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जातिमुक्त समाज समाजवादी समाज होगा : उदय प्रकाश

भाषा, साहित्य की विभिन्न धाराओं-ओबीसी-बहुजन साहित्य, अस्मिता, अस्मिताओं के संघर्ष, मिथकों पर दावेदारी आदि विभिन्न सवालों पर कथाकार उदय प्रकाश से प्रेमा नेगी की बातचीत

हिंदी के उद्भव के बारे में आपकी क्या राय है?

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उदय प्रकाश

चूंकि मैं इस पर सवाल उठाता आया हूं, तो लोग मुझसे नाराज होते हैं। हिंदी के जन्म की खोज करें तो पायेंगे कि यह बहुत पुरानी नहीं है और मैं यह मानता हूं कि यह कॉलोनियल प्रोडक्ट है। हिंदी में भारतेंदु का पीरियड है 1850 से 1885, उससे थोड़ा सा पहले हिंदी का उदय माना जा सकता है। क्लेम करने वालों का जहां तक सवाल है, वे तो वीरगाथाकाल को भी हिंदी में ले लेते हैं। मूल सवाल यह है कि हिंदी बनी कैसे? हर कोई जानता है कि यह ब्रिटिश पीरियड में बनी। हां, एक बात और साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद ने ही भारत को आधुनिकता दी। वो भी वहां पर जहां पर उसे खतरा नहीं था, कई नियमों-कानूनों को बदला गया। लेकिन साम्राज्यवाद ने जो सबसे बड़ी चीज भारत को दी थी, उनमें टैक्नोलॉजी मुख्य है। उससे पहले यहां न टेलीफोन था, न रेलवे लाइन थी, न ऑटोमोबाइल थे। कॉलेज भी उसी की देन हैं। पहली बार शिक्षा के आधुनिकीकरण की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी। फोर्ट बिलियम्स कॉलेज खुला और जिसे हम बंगाल का पुनर्जागरण कहते हैं, उसे ध्यान से देखें तो उसके पीछे बहुत बड़ी भूमिका, जो साम्राज्यवादी औपनिवेशिक आधुनिकता थी उसी की थी। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, ब्रहम समाज ने समाज के जनजागरण के लिए जो कदम उठाये, उसके पीछे कहीं न कहीं उस आधुनिकता का हाथ था, जो पश्चिम से आयी। यहीं से प्रेरणा मिली थी इन समाज सुधारकों को।

हिंदी कोलकाता में बनी। फोर्ट बिलियम कॉलेज में आधुनिक हिंदी, जिसे हम खड़ी बोली कहते हैं उसका निर्माण हुआ। इस बात को आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी नहीं नकार सकते, जिन्होंने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा। एक तरह से ‘बाइबिल’ यानी हिंदी साहित्य का धर्मग्रंथ है वह। जो बाजार चाहिए था अंग्रेजों को, जो भारत में विकसित हो रहा था और बाजार जब विकसित होता है तो उसको एक कम्युनिकेटिंग लैंग्वेज भी चाहिए, जहां अलग-अलग क्षेत्र-राज्यों से आने वाले लोग अपनी अलग-अलग भाषा-बोलियों के साथ भी एक-दूसरे के साथ कम्युनिकेट कर सकें, कह सकते हैं कि बाजार की इसी मांग पर हिंदी का निर्माण हुआ। लोगों के बीच कम्युनिकेशन के लिए एक संपर्क भाषा का निर्माण हुआ जो कि हिंदी थी। लेकिन वह हिंदी बहुत दूसरी थी। उसमें तमाम सारे ऐसे शब्द रखे गये थे, जो लोगों को समझ में आयें, उसमें यह दुरग्रह नहीं था कि यह शब्द अरबी, उर्दू या यह किसी बोली से है या फिर कहीं और से। उसमें उन सारे शब्दों को रखा गया, जिससे वह आसान, यानी सबके समझने लायक बनी रही। मगर सवाल है कि फिर ऐसा क्या हो गया कि हिंदी में से कुछ शब्दों को निकाला जाने लगा। ध्यान से देखें तो जिसे हम हिंदी को एक धर्म के साथ जोडऩा कहते हैं, यह काम भी बाद में हुआ। भारतेंदु काल तो इस मामले में कमाल का है। भारतेंदु मंडल में जितने भी लोग थे, उन सबका प्रयास था कि धीरे-धीरे इसमें से अरबिक शब्दों को बाहर किया जाये। साथ ही यह प्रयास भी किया गया कि संस्कृत के तत्सम शब्दों को हिंदी में स्थान मिले। यह काम एक सुविचारित चेतना के साथ किया गया। धीरे-धीरे हिंदी एक कम्युनल लैंग्वेज बनने लगी। यानी कौमों के आधार पर भाषा को कैद किया जाने लगा। मैं कई बार एंगेल्स को कोट करता हूं, जो कहते थे कि भाषा सिर्फ  संपर्क, अभिव्यक्ति के लिए नहीं होती है, यह व्यावहारिक चेतना भी है। जब प्रैक्टिकल कॉनससनेस को बांटते हैं तो चेतना बंटती है। जब उस समय हिंदी के विकास के नाम पर इसे बांटा गया, तो यह नहीं सोचा कि जो काम वे 1850-60 में कर रहे हैं आगे चलकर 1947 में पूरा देश बंट जायेगा। यानी उन्होंने भाषा को बांटा तो हिंदी-उर्दू को अलग किया। हिंदू-मुसलमान को बांटा और देश भी बंट-टूट गया। इसे एक दुर्घटना ही माना जायेगा। आज हम जिस हिंदी में हैं, मैं इस हिंदी को नकारता हूं, इसीलिए इसका जो सांस्थानिक तंत्र है, वह मुझे पसंद नहीं करता।

क्या यह सच है कि हिंदी की मुख्यधारा किसी भी नई प्रगतिशील धारा के प्रति बेरुखी अपनाती है?

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फोर्ट बिलियम कॉलेज

मैं आपके सवाल को थोड़ा अलग करके देखूंगा। जो सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियां हैं और उनकी जो पूरी ऐतिहासिक विकास यात्रा रही है अब तक, उसके मद्देनजर। दूसरा, भाषा वह भी हिंदी भाषा का सवाल है तो इसका इतिहास बहुत छोटा है। उसकी गणना करें तो मुश्किल से 100-150 साल पुराना। मगर समाज का इतिहास तो हजारों साल-शताब्दियों का है। हमारे समाज की जो बनावट रही है, जिसमें एक ऐसा कारक-संघटक रहा है ये कभी बदला नहीं, अपरिवर्तनीय रहा। बाबा साहब आंबेडकर समेत कई अन्य विचारकों ने भी कहा, उस तरफ  इशारा किया कि ऐसा क्यों हुआ कि आदिम साम्यवाद, फिर सामंतवाद, फिर पूंजीवाद, समाजवाद, ये जो परिस्थितियां हैं, भारतीय समाज ने लगभग सभी को विटनेस किया। समाजवाद तो नहीं आया, हां लोकतंत्र के नाम पर पूंजीवाद को जरूर संरक्षण मिला। भारत उपनिवेश रहा बहुत लंबे समय तक। मुगलकाल रहा, उससे पहले सल्तनत पीरियड रहा। सेंट्रल एशिया, वेस्ट एशिया से जो विजेता जातियां, सभ्यतायें हैं, वो यहां आती रहीं। यानी भारत का इतना बड़ा इंटरसेपटिंग प्वाइंट, इस भूखंड में सबकुछ बदला, मगर सवाल फिर वही कि वर्णाश्रम व्यवस्था क्यों नहीं बदली। ये बहुत बड़ा प्रश्न है। अंग्रेजों ने इसे टच नहीं किया, मुगलों ने इसे टच नहीं किया।

यानी आप कहना चाहते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था के बने रहने में सत्ता में रही शक्तियों ने भी अपनी तरह की भूमिका निभायी?

बिल्कुल, और आज भी इस व्यवस्था को बनाये रखा जा रहा है। अगर यह सोचें कि इस दिशा में कोई परिवर्तन किया जा रहा है, तो ऐसा कुछ नहीं है। वह बना हुआ है। इतिहास पलटकर देखें तो जिस समय बुद्ध को यहां से बाहर किया गया था, वह बहुत बड़ा मेजर और टर्निंग प्वाइंट था, क्योंकि बुद्ध का जाना वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थिरता को पुख्ता करने का इशारा था।

अस्मिता की राजनीति के अपने स्वभाव के अनुरूप साहित्य में भी धीरेधीरे कई धाराएं जन्म ले रही हैं दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, दलित स्त्रीवादी साहित्य आदि। अब शूद्र साहित्य और बहुजन साहित्य आकार ले रहा है। अभी साहित्य की प्रगतिशील और दलित धारायें एक दूसरे की प्रतिस्पर्धी हैं। क्या लगता है साहित्य की इन नई धाराओं को साहित्य की पूर्व स्थापित धाराएं, दलित, प्रगतिशील स्वीकार कर पाएंगी?

इसका उत्तर बहुत लंबा है। समाज और भाषा के बीच ब्रिज का काम कर रहा है ये सवाल। ओबीसी को देखें तो बहुसंख्यक हिंदी भाषी क्षेत्र में उन्होंने अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम किया है। उत्तर प्रदेश, बिहार में देखिये, यहां तक कि जो आज केंद्र में हैं, मोदी जिनका हिंदुत्ववाद आया है, वह भी खुद ओबीसी हैं। कास्ट और पॉलिटिक्स दोनों एक सोशल कैमिस्ट्री से पैदा हुए हैं, लेकिन भाषा उससे अलग है।

यानी भाषा और राजनीति का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए?

बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। मेरा यही कहना है कि आप मीडिया में देखिये, साहित्य में देखिये और शिक्षण संस्थानों में देखिये, केंद्रीय हिंदी संस्थान से लेकर साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी तक देखिये, यहां ऐसा कोई परिवर्तन नहीं दिख रहा। बल्कि उल्टा हो रहा है यहां। जहां तक सवाल ओबीसी, दलित या स्त्री विमर्श का है, इसका जो सबसे बड़ा पैरोकार उभर रहा है भाषा में, वह वही कास्ट है जो शायद पोलिटिक्स में पराजित हो रही है। ये विचित्र है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि आजादी के बाद के इतने सालों तक भारत में भारत रत्न, जो देश का बहुत बड़ा राष्ट्रीय सम्मान है, वह हिंदी के नाम पर पहली बार मदनमोहन मालवीय को मिला है। हिंदी के किसी ऐसे साहित्यकार का नाम बताइये, जिसे भारत रत्न मिला हो। यानी ये विडंबना है, विरोधाभास है। आपका सवाल समाज और भाषा को गड्डमड्ड कर रहा है।

पर भाषा भी तो समाज से ही उपजती है ?

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सआदत हसन मंटो और पत्नी साफिया

ये मान्यता है, ऐसा सिखा दिया गया है, ये दिमाग में डाल दिया गया है। भाषा समाज से भी आती है और भाषा ऊपर से संचालित भी होती है। जिसे सांस्थानिक या आधिकारिक भाषा कहते हैं, वही तो है आज की हिंदी। लेकिन जिस भाषा को जनता बोलती है, जिसे जनभाषा कहें, इसके बारे में समझने के लिए एक दिलचस्प उदाहरण देना चाहूंगा। बलराज साहनी, जो स्कॉलर, कलाकार और अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, टैगोर-हजारीप्रसाद द्विवेदी के करीबी थे, का वह स्पीच, जो उन्होंने 1972 में जेएनयू में दिया था। उसमें उन्होंने एक दिलचस्प बात कही थी कि शांतिनिकेतन का जो कैंपस था, वहां कई राज्यों से आने वाले कई बोलियों के छात्र पढऩे आते थे। कैंपस की संपर्क भाषा हिंदी थी। सब लोग उस हिंदी को बोलते-समझते थे। लेकिन जब वह हिंदी डिपार्टमेंट जाते थे, तो वहां कौन सी भाषा बोली जाती थी, वे समझ नहीं पाते थे। साहनी कहते थे कि उन्हें हिंदी शांतिनिकेतन ने नहीं फिल्म वालों ने सिखायी। उनके हिंदी के गुरु विमल रॉय हैं। विमल रॉय ने जब फिल्में बनायी तो उस हिंदी की ओर उन्हें जाना पड़ा, जिसे आम लोग समझते थे। अभी का एक उदाहरण देना चाहूंगा। बीबीसी ने पिछले साल मेरा एक इंटरव्यू किया और मुझसे पूछा कि पिछले 100 साल में हिंदी के दस सर्वश्रेष्ठ कथाकारों के नाम बताइये? अन्य सुप्रसिद्ध नामों के अलावा जब मैंने उसमें मंटो का नाम लिया तो तुरंत उन्होंने कहा कि मंटो तो उर्दू के कथाकार हैं? मैंने कहा कि अगर आप मंटो को हिंदी से बाहर करेंगे तो प्रेमचंद को भी हिंदी से बाहर निकालना पड़ेगा, क्योंकि मंटो और प्रेमचंद की भाषा में कोई अंतर नहीं है। प्रेमचंद की पृष्ठभूमि भी उर्दू थी और मंटो की भी। प्रेमचंद नागरी में नहीं उर्दू में लिखते थे। हालांकि बाद में उन्होंने हिंदी में लिखा, मगर मूलत: वे उर्दू में ही लिखते थे। अभी कुछ दिन पहले मेरा ‘मोहनदास’ का अनुवाद आया पाकिस्तानी पंजाबी में। पाकिस्तान की पंजाबी उर्दू में लिखी जाती है और भारत की गुरुमुखी में। यह लिपियों का अंतर है। प्रेमचंद लिपि और भाषायी पृष्ठभूमि दोनों के आधार पर जितने हिंदी के हैं उतने उर्दू के भी हैं। इसी तरह मंटो भी हिंदी और उर्दू दोनों के हैं। मेरा मतलब आज जिस हिंदी की बात हो रही है और वह जो होनी चाहिए, जिसमें लिखते-पढ़ते हुए आजादी महसूस हो, वह अलग है।

जब मैं यह कहता हूं कि हिंदी एक नहीं है तो लोग नाराज होते हैं, मगर यह बहुवचन है। दलित विमर्श या अस्मिता का जो संघर्ष है, वह इस ऑफिशियल हिंदी में तो नहीं होगा। कोई दावा कर ले, लेख लिख ले, भाषण दे दे विश्वविद्यालयों में जाकर, सेमिनार में बोले, यह हिंदी कहीं भी उस सामाजिक कनफ्लिक्ट का प्रतिनिधित्व नहीं करती, जो वास्तविक समाज में परिघटित हो रहा है।

सवाल यह है कि पहले से मौजूद प्रगतिशील धारायें नई धाराओं को उभरने देंगी?

आप ये बताइये जिसे हम प्रगतिशील-प्रोग्रेसिव कहते हैं, वह कहां पर है। सोसायटी में या लिटरेचर में। लिटरेचर में कहेंगे तो मैं उसी की बात कर रहा हूं। यहां दोनों का फर्क समझना होगा। सामाजिक आधुनिकता एक तरफ  है, और जो भाषा के भीतर परिभाषित की जाने वाली आधुनिकता है, वह दूसरी तरफ। जहां तक ओबीसी का सवाल है, तो उसमें पिछड़ी जातियां आती हैं। जैसे यादव, जाट, कुम्हार समेत कई अन्य जातियां आती हैं।

मगर यहां बात सिर्फ दलितों की नहीं है, बल्कि पिछड़ों, स्त्रियों और अन्य वंचित तबकों के साहित्य को एक मंच देने की बात है?

देखिये मैं पहले भी कह चुका हूं कि साहित्य और समाज दो अलग-अलग चीजें हैं। दोनों में आधुनिकता, प्रगतिशीलता आनी चाहिए, मगर तरीके अलग-अलग हैं। राजनीति में जो प्रगतिशीलता आयी है या आ रही है, जिसके लिए संघर्ष चल रहा है, क्या हिंदी साहित्य में उसी तरह का संघर्ष चल रहा है। हां, मराठी-तमिल और अन्य कई भाषाओं के साहित्य में यह दिखायी देता है। लेकिन हिंदी में यह स्थिति नहीं है। इसका कारण है, हिंदी भाषा की जो पूरी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक रचना और बनावट है वह इसे अनुमति नहीं देती है।

साहित्य के भीतर जाति और जेंडर के असर साफ  हैं, तो क्या हम अब तक रचे गए बहुसंख्य साहित्य के भीतर ब्राह्मणवादी साहित्य को चिह्नित नहीं कर सकते ?

क्यों नहीं। भाषा एक लिखित संस्कृति है। संस्कृति का अर्थ है संस्कार। जैसे मैं अपना ही उदाहरण दूं। मेरा गांव पहले अविभाजित मध्य प्रदेश का हिस्सा था, जो अब छत्तीसगढ़ का हिस्सा है। मेरी मां भोजपुर की थीं, पिता बघेलखंड के थे, और मेरा गांव, जिन बच्चों के साथ मैं पला-बढ़ा वे सब छत्तीसगढ़ी बोलते थे, तो इस तरह तीन भाषाएं मेरे भीतर आयीं-भोजपुरी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। खड़ी बोली हिंदी सीखने में मैं आठवीं कक्षा तक गलती करता था। आज भी मुझे खड़ी बोली लिखने में थोड़ी दिक्कत होती है। बीच में कुछ अंग्रेजी, कुछ आम बोलचाल के, तो कुछ शब्द और कहीं के आ जायेंगे, लेकिन वह शुद्ध हिंदी, जो बनारस से इलाहाबाद की होती है, जो नामवर सिंह और मैनेजर पांडे बोलते हैं, वह मेरे समझ में कम आती है।

इस मामले में तुलसीराम जी, जिनकी हाल में मृत्यु हुई है उनका लिखा देखिये। उनके मुर्दहिया, मणिकर्णिका की तुलना कीजिये आप विश्वनाथ त्रिपाठी के गद्य से, फिर दोनों का अंतर देखिये। शब्द भंडार, गद्य, अनुभव और चेतना में बहुत बड़ा अंतर नजर आयेगा।

आखिर ये अंतर क्यों है?

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ओमप्रकाश वाल्मीकि

ये अंतर जीवन से आया है। दूसरी बात ये है कि अगर अनुभव जीवन में कठिन भी हों, मगर आपके संस्कार दूसरे हैं, मूल्यों की बनावट दूसरी है, तो आप उन अनुभवों को उस रूप में नहीं देख पायेंगे जिस तरह कोई दलित देखेगा। दलित साहित्यकारों में देखें तो वाल्मीकि का ‘जूठन’, दया पंवार का ‘अछूत’ भी भोगा हुआ है। तुलसीराम का मुर्दहिया भी भोगा हुआ है। कोई भी रचना हमेशा आत्मकथात्मक होती है। यहां मैं तुलसीराम का जिक्र कर रहा था, क्योंकि उनकी हाल में मृत्यु हुई है। जब ओमप्रकाश वाल्मीकि की मृत्यु हुई थी, तो तुलसीराम जी ने उनकी श्रद्धांजलि में जो वक्तव्य दिया था, उसको सुन लीजिये। उन्होंने कहा कि कितना संघर्ष करना पड़ता है जीवन में, उसकी जो परिणतियां हैं शरीर में वह 45 साल में शरीर में दिखने लगती हैं। चाहे नामदेव ढसाल रहे हों, चाहे दया पवार, तुलसीराम, ओमप्रकाश वाल्मीकि या फिर हममें से बहुत सारे। मैं तो दलित नहीं हूं उस तरह से, लेकिन कठिन जीवन बाद में कुछ ऐसे रोगों को सौंपता है, जैसे दया पवार की मृत्यु हुई और उसका जिक्र किया तुलसीराम जी (तुलसीराम की खुद भी किडनी फेल हो गयी थी) की जुबानी सुनिये। जब दया पवार की मृत्यु हुई  तो उस समय वे दिल्ली आये थे। किसी अवार्ड के लिए उन्हें यहां बुलाया गया था। वे आईआईसी में रुके हुए थे, वहीं उनकी मृत्यु हो गयी। दया पवार के शव को वापस महाराष्ट्र कैसे भेजा जाए, इसमें जो समस्यायें आयीं, उसके बारे में भी तुलसीराम जी ने बताया है। एक दूसरा पहलू देखें तो ओमप्रकाश बाल्मीकि भी सफल थे, नौकरी में थे। तुलसीराम भी प्रोफेसर हो गये थे जेएनयू में, एक स्तर पर देखें तो सफल थे।

मतलब समाज बदला नहीं है बहुत, बल्कि यों कहें कि बदलाव की दिशा में जो प्रतिक्रियाएं हैं वे और उग्र हो रही हैं। स्त्रियों, आदिवासियों, दलितों के विरूद्ध भी उग्रता बढ़ रही है और हम जैसे साहित्यकार जो भाषा के भीतर से सवाल उठा रहे हैं, उनके विरूद्ध भी आवाज उठ रही है। मेरा तो मानना है कि परिवर्तन-बदलाव की जो शक्तियां हैं, अभी उठ रही हैं?

यदि ब्राह्मणवादी साहित्य है तो उसके विरोधी साहित्य भी एक सर्वकालिक सच हैं, उनका अलगअलग अस्मिताओं के नाम पर नामकरण हो रहा है, तो क्या शूद्र साहित्य को चिन्हित करते हुए एक वर्गीकरण नहीं हो सकता?

यह एक पॉलिटिकल बहस है। जो बुद्धिजीवी थोड़ा पॉलिटिकल माइंड के हैं, उनके लिए। मैं पॉलिटिकल नहीं हूं और न ही राजनीति से कोई ऐसी आस्था है, खासतौर पर पॉवर पॉलिटिक्स से। मैं अपनी निजी बात कहूं तो मानता हूं कि जो लेखक, कलाकार या वैज्ञानिक होता है, उनका कैटेगराइजेशन नहीं किया जा सकता। इस बारे में मार्क्स की भी राय थी कि हायर साइंस मैथमेटिक्स है। मैथ में जो परिगणनायें हैं उन्हें कैसे लेंगे, कि यह दलित परिगणना है, यह पिछड़ी परिगणना है। 2 जोड 2 बराबर 4 ही होगा, कुछ और नहीं। मेरा मानना है कि लेखक एक ऐसी अस्मिता होता है, जो दलित से भी दलिततम है। ये मैंने पहले भी कहा था कि लेखक की स्थिति दलित और आदिवासियों से भी बदतर है। जिस भी लेखक ने व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी, उन्हें मार डाला गया दूसरी तरह से प्रताडि़त किया गया।

क्या लेखक समाज भी समाजों में बंटा हुआ है?

बिल्कुल और अगर कोई लेखक इस भ्रम में है कि मैं सारे समाज को संबोधित कर रहा हूं तो वह पागल ही है, क्योंकि उसकी बात कहीं पहुंच नहीं रही है।

वामपंथी साहित्यकार बहुजन साहित्य को जातिवादी दृष्टिकोण से देखते हैं, ऐसे में उनके पास विकल्प क्या है?

वामपंथी साहित्यकारों के पास यही विकल्प बचता है कि वे समाज को संबोधित करें। वामपंथ इसकी छूट नहीं देता कि आप नस्ल को स्वीकार करें और किसी कैटेगरी पर जायें। वो सीधे कह देगा कि इकोनोमिकल बेस पर जाइये।

पिछले दिनों महिषासुर को लेकर जो विवाद हुआ था, उस समय आपने सोशल मीडिया पर अपनी बात रखी थी, क्या उसे और स्पष्ट करना चाहेंगे ?

देखिये मैंने तो इस मुद्दे पर जो लिखा था, वह बहुत साफ है। दरअसल, दुर्गा, महिषासुर (भैंस पालक चरवाहा समुदाय), वृत्रासुर (बांधों को तोडऩेवाला पूर्व कृषि-अर्थव्यवस्था पर निर्भर वनवासी समुदाय) आदि वगैरह ही नहीं रामायण में वर्णित हनुमान, जामवंत, अतिबल, दधिबल, सुग्रीव, बालि, अंगद, गुह, निषाद, कौस्तुभ, मरीच आदि सबके सब विभिन्न समुदायों के मिथकीय, अस्मितामूलक, प्रतीक-चिह्न (आयकन) हैं। इन्हें अलग-अलग मानवीय समुदायों के ‘टोटेम’ भी कह सकते हैं। (टोना-टोटका जैसा एक्ज़ार्सिज़्मज् या आकल्ट की व्युत्पत्ति भी इन्हीं से हुई होगी। इसी तरह शिव, रुद्र, भैरव, गणेश, विनायक, आदि भी अलग समुदाय के प्रतीक चिह्न हैं। अतीत में होने वाले विभिन्न समुदायों के पारस्परिक टकराहटों-संघर्षों के नतीज़ों के बाद विजित समुदायों ने पराभूत समुदायों के प्रति अपनी अवधारणाओं का निर्माण और प्रसार किया। देव-दानव, सुर-असुर आदि विनिर्मितियां वास्तव में अंतर-सामुदायिक परिप्रेक्ष्य या दृष्टिकोण ही हैं। राम का साथ देने वाले समुदायों में आदिवासी और दलित प्रतीक चिह्नों को आप साफ़ देख सकते हैं, गुह, निषाद, आदि दलित और ओ.बी.सी. (आज के राजनीतिक चलन में) तथा हनुमान, अंगद, सुग्रीव आदि सब आदिवासियों के ही प्रतीक चिह्न हैं। इस उपमहाद्वीप में अतीत में असंख्य पारस्परिक-सामुदायिक संघर्ष हुए हैं और अभी भी वे अनिर्णीत हैं। बुद्ध इस सामाजिक बहुलता के सत्य को जानते थे इसीलिए उन्होंने इसके विरुद्ध संग्राम किया और एक लंबे समय तक वे विजेता रहे। बाद का विघटन और प्रत्याक्रमण का आख्यान आप सब जानते हैं।

कुछ साल हुए, सैम्युएल हंटिग्टन ने एक विवादस्पद लेकिन बहु-चर्चित किताब लिखी थी- ‘सभ्यताओं का संग्राम’ (क्लैशेज़ इन सिविलाइज़ेशन), जिसमें 21 वीं सदी को उन्होंने विभिन्न दमित समुदायों (संस्कृतियों) के उत्थान और प्रतिकार के बतौर परिभाषित किया था। यह एक पूर्वकल्पना ही थी, जिसका हम सबने भरसक विरोध किया था, लेकिन आज वह किसी ‘प्रोफ़ेसीज्’ की शक्ल में हमारे सामने मौज़ूद है। वे प्रजातियां या समुदाय, जिन्हें शताब्दियों तक उत्पीडि़त किया गया, अब वे अपनी-अपनी वंचनाओं के प्रति जागरूक होकर वर्तमान सत्ता-व्यवस्था में अपने मानवीय सभ्य और आधुनिक अधिकारों की मांग कर रही हैं। उनके विरुद्ध इस समय जो शक्तियां आक्रमण की मुद्रा में हैं, वे साफ़-साफ़ पहचानी जा सकती हैं। वे हैं सवर्ण ब्राह्मणवादी फ़ासीवादी हिंदुत्व की राजनीतिक बनावटें (फ़ार्मेशंस), जिनका आधिपत्य या वर्चस्व शताब्दियों से समाज पर रहा है। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होगा, लोकतांत्रिक चेतना जनता में बढ़ेगी, अतीत के सारे ‘मिथकीय नायक’ एक दूसरे के विरुद्ध उसी युद्ध में संलग्न दिखाई देखेंगे, मुझसे लिख कर ले लीजिये, जैसा इस समय दुर्गा-महिषासुर विवाद में दीख रहा है। ‘सुर’ कौन था या है और ‘असुर’ कौन था या है, इसे समझने का दौर अब आ चुका है। किसी के भी मौलिक मानवीय अधिकारों को इतने दीर्घ काल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता।

भारत में कई सभ्यतायें रही हैं, जो जातियां, समुदाय अलग-अलग सिविलाइजेशन से यहां आये सबके पास अपनी दंतकथायें, मान्यतायें, आइकंस थे, जो धीरे-धीरे स्थापित हुए। शैव आये तो ये मातृपूजक थे, काली-दुर्गा थीं, पचासों नाम हैं। इसी तरह से वैष्णव थे। पीपुल्स ऑफ इंडिया का सबसे बड़ा सर्वेक्षण है, उसे देखें तो पूरी धारणा ही बदल जायेगी। पता चलेगा कि भारत में इतने मानव समुदाय हैं, जिसकी ठीक से गणना भी नहीं की जा सकती। इतने सारे आइकॉन्स हैं यहां, मेजर गॉड हैं….153 जातियां-समुदाय, मानव समूह ऐसे हैं भारत में जो सभी धर्मों को थोड़ा-थोड़ा मिलाकर मानते हैं। पॉपुलरिटी के लिहाज से देखा जाये तो मेजर गॉड के बजाय लोकल गॉड यानी स्थानीय पीर-फकीर, संत-साधु, देवी-देवता ज्यादा पूजे जाते हैं।

उस समय जब ये हुआ था तो स्पष्ट था कि मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक समाजों के बीच की लड़ाई थी। हालांकि इसे जेंडर डिस्कोर्स कहा जाता है। दुर्गा तो मां थीं, स्त्री थीं, तो सारी स्त्रियों को दुर्गा के साथ जोडऩा चाहिए। चूंकि महिषासुर काला है, पुरुष है इसलिए स्त्रीविरोधी है। सारी स्त्रियों, जिसमें दलित महिलायें भी शामिल हैं, का ब्रेनवॉश किया गया कि वे स्त्री हैं इसलिए महिषासुर का विरोध करें। जबकि है क्या कि कुछ यहां जिन्हें महिष या भैंस कहें के चरवाहे, गोपाल हैं, जो गाय चराते हैं। कहीं न कहीं यह दो समुदायों के बीच की टकराहट थी, जिसका बाद में यह रूपांतर हुआ। कहा जाता है कि हम जिस समय में आज हैं, वहां सारे मिथकीय आइकन्स एक दूसरे के खिलाफ युद्ध कर रहे हैं। पहले यह टकराहट शैवों और वैष्णवों के बीच हुयी थी, बौद्धों और ब्राह्मणवादियों के बीच टकराहट दिखी थी, क्रिश्चन और मुस्लिम के बीच में भी ऐसे मतभेद उभरे। आज भी उसकी पुनरावृत्ति ही हो रही है।

हालांकि जो चित्र और मूर्तियां सोशल मीडिया में बार-बार प्रदर्शित की गयीं, वे आज के समय में अनुपयोगी और उत्तेजक हैं। दुर्गा के और भी रूप हैं। मां कभी भी इतनी हिंसक नहीं होती। फॉरवर्ड प्रेस के महिषासुर अंक के बाद जो बहस चल रही थी वहां भी मैं यही कह रहा था। इस बहस में कुछ स्त्रीवादी लेखिकायें भी शामिल थीं, जिन्होंने दुर्गा के साथ खुद को जोड़कर देखा। मैंने कहा कि मैं अपनी मां को याद करता हूं, जिन्हें कैंसर था और उन्हें मैंने डेढ़ साल तक मरते हुए देखा है। मेरी मां जब जीवित थीं तो इतनी क्रूर नहीं थीं कि उनकी जीभ निकली है और उससे खून टपक रहा हो। गले में कटे हुए सरों की माला हो तो कैसी मां है वो। काली को देखिये, दुर्गा को देखिये, 18 हाथ हैं और सबमें अस्त्र-शस्त्र भरे हैं। हो सकता है कि एक ऐसे समाज में जहां स्त्री को बहुत दबा दिया गया है वहां कुछ समय के लिए दुर्गा का यह शस्त्रधारणीय रूप ठीक लगे, मगर यह ठीक नहीं है। क्योंकि यह पुरुष की ही मानसिकता है, उसी ने उसे उस रूप में गढ़ा है। कैलेंडर-मूर्तियां वैसी बना दी है, वास्तविकता वह नहीं है। मां का रूप ऐसा तो नहीं होना चाहिए। दुर्गा और सरस्वती दोनों को मैं काउंटर पोस्ट करता हूं। सरस्वती तो ज्ञान, बुद्धि सभी की देवी हैं, उनको क्यों नहीं केंद्रीय स्थान मिला। इतने बड़े देश में सरस्वती का सिर्फ  एक मंदिर है। सरस्वती पर आरोप भी लगा दिया कि उनके पिता थे ब्रह्मा और पिता-पुत्री के बीच में संबंध बन गये, तो तय हुआ कि ब्रह्मा भी नहीं रहेंगे केंद्र में। केंद्र में आ गये हथियारों से लैस 18 हाथ और लक्ष्मी आयीं तो पैसा-पॉवर और कैपिटल केंद्र में आये। हमारे हिंदू माइंडसैट को उद्घाटित करता है यह सिंबल। यानी दुर्गा-काली के जो 18 हाथ हैं, उनमें आधुनिक टैंक, बंदूक, तोपें आदि हैं, जो आदिवासियों को मार रही हैं। उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं, वहां पर माइनिंग हो रही है, उनको डिसप्लेस किया जा रहा है, वो है महिषासुर। वही रूपक अब दूसरा अर्थ देने लगा है। इसी रूप में बताया जाये तो यह है मल्टीनेशनल, कॉरपोरेट पॉवर है, जो दलित (जिसका दलन किया गया हो) है उस पर ये आक्रमण कर रही है। वही दुर्गा का दूसरा रूप हो जायेगा।

जातिमुक्ति का वर्तमान एजेंडा क्या हो सकता है?

जातिमुक्त समाज की बात करेंगे तो वो समाजवादी ही होगा। आधुनिक समाज होगा वह, ऐसा हो सकता है और होना चाहिए। दोनों शक्तियां साथ काम करें इसके लिए। एक तरफ  वह, जो जातिमुक्त या जातियों को खत्म करने वाली, जैसे आंबेडकर ने अपनी किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ  कास्टÓ में बहुत सोच-विचारकर यह बात कही है। मेरा तो यह मानना है कि 50 के दशक में भारत के सबसे बड़े आधुनिक बुद्धिजीवी अंबेडकर ही थे। उतना मॉर्डन और कोई नहीं था। उनकी पत्नी ब्राह्मण थी। कास्ट उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। बुद्ध की ओर वे इसीलिए गये, क्योंकि बुद्ध शायद पहली बार लिबरेशन कर रहे थे। ईसा से 400 साल पहले बुद्ध ने जो बातें कहीं थीं, उन्हें सुनकर ताज्जुब होता है। हम उनसे भी पिछड़े हुए हैं। हमारे यहां मार्क्सवाद, कम्युनिज्म, आधुनिकता आ जायेगी, मगर यह उनकी तुलना में कुछ नहीं है। यह सब कहने की बातें हैं। भ्रष्टाचार, कालाधन, दंगे सबके मूल में वर्णाश्रम व्यवस्था है, जो न तो जातिमुक्त समाज को बनने देगी, न सेकुलर समाज को बनने देगी और न ही मॉर्डन डेमोक्रेसी को पैदा होने देगी।


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लेखक के बारे में

प्रेमा नेगी

प्रेमा नेगी 'जनज्वार' की संपादक हैं। उनकी विभिन्न रिर्पोट्स व साहित्यकारों व अकादमिशयनों के उनके द्वारा लिए गये साक्षात्कार चर्चित रहे हैं

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