरियार, नारायण गुरु, साहूजी महाराज, जोतिबाफुले, सावित्रीबाईफुले और आंबेडकर और उधर कबीर, ये पूरी लिस्ट है, जो हमारी प्रतिरोध की परंपरा रही है। मेरा अपना मत है कि जब भी कोई वैचारिकी बनेगी तो बुद्ध, कबीर, फूले और आंबेडकर को बाईपास करके न कोई ओबीसी साहित्य की वैचारिकी बनेगी और न दलित साहित्य की। और अगर यही होना है तो यह दलित साहित्य की वैचारिकी तो बनी हुई है ही तो फिर ओबीसी साहित्य की अलग से जरूरत क्यों? ओबीसी साहित्य नाम की अवधारणा मेरे मन में नहीं है, हालांकि संभावनाओं से इंकार नहीं करना चाहिए, संभावनाओं में बड़ी ताकत होती है, जो हमें आगे ले जाती है। फिलहाल तो हमें ओबीसी साहित्य की अवधारणा का पता नहीं है और अगर बनाना है तो पहले उसकी अवधारणा बनाइये, वैचारिकी बनाइये। साहित्य इतिहास से नहीं बनता है।

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राजेन्द्र प्रसाद सिंह

राजेन्द्र प्रसाद सिंह – जो अभी हमारे पास ज्ञान है, वह क्या है – हमलोगों के पास जो ज्ञान है वह ज्यादातर सेकंड हैण्ड है। जो ज्यादातर सत्य नहीं है। ये अभी ज्ञान की जो किताबें हैं, वे  ज्यादातर तथाकथित ऊंची जातियों के द्वारा लिखी गई हैं। ज्ञान- साहित्य, जो एक खिड़की है जिस पर आप और हम बैठे हैं, वह खिड़की, ज्ञान की दुनिया को देखने, सोचने-समझने के उतनी ही सुविधा दे रही है, जितना वे आपको दिखाना चाह रहे हैं। खिड़की से आप पूरे ज्ञान की दुनिया को नहीं देख पा रहे हैं। इसके लिए आपको खिड़की से बाहर कूदना होगा, खिड़की को तोड़ना होगा और जब आप खिड़की से बाहर छलांग लगा लेंगे तो आपको मालूम चलेगा कि ये दुनिया कितनी विकसित है। हमें अपने इतिहास को, अपने दर्शन को, अपने हिंदी साहित्य के इतिहास को फिर से देखना होगा। अभी तक आपका जो साहित्य है, वह तरल है, भाववादी है और अवास्तविक शब्दों पर आधारित है। अवास्तविक शब्द से मेरा मतलब जिसकी कोई स्थिति नहीं है। हम जब ओबीसी साहित्य की बात करते हैं तो एक ठोस और संवैधानिक साहित्य की बात कर रहे हैं, विज्ञान की बात कर रहे हैं, छायावाद की बात नहीं कर रहे हैं, जिसे न तो अनुभव कर सकते हैं, न छू सकते हैं, न देख सकते हैं तो यह कौन सा साहित्य है। छायावाद की कितनी गरिमा है हिंदी साहित्य में और इस देश में जहां 10 प्रान्तों में हिंदी बोली जाती है,  तो यह तुम्हारा कौन सा इतिहास और इतिहासकार हैं जिसने बताया कि छायावाद के सिर्फ चार ही कवि हैं। प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी वर्मा, जो संयोग से चारों उतरप्रदेश से ही हैं तो क्या आप सिर्फ उतरप्रदेश का ही इतिहास लिख रहे हैं। और यह किसने कहा कि छायावाद के सिर्फ यही चार कवि हैं। हमारे लोगों तो कभी नहीं कहा, हमने तो कभी नही कहा तो आप सवाल पूछिये कि किसने कहा, कब कहा, कहां कहा, क्यों कहा। तो इस पूरे मनोविज्ञान को समझ सकते हैं कि उस बेचारे आदमी ने किस लाचारी में कहा कि चार ही कवि है – वो थे नंददुलारे वाजपेयी- बेरोजगार लड़का, पीएचडी किये हुए, उसी का यह बनाया हुआ है। इन बातों को आपको परखना होगा। इसलिए हमनें ओबीसी साहित्य की बात करनी शुरू की है, जो संवैधानिक नाम है और ओबीसी साहित्य का विरोध संविधान का विरोध है, राष्ट्रद्रोह है, देशद्रोह है। पूरे देश में ओबीसी कमीशन है, ओबीसी हॉस्टल खुल रहे हैं तो फिर आपको ओबीसी साहित्य से नाराजगी क्यों। अभी हिंदी साहित्य में ज्यादातर झूठ है, पूरे संसार में अन्धविश्वास फैला रहा है। और जब हम ओबीसी साहित्य की बात कर रहे हैं तो आप कह रहे हैं कि हम अन्धविश्वास फैला रहे हैं। पहले आपको क्या पढाया गया है उस पर सवाल उठाइये। हिंदी साहित्य के इतिहास में मैं तो कहता हूं कि जाति चोरी का गंभीर मामला है। आपको अभी भी शंका है कि कबीर बाभन थे, तो आप कबीर का पूरा साहित्य पढ़ें। कोई भी ये बता दे कि कबीर ने कभी भी किसी बाभन कवि को कोट किया है, बाभन कवि का नाम लिया है। कबीर, हमसे-आपसे ज्यादा सजग आदमी थे। आप तो बाभन रचनाकार का नाम भी ले लेते हैं, मैं तो नाम ही नही लेता हूं। कबीर ने जो भी नाम लिया है, किसी कवि का तो दरजी का लिया है, और ईश्वर भी बनाया कबीर ने तो कुम्हार को बनाया, गोप को बनाया, महतो को बनाया, जुलाहा को बनाया। कभी भी कबीर भूल से भी बाभन और क्षत्रिय को ईश्वर नहीं बनाते है। सबका अपना-अपना प्रतीक है, अपना-अपना मिथक है। और जो लोग कहेंगे ओबीसी साहित्य की अवधारणा आज की अवधारणा है और ओबीसी को संवैधानिक दर्जा 1990 में मिला तो मैं पूछना चाहता हूं कि क्या न्यूटन के खोज से पहले गुरुत्वाकर्षण नहीं था? यदि न्यूटन से पहले गुरुत्वाकर्षण मौजूद था तो आप समझिये कि ओबीसी के लोग दुनिया में आज से नहीं हैं, मंडल कमीशन से पहले भी तो ओबीसी के लोग तो थे न। सिन्धु घाटी सभ्यता में अगर आप देखेंगे तो पशुपालक, कृषक थे और आप जिस फ्रेम की बात कर रहे हैं दलित साहित्य में तो दलितों के पास भूमि है कहां? दलित साहित्य में भूमि की समस्या नहीं है, वह आयेगा ही नहीं, वह उनकी समस्या है ही नहीं। पशुपालन की समस्या दलित फ्रेम में नही आ पायेगा और न ही शिल्पकार की समस्या, बढई की समस्या, लोहार की समस्या और जिसके पास बहुत भूमि है वह खेती करता ही नहीं है। ऊंची जाति के लोगों के पास भूमि है, लेकिन वह खेती करता ही नहीं है, तो जिसके पास भूमि है और जो खेती करता है वह है ओबीसी। इसीलिए कबीर के साहित्य में कृषि की समस्यायें बहुत मिलेंगी। फूले के साहित्य में मिलेगी, एक समय में फूले ने किसानों की समस्या को खूब उठाया है। तो किसानो की समस्या को दलित साहित्य नहीं उठायेगा, उसे ओबीसी साहित्य ही उठायेगा।

 दिलीप मंडल – इस विषय पर उतर भारत में आमतौर पर बातचीत हुई नहीं है अब तक और मुझे लगता है कि पहली बार इस तरीके की बातचीत हो रही है कि ओबीसी साहित्य जैसी कोई चीज है या नहीं,  इसकी क्या सम्भावना है? मैं इसे दो लोकेशन से देखना चाहता हूं, ओबीसी साहित्य का मामला बहुत ज्यादा विवाद पैदा करेगा, बहुत ज्यादा गर्मी पैदा करेगा, इसका अंदाजा आपलोगों को हो रहा होगा। दलित साहित्य कि जब बात महाराष्ट्र में शुरू होती है, तो उसको लेकर आलोचना होती है, निंदा होती है- खासकर, क्योंकि दलित साहित्य आत्मकथात्मक साहित्य से शुरू होता है। पहली बार उस पक्ष को, जो समाज में निम्न करार दी गई जातियां हैं, उनका जीवन कैसा है, साहित्य के केंद्र में दलित साहित्य ने लाया। दलित साहित्य ने अपने भोगे हुए यथार्थ को, अपने जीवन को, लोगों के सामने खोल कर रखना शुरू किया, जो उनको गलियां दी जा रही थी, जो वे काम कर रहे थे, इसको बताना शुरू किया। तो इसकी एक वैचारिकी बनी, अगर आप थोडा पीछे जायेंगे तो बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर एक उनकी स्पष्ट वैचारिकी है कि दलित साहित्य क्या होगा इसको लेकर कोई बहुत शंका नहीं है। दलित साहित्यकार अपने जीवन के बारे में, अपने जीवन अनुभव के बारे में, और उसके साथ बातचीत करते हुए जो बतायेगा वो दलित साहित्य होगा। ये दलित साहित्य की वैचारिकी है। यही स्थिति आदिवासी साहित्य के बारे में है, इसे बहुत ज्यादा परिभाषित करने की जरूरत नहीं पडी। हिंदी साहित्य के अन्दर या भारतीय साहित्य के अन्दर दलित और आदिवासी साहित्य के लिए, एक समाजशास्त्रीय वैचारिकी के हिसाब से एक अलग स्टेज था जिस पर आज की तारीख में दलितों ने एक जगह बना ली। दिल्ली शहर के अन्दर ही दलित लेखकों के कम से कम तीन संगठन आपस में संघर्ष करते हुए दिख रहे हैं। यह स्पेस बना है, दलित साहित्य ने एक संस्थागत रूप से अपना विकास किया है। आदिवासी साहित्य की भी स्थापना एक संस्थागत रूप से इतनी प्रबल हो चुकी है कि वे लोग अपनी अलग से पुस्तक मेला का आयोजन भी कर लेते हैं। आदिवासी पुस्तक मेला भी होता है और उसमें बड़ी संख्या में आदिवासी साहित्य पर बातचीत होती है। अभी तक हमलोग जिसे भारतीय साहित्य या हिंदी साहित्य कहते रहे या अलग- अलग भाषाओं के साहित्य कहते रहे इसके अन्दर कुछ समस्याएं हैं, मुझे लगता है कि वहां पर अब एक स्पेस बनता दिख रहा है। अभी तक मुख्य धारा का जो साहित्य है, अगर इसकी मीमांसाशास्त्र या आलोचना पद्धति से कहें, तो यह अभी तक अगर ब्राह्मणवादी लोकेशन से तय होता रहा है, इसके प्रतिरोध में अगर दलित और आदिवासी साहित्य ने अपना अलग खेमा गाड़ लिया है, तो फिर सवाल उठता है कि क्या अब इस देश में लगभग 52 से 60% (अलग-अलग स्रोतों के अनुसार के बीच आंकड़ा बनता है इस देश में ओबीसी का) लोगों की आवाज़ मुख्यधारा के साहित्य में, खासकर के आलोचना, समीक्षा, मीमांसा के क्षेत्र में स्पेस बना सकी है। अगर इनकों स्पेस नहीं मिला है तो मुझे लगता है कि इसपर बात होनी चाहिए। केदार प्रसाद मंडल ने बहुजन साहित्य की अवधारणा की बात की, मुझे लगता है कि यहां एक समस्या है- हम दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य से अलग अगर ओबीसी साहित्य नही बनायेंगे तो फिर बहुजन साहित्य नहीं हो पायेगा। तो फिर एक मुख्यधारा का साहित्य होगा, एक दलित और आदिवासी साहित्य होगा और दलित और आदिवासी साहित्य का जो साझा सम्मलेन होगा, वह बहुजन साहित्य बन जायेगा। दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और ओबीसी साहित्य का जब संयुक्त अधिवेशन होगा उसे बहुजन साहित्य सम्मेलन नाम से जाना जाएगा। ओबीसी साहित्य सभा बने बग़ैर बहुजन साहित्य अधूरा रहेगा। ओबीसी का जो साहित्य है, वह साहित्य एक अलग स्पेस की मांग कर रहा है। पक्का यकीन नहीं है कि यह मांग कितनी मजबूत है, लेकिन अगर पहली बार दिल्ली शहर में इस बात पर बातचीत हो रही है कि क्या ओबीसी साहित्य की कोई सम्भावना है? इस बहुजन स्पेस के अन्दर में ऐसी विचारकों और महापुरुषों की लम्बी कतार है। नारायण गुरु, पेरियार से लेकर अब तक आप पूरी कतार देख सकते हैं। और इन सबसे परिचय उत्तर भारत में अगर आप देखेंगे तो बामसेफ और मान्यवर कांशीराम के द्वारा होता है। किसी समय में ये स्थानीय और राज्यों के आइकान हुआ करते थे लेकिन 80 के दशक से इनका अखिल भारतीयकरण होना शुरू होता है। और आज ओबीसी नायकों का अखिल भारतीयकरण हो गया है, लेकिन अभी तक जो समाज में है या राजनीति में जो है क्या वह साहित्य में है? क्या साहित्य में भी ओबीसी आइकान की बात ओबीसी पहचान के साथ होनी शुरू हो गयी है या रेणु के साहित्य को इस कृत्य से देखा गया है कि क्या वे ओबीसी होने के वजह से या किसान जाति के होने से किसानों के बारे में लिख पाए हैं? ये सारे सवाल जब हल होंगे तो इसकी प्रवाह बनेगी। आज की तारीख में बात होनी शुरू हुई है और जहाँ तक मुझे जानकारी है, महाराष्ट्र में ओबीसी साहित्य सम्मलेन होने की सूचना है। ओबीसी साहित्य पर बात कर रहे हैं। कर्णाटक में बात शुरू हुई है। ओबीसी साहित्य की आज ख़ास पहचान नहीं है, लेकिन ओबीसी की जातियों की 500  से ज्यादा पत्रिकायें हैं। तो कहीं न कहीं गुंजाईश है वो स्पेस है, बातचीत होने लगी है। क्या आने वाले समय में ओबीसी पत्रिकाओं के संपादकों का सम्मलेन होगा, क्या पहली बार ये सारी जातियां अपनी पत्रिकाओं में दूसरी ओबीसी जातियों की समस्याएं उठाने लगेंगे? क्या ओबीसी, दलित और आदिवासी पत्रिकाओं के संपादकों का जो सम्मलेन होगा, वे बहुजन समस्याओं को उठाने लगेंगे? क्या भारत को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने के सवालों को उठाने लगेंगे?

वंदना महाजन – बुद्ध, फूले और आंबेडकर का विचार आत्मसात करके ओबीसी साहित्य आगे बढ़ सकता है और बहुजनवादी साहित्य का निर्माण कर सकता है। ओबीसी साहित्य ही ओबीसी समाज की चेतना का विकास कर सकता है।

लेखक के बारे में

उत्पलकांत अनीस

उत्पलकान्त अनीस मीडिया शोधार्थी हैं और सूचना तकनीक का आदिवासी महिलाओं पर प्रभाव पर शोध कर रहे हैं।

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