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बंगाल का विस्मृत नामशूद्र आंदोलन

बंगाली बौद्धिक वर्ग, पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने और उदारवादी मानवीय मूल्यों, विज्ञान के सिद्धांतों और आधुनिक ज्ञान से परिचित होने के बावजूद, जाति की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था। 20वीं सदी के पूर्वाद्ध का एक दस्तावेज यह बतलाता है कि ब्राह्मण और अन्य ऊँची जातियां, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) की सबसे बड़ी हिंदू जाति चांडाल के बारे में क्या सोचते थे

इतिहास हमें बताता है कि समाज सुधार आंदोलन और सामाजिक न्याय के संघर्ष, एक दूसरे के पूरक नहीं होते बल्कि वे परस्पर-विरोधी और असंगत होते हैं। औपनिवेशिक बंगाल में 19वीं और 20वीं सदी में सामाजिक सुधार और सामाजिक न्याय के आंदोलन एक-दूसरे के समानांतर चले। जहां सामाजिक सुधार आंदोलन का उद्देश्य ऊँची जातियों के घिसे-पिटे दकियानूसी कर्मकांडों और परंपराओं जैसे सती, बहुपत्नी प्रथा, भारी-भरकम दहेज़, बाल-विवाह, बच्चों को गंगा सागर में फेंकना, अंतरजली यात्रा इत्यादि को उखाड़ फेंकना था, वहीं सामाजिक न्याय आंदोलन का लक्ष्य अशिक्षा का नाश और समाज के निचले वर्गों में मानवीय गरिमा की अलख जगाना था। जहां सामाजिक सुधार आंदोलनों की भारतीय इतिहासविदों ने भूरी-भूरी प्रशंसा की, वहीं सामाजिक न्याय आंदोलन को इतिहास के अंधेरे में गुम हो जाने दिया।

बंगाली बौद्धिक वर्ग, पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने और उदारवादी मानवीय मूल्यों, विज्ञान के सिद्धांतों और आधुनिक ज्ञान से परिचित होने के बावजूद, जाति की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था। 20वीं सदी के पूर्वाद्ध का एक दस्तावेज यह बतलाता है कि ब्राह्मण और अन्य ऊँची जातियां, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) की सबसे बड़ी हिंदू जाति चांडाल के बारे में क्या सोचते थे: “(1) चांडाल गांवों के बाहर रहते हैं; (2) कुत्ते और गधे उनकी संपत्ति हैं; (3) वे शवों से उतारे गए चिथड़े पहनते हैं; (4) वे आवारा होते हैं; (5) उनका मुख्य पेशा शवों को जलाना है; (6) वे राजा के आदेश पर अपराधियों को फांसी पर चढ़ाते हैं; व (7) वे अछूत हैं।” अपने एक लेख में, बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाल के चांडालों के बारे में मनु के दकियानूसी विचारों को उचित ठहराया था। चांडाल, बंगाल के सामाजिक न्याय आंदोलन के अगुवा थे।

पहली ‘आम हड़ताल’
ऊँची जातियों के दमनचक्र और शोषण ने चांडालों को उन्हें सताने वालों के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया। फरीदपुर के जिला मजिस्ट्रेट सीए कैली ने 8 अप्रैल, 1873 को ढाका के संभागीय आयुक्त को चिट्ठी लिखकर सूचित किया कि उस साल चांडालों ने ”जिले में आम हड़ताल की और यह निर्णय किया कि वे उच्च वर्ग के किसी भी सदस्य की किसी भी हैसियत से सेवा नहीं करेंगे, जब तक कि उन्हें हिंदू जातियों में उससे बेहतर स्थान प्राप्त न हो जाए, जो उन्हें वर्तमान में प्राप्त है।”

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गुरुचंद ठाकुर

एक समकालीन इतिहासविद ने इस हड़ताल को ऊँची जातियों का सामाजिक बहिष्कार निरूपित किया। चांडालों ने तय किया कि वे न तो ऊँची जातियों के लोगों की ज़मीनें जोतेंगे और ना ही उनके घरों की छतों को फुंस से ढकेंगे। यह हड़ताल चार से पांच महीने चली। यह भारत की पहली ऐसी आम हड़ताल थी, जिसके संबंध में आधिकारिक अभिलेख उपलब्ध हैं। अन्य जिलों जैसे बारीसाल, ढाका, जैसोर, मैमनसिंह व सिलहट के चांडालों ने भी फरीदपुर के अपने साथियों से हाथ मिला लिया। सन 1871 की जनगणना के अनुसार, बंगाल में 16,20,545 चांडाल थे। इन पांच विशाल जिलों के हड़ताली चांडालों की संख्या 11,91,204 (कुल आबादी का 74 प्रतिशत) थी। भद्रलोक (ब्राह्मणों, बैद्यों और कायस्थों का जाति सिंडीकेट) को निशाना बनाने वाली इस विशाल हड़ताल की सफलता, निरक्षर चांडालों की संगठनात्मक और परस्पर एकता कायम करने की क्षमता की द्योतक थी।

चांडालों ने यह संकल्प किया कि वे शिक्षा के ज़रिए अपनी सामाजिक हैसियत में सुधार लायेंगे और अपना विकास करेंगे। इस सामाजिक-शैक्षणिक आंदोलन के केंद्र, फरीदपुर के चांडालों की शैक्षणिक स्थिति दयनीय थी। ऊँची जातियां, पददलित वर्गों को किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने देने के सख्त खिलाफ थीं। ब्राह्मण और कायस्थ यह मानते थे कि शिक्षा उनकी बपौती है। चांडाल और मुसलमान इस पूर्वग्रह के सबसे बड़े शिकार थे। फरीदपुर में 1,56,000 चांडाल रहते थे परंतु केवल 200 चांडाल बच्चे स्कूल जाते थे।

हरी चंद ठाकुर (1812-1877) व उनके प्रतिभाशाली पुत्र गुरूचंद ठाकुर (1847-1937) ने इस निरक्षर व अज्ञानी समुदाय को शिक्षित करना अपना मिशन बनाया। हरी चंद ठाकुर ने मातुआ पंथ की स्थापना की, जो कापाली, पोंड्रा, मालो व मूची जातियों में बहुत लोकप्रिय हुआ। दोनों ने पिछड़ों की उन्नति के लिए शिक्षा को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किए जाने पर ज़ोर दिया। इस सामाजिक न्याय आंदोलन को आस्ट्रेलियाई बैप्टिस्ट मिशनरी डॉ. सीएस मीड ने अपना पूरा सहयोग और समर्थन दिया। फरीदपुर जिले में ठाकुर के पैतृक गांव ओराकंडी में नामशूद्र, अंग्रेजी माध्यम का स्कूल खोलना चाहते थे ताकि निरक्षर व अज्ञानी किसानों को लगान और ऋण चुकाने में उच्च जातियों के ज़मींदारों और साहूकारों द्वारा उनके साथ की जा रही धोखाधड़ी से उन्हें बचाया जा सके। इस प्रस्ताव का स्थानीय ऊँची जातियों के कायस्थों ने कड़ा विरोध किया क्योंकि उन्हें डर था कि शिक्षित हो जाने के बाद, बटाई पर खेती करने वाले किसान और उनके सेवक काम नहीं करेंगे। भद्रलोकों के विरोध के चलते, गुरूचंद ठाकुर ने डॉ. मीड से सहायता मांगी। मीड ने उन्हें न केवल स्कूल के लिए आर्थिक मदद उपलब्ध करवाई वरन अंग्रेज़ अफसरों से उनका परिचय भी करवाया। यह नामशूद्रों के सशक्तिकरण की ओर एक प्रभावी कदम था।

मील का पत्थर
सन 1881 में खुलना जिले के दत्ताडंगा में अखिल-बंगाल नामशूद्र सम्मेलन हुआ। पूरे बंगाल से हजारों नामशूद्रों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन की अध्यक्षता गुरूचंद ठाकुर ने की। इस सम्मेलन में शिक्षा के संबंध में जो संकल्प पारित किए गए, वे सामाजिक उत्थान की राह में मील के पत्थर साबित हुए। इसके बाद से, हर वर्ष सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर विचार-विनिमय के लिए अलग-अलग जिलों में नामशूद्र सम्मेलनों का आयोजन शुरू हो गया। हर नामशूद्र गांव में एक समिति गठित की गई। पंद्रह ग्रामीण समितियों का एक संकुल बनाया गया और हर जिले में जिला समिति का गठन हुआ। ग्रामीण, संकुल व जिला समितियों को यह अधिकार दिया गया कि वे ”नामशूद्र अंशदान कोष” के लिए चंदा इकट्ठा कर सकें। हर परिवार अपना भोजन शुरू करने के पहले मुट्ठीभर चावल अलग रख देता था, जो गांव की समिति को जाता था। गांव की समिति का हर सदस्य एक आना प्रतिमास का चंदा देता था, संकुल समिति के सदस्य दो आने और जिला समिति के सदस्य चार आने प्रतिमास चंदे के रूप में देते थे। श्राद्ध, विवाह और अन्य मौकों पर होने वाले खर्च का तीन प्रतिशत इस कोष में दान दिया जाता था। जो परिवार अपने 20 साल से कम उम्र के लड़कों या 10 साल से कम उम्र की लड़कियों का विवाह करते थे, उन्हें जात बाहर कर दिया जाता था।

शनै: शनै: ओराकंडी, नामशूद्र आंदोलन का केंद्र बन गया। गुरूचंद ठाकुर के उत्साही नेतृत्व में नामशूद्रों की बड़ी आबादी वाले क्षेत्रों में सैंकड़ों प्राथमिक स्कूल खोले गए। जब भी कोई नामशूद्र, गुरूचंद से मिलकर मातुआ पंथ में शामिल होने की इच्छा व्यक्त करता था, वे उसे यह सलाह देते थे कि वह अपने गांव में एक स्कूल शुरू करे। स्वच्छता भी उनकी प्राथमिकताओं में से एक थी और वे उनसे मिलने वाले लोगों से कहा करते थे कि सभी को अपने घरों में शौचालयों का निर्माण करना चाहिए।

सन 1908 में फरीदपुर के ओराकंडी गांव में अंग्रेज़ी माध्यम का पहला हाईस्कूल स्थापित हुआ। मुसलमानों और पिछड़े वर्गों की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए, पूर्वी बंगाल व असम के गवर्नर ने ”द प्रपोर्शनल रिप्रजेंटेशन ऑफ कम्युनिटीज इन पब्लिक एम्प्लाएमेंट एक्ट” (सार्वजनिक नियोजन में आनुपातिक सामुदायिक प्रतिनिधित्व अधिनियम) लागू किया। इसी साल, कुमुद बिहारी मल्लिक, बंगाल के पहले नामशूद्र व अछूत डिप्टी मजिस्ट्रेट बने। कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ (1927) में लिखा कि तत्समय लगभग 4,900 नामशूद्र लड़के मैट्रिक पास करने के लिए अध्ययनरत थे और 200 स्नातक बन चुके थे। कलकत्ता में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जब नामशूद्रों ने होस्टलों में स्थान प्राप्त करने का प्रयास किया तो उनका ‘अछूत’ का दर्जा इसके आड़े आने लगा। नामशूद्रों के प्रतिनिधिमंडल ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलकर इस समस्या के बारे में उन्हें बताया। इसके बाद, 1917 में विश्वविद्यालय ने शहर में अछूतों के होस्टल के लिए एक अलग भवन किराए पर लिया।

सन 1885 में पुन्चनन बिस्वास नामक एक नामशूद्र को आस्ट्रेलिया भेजा गया, जहां उन्होंने साऊथ आस्ट्रेलियन बैप्टिस्ट मिशन के पदाधिकारियों से मिलकर यह अनुरोध किया कि वे पांच महिला मिशनरियों को पूर्वी बंगाल भेजें ताकि अछूत ग्रामीण महिलाओं को शिक्षित किया जा सके। पांच मिशनरी सिस्टर्स पूर्वी बंगाल पहुंचीं और उन्होंने इन वंचित महिलाओं को शिक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। मीड की पत्नी और उनकी लड़कियां पहले से ही फरीदपुर में थीं।

चांडाल से नामशूद्र

1901 से कई जातियों ने बंगाल सरकार को अभ्यावेदन देकर यह अनुरोध किया कि उनकी जाति का नाम बदला जाए और उन्हें जाति पदानुक्रम में बेहतर स्थान दिया जाए। सन 1911 तक इस तरह के आवेदनों के ढेर का वजऩ करीब 57 किलो हो चुका था। बाभन (जो अब अपने आपको भूमिहार कहते हैं), ब्रह्मर्षि ब्राह्मण कहलाना चाहते थे, बंगाली कायस्थों का मानना था कि उन्हें क्षत्रिय का दर्जा मिलना चाहिए और बैद्य, ब्राह्मण कहलाना चाहते थे। इन सभी मांगों को सरकार ने खारिज कर दिया। केवल दो अभ्यावेदनों – चांडालों द्वारा अपने को नामशूद्र कहलाने और काईबरता द्वारा महिष्य के रूप में पुन: नामकरण – की मांगें स्वीकार की गईं। चांडालों ने अपनी इस मांग को स्वीकार करवाने के लिए बहुत प्रयास किया था। प्रेसीडेन्सी संभाग के आयुक्त एफबी पीकॉक ने अपने एक पत्र (क्रम संख्या 87, दिनांक 18 जुलाई, 1881) में लिखा ”चांडाल, जो यहां (जैसोर जिले के नारेल अनुभाग) के सबसे बड़े कृषक समुदाय हैं, की स्थिति में सुधार होने के कारण वे अब हिंदू जाति व्यवस्था में बेहतर दर्जा चाहते हैं। वे स्वयं को नामशूद्र कहते हैं और अपने आप को वैश्य बताते हैं।”

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जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान के कॉस्टीट्यूएंट असेंबली के पहले अध्यक्ष थे, दूसरी तस्वीर में वे असेंबली को संबोधित करते दिख रहे है

सन 1905 में, बंगाल के राजनैतिक और सामाजिक नेताओं ने लार्ड कर्जन द्वारा प्रशासनिक सुविधा के लिए बंगाल को पूर्वी व पश्चिमी बंगाल में विभाजित करने के निर्णय के विरूद्ध आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन के एक बड़े नेता सर सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी ने 58 वर्षीय गुरूचंद ठाकुर और उनके अनुयायियों का समर्थन मांगा। गुरूचंद ने एक मार्मिक पत्र लिखकर बेनर्जी से कहा: ”नामशूद्र बहुत गरीब हैं। वे किसी प्रकार के ऐश्वर्य का भोग नहीं करते और ना ही वे जानते हैं कि ऐश्वर्य क्या होता है। सस्ता आयातित कपड़ा वह एकमात्र विदेशी सामान है, जिसका वे इस्तेमाल करते हैं। आयातित सामान का इस्तेमाल करने की आदत तो ऊँची जातियों की है। इसलिए यह आंदोलन (बहिष्कार) केवल ऊँची जातियों तक सीमित रहना चाहिए। नामशूद्रों को अब तक कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं है, वे दमित हैं और उनका उनकी ही धरती पर अत्यंत क्रूरतापूर्वक शोषण किया जा रहा है। ऊँची जातियों के हिंदू उन्हें किसी भी प्रकार के राजनैतिक अधिकार दिए जाने के सख्त खिलाफ हैं। इसलिए, जब तक वे नीची जातियों के प्रति बंधुत्व का भाव नहीं रखेंगे, तब तक नीची जातियां उच्च जातियों के हिंदुओं द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ चलाए जा रहे किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लेंगी।”
रबीन्द्रनाथ टैगोर ने मैमनसिंह में 1925 में आयोजित नामशूद्रों के वार्षिक सम्मेलन में भाग लिया था। हिंदू बौद्धिक वर्ग ने जानते-बूझते इस तथ्य को दबा दिया।

नामशूद्र समुदाय ने साईमन आयोग के समक्ष दो ज्ञापन प्रस्तुत किए। फरवरी 1928 में ”अखिल बंगाल दमित वर्ग संगठन” ने भी आयोग के समक्ष ज्ञापन प्रस्तुत किया और नामशूद्र समुदाय द्वारा प्रस्तुत ज्ञापनों को अंगीकार करते हुए कहा कि ये ज्ञापन भी उसके हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन दोनों संगठनों के नौ नेताओं ने संयुक्त रूप से आयोग के समक्ष 29 जुलाई, 1929 को कलकत्ता में अपना पक्ष प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुतिकरण का अभिलेख उपलब्ध है। प्रतिनिधियों ने बंगाल के सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक यथार्थ से कमीशन को परिचित करवाया और अपनी महत्वाकांक्षाओं का वर्णन किया। उनकी एक मांग यह थी कि ”विभिन्न समुदायों के योग्य उम्मीदवारों को आबादी में उनके अनुपात में नियुक्तियां दी जानी चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि ”जब तक कि सरकारी सेवाओं में पहले से ही जमे लोगों की संख्या उनके बराबर न हो जाए” तब तक केवल मुसलमानों सहित दमित वर्गों के उम्मीदवारों की नियुक्तियां की जानी चाहिए। उनका उद्देश्य प्रशासन में भद्रलोक के एकाधिकार को समाप्त करना था। उन्होंने कहा कि एक बहुत छोटे अल्पसंख्यक वर्ग का न्यायपालिका पर वर्चस्व, देश के लिए अभिशाप है और यह प्रस्ताव किया कि केंद्रीय व राज्य सरकारों में नियुक्तियों के लिए सेवा आयोगों की स्थापना की जाए। उन्होंने कहा कि केंद्रीय आयोग का अध्यक्ष गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद का कोई यूरोपियन सदस्य होना चाहिए और राज्य सेवा आयोगों के अध्यक्ष, गवर्नर की कार्यपरिषद का यूरोपीय सदस्य। इस प्रकार उन्होंने यह साफ कर दिया कि उन्हें ऊँची जातियों के भारतीयों पर कतई भरोसा नहीं है। वे चाहते थे कि देश में ”नि:शुल्क व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा” व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। भद्रलोक को कटघरे में खड़ा करते हुए दमित वर्गों के नेताओं ने कहा कि ऊँची जातियां ऐसा व्यवहार करती हैं मानो वे ”भारतीय जनता की दिव्य संरक्षक” हैं।

गुरूचंद ने ज़मींदारों द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ भी अभियान चलाया। सन 1921 में बंगाल विधानपरिषद के सदस्यों मुकुंद बिहारी मल्लिक व भीष्मदेव दास ने मांग की कि ऐसा कानून बनाया जाए कि फसल का दो-तिहाई हिस्सा बटाई पर खेती करने वाले को मिलेगा। यहीं से तिभागा आंदोलन का बीजारोपण हुआ, जिसे बाद में बंगाली साम्यवादियों ने किसानों के पक्ष में अपने आंदोलन के लिए अपनाया। बंगाल में सन 1937 में हुए विधानमंडल चुनाव में 30 निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित थे और इनमें से 12 में नामशूद्रों ने विजय हासिल की। विजयी उम्मीदवारों में से 10 गुरूचंद के अनुयायी थे और 2 कांग्रेस के प्रतिनिधि थे। सभी गुरूचंद के व्यक्तित्व से गहरे तक प्रभावित थे। डॉ. सीएस मीड ने गुरूचंद को अपनी श्रद्धांजलि इन शब्दों में दी: ”वे ऐसी उदार सोच, साहस और दूरदृष्टि के धनी थे जो कि दकियानूसी समाज के पुरूषों में बहुत कम ही पाई जाती है। उन्होंने महान नामशूद्र जाति की उन्नति के लिए बहुत कुछ किया। वे उनके ऋणी हैं और मैं भी उनका उतना ही ऋणी हूं।”

सन 1946 में डॉ. बीआर आंबेडकर का संविधानसभा के सदस्य के रूप में बंगाल से चुनाव, बंगाली अछूतों के प्रतिनिधियों जैसे जोगेन्द्रनाथ मंडल, मुकुन्दबिहारी मल्लिक, द्वारिकानाथ बरूई, नागेन्द्र नाथ राय व क्षेत्रनाथ सिंह की राजनीतिक परिपक्वता और दूरदृष्टि का उदाहरण था। ये सभी लोग फरीदपुर, जैसोर, खुलना और बारीसाल जिलों से थे। बंगाली दलितों को यह संदेह है कि डॉ. आंबेडकर को संविधानसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित करने की सज़ा स्वरूप ही नामशूद्रों की बड़ी आबादी वाले इन जिलों को पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया। इन अछूतों की पर्दे के पीछे से संविधान निर्माण में भूमिका को मान्यता मिलना बाकी है।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

एके विस्वास

एके विस्वास पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और बी. आर. आम्बेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर बिहार के कुलपति रह चुके हैं

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