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ताजा सर्वेक्षण : पटना पर अब भी कायम है द्विज वर्चस्व

बिहार में पटना के 7 हिंदी अखबारों में काम करने वाले तकरीबन 297 पत्रकारों में 237 सवर्ण जाति समूह के हैं, 41 पिछड़ी जाति के, 7 अति पिछड़ी जाति के और 1 पत्रकार दलित जाति के हैं। बिहार के इन हिंदी अखबारों में सवर्ण जाति समूह 80 प्रतिशत हैं; पिछड़ा 13 प्रतिशत, अति पिछड़ा 3 प्रतिशत और अज्ञात 4 प्रतिशत हैं। मीडिया में सर्वाधिक संख्या ब्राह्मण पत्रकारों की है। कुल 297 पत्रकारों में अकेले ब्राह्मणों की संख्या 105 है (35 प्रतिशत)। इसमें कायस्थ, राजपूत और भूमिहार जाति के पत्रकारों की संख्या जोड़ दी जाए तो सब मिलाकर यह 80 प्रतिशत हो जाता है

ज्ञान और धन के संसाधनों में बहुजनों की हिस्सेदारी की असलियत

पिछली सदी के नौवें दशक में उभरी मंडल चेतना के 26 साल पूरे हो गए। बिहार और उत्तर प्रदेश-इन दो राज्यों में इस अवधि में पिछड़ा और दलित नेतृत्व शासन में रहा। अब जबकि ढाई दशक गुजर गए हैं, इनकी उपलब्धियों और सीमाओं के मूल्यांकन का वक्त आ गया है। राजनीतिक मोर्चे पर इसने सदियों से चले आ रहे सवर्ण वर्चस्व को तोड़ा। पहली बार बड़ी संख्या में हाशिये की जातियों का जन प्रतिनिधि सभाओं- विधान मंडल और संसद में प्रवेश हुआ। इस महती काम को आजाद भारत के जिन लंबे कालखंडों में सवर्ण नेतृत्ववाली पार्टियों और कम्युनिस्टों ने नहीं किया उसे उत्तर भारत में बिहार और यूपी की जनता ने पिछड़े-दलित नेतृत्व की बदौलत साकार किया। बिहार के इस मंडल नेतृत्व ने ‘90 के दशक में भाजपा के रामरथ को रोका और शूद्र चेतना को सांप्रदायिकता के विरुद्ध ध्रुवीकृत करके धर्मनिरपेक्षता को मजबूत जमीन दी। राजनीति में वर्चस्ववादी जाति समूहों के एकाधिकार को तोड़ दिया गया, दबे-कुचले लोगों को पहली बार राजनीति में भरपूर स्पेस मिला। बिहार में एक बड़ी आबादी को इसी दौर में इज्जत की जिंदगी मय्यसर हुई।

लेकिन इतना भर से ही क्या यह मान लेना सही होगा कि 25 साल से चले आ रहे इस नेतृत्व ने अपने वजूद की सार्थकता सिद्ध कर दी है ? अब वह समय आ गया है कि वस्तुनिष्ठता की कसौटी पर इस कालखंड की गहन जांच-पड़ताल हो। किसी जाति, समुदाय के जीवन में सत्ता के इतने बरस कम नहीं होते। अगर काम का इरादा नेतृत्व का चरित्र हो तो अल्पावधि में भी बड़े-बड़े फैसले संभव हुए हैं। इसी बिहार में कर्पूरी ठाकुर- इसकी नजीर हैं। निहायत विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने बडे़ साहसिक निर्णय लिए। केंद्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में मंडल आयोग की अनुशंसाओं को भी इसी अल्पावधि में लागू किया गया। लेकिन बिहार के 25 वर्षों के मंडल शासन में बहुजनों के जीवन स्तर में सुधार हेतु आर्थिक-शैक्षिक आदि क्षेत्रों में कोई मुक्कमल हस्तक्षेप नहीं किया गया। न तो भूमि सुधार की दिशा में कोई ठोस पहल हुई और न ही शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और विकास आदि के मोर्चे पर। लिहाजा, राजनीतिक मोर्चे पर जो बढ़त हासिल हुई वह जीवन के दूसरे क्षेत्रों में प्रतिबिम्बित नहीं  हुई।

Patna high courtयह बात ज्ञान और धन के चार मानकों पर पटना शहर की सामाजिक संरचना की एक अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर सिद्ध होती है। सबाल्टर्न टीम ने पटना शहर के दो प्राइवेट और दो सरकारी सेक्टर में उच्च स्तरों पर कार्यरत लोगों की जातिगत हिस्सेदारी का एक ताजा सर्वेक्षण किया है। इसमें पटना उच्च न्यायालय में कार्यरत जजों और सरकार द्वारा नियुक्त विधिक अधिकारियों, पटना शहर में पटना विश्वविद्यालय के 10, मगध विश्वविद्यालय के पटना स्थित 8 कालेजों, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, चाणक्य विधि वि.वि. और आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालयों में कार्यरत- अध्यापकों की जातिगत गणना की गई। प्राइवेट सेक्टर में बिहार के 7 बड़े प्रसार वाले हिंदी अखबार और 7 बड़े उद्यमों में अग्रिम पंक्ति के 10 से 20 बिल्डर्स, कोचिंग संस्थान, हास्पिटल, एनजीओ, प्रकाशक आदि की जातिगत हिस्सेदारी की जांच-पड़ताल की गई। इसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि मंडल राज के 25 सालों में इन संस्थानों में जातिगत भागीदारी की क्या स्थिति है। इस सर्वे ने एक साथ कई तथ्यों को उद्घाटित किया है। सबसे चैकाने वाली बात यह है कि ज्ञान और धन के सभी क्षेत्रों में बिहार के आदिवासी की उपस्थिति शून्य है और दलित समूह नाममात्र है। ऊपर वर्णित संस्थानों में इन जाति समूहों का नहीं होना एक साथ कई रहस्यों से पर्दा उठाता है। इसका एक मतलब तो यह है कि आरक्षण का कार्यान्वयन बिहार के विश्वविद्यालयों में नहीं हुआ। मंडल के नाम पर सत्तासीन हुई पार्टियां पूरा खेल महज राजनीति के इर्द-गिर्द खेलती रहीं। एक आशय यह भी निकलता है कि हाशिये की ये जातियां अभी भी झाड़ू लगाने, शौचालय साफ करने और मरे हुए जानवरों को उठाने में ही फंसी हुई हैं। मंडल शासन की इतनी लंबी अवधि में अभी भी उनकी इंट्री बेहतर कामों में नहीं हुई। यह सर्वेक्षण बहुप्रचारित इस धारणा को खंडित करता है कि दलित और पिछड़ी जातियों में एक संपन्न क्लास पैदा हो चुका है। साथ ही इस झूठ का भी पर्दाफाश करता है कि सभी क्षेत्रों में बहुजनों का दबदबा कायम हो गया है और सवर्ण जातियों का चैतरफा पराभव हो रहा है। सच तो यह है कि बिहार के इन सरकारी संस्थानों में अभी भी 80 प्रतिशत सवर्ण जाति समूहों का वर्चस्व है और प्राइवेट सेक्टर के 90 प्रतिशत पर उनका ही कब्जा है। आदर्श स्थिति तो तब आएगी जब सचमुच में इनका ‘पराभव’ हो, वे अपनी ‘औकात’ पर आ जाएं और जनसंख्या के अनुपात में वंचित जातियों का विभिन्न संस्थानों में समुचित प्रतिनिधित्व हो। मंडल राज के 25 वर्षों में राजनीति को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में खाई पाटने की शायद ही गंभीर कोशिश की गई। आरंभिक वर्षों में राजनीतिक अस्पृश्यता और प्रभुत्व को इस शासन ने चाहे जितना तोड़ा हो, कालांतर में वह स्वयं कई तरह की संकीर्णताओं में फंसता चला गया। जिस जातिवाद से मुक्ति के मैंडेट पर भारतीय राजनीति में इनका पदार्पण हुआ, सत्ता में आते ही ये चाहे-अनचाहे उसी मनुवादी जाति व्यवस्था को बनाए रखने की जुगत में लग गए। कांग्रेस-भाजपा की तरह ही वह सारे पाखंड स्वयं ओढ़ते चले गए। कुल मिलाकर, इस शासन व्यवस्था ने जो स्थितियां पैदा कीं, वहां से समता मूलक समाज निर्माण का रास्ता नहीं निकलता। बहरहाल, इस आलेख का मकसद इन पहलुओं पर यहां विस्तार से चर्चा करना नहीं है। आइए, सीधे सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों व निष्कर्षों पर नजर डालते हैं।

जाति की मीडिया या मीडिया की जाति

बिहार में पटना के 7 हिंदी अखबारों में काम करने वाले तकरीबन 297 पत्रकारों में 237 सवर्ण जाति समूह के हैं, 41 पिछड़ी जाति के, 7 अति पिछड़ी जाति के और 1 पत्रकार दलित जाति के हैं। बिहार के इन हिंदी अखबारों में सवर्ण जाति समूह 80 प्रतिशत हैं; पिछड़ा 13 प्रतिशत, अति पिछड़ा 3 प्रतिशत और अज्ञात 4 प्रतिशत हैं। मीडिया में सर्वाधिक संख्या ब्राह्मण पत्रकारों की है। कुल 297 पत्रकारों में अकेले ब्राह्मणों की संख्या 105 है (35 प्रतिशत)। इसमें कायस्थ, राजपूत और भूमिहार जाति के पत्रकारों की संख्या जोड़ दी जाए तो सब मिलाकर यह 80 प्रतिशत हो जाता है। दूसरे नंबर पर राजपूत जाति के पत्रकार आते हैं जिनकी संख्या 46 है जो पूरी संख्या के 16 प्रतिशत हैं। इन 7 अखबारों में कायस्थ जाति समूह के 45 पत्रकार (15 प्रतिशत) हैं। अखबार के क्षेत्र में सवर्ण जातियों में भूमिहार सबसे पीछे हैं, इनके 32 पत्रकार (11 प्रतिशत) हैं। इसमें मुस्लिम सवर्ण पत्रकारों की संख्या 9 है, कुल संख्या के महज 3 प्रतिशत। मुस्लिम समाज में जातिवाद का प्रभाव और भी गाढ़ा है। पिछड़े मुस्लिम समुदाय के महज एक पत्रकार हैं।

दैनिक जागरण पहले नंबर पर है जहां सवर्ण समूह के 90 प्रतिशत पत्रकार कार्यरत हैं। इसमें पिछड़े-अति पिछड़े समूह के क्रमशः 6 और 2 प्रतिशत पत्रकार हैं। सवर्ण प्रभुत्व के लिहाज से दैनिक भास्कर दूसरे नंबर (87 प्रतिशत ) पर, ‘आज’ तीसरे नंबर पर (79 प्रतिशत), हिन्दुस्तान चैथे नंबर पर (77 प्रतिशत), प्रभात खबर पांचवें नंबर पर (70 प्रतिशत) और राष्ट्रीय सहारा छठे नंबर पर (69 प्रतिशत) है। यह अजीबोगरीब बात है कि ये अखबार 21 वीं सदी में बात तो आधुनिक ख्यालों, आइडिया ऑफ़ इंडिया की करते हैं मगर उन्होंने पूरी बेशर्मी से जाति का चोगा पहन रखा है। ऐसी स्थिति में हम उनसे निष्पक्षता की क्या उम्मीद कर सकते हैं? मीडिया में कायम सवर्ण वर्चस्व अपने समय के यथार्थ को अपने कोण से अलगाता-दबाता रहा है। उसका यह रूप हमेशा जातीय, लैंगिक पूर्वग्रह के रूप में फोकस होता रहा है। बिहार की जनता ने इस तरह की अनेकों घटनाएं देखी हैं। उसके जेहन से यह बात गई नहीं है कि किस तरह सैकड़ों हत्याओं के आरोपी ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या और उसके पश्चात् एक खास जाति के उपद्रवी असामजिक तत्वों की इसी मीडिया ने ऐसी विरुदावली गाई कि उसके सामने निर्लजता की सारी सीमाएं तार-तार हो उठीं। यह इस सवर्ण मीडिया की ही सोच थी कि उसने एक हत्यारे को महात्मा गांधी का पर्याय बना डाला। इसी तरह आरक्षण और सामाजिक न्याय के दूसरे सवालों पर भी इस मीडिया का नजरिया जातीय द्वेष से भरा रहा है। यह ताकत उनकी जातिगत मानसिकता देती है जो उन्हें हिंदुत्व की परंपरा से हासिल हुई है जो जातीय वर्चस्व और वर्गीय गैर बराबरी को ही अपना मुख्य एजेंडा मानती है।

पटना से प्रकाशित अखबारों में कार्यरत पत्रकारों का जातिवार विवरण 

अखबारकार्यरत पत्रकारों की संख्यासवर्ण/अन्य सवर्णपिछड़ाअति पिछड़ाअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिअज्ञात
हिंदुस्तान745992004
दैनिक जागरण514640001
दैनिक भास्कर443950001
आज191520002
प्रभात खबर5942132001
राष्ट्रीय सहारा372753101
आई नेक्स्ट13930001
कुल संख्या2972374171011
कुल प्रतिशत100%80%13%3%0%4%4%

पटना से प्रकाशित अखबारों में कार्यरत पत्रकारों का जातिवार विवरण 

जातिसंख्याप्रतिशत
1.सवर्ण23780
अ) ब्राह्मण10535
ब) भूमिहार3211
स) राजपूत4616
द) कायस्थ4515
ई) अन्य सवर्ण (मुस्लिम, जैन आदि)0903
2. पिछड़ी जाति4113
3. अति पिछड़ी जाति0703
4. अनुसूचित जाति0100
5. अनुसूचित जनजाति0000
6. अन्य0000
7. अज्ञात1104
कुल (1 से 7 तक)297100

नोट: सर्वेक्षण में अल्पसंख्यकों और महिलाओं संबंधी आंकड़े अलग से संग्रहित किए गए और उपयुक्त जगहों पर इनका अलग से उल्लेख किया है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर इन आंकड़ों को जातिगत श्रणियों में ही रखा गया है।

आखिर क्या वजह है कि राष्ट्रीय सहारा में कार्यरत एक दलित राजेंद्र रमण को छोड़कर किसी भी अखबार में एक भी दलित पत्रकार नहीं हैं। जागरण की बात तो समझ में आती है उसकी दलित विरोधी वैचारिकी भी, लेकिन भास्कर और प्रभात खबर? इनको क्या कहा जाए? समाज सुधार की इनकी सारी सैद्धांतिकी में यह बात आखिर उनके नियामकों की समझ में क्यों नहीं आती? और अजीब बात यह कि हम क्लेम भी नहीं कर रहे कि वहां हमारा प्रतिनिधि क्यों नहीं है? हमने सारे के सारे प्रतिरोध राजनीतिक आरक्षण पाने तक ही सीमित कर लिए हैं। जिस तरह राजनीति में दलित संख्या बल हर दल के लिए एक चुनौती है वह चुनौती प्राइवेट सेक्टर में इसलिए नहीं बन पाई क्योंकि हमने इसके लिए संगठित होकर कोशिश नहीं की। जनतंत्र के इस चैथे खंभे को हमने सीधे-सीधे सवर्ण वर्चस्व के ही हवाले छोड़ दिया।

पिछड़े प्रतिनिधित्व के लिहाज से देखें तो पटना के दूसरे हिंदी अखबारों की बनिस्पत ‘प्रभात खबर’ में उनकी हिस्सेदारी थोड़ी ज्यादा है। यहां कार्यरत पत्रकारों का 28 प्रतिशत इस जाति समूह का है। पिछड़ों की सबसे कम भागीदारी दैनिक जागरण में है महज 8 प्रतिशत। यह खुले तौर पर ब्राह्मणों का अखबार माना जाता रहा है। महिला प्रतिनिधित्व की नजर से देखें तो दैनिक हिन्दुस्तान में सर्वाधिक 5 महिला पत्रकार हैं जिनमें 4 हिंदू सवर्ण जाति से आती हैं, इसमें एक सवर्ण मुस्लिम हैं। दैनिक भास्कर में 2 महिलाएं हैं जो ब्राह्मण जाति समूह की हैं। प्रभात खबर में 3 महिलाएं कार्यरत हैं जिसमें 2 ब्राह्मण और 1 राजपूत जाति की हैं। दैनिक जागरण में 3 महिलाएं कार्यरत हैं जिसमें से 2 कायस्थ हैं और एक बनिया जाति की हैं। राष्ट्रीय सहारा में 4 महिला पत्रकार हैं जिनमें से 1 अति पिछड़ी जाति की और 3 सवर्ण जाति की हैं। इनमें कायस्थ, राजपूत और भूमिहार जाति की 1-1 महिला पत्रकार हैं। यह गौरतलब है कि एक तो महिलाएं ऐसे ही बहुत कम हैं और जो हैं भी वे सवर्ण जाति समूहों की हैं।

इन 7 बडे़ प्रसार वाले लोकप्रिय अखबारों में 4 अखबारों के संपादक ब्राह्मण हैं (प्रभात खबर, आज, दैनिक जागरण और आईनेक्स्ट) और 3 अखबारों के संपादक राजपूत (राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्तान और दैनिक भास्कर)। यह आश्चर्यजनक है कि बड़ी आबादी वाले बहुजन समूहों का एक भी संपादक इन अखबारों में नहीं है। अखबारों में जैसे-जैसे हम निर्णायक जगहों की तलाश करते हैं, वैसे-वैसे वहां सवर्ण वर्चस्व बढ़ता जाता है। संपादक का किसी अखबार में होना कितना महत्वपूर्ण होता है इसे ‘प्रभात खबर’ के उदाहरण से समझा जा सकता है। जब तक इसके संपादक राजपूत रहे इस अखबार में ज्यादातर पत्रकार राजपूत रहे। लेकिन जैसे ही संपादन की बागडोर ब्राह्मण संपादक के हाथ में आई, वहां सर्वाधिक संख्या ब्राह्मण पत्रकारों की हो गई। इन वर्चस्वादी जाति समूह ने ही बहुजन नेताओं, चाहे वह मुलायम सिंह हों, मायावती हों, या लालू प्रसाद हों- की नकारात्मक छवि गढ़ी है। बिहार में आखिर मंडल राज के 25 वर्षों के पहले 15 सालों के शासन को जंगल राज और तमाम तरह की अक्षमताओं का शासन ऐसे ही नहीं सिद्ध किया गया, इसके पीछे पूरी की पूरी जातिवादी मानसिकता काम करती रही है जिसकी परिणति पिछड़े, दलित और महिलाओं से संदर्भित मुद्दों में भी नजर आती है। मीडिया के अंदर निर्णायक जगहों पर अगर इन हाशिए की जातियों की उपस्थिति होती तो वह इस तरह जातीय लैंगिक आग्रह से वशीभूत नहीं होती।

केंद्रीय न्यूज एजेंसियों के बिहार स्थिति ब्यूरो हेड पर नजर दौड़ाएं तो यहां भी सवर्ण जातियों का एकाधिकार है। यह स्थिति यू.एन.आई, पी.टी.आई., बी.बी.सी., एन.डी.टीवी, इंडिया टीवी, स्टार न्यूज, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू, द वीक, लोकमत समाचार आदि जितने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय न्यूज नेटवर्क हैं- सबकी है। इसमें 90 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण जाति समूह के हैं।

प्रभात खबर, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण चारों में फीचर की कमान सवर्ण पत्रकारों के हाथ में है। प्रभात खबर अपने फीचर लाइव के पन्ने पर तीन सवर्ण स्तंभकारों से साप्ताहिक स्तंभ लिखवाता है। सवाल उठता है कि क्या बिहार में साहित्य, संस्कृति, कला और पुरातत्व पर ये तीन ही आधिकारिक लेखक हैं? ऐसी प्रतिभा क्षमता और विवेक हाशिये की जातियों से आए लेखक-कलाकारों में नहीं है? यह जातीय जकड़न बिहार के सभी अखबारों में परिलक्षित होते हुए आप पाएंगे।

बिहार विधान मंडल के दोनों सदनों की अपनी प्रेस सलाहकार समिति है। लेकिन यहां भी इन समितियों में सवर्ण जातियों का ही वर्चस्व है। इसमें उनकी हिस्सेदारी लगभग 95 प्रतिशत है। बिहार विधान परिषद की प्रेस सलाहार समिति में कुल 29 सदस्य हैं। 7 आमंत्रित सदस्य मिलाकर उनकी यह संख्या 36 होती है। इसमें सवर्ण समूह की संख्या अकेले 30 है, पिछड़े वर्ग समूह से 1, अति पिछड़ा की 3 और दलित वर्ग से एक सदस्य हैं। बिहार विधान सभा की प्रेस सलाहकार समिति का हाल भी इससे अलग नहीं है। ऐसे में सहज ही यह सवाल कौंधता है कि मंडल राज के ठीक नाक के नीचे किसका वर्चस्व और किसकी हिस्सेदारी? क्या राजनीति में हिस्सेदारी भर से ही उसका मकसद पूरा हो गया?

न्याय का मंदिर – अधिष्ठापित कुल देवता’   

न्यायपालिका ज्ञान का एक बड़ा केंद्रक है। यह वह केंद्र है जिसका हर निर्णय आम आदमी हो या खास-सबसे सीधा जुड़ता है। संप्रति पटना उच्च न्यायालय में स्वीकृत 47 न्यायाधीशों में मात्र 28 न्यायाधीश ही पदस्थापित हैं। शेष पद वर्षों से रिक्त हैं जिसके प्रति न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार संजीदा है। इसकी कीमत बिहार की वह आम अवाम भुगत रही है जिसके असंख्य मुकदमे सालों से लंबित हैं। इन न्यायाधीशों में सवर्ण जाति के 21, पिछड़े जाति समूह के 05 और अति पिछड़ी जाति के 02 न्यायाधीश हैं। इनका प्रतिशत देखा जाए तो अकेले सवर्ण जाति के 75 प्रतिशत जज हैं, पिछड़ी जाति के 18 प्रतिशत और अति पिछड़ी जाति के 7 प्रतिशत। इसमें अल्पसंख्यक मात्र 3 हैं जिसमें 2 मुस्लिम और 1 जैन समुदाय से हैं। न्यायपालिका में सवर्ण जातियों का यह वर्चस्व इस बात की ओर इशारा करता है कि आखिर क्यों बिहार में हुए नरसंहारों के लगभग सारे आरोपी एक-एक कर निर्दोष करार दिए जाते रहे हैं। बिहार में आरक्षण लागू करने का सवाल हो या दलित- पिछड़े जाति समूह से जुड़े मुद्दे- इन सब पर न्याय मंदिर के अधिष्ठापित ‘कुल देवता’ पूर्वाग्रहों से भरे निर्णय देते रहे हैं।

पटना उच्च न्यायालय में पदस्थापित 28 न्यायधीशों का जातिवार विवरण

पदसवर्णपिछड़ाअति पिछड़ाअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति
न्यायाधीश215200

नोट – इसमें अल्पसंख्यकों की संख्या मात्र 3 है जिसमें दो मुस्लिम और एक जैन हैं।

न्यायपालिका का दूसरा पक्ष भी है जो सीधे-सीधे सरकार की मंशा और सोच को प्रतिबिम्बित करता है। पटना उच्च न्यायालय में वर्तमान में कुल 13 एडिशनल एडवोकेट जनरल, 12 गवर्मेंट एडवोकेट, 31 स्टैंडिंग काउंसेल और 31 गवर्मेंट प्लीडर कार्यरत हैं। इन सभी की नियुक्ति सीधे बिहार सरकार की अनुशंसा पर होती है। इन पदधारियों की कुल संख्या 87 है जिसमें अकेले सवर्ण जाति के 66 विधिक अधिकारी हैं। पिछड़ी जाति के 12, अति पिछड़ी जाति के 5, और दलित जाति के मात्र 4 हैं। यह स्थिति तब है जब बिहार विधान सभा के गत चुनाव के पूरे मैंडेट पर पिछड़ा, अति पिछड़ा, महिला और दलित समूहो की निर्णायक भूमिका रही है। इनमें भूमिहार जाति के अकेले 34 (39 प्रतिशत) विधिक अधिकारी हैं। यह स्थिति तब है जब बिहार विधान सभा में यह बिरादरी अपने अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। इन पदों पर कायस्थ जाति के 15 (17 प्रतिशत), ब्राह्मण जाति के 7 (8 प्रतिशत) और राजपूत जाति के 5 (6 प्रतिशत) विधिक अधिकारी हैं। मुस्लिम जैन आदि गैर हिंदू सवर्णों की संख्या 5 (6 प्रतिशत) है। यहां सरकार द्वारा नियुक्त कुल विधिक अधिकारी के अकेले 76 प्रतिशत सवर्ण हैं। जबकि पिछड़ी जातियां 14 प्रतिशत अति पिछड़ी 6 प्रतिशत और दलित 4 प्रतिशत हैं। इन संपूर्ण विधिक अधिकारियों में अल्पसंख्यकों की संख्या मात्र 7 है।

पटना उच्च न्यायालय में विधिक अधिकारियों का जातिवार विवरण

पदसंख्यासवर्ण पिछड़ाअति पिछड़ाअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति
एडिशनल एडवोकेट जेनरल1394000
गवर्नमेंट एडवोकेट1292100
स्टैंडिंग काउंसेल31243220
गवर्नमेंट प्लीडर31243220
कुल संख्या876612540
प्रतिशत (लगभग)---76%14%6%4%0%

नोट – कुल 87 विधिक अधिकारियों में अल्पसंख्यकों की संख्या मात्र 7 हैं जिसमें सभी मुस्लिम हैं

विधिक अधिकारियों में सवर्ण समूहों का जातिवार विवरण

जातिसंख्याप्रतिशत
सवर्ण6676%
(अ) ब्राह्मण78%
(ब) भूमिहार3439%
(स) राजपूत506%
(द) कायस्थ1517%
अन्य सवर्ण (मुस्लिम, जैन,आदि) 506%

इस आंकड़े के संग्रह के समय तक मालूम चला कि पिछले कई वर्षों से सरकार ने इन पदों पर नए विधिक अधिकारियों को बहाल हीं नहीं किया। यह पूरी संरचना नीतीश शासन के प्रथम दौर से चली आ रही है। राजनीति में हमें जिस तरह का पिछड़ा और दलित प्रतिनिधित्व दिखलाई पड़ता है वह न्यायपालिका में कहीं इस वजह से तो नहीं कार्यान्वित होता कि यहां इन सत्ताधारियों की इच्छाशक्ति नहीं जागृत होती। आखिर राजनीति में मंत्रिमंडल गठन, विभिन्न कमिटियों और आयोगों के गठन में जिस तरह से जातीय गणित का सधा हुआ बंटवारा संभव दिखता है वही गणित समाज की दूसरी इकाइयों के संदर्भ में अनुपालित होते हुए क्यों नहीं नजर आते? गौरतलब है कि इन विधिक अधिकारियों का निर्धारित कार्यकाल 3 साल का था, लेकिन दूसरे टर्म की अवधि पार कर जाने के बाद भी वे पूर्ववत कायम हैं। सरकार की इस लापरवाही की बड़ी कीमत न्यायपालिका में सक्रिय बिहार के पिछड़े और दलित वर्ग के लीगल प्रैक्टिशनर भुगत रहे हैं। यहां हजारों की संख्या में योग्य और प्रतिभावान वकील हैं, लेकिन इन मंडलवादी नेताओं को उनकी कोई सुध नहीं। और तुर्रा यह कि प्रचारित यह किया जाता रहा है कि इन वर्गों के लोग इस लायक ही नहीं कि उनको इन पदों पर आसीन किया जाए। लालू प्रसाद के अपने परिवार से जुड़े हित सामने होते तो क्या इन पदों को इसी तरह सवर्ण वर्चस्व के हवाले छोड़ दिया जाता? यह पूरी तरह से सरकार की लापरवाही का मामला है जो पिछड़े दलित समूह के प्रति उनकी नियत को सामने लाता है।

‘सबाल्टर्न’ को प्रेस में जाते-जाते यह खबर आई है कि विधिक अधिकारियों की नई नियुक्ति में बड़ी सर्जरी हुई है। नई सर्जरी में सवर्ण समूहों का प्रतिशत 76 से गिरकर 25-30 प्रतिशत पर आ गया है। भूमिहार जाति पर सबसे अधिक असर हुआ है। उनकी संख्या 34 से घट कर 7-8 हो गयी है। सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है। सबाल्टर्न इसे अपनी मुहीम की सफलता मानता है। लेकिन दुखद पक्ष यह है कि नई नियुक्तियों में दलित समूहों को एक पद भी नहीं दिया गया है। यहां पर बिहार का मंडल नेतृत्व दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने से चूक रहा है, इसकी उसे भारी कीमत चुकानी होगी।

बिहार की बहुसंख्यक जनता न्यायपालिका के जातीय पूर्वग्रह का कई रूपों में शिकार रही है। उसका एक रास्ता सरकार द्वारा नियुक्त इन्हीं अधिकारियों से होकर निकलता है। इसका भयावह रूप बिहार में हुए नरसंहारों में हमने देखा है कि किस तरह दर्जनों नरसंहारों को अंजाम देने वाली सवर्ण जातियों के अभियुक्तों को पटना हाईकोर्ट ने निर्दोष साबित किया। यह सबको मालूम है कि सरकारी वकीलों के दोहरे चरित्र के चलते ही उन्हें न्याय नहीं मिला। राजनीतिक मामले में देखें तो नरसिंह राव को बेल और सूरज मंडल को जेल के साथ जगन्नाथ मिश्र को बेल और लालू को जेल का संदर्भ लोग भूले नहीं हैं कि एक ही मामले में बड़ी जातिवालों को बेल और निचली जाति वालों को जेल आखिर किस तर्क के आधार पर दिया गया था।

सवर्ण वर्चस्व की गिरफ्त में कैंपस

patna-universityपटना शहर में पटना विश्वविद्यालय (10 कॉलेज), चाणक्य विधि विश्व विद्यालय, आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय, नालंदा खुला विश्वविद्यालय और मगध विश्वविद्यालय (8 कॉलेज) मुख्य हैं। इनमें अध्यापकों और प्रधानाचार्यों की जातिवार हिस्सेदारी के जो आंकड़े हैं वह दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अतिपिछड़ा हिस्सेदारी के लिहाज से बहुत ही विकटपूर्ण है। यह पिछले 25 सालों की बिहार की मंडलवादी राजनीति और वर्षों से कायम दलित आरक्षण की हकीकत को भी आईना दिखलाने वाला है। इन विश्वविद्यालयों में इन पददलित जातियों की न्यूनता और कहीं-कहीं शून्यता इस बात का प्रमाण है कि आरक्षण कोटे को भरा ही नहीं गया। नालंदा खुला विश्वविद्यालय और आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय में दलित आदिवासी हैं ही नहीं। पटना विश्वविद्यालय में दलितों की हिस्सेदारी 5 प्रतिशत और मगध वि.वि. में 0.67 प्रतिशत है। आदिवासी के मामले में यह क्रमशः 4 तथा शून्य प्रतिशत है। गौरतलब है कि लगभग डेढ़-दो प्रतिशत की आबादी वाला कायस्थ जाति समूह हर जगह बहुत अच्छी स्थिति में है और इतनी ही आबादी वाला आदिवासी (2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार में आदिवासी 1.4 प्रतिशत हैं) समूह बिहार के किसी भी सेक्टर में नहीं हैं। कहा जाता है कि क्लास रूम का चरित्र ही भविष्य में किसी राज्य का चरित्र होता है।

पटना तथा मगध विवि के कॉलेजों के प्रिंसिपल का जातिवार विवरण

जातिसंख्याप्रतिशत
1.सवर्ण 1056
(अ) ब्राह्मण00
(ब) भूमिहार422
(स) राजपूत211
(द) कायस्थ211
 (ई) अन्य सवर्ण (मुस्लिम, जैन आदि)211
2. पिछड़ी जाति633
3. अति पिछड़ी जाति00
4. अनुसूचित जाति16
5. अनुसूचित जनजाति16
6. अन्य00
7. अज्ञात00
कुल (1 से 7 तक)180

विश्वविद्यालय का चरित्र ही भविष्य में किसी व्यवस्था का चरित्र होता है। यह अजीब बात है कि वर्षों से जारी दलित और पिछड़े आरक्षण के बावजूद इन शिक्षण संस्थानों का चरित्र नहीं बदला। पटना विश्वविद्यालय की प्रशासनिक इकाई पर नजर दौड़ाएं तो वहां पदस्थापित कुल 11 अधिकारियों में 9 सवर्ण, एक पिछड़ा और एक दलित जाति से हैं। विश्वविद्यालय में किसी कानून को लागू करने की शक्ति वाली इकाइयों पर ही जहां 82 प्रतिशत सवर्ण जातियों का दखल हो वहां यह बात बखूबी समझी जा सकती है कि क्यों दलित और आदिवासी नगण्य हैं। अति पिछड़े की भी स्थिति उनकी संख्या के लिहाज से बहुत निराशापूर्ण है। इन वि.वि. और कॉलेजों के सर्वेक्षण में यह बात प्रमुखता से सामने आयी कि जिस संख्या में वहां पढ़ने वाले छात्र हैं उनके अनुपात में पढ़ाने वाले अध्यापकों की संख्या उतनी ही न्यून है। अकेले पटना विश्वविद्यालय के 10 कॉलेजों पर ही नजर दौड़ाएं तो यहां 2 ट्रेनिंग कॉलेज हैं- पटना वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज और पटना ट्रेनिंग कॉलेज। पहले कॉलेज में महज 1 ही प्राध्यापक हैं और दूसरे में महज दो। वर्षों से यहां अध्यापकों की रिक्तियां पड़ी हैं और बिहार के राजनीतिक नेतृत्व को इसकी कोई सुध नहीं। जो संस्थान शिक्षकों को ट्रेंड  करता है उसकी यह हालत है। हमने उसे यथास्थिति के हवाले कर दिया है बगैर यह सोचे समझे कि अगर शिक्षक ट्रेंड ही नहीं होंगे तो बच्चों को कौन शिक्षा देगा? पटना विधि महाविद्यालय और वाणिज्य महाविद्यालय की भी हालत इससे अलग नहीं। विधि महाविद्यालय में महज 6 और वाणिज्य महाविद्यालय में 5 प्राध्यापक हैं। पटना वि.वि. के शेष महाविद्यालयों की भी स्थिति बहुत अलग नहीं है। पटना वीमेंस कॉलेज में 26, मगध महिला कॉलेज में 33, बी.एन. कॉलेज में 43, पटना कॉलेज में 31 और सायंस कॉलेज में 54 अध्यापक हैं। शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों की यह न्यूनता सरकारी नेतृत्व की मंशा को प्रकट करती है। आखिर इन शिक्षा परिसरों में शिक्षा पाने वाले जो छात्र सफर कर रहे हैं वे कौन हैं? इन संस्थानों में 80 प्रतिशत बच्चे दलित, पिछड़े समुदाय के हैं जिनके भविष्य को लेकर सरकार पूरी तरह से बेपरहवाह है।

पटना विश्वविद्यालय के 10 में से 5 कॉलेजों के प्राचार्य सवर्ण समुदाय के हैं, 3 पिछड़े समुदाय के, 1 अनुसूचित जाति के और 1 अनुसूचित जनजाति (ईसाई) के हैं। पटना विश्वविद्यालय के पीजी हेड की स्थिति तो और भी विषम है। यहां के स्नातकोतर के 30 विभागाध्यक्षों में 23 सवर्ण जाति के हैं, 3 पिछड़ी जाति के, 2 अति पिछड़ी जाति के और 2 अनुसूचित जाति के हैं।

पटना विश्वविद्यालय के अध्यापकों का जातिवार विवरण

जातिसंख्याप्रतिशत
1. सवर्ण13956%
(अ) ब्राह्मण2811%
(ब) भूमिहार3112%
(स) राजपूत1406%
(द) कायस्थ4317%
 (ई) अन्य सवर्ण (मुस्लिम, जैन आदि)2309%
2. पिछड़ी जाति5723%
3. अति पिछड़ी जाति3012%
4. अनुसूचित जाति1205%
5. अनुसूचित जनजाति1004%
6. अन्य0000%
7. अज्ञात0201%
कुल (1 से 7 तक)250100%

पटना विश्वविद्यालय के सभी 10 कॉलेजों की जो समग्र सूची है उसमें कुल 250 प्राध्यापक हैं। उसमें सवर्ण जाति समुदाय के अकेले 139 (56 प्रतिशत) प्राध्यापक हैं। पिछड़ी जाति के 57 (23 प्रतिशत), अति पिछड़ी जाति के 30 (12 प्रतिशत), अनुसूचित जाति के 12 (5 प्रतिशत) और अनुसूचित जनजाति के 10 (4 प्रतिशत) अध्यापक हैं। 2 अध्यापकों की जाति अज्ञात है।

सवर्ण बहुलता के लिहाज से पटना विश्वविद्यालय में पटना कॉलेज का स्थान सबसे ऊपर है। यहां सवर्ण जाति समूह के अध्यापक 10 (65 प्रतिशत )हैं। दूसरा स्थान सायंस कॉलेज का है जहां सवर्ण बिरादरी के 34 प्राध्यापक (64 प्रतिशत) हैं। उसके बाद पटना वीमेंस कॉलेज और पटना ट्रेनिंग  कालेज में उनकी यह हिस्सेदारी 50-50 प्रतिशत, मगध महिला कॉलेज में 49 प्रतिशत, आर्ट कॉलेज में 46 प्रतिशत, बी.एन. कॉलेज में 40 प्रतिशत और विधि महाविद्यालय में 33 प्रतिशत है। पटना वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज में एक ही अध्यापक कार्यरत हैं जो दलित जाति समूह में पासी जाति के हैं। बी.एन. कॉलेज जो कभी सवर्ण जातियों के वर्चस्व वाला कॉलेज माना जाता था, वहां सवर्ण वर्चस्व घटा है। वहां पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी 21 प्रतिशत, अतिपिछड़ी की 33 प्रतिशत और अनुसूचित जाति की 7 प्रतिशत हैं। पटना सायंस कॉलेज, पटना विधि महाविद्यालय और पटना ट्रेनिंग कॉलेज में 1 भी दलित अध्यापक नहीं हैं। इस मामले में पटना वीमेंस कॉलेज की स्थिति सबसे अलग है। यहां सवर्ण समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा हिस्सेदार समुदाय अनुसूचित जनजाति (27 प्रतिशत ) है। यहां पिछड़े जाति समूह की उपस्थिति 15 प्रतिशत, अति पिछड़े की 4 प्रतिशत और अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी 4 प्रतिशत है। चूकि इस कॉलेज का प्रबंधन इसाइयों के हाथ में है इसलिए यहां सभी जातियों की उपस्थिति नजर आती है। इसाइयों के ऊपर धर्म परिवर्तन का आरोप चस्पा करने वालों को इस कॉलेज की सामाजिक विविधता का अध्ययन करना चाहिए। क्या आर.एस.एस. द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में ऐसी विविधता नजर आती है?

मगध विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का जातिवार विवरण

जातिसंख्याप्रतिशत
1. सवर्ण30369
(अ) ब्राह्मण2405
(ब) भूमिहार4711
(स) राजपूत5312
(द) कायस्थ8319
(ई) अन्य सवर्ण (मुस्लिम, जैन आदि)9622
2. पिछड़ी जाति12428
3. अति पिछड़ी जाति123
4. अनुसूचित जाति30.67
5. अनुसूचित जनजाति00
6. अन्य00
7. अज्ञात00
कुल (1 से 7 तक)442100

download (6)मगध विश्वविद्यालय के कुल 8 कॉलेजों में कुल 442 प्राध्यापकों में सवर्ण जाति के अध्यापकों की संख्या 303 (69 प्रतिशत) है और पिछड़ी जाति के अध्यापक 124 (28 प्रतिशत) हैं। अति पिछड़ी जाति के 12 (3 प्रतिशत) और अनुसूचित जाति के महज 3 (0.67 प्रतिशत) प्राध्यापक हैं। अध्यापन के इस पेशे में सर्वाधिक 83 (19 प्रतिशत) अध्यापक कायस्थ जाति के हैं। दूसरे स्थान पर राजपूत हैं, जिनके अध्यापकों की संख्या यहां 53 (12 प्रतिशत) है। तीसरे नंबर पर भूमिहार जाति के कुल 47 (11 प्रतिशत) अध्यापक हैं। सवर्ण जातियों में ब्राह्मण अध्यापकों की संख्या सबसे कम है- कुल संख्या 24 यानी 5 प्रतिशत। मगध वैसे भी सवर्ण वर्चस्व, सामंतवाद और जातिवाद से त्रस्त रहा है।

पटना शहर में सर्वे में हमने मगध विश्वविद्यालय के कुल 8 कॉलेजों का सर्वे किया है, जिसमें ए. एन. कॉलेज, कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, जेडी वीमेंस कॉलेज, अरविंद महिला कॉलेज, गंगा देवी महिला कॉलेज, रामकृष्ण द्वारिका कॉलेज, औरियेंटल कॉलेज पटना सिटी और गुरु गोविंद सिंह कॉलेज, पटना सिटी शामिल है। इन 8 कॉलेजों के प्रिंसिपल में सवर्ण जाति के 5 और पिछड़ी जाति के 3 प्रिंसिपल हैं। सवर्ण जातियों में भूमिहार जाति के 1, राजपूत के 2 और गैर हिंदू सवर्ण मुस्लिम सिक्ख समूह के 2 प्रिंसिपल हैं।

मगध वि.वि. के कॉलेजों में सवर्ण अध्यापकों का प्रतिशत पटना वि.वि. के कॉलेजों से ज्यादा है। यहां मात्र दो कॉलेज अरविंद महिला और गंगा देवी कॉलेज ही ऐसे हैं जहां दलित अध्यापक 2 प्रतिशत हैं। शेष कॉलेजों में दलित अध्यापकों की उपस्थिति बिल्कुल नहीं है। सवर्ण वर्चस्व की दृष्टि से औरियेंटल कॉलेज, पटना सिटी अव्वल संस्थान है। यहां कुल कार्यरत अध्यापकों में 98 प्रतिशत पर सवर्ण मुस्लिम जातियों का कब्जा है। मुसलमान बिरादरी में जातिवाद का यह रूप हिंदू जातिवाद से भी भयावह है। सवर्ण बहुलता में गंगा देवी कॉलेज दूसरे स्थान पर है। यहां सवर्ण जाति समूह के 88 प्रतिशत प्राध्यापक हैं। तीसरे स्थान पर ए.एन. कॉलेज और जेडी वीमेंस कॉलेज है, जहां सवर्ण प्राध्यापक 81-81 प्रतिशत हैं। उसके बाद गुरु गोविंद सिंह कॉलेज, अरविंद महिला कॉलेज और कॉलेज ऑफ़ कामर्स में सवर्ण प्राध्यापक क्रमशः 67, 66 और 55 प्रतिशत हैं। सबसे पीछे रामकृष्ण द्वारिका कॉलेज है, जहां सवर्ण प्राध्यापक केवल 23 प्रतिशत हैं। पिछड़ा प्रतिनिधित्व के लिहाज से रामकृष्ण द्वारिका महाविद्यालय सबसे ऊपर है। यहां कार्यरत कुल प्राध्यापकों में पिछड़े जाति समूह के कुल 39 प्राध्यापक हैं, जो पूरी संख्या का 75 प्रतिशत हैं। बिहार में किसी कॉलेज विशेष में खास जाति की बहुलता की एक वजह यह भी रही है कि बहुत सारे कॉलेज खास जाति के लोगों  द्वारा खोले गए। यह कॉलेज इसी की नजीर कहा जा सकता है। कॉलेज ऑफ़ कामर्स दूसरा कॉलेज है जहां 41 प्रतिशत पिछड़े प्राध्यापक कार्यरत हैं। इस सर्वे में यही ऐसा पहला कॉलेज मिला जहां सर्वाधिक 108 प्राध्यापक कार्यरत हैं। यह संख्या अन्य कॉलेज से बेहतर है। पिछड़ा प्रतिनिधित्व के लिहाज से बाद में इन कॉलेजों का नंबर आता है- अरविंद महिला कॉलेज, गुरुगोविंद सिंह कॉलेज, जेडी वीमेंस कॉलेज, ए. एन कॉलेज और गंगा देवी कॉलेज।

इन कॉलेजों में पिछड़े वर्ग के अध्यापक क्रमशः 27, 23, 17, 8-8 प्रतिशत हैं। शेष जो तीन विश्वविद्यालय हैं, अध्यापकों में मामले में उनकी स्थिति बहुत निराशापूर्ण है। यह बिहार में ही संभव है कि किसी विश्वविद्यालय में महज 4 कर्मी कार्यरत मिले। नालंदा खुला विश्वविद्यालय में कार्यरत सभी कर्मी सवर्ण जाति समुदाय के हैं। आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय की स्थिति भी इससे अलग नहीं। वहां कुल 10 प्राध्यापक कार्यरत हैं। इनमें सवर्ण जाति के 5, पिछड़ी जाति के 4 और अति पिछड़ी जाति के 1 प्राध्यापक हैं। इस विश्वविद्यालय के कुलपति वैश्य हैं, प्रतिकुलपति सवर्ण मुस्लिम हैं, रजिस्ट्रार एवं डिप्टी रजिस्ट्रार राजपूत हैं और परीक्षा नियंत्रक यादव हैं। चाणक्य विधि विश्वविद्यालय में कार्यरत कुल 25 प्राध्यापकों में सवर्ण जाति के 20 (80 प्रतिशत), पिछड़ी जाति के 3 (12 प्रतिशत), अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय के एक (4 प्रतिशत) हैं। इस विश्वविद्यालय की प्रशासनिक स्थिति देखें तो इसके कुलपति ब्राह्मण, रजिस्ट्रार यादव, परीक्षा नियंत्रक कायस्थ एवं 2 सहायक परीक्षा नियंत्रक भी कायस्थ जाति के हैं।

तो यह है विश्वविद्यालयों में दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी का अनुपात। यह अनुपात मंडल राज में भी इतना असंतुलित रहेगा इसकी कल्पना भी नहीं की गई थी। भारतीय समाज में सदियों से सवर्ण जातियों ने हाशिये की जातियों को शिक्षा से वंचित रखने का हर एक तुरूप आजमाया है। मिथकों में एकलव्य-शंबूक इसके शिकार हुए तो आधुनिक भारत में असंख्य दलित, दमित, पिछड़ी जातियां और स्त्रियां- इन ब्राह्मणवादी छलनाओं का ग्रास बनती रहीं। नई सदी में इस प्रचंड जातिवाद को हम बदले हुए रूपों में रोहित वेमुला की हत्या प्रकरण में पाते हैं, जहां विश्वविद्यालय, वहां के सवर्ण शिक्षक, छात्र और प्रशासन का नेक्सस उसे हर तरह से प्रताड़ित करता है और इसकी कीमत उसे अपनी आत्महत्या करके चुकानी पड़ती है। कुछ इसी तरह का एक प्रकरण अभी   हमने आर्ट एंड क्राफ्ट कॉलेज पटना में दलित छात्र नीतीश की दो-दो बार आत्महत्या करने की कोशिशों के रूप में देखी, लेकिन यहां के एक्टिविस्टों की वजह से उसे सुरक्षा मिली। यह प्रवृत्ति तब तक कायम रहेगी जब तक समाज का एक बड़ा हिस्सा वि.वि. की सरहदों तक नही पहुँचेगा। सवाल यह है कि बहुजन राज्यसत्ता जिसे यह मैंडेट मिला है, कब तक अपनी राजनीतिक-सामाजिक जिम्मेवारियों से कोताही बरतती रहेगी ? बहुजनों का कारवां इन सरहदों को लांघने की ओर बढ़ चुका है, इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि कोई राज्यसत्ता उनके साथ कितनी दूर तक चलती है।

धन और ज्ञान के अन्य मानकों की हकीकत

सबाल्टर्न टीम ने यह जानने का प्रयास किया कि पटना शहर में एनजीओ, बिल्डर्स, होटल, हॉस्पिटल, प्रकाशन और कोचिंग आदि प्राइवेट क्षेत्रों में दलित-पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी की स्थिति क्या है तो यहां भी अन्य क्षेत्रों की तरह ही भारी असंतुलन नजर आया। पटना में हमने 17 एनजीओ के आंकड़े उपलब्ध किएए जिसमें 15 सवर्ण जातियों के थे और 2 पिछड़ी जातियों के। यहां भी दलित जाति की उपस्थिति शून्य नजर आई। इसमें कायस्थ के 5, राजपूत के 3, भूमिहार के 3, ब्राह्मण के 3 और सवर्ण मुस्लिम के 1 एनजीओ थे। पिछड़ी जातियों में कुर्मी और वैश्य जाति के 1-1 एनजीओ थे। इस प्रकार देखें तो सवर्ण जाति की उपस्थिति इस क्षेत्र में 82 प्रतिशत है जबकि पिछड़े की 12 प्रतिशत। अंतरराष्ट्रीय डोनर एजंेसियों के हमने 10 नमूने इकट्ठे किए जिसमें सवर्ण समुदाय का नेतृत्व 90 प्रतिशत और पिछड़े का 10 प्रतिशत पाया गया। यह भारी असमानता यह बतलाती है कि नए उभर रहे सोशल सेक्टर, जो अपने आप को थोड़ा अलग पेश करता है, में किस हद तक सवर्ण वर्चस्व कायम है।

निजी क्षेत्र के कुछ उपक्रमों का जातिवार विवरण (प्रतिशत में)

निजी उपक्रमसवर्ण/अन्य सवर्णपिछड़ाअति पिछड़ाअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति
प्रकाशन6040000000
बिल्डर7030000000
कोचिंग8010100000
एनजीओ8713000000
डोनर एजेंसी9010000000
होटल7327000000
हॉस्पिटल8812000000

नोट – यह प्रतिशत रैडम सैंपलिंग के आधार पर निकाला गया है। इसके लिए सात श्रेणियों के 10-20 अग्रणी उपक्रमों को चुना गया। अग्रणी क्रम निर्धारण में प्रोफेशनल एजेंसियों के मानकों का इस्तेमाल किया गया है।

बिहार में एक दौर में किसी जाति की समृद्धिए उनकी खुशहाली का मानक खेती हुआ करती थी। लेकिन अब वे चीजें बहुत पारंपरिक और घाटेवाली हो गई हैं। लगभग पूरा सवर्ण समाज खेती किसानी को छोड़कर तेजी से शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सेक्टर में अपना पूंजी निवेश कर रहा है, क्योंकि उसे मालूम है कि आने वाला समय इन्हीं क्षेत्रों में निवेश का है जो उन्हें समृद्धि और खुशहाली का जीवन देगा। शहरीकरण के विकास में रियल स्टेट मुनाफे का कारोबार हैए जिसमें सवर्ण जातियों की पैठ तेज हुई है। हमने पटना शहर में टॉप 10 बिल्डर्स की सूची बनाई जिसमें 5 राजपूत, 1 सवर्ण मुस्लिम, 1 भूमिहार और 3 कुर्मी जाति के बिल्डर्स पाए गए। इनका प्रतिशत निकालें तो यहां 70 प्रतिशत सवर्ण जातियों के बिल्डर्स हैं और 30 प्रतिशत हिस्सेदारी इस क्षेत्र में पिछड़े जाति समूह की है।

नए दौर में निजी क्षेत्र में धन वैभव हासिल करने का एक मुख्य स्रोत होटल है। हमने शहर के 15 बड़े होटलों का सर्वे किया। इसमें 73 प्रतिशत होटल सवर्ण जातियों के पाए गए और 27 प्रतिशत पिछड़े जाति समूह के। यहां भी दलित की भागीदारी शून्य है। इसमें भूमिहार के 4 राजपूत के 2, सवर्ण पंजाबी के 2, कायस्थ के 1, ब्राहण के 1 और यादव व कुर्मी जातियों के 2-2 होटल हैं। आज के दौर में शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनका राज्य सरकारों ने तेजी से निजीकरण किया है। यह अकारण नहीं कि आज के दौर में सबसे ज्यादा पूंजी निवेश-इन्हीं दो क्षेत्रों में बढ़ा है। शहर में 10 टॉप  कोचिंग संस्थान का सर्वे किया तो इसमें सवर्ण समाज की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत, पिछड़ी जाति की 10 प्रतिशत और अति पिछड़ी जाति की 10 प्रतिशत पाई गई। स्वास्थ्य क्षेत्र पर नजर दौड़ाएं तो शहर में जिन 10 टॉप होस्पिटलों का जायजा लिया तो इसमें सवर्ण जातियों की भागीदारी 90 प्रतिशत है और पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत। यह गौरतलब है कि मंडल शासन के 25 साल और दलित आरक्षण के लंबे समय गुजर जाने के बाद भी बिहार की राजधानी में धन और ज्ञान के संस्थानों में मुट्ठी भर जातियों का वर्चस्व है और बहुत बड़ी आबादी आज भी हाशिए पर है।

निष्कर्ष : स्वर से स्वर्ग की ओर

Lalu Nitishलालू प्रसाद यादव ने एक बार कहा था कि मैंने वंचितों को स्वर दिया है स्वर्ग नहीं। इतिहास के हर दौर की अपनी सीमा होती है। ढाई दशकों का यह मंडल युग स्वर हासिल करने का दौर था, जब बहुजनों ने सम्मान और सत्ता पाई। अब हम एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं स्वर्ग पर धावा बोलने, ज्ञान और धन के न्यायपूर्ण बंटवारे के दौर में। सबाल्टर्न टीम ने ज्ञान और धन के मानकों पर राजधानी पटना का जो सर्वेक्षण प्रस्तुत किया हएै उसने हमारी इस धारणा को पुष्ट किया है कि बहुजनों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व इस बात का द्योतक नहीं कि ज्ञान और धन के अन्य क्षेत्रों में भी उनकी पर्याप्त उपस्थिति दर्ज हो। पिछली सदी के चालीस के दशक में ही हमारे पुरखों ने (देखें इस अंक का दूसरा कवर पृष्ठ) इस एजेंडा को बड़ी शिद्दत के साथ रखा था। हमारा अध्ययन अनुभावात्मक साक्ष्यों के साथ यह पुनर्स्थापित करता है कि आज भी यह एक अनफिनिश्ड एजेंडा बना हुआ है।

इस बीच मंडल आंदोलन की मृत्यु के न जाने कितने अभिलेख लिखे गए और यह घोषणा की जाती रही कि सामाजिक न्याय एजेंडा पूरा हो चुका है। मर्सिया पढ़़े जा रहे हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में बहुजनों के दखल से अभिजनों का पराभव हो रहा है। हमारा यह अध्ययन इस तरह के बौद्धिक बकवास को पूरी तरह खारिज करता है। कोई एक चीज जो हम पूरे दावे के साथ कह सकते हैं वह यह कि ज्ञान और धन के स्रोतों पर सवर्ण समूह पहले जैसे ही पूरी तरह काबिज हैं; राजनीतिक हलकों में होनेवाली उथल-पुथल से उनका बाल बांका भी नहीं हुआ है।

हमारे सर्वेक्षण में ज्ञान और धन के स्रोतों पर दखल देते हुए जो बहुजन दिखाई पड़ रहे हैं, उसके पीछे निश्चय ही मंडल आंदोलन से पैदा हुई उतेजना काम कर रही है। चूंकि यह अध्ययन परिमाणात्मक आंकड़ों पर आधारित था इसीलिए इस उतेजना को उस तरह से कैप्चर नहीं किया गया। सबाल्टर्न टीम को उम्मीद है कि इन निष्कर्षों से बहुजन उतेजना को एक सकारात्मक दिशा मिलेगी और वे नई ऊर्जा के साथ ज्ञान और धन के स्रोतों पर कब्जा करने की मुहिम को आगे बढ़ाएंगे।

( लेखकों ने यह सर्वेाक्षण ‘सबाल्टर्न’, पटना की टीम के  सहयोग से किया है)

लेखक के बारे में

अरुण आनंद/संतोष यादव

अरुण आनंद स्वतंत्र पत्रकार हैं और संतोष यादव सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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