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ब्राह्मणवाद पर अच्छाई की जीत का जश्न

राम, लक्ष्मण और सीता के पुतले जलाने के आरोप में गिरफ्तार किए गए टीपीडीके के कार्यकर्ताओं की रिहाई पर उनका ज़ोरदार स्वागत हुआ। पार्टी ने अपने विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए, नरक चतुर्दशी पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भागीदारी की

भारत में त्यौहारों का मौसम नागपंचमी से शुरू होता है। इसके बाद आती है गणेश चतुर्थी। कुछ हफ्तों बाद, दस दिन की नवरात्रि होती है, जिसके अंत में दशहरा मनाया जाता है। दशहरे पर उत्तर भारत में रावण के पुतले जलाए जाते हैं। अंत में आती है, दिवाली जो रोशनी का त्यौहार है।

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नरक चतुर्दशी पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए टीपीडीके के महासचिव के. रामकृष्णन, साथ में हैं (बांये से) आरूचामी, सीनी विदूथलाई अरासु, सेन्थलाई गोथमन व कवि ईरानियन

सभी भारतीय त्यौहारों-जिनमें दिवाली, होली, दशहरा और ओणम शामिल हैं-के आसपास ‘‘अच्छाई पर बुराई की जीत’’ की कथाएं बुनी गई हैं। इनके केन्द्र में है कोई न कोई राक्षस, जिस पर अच्छाई की प्रतीक, हथियारों से लैस कोई दैवीय शक्ति विजय प्राप्त करती है। परंतु इस आख्यान को कई अध्येताओं, विद्यार्थियों और कार्यकर्ताओं द्वारा चुनौती दी जा रही है। इन लोगों का दावा है कि ये कहानियां, दरअसल, वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी समूहों द्वारा आदिवासियों, दलितों व अन्य प्राक-ब्राह्मणवादी देशज परंपराओं को मानने वाले समूहों पर विजय की कहानियां हैं।

दक्षिण भारत के कुछ लोगों का यह मानना है कि दशहरा, जिसके पीछे दुर्गा द्वारा काले रंग के घुंघराले बाल वाले महिषासुर नामक नायक की हत्या की किंवदंती है, दरअसल, द्रविड़ों पर आर्यों की विजय का त्यौहार है। वर्चस्ववादी आख्यानों में महिषासुर को आधा भैंसा और आधा मनुष्य बताया गया है, परंतु कई देशज समुदाय उसे एक भले राजा और सौम्य पूर्वज के रूप में याद करते हैं। मध्यभारत का एक समुदाय-असुर जनजाति-दशहरे के दसवें दिन उसकी मौत का शोक मनाता है। साल दर साल, महिषासुर की मौत का शोक मनाने के लिए आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है। इन कार्यक्रमों के आयोजक, एक देशज समुदाय के नेता पर ब्राह्मणवादियों की विजय के वर्चस्ववादी आख्यान को चुनौती देना चाहते हैं।

दक्षिण भारत में दिवाली, शेष भारत से एक दिन पहले, नरक चतुर्दशी पर मनाई जाती है। इसके पीछे कहानी यह है कि नरकासुर एक ‘असुर’ राजा था। वह इतना क्रूर था कि परेशान होकर उसके प्रजाजनों ने विष्णु से सहायता मांगी। विष्णु ने उनसे यह वायदा किया कि वे कृष्ण के रूप में प्रकट होकर उसे मारेंगे और उन्होंने ऐसा ही किया। अपनी मौत के पहले नरकासुर ने यह इच्छा व्यक्त की कि उसकी मृत्यु का जश्न, रंगबिरंगी रोशनी करके मनाया जाए और यही कारण है कि दिवाली को रोशनी का त्यौहार कहा जाता है। इसके विपरीत, देशज गैर-ब्राह्मण आख्यान, नरकासुर को प्रागज्योतिष का राजा मानते हैं।

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टीपीडीके द्वारा नरक चतुर्दशी पर आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित श्रोतागण

देश के सबसे प्रसिद्ध दशहरा आयोजनों में से एक दिल्ली के रामलीला मैदान में होता है, जिसमें उच्च राजनीतिक पदाधिकारी शिरकत करते हैं। दशहरे के त्यौहार का आधार रामायण भी है। तुलसीदास की रामचरितमानस में रावण को दस सिर वाला ‘असुर सम्राट’ बताया गया है, जो अपनी बहन शूर्पनखा के लक्ष्मण द्वारा अपमान का बदला लेने के लिए राम की पत्नी सीता का वन से अपहरण कर लेता है। रावण के पुतले का दहन, लंका में हुए युद्ध में राम की विजय के प्रतीक के रूप में किया जाता है। राम ने रावण के भाई विभीषण की सहायता से रावण को पराजित किया और सीता को मुक्त कराया। दक्षिण भारत में रावण को एक ऐसे वीर राजा के रूप में देखा जाता है, जिसने सीता का अपहरण करने के बाद उन्हें कोई कष्ट नहीं पहुंचाया।

परंतु कुछ इलाकों को छोड़कर, दक्षिण भारत में दशहरा बहुत बड़े स्वरूप में नहीं मनाया जाता क्योंकि यहां उसे प्रवासी आर्यों की मूलनिवासी द्रविड़ों पर विजय के जश्न के रूप में देखा जाता है। तमिलनाडु का द्रविड़ आंदोलन, जो तर्कवाद और तमिल भाषा व संस्कृति के गौरव पर आधारित है, ने सन 1960 के दशक से ही दशहरा की परंपरा का विरोध करना शुरू कर दिया था। पेरियार इस विरोध के प्रतीक थे। उन्होंने तमिलनाडु में रावण लीला का आयोजन शुरू करवाया, जिसके दौरान राम, सीता, लक्ष्मण और इंद्रजीत के पुतले जलाए जाते थे। सन 1973 में उनकी मृत्यु के बाद, द्रविड़ कड़गम की कार्यकर्ता, पेरियार की निजी सचिव और बाद में उनकी पत्नी मणियाअम्मई ने इस पंरपरा को जीवित रखा। सन 1974 में उन्हें रावण लीला का आयोजन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। मणियाअम्मई की सन 1978 में मृत्यु के बाद से तमिलनाडु में रावण लीला का आयोजन बंद हो गया। सन 1998 में द्रविड़ कड़गम के एक कार्यकर्ता ने राम का पुतला जलाने का प्रयास किया और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करूणानिधि इस कार्यकर्ता के समर्थन में आगे आए और इस पर बहुत बवाल मचा। इस साल, थंथई पेरियार द्रविड़ कड़गम (टीपीडीके) ने रावण लीला का आयोजन किया।

टीपीडीके, अगस्त 2012 में पेरियार द्रविड़ कड़गम के विभाजन से अस्तित्व में आई। पेरियार द्रविड़ कड़गम, मूल द्रविड़ कड़गम से निकला हुआ एक समूह था। विभाजन के बाद, टीपीडीके का नेतृत्व के. रामकृष्णन ने संभाला और दूसरे समूह, द्रविड़ विदूथलाई कड़गम का कोलाथुर मणि ने। टीपीडीके के एक सदस्य ने फारवर्ड प्रेस को बताया किः ‘‘पेरियार का द्रविड़ आंदोलन, मुख्यतः, गैर-ब्राह्मण आंदोलन था, इसलिए हमारे संगठन के सदस्यों में एससी, ओबीसी, एमबीसी और अगड़ी जातियों के सदस्य तो हैं परंतु ब्राह्मणों को हम सदस्यता नहीं देते। वैसे तो हमें किसी की जाति से कोई मतलब ही नहीं है। हम किसी से उसकी जाति पूछते भी नहीं क्योंकि हम तो जाति के उन्मूलन के लिए काम कर रहे हैं’’।

लखनऊ में भाजपा द्वारा ऐसे पोस्टर लगाए जाने के बाद, जिनमें भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक्स का महिमामंडन करते हुए पाकिस्तान को रावण और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राम के रूप में दिखाया गया था,  टीपीडीके ने चैन्नई में रावण लीला का आयोजन करने का निर्णय लिया।

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टीपीडीके ने चैन्नई में 18 अक्टूबर को अपने उन कार्यकर्ताओं के सम्मान में मार्च निकाला, जिन्हें रावण लीला के आयोजन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था और छः दिन बाद रिहा किया गया था

टीपीडीके ने पहले प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर यह मांग की कि सरकार को दिल्ली के रामलीला मैदान में रामलीला के वार्षिक आयोजन पर रोक लगानी चाहिए। जब इस पत्र का उन्हें कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ तब उन्होंने चैन्नई में रावण लीला आयोजित करने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी। कार्यक्रम का आयोजन 12 अक्टूबर, 2016 को चैन्नई के ब्राह्मण-बहुल म्य्लापुर इलाके में स्थित संस्कृत कालेज के सामने किया गया। अधिकांश तमिल यह मानते हैं कि संस्कृत, उन पर ब्राह्मणवादियों द्वारा लादी गई है और इस सांस्कृतिक और धार्मिक वर्चस्ववाद के विरोध के प्रतीक के रूप में यह स्थान चुना गया। टीपीडीके द्वारा जारी वक्तव्य और छायाचित्रों से यह जाहिर होता है कि उस दिन निर्धारित समय पर वहां उपस्थित 200 पुलिसर्मियों को चकमा देते हुए, कार्यकर्ताओं ने राम, लक्ष्मण और सीता के पुतलों का दहन करने में सफलता हासिल की। ग्यारह कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और 15 दिनों के लिए जेल भेज दिया गया। चालीस अन्य को भी हिरासत में लिया गया परंतु उन्हें उसी दिन देर रात छोड़ दिया गया।

गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं को छः दिन जेल में बिताने के बाद, 18 अक्टूबर को रिहा किया गया। इन कार्यकर्ताओं का टीपीडीके द्वारा ज़ोरदार स्वागत किया गया और उन्हें एक जुलूस में ले जाया गया। जुलूस,  चैन्नई की व्हीएम स्ट्रीट पर स्थित पेरियार की मूर्ति पर समाप्त हुआ।

टीपीडीके कार्यकर्ताओं ने 29 अक्टूबर (नरक चतुर्दशी) के दिन अपने कार्यालय में एक कार्यक्रम आयोजित कर नरकासुर की शहादत को याद किया। वक्ताओं ने मौजूदा सांस्कृतिक मुद्दों पर अपने विचार रखे और उसके बाद ‘द्रविड़ विरूंधू’ (द्रविड़ सामुदायिक भोज) में भाग लिया, जिसमें बीफ भी परोसा गया।


महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए  ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशनवर्धा/दिल्‍ली। मोबाइल  : 9968527911ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ  जाएँ : महिषासुर : एक जननायकइस किताब का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से उपलब्ध है।

लेखक के बारे में

सिंथिया स्टीफेन

सिंथिया स्टीफेन स्वतंत्र लेखिका व विकास नीति विश्लेषक हैं। वे लिंग, निर्धनता व सामाजिक बहिष्कार से जुड़े मुद्दों पर काम करतीं हैं

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