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माखनलाल की खुरदरी दुनिया : एक ओबीसी पत्रकार की डायरी

नौवें दशक में पत्रकारिता के बदलते स्वरुप के प्रथम चरण में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के ओबीसी विद्यार्थी और अब ओबीसी पत्रकार बीरेंद्र यादव की डायरी दिलचस्प तरीके से संस्थानों के जातिवाद, क्षेत्रीयता और संघ की पत्रकारिता का चित्र खीच रहे हैं साथ ही निजी संघर्षों का चित्र भी

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की स्थापना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े युवाओं को पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित करने के लिए किया गया था। सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व वाली मध्य प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार ने इसकी स्थापना की थी। हालांकि संस्थान में पढ़ने वाले छात्र दूसरी धाराओं के भी काफी थे, लेकिन ज्यादा संख्या संघवालों की थी। हमारा 1995-96 का बैच था। उन दिनों स्नातक के बाद नामांकन होता था और एक साल की पढ़ाई होती थी।

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माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय

हमारे बैच में बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश और राजस्थान के छात्र थे। बिहार से तीन लोग थे। यूपी वाले भी 4-5 लोग थे। एक-दो राजस्थान के, जबकि शेष मध्यप्रदेश के ही थे। हमारे बैच में भी बड़ी संख्या में संघ पृष्ठभूमि के लोग थे। पटना के अरुण भगत विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे तो बस्ती (यूपी) के पवन त्रिपाठी संघ के स्वयंसेवक थे। लखनऊ से भोपाल पहुंचे पवन संघ की शाखा में भी जाते रहते थे। भिंड-मुरैना वाले तीन लोग वामपंथी थे। दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच हम अकेले व्यक्ति थे, जो जातीय आग्रहों के साथ खड़े थे। हालांकि जातीय आग्रहों से कोई मुक्त नहीं था, लेकिन उन लोगों ने जातीय आग्रहों पर विचारधारा का लेप लगा रखा था।

नामांकन के बाद विश्वविद्यालय में एक-दो दिन ही गुजरे होंगे। मैरिट लिस्ट में नाम सिर्फ ‘वीरेंद्र कुमार’ था। कैंटिन में वामपंथी साथी बैठे थे। हम भी नाश्ता करने पहुंचे। चर्चा में उन लोगों ने पूछा, ‘वीरेंद्र जी, आप किस जाति से आते हैं।’ हमने कहा- ‘यादव’। फिर इधर-उधर की चर्चा होने लगी।

अभी प्रारंभ में हॉस्टल आवंटन का दौर चल रहा था। बिहार से अरुणेश कुमार को भी हॉस्ट‍ल नहीं मिला था। इस मुद्दे पर अरुणेश ने चर्चा में कहा कि ‘हम मोटा-मोटा माला पहनते हैं। इसलिए सिंह सर हमको अहीर-गंवार समझ रहे हैं और हॉस्टल नहीं दे रहे हैं।’ अरुणेश की इस टिप्पणी के बाद हमने उससे पूछा कि ‘तुम किस जाति के हो?’ उसने कहा- ‘ब्राह्मण’। हमने कहा, ‘तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते हो, क्योंकि बिहार का हर ब्राह्मण नाम में सरनेम लगाता है। तुम्हांरे नाम में तो नहीं है।’ उसने हमको भरोसा दिलाने के लिए अपने पिताजी का नाम बताया,‍ जिनके नाम में सरनेम झा लगा था।

अरुणेश ने जाति पूछने के प्रकरण की चर्चा अरुण भगत से की। अरुण जी विद्यार्थी परिषद के थे। उन्होंने पूरे विश्वविद्यालय में यह प्रचार कर दिया कि वीरेंद्र जातिवादी है। एक सप्ताह के अंदर विश्वविद्यालय में स्थापित हो गया कि वीरेंद्र यादव घोर जातिवादी है। हमने इस धारणा को मजबूत करने के लिए ‘यादव ज्योति’ नामक मासिक पत्रिका विश्वविद्यालय के पते पर ही मंगाना शुरू किया।

इस बीच कई माह गुजर गए। लोग आपस में घुलमिल गए। एक दिन हम साधना पाठक के घर बैठे थे। वहां आरती पांडेय भी थी। दोनों क्लासमेट थीं। साधना यूनिवर्सिटी कैम्पस के आसपास रहती थीं। बातचीत के दौरान साधना ने पूछा कि ‘अरुण भगत जी किस जाति के हैं?’ हमने अनजान बनते हुए कहा कि ‘हमें नहीं मालूम।’ इसके बाद आरती ने कहा कि ‘भगत जी बनिया हैं। हमने (आरती ने) उनसे पूछा था, तो भगत जी ने खुद बताया था।’

अगले दिन भगत जी मिले। हमलोग साथ में किसी काम से जा रहे थे। हमने भगत जी से कहा- अरुणेश से हमने जाति पूछा था तो आपने पूरे कैम्पस में प्रचार कर दिया था कि वीरेंद्र जातिवादी है। लेकिन आरती पांडेय ने आपसे आपकी जाति पूछी थी तो आपने उसे जातिवादी क्यों नहीं घोषित किया। आपने दम था उसे जातिवादी कहने का। भगत जी के पास अब कहने के लिए कुछ नहीं बच गया था। मेरे जातिवादी आग्रहों का असर भगत जी पर भी पड़ा। स्नातक के बाद हम आर्थिक कारणों से पढ़ाई जारी नहीं रख सके। लेकिन भगत जी एमजे कर रहे थे। हम भोपाल में ही ‘विचार मीमांसा’ नामक पत्रिका में काम करने लगे थे। एक दिन हम कैम्पस में आए। किसी आदमी ने भगत से उनका नाम जानना चाहा। इस पर भगत जी ने कहा कि ‘मेरा नाम अरुण कुमार भगत है और हम वैश्य समाज से आते हैं।’

संबंधों का दायरा बढ़ा

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बीरेंद्र यादव

माखनलाल में वामपंथी लगभग निष्क्रिय थे, जबकि संघवाले काफी सक्रिय थे। उनका अपना नेटवर्क था। अरुण भगत साहित्यिक अभिरुचि के थे। वे पटना में भी साहित्यिक आयोजनों में सक्रिय रहते थे। भोपाल में भी सक्रियता बनी रही। यूपी के पवन त्रिपाठी का संघ गलियारे में अच्छा दखल था। वह स्वयं सेवक थे। वैचारिक स्तर पर संघ से कोई जुड़ाव नहीं होने के बावजूद व्यक्तिगत रूप से पवन के साथ हमारा संबंध अच्छा था। पवन के सा‍थ संघ कार्यालय समिधा और भाजपा मुख्यालय में आना-जाना बढ़ गया। पवन के साथ एक-दो बार संघ की शाखा में भी गया। ध्वज प्रणाम के साथ संघ के कई तकनीकी शब्दों की जानकारी भी हुई।

समिधा में संघ के कई बड़े पदाधिकारियों से मिलने का मौका भी मिला। केएस सुदर्शन, कुशाभाऊ ठाकरे से लेकर सुरेश सोनी तक से मिलने और चर्चा करने का मौका मिला। भाजपा मुख्यालय के प्रभारी प्रभात झा थे। वह प्रवासी बिहारी थे, जो ग्वालियर में बस गए थे। प्रभात जी के कारण भी भाजपा कार्यालय में आना-जाना बढ़ा। बाद में प्रभात झा राज्यसभा के सदस्य भी बने। विश्व संवाद केंद्र से जुड़े थे अनिल सौमित्र। वह भी बिहार के ही थे। वैचारिक रूप से जुड़ाव नहीं होने के बावजूद व्यक्तिगत रूप से संघ के लोगों के करीब आने का मौका मिलता रहा। तब भाजपा के वरिष्ठ नेता थे बाबूलाल गौर। यादव थे। इस कारण उनके साथ भी अच्छा परिचय हो गया था। गौर बाद में मुख्यमंत्री भी बने।

संघ से करीबी संबंध होने के कारण संघ नेटवर्क में हमारा दायरा बढ़ता जा रहा था। यह नेटवर्क बाद के दिनों में काफी काम आया। उन दिनों पवन के जिम्मे संघ से जुड़़े मीडिया का कुछ दायित्व मिला था। हम दोनों प्रभात झा के पास गए। पवन ने मीडिया प्रभारियों के जिम्मे कामों को लेकर प्रभात झा से चर्चा की। इस पर प्रभात जी ने कहा कि ‘मीडिया प्रभारी का काम है अखबारों में अधिकाधिक जगह घेरना। खबर निगेटिव हो या पॉजिटिव। पार्टी से जुड़ी खबरें होनी चाहिए।’ इस संबंध में उन्होंने कुछ उदाहरण भी दिए।

सामाजिक नेटवर्क भी मजबूत

हमारे बैच में गोरखपुर के विनय सिंह थे। वे विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे। विद्यार्थी परिषद के अन्य कार्यकर्ताओं की तुलना में गंभीर थे। हम उनको अन्य साथियों की तुलना में थोड़ा ज्यादा सम्मान देते थे। व्यवहार कुशल भी थे। संघ लॉबी हमें वैचारिक रूप से संघ से जोड़ने की कोशिश करता रहा। बैच में संघवालों की बड़ी तादाद थी। संघवालों के बीच हमारा दायरा बढ़ता जा रहा था। संघ और भाजपा के कार्यक्रमों में जाने लगा था। लेकिन संघ विचारधारा से कभी खुद को जोड़ नहीं पाया।

हमने सामाजिक नेटवर्क को भी मजबूत बनाए रखा। उन दिनों सुभाष यादव मध्य प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हुआ करते थे। बाबूलाल गौर भाजपा के वरीय नेता थे। शरद यादव खेमे के लक्ष्मी नारायण यादव भी वरिष्ठ नेता थे। इन नेताओं के साथ भी मिलने-जुलने का सिलासिला जारी रहा। सामाजिक संगठन में भी अपनी उपस्थिति बनाये रखा। इन नेताओं और संगठनों के साथ बैठकों में जाति, समाज, संगठन और सत्ता में हिस्सेदारी पर भी चर्चा होती थी।

14915533_10207359828852663_3544007262017722401_nमाखनलाल में छात्रों के साथ कई शिक्षक भी यूपी-बिहार के थे। उसमें एक थे डॉ श्रीकांत सिंह। वे यूपी के थे, लेकिन काफी दिनों तक भूरकुंडा (अब झारखंड) के एक कॉलेज में प्रोफेसर रह चुके थे। वे बिहारी छात्रों के साथ सहानुभूति रखते थे। शुरू में हमें हॉस्टल नहीं मिला था। इस परेशानी को लेकर हम श्रीकांत सिंह जी से मिले। वे हॉस्टोल इंचार्ज भी थे। उन्हों ने बड़ी आत्मीयता से कहा कि हम बिहारवालों के लिए हैं न। मुलाकात के एक-दो दिन बाद ही हास्टल मिल गया था। हम अपनी छपी खबर और फीचर की कटिंग भी लेते गए थे। हमने कटिंग उन्हें पढ़ने के लिए दिया। इसे पढ़ने के बाद उन्होंने सुझाव दिया कि तुम लालू यादव के फेवर में ज्यादा लिखते हो। इसमें थोड़ा सुधार करो। उनकी यह बात सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई कि हम जो कहना चाहते हैं, वह पाठकों तक कम्युनिकेट भी होता है। और एक पत्रकार की सफलता यही है कि जो लिखे, वह पाठकों को कम्युनिकेट भी कर सके।

बिहार के ही थे पुरुषोत्तम कुमार। सीनियर बैच में थे। वे एमजे कर रहे थे। एमजे वालों को हॉस्टल नहीं मिलता था। इसलिए उन्हें मकान तलाशना पड़ता था। पुरुषोत्तम जी मकान तलाशने के क्रम में कई घरों पर गए। जाति वहां भी आड़े आ गयी। इस घटना का जिक्र उन्होंने खुद किया। एक मकान मालिक से मुलाकात हुई। मालिक ने पूछा- आप किस जाति के हैं। उन्होंने कहा- भूमिहार। मालिक ने पूछा- भूमिहार कौन सी जाति होती है। उन्होंने बताया कि बिहार में भूमिहार ब्राह्मणों की समकक्ष जाति है। लेकिन मालिक संतुष्ट नहीं हुआ और मकान देने में अपनी असमर्थता जता दी।(जारी)

पांत से उठकर अ-पांत’ भोज

माखनलाल का कैम्पस त्रिलंगा में था। दो मंजिला मकान में कार्यालय था। वहां के लिए स्टेशन से बस की सुविधा थी। भोपाल में बस की सुविधा बहुत बढि़या थी और सीट से ज्यादा सवारी नहीं चढ़ाया जाता था। कार्यालय और हास्टल दोनों एक ही बिल्डिंग में था। नीचे लड़कों का हास्टल था और ऊपर लड़कियों का हास्टल। ऊपर की मंजिल में ही कुलपति और रजिस्ट्रार  का कार्यालय था। मेस की भी बढि़या व्यवस्था थी। उन दिनों मुख्यंत: पत्रकारिता, जनसंपर्क और पुस्तकालय विज्ञान की पढ़ाई ही होती थी।

पत्रकारिता के विभागाध्यक्ष कमल दीक्षित थे। डॉ श्रीकांत सिंह भी पत्रकारिता ही पढ़ाते थे। कई विजिटिंग प्रोफेसर भी थे। पीआईबी के अनिल सक्सेना भी पढ़ाने आते थे। सीनियर छात्र भी क्लास लेने आते थे। पढ़ाई का अच्छा माहौल था। माखनलाल में रहते हुए हमने काफी पढ़ाई की,लेकिन अधिकांश पुस्तकें कोर्स की हुआ करती थीं। साहित्य में हमारी कोई रुचि नहीं है और किसी विचारधारा को लेकर आकर्षण भी नहीं था। पत्रकारिता की किताबें ही पसंद की थीं। कुछ राजनीतिक पुस्तकें भी पढ़ीं। कोर्स के दौरान अखबारों में आने-जाने का सिलसिला शुरू हो गया था। कई सीनियर अखबारों में काम करते थे। इस कारण अखबारों के कार्यालय में जुड़ाव हो गया था। धीरे-धीरे लिखने का क्रम भी शुरू हुआ। हमने अपना पहला बैंक खाता भी अखबार से मिले चेक भुनवाने के लिए ही खुलवाया था।

माखनलाल में ही पहली बार एसी और बुफे सिस्टम से पाला पड़ा था। एक कार्यक्रम में शरीक होने के लिए क्लास के सभी छात्र प्रशासनिक अकादमी के सभागार में गए थे। पहली बार एसी हॉल में बैठने का मौका मिला था। हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह है क्या । बातचीत में पता चला कि यह एसी है और इससे कमरा ठंडा होता है। उसी दिन पहली बार बुफे सिस्टम के बारे में भी जानकारी हुई। पांत से उठकर ‘अ-पांत’ भोज। अपनी-अपनी थाली और अपना-अपना टेस्ट। अन्य लोगों के साथ हम भी लाइन में खड़े हो गए। लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। हम तो अपने आगे वाले की नकल कर रहे थे। वे थाली लेकर आगे बढ़े। हम भी थाली लेकर आगे बढ़े। बायें हाथ में थाली पकड़ कर दायें हाथ से खाना। बड़ा असहज लग रहा था हमें। दुबारा खाना उठाने में हाथ जूठा होने का संकोच हो रहा था। लेकिन थोड़ी झिझक के बाद नये माहौल को आत्मसात करना ज्यादा मुश्किल नहीं हुआ।

माखनलाल में रहते हुए वरिष्ठ पत्रकार से लेकर ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों को सुनने का मौका भी मिला। समय-समय पर वरिष्ठ पत्रकार आकर अपने अनुभव के बारे में बताते थे तो साहित्यकारों की खेप भी आती थी। पत्रकारों को सुनने में रुचि थी, लेकिन साहित्यकारों को लेकर कोई उत्साह नहीं रहता था। माखनलाल में पढ़ते हुए कोर्इ छात्र किसी अखबार में काम करे, यह विश्वविद्यालय प्रशासन नहीं चाहता था। इसकी वजह यह थी कि अखबारों में व्याप्त कुंठा, हताशा और पैसे को लेकर निराशा से छात्रों को दूर रखा जाए, अन्यथा अखबारी पी‍ड़ा के शिकार वे छात्र जीवन में ही हो सकते हैं।

बाबूजी के भरोसे को कायम रखा

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पटना सचिवालय के पास बीरेंद यादव अपना समाचार पत्र निःशुल्क वितरित करते हुए

अखबारों में फीचर लिखने का काम हमने माखनलाल में जाने के पूर्व ही शुरू कर दिया था। माखनलाल में खबरों पर बहस शुरू हुई। खबर क्या है, इंट्रो क्या होता है, बॉडी क्या होती है। कई सवाल इससे जुड़े हुए। लेकिन सबसे बड़ा सवाल था खबरों का एंगल। खबरों के एंगल में ही पत्रकार दिखता है, बाकी तो सिर्फ घटना होती है। इसके लिए टास्क मिला कि एक ही खबर को अलग-अलग अखबारों में पढ़ो और उसकी तुलना करो। कोई खबर क्यों अच्छी है या कोई खबर क्यों कमजोर है। कई बार खबरों को लेकर सर्वे भी कराए गए।

हमें खबरों के बजाय संपादकीय पेज पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता था। आमतौर पर अखबारों के बीच वाले पेज पर संपादकीय होता था। हर अखबार की संपादकीय नीति के अनुसार संपादकीय पन्ने की सामग्री। संपादक के नाम पत्र लिखना भी अच्छा लगता था। इसके साथ फीचर लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। दैनिक नई दुनिया में हमारे लिए ज्या‍दा स्कोप था। उसमें ही ज्यादा लिखता था। विश्वविद्यालय की ओर से एक बार टूर का मौका मिला। गुजरात होते हुए माउंट आबू तक। इस दौरान गुजरात के कई पर्यटन स्थलों पर भी गए। उसमें अमूल का वर्कशॉप भी शामिल था। गांधीनगर के प्रसिद्ध मंदिर में भी गए। करीब सप्ताह भरके इस टूर में बहुत देखने, सीखने और समझने का मौका मिला।

पढ़ाई के दौरान प्रैक्टिकल में हम लोगों ने हाथ से लिखकर अखबार निकलने की कवायद भी सप्ताह भर की थी। कई ग्रुपों में बंटकर अखबार निकलता था। हर ग्रुप का अलग-अगल संपादक। संपादक भी रोज बदल जाते थे। हर अंक के अगले दिन खबर के चयन, प्रस्तुति से लेकर विज्ञापन तक चर्चा होती थी। उन्हीं दिनों बताया गया कि अखबार बिकता है खबरों के लिए, लेकिन चलता और छपता है विज्ञापनों से। इसी कारण अखबार की डमी में विज्ञापन का स्थान तय कर दिया जाता है। शेष जगह पर खबर छापते रहिए।

माखनलाल के एक वर्ष की अवधि में हमें कई चीजों को देखने और समझने का मौका मिला। विचारधारा से लेकर विचारहीनता तक। राजनीति से लेकर समाज नीति तक। पहली बार अलग-अलग प्रांतों के लोगों से साथ रूबरू होने का मौका मिला। इन सबके बीच हमने एक समन्वय बनाए रखने की कोशिश की।

अर्थाभाव का सामना हमें लगातार करना पड़ रहा था। इस कारण फिजुलखर्ची की आदत नहीं पड़ी। घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण हम एमजे नहीं कर पाए। बीजे (स्‍नातक पत्रकारिता) के बाद ही काम में जुट गए। जब हमारा सेलेक्शन माखनलाल के लिए हुआ था तो बाबूजी बहुत चिंतित थे। भोपाल की पढ़ाई का खर्चा कहां से आएगा। हमने बाबूजी को भरोसा दिलाया कि आप सिर्फ एक साल पढ़ा दीजिए, फिर कभी आपसे पैसा नहीं मांगेंगे। भईया तैयार हुए कि हम तुमको पैसा देंगे, जाओ नाम लिखवा लो। नाम लिखवाया। एक साल पढ़ाई पूरी करके वापस घर लौट आए। इस बीच रिजल्ट आ गया।

हम अब नौकरी की तलाश में भोपाल जा रहे थे। बाबूजी से फिर पैसा मांगना पड़ा। उन्होंने करीब हजार रुपये दिए, यह कहते हुए कि इतना तो डूबा ही दिए हो, इसे भी डूबा आओ। भोपाल पहुंचने के बाद हम मासिक पत्रिका ‘विचार मीमांसा’ के संपादक से मिले। उन्होंने नौकरी दे दी। इसके बाद पत्रकारिता की अनवरत यात्रा जारी है। इन वर्षों में पत्रकारिता की चुनौती से जुझते रहे। जैसे दूसरे अन्य पत्रकार जुझते हैं। लेकिन हमें इस बात संतोष रहता है कि बाबूजी को दिए भरोसे पर हम कायम रहे। डिग्री लेने के बाद जब भोपाल वापस गया, उसके बाद से बाबूजी से पैसा मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। खैर, अब तो बाबूजी भी नहीं रहे।


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लेखक के बारे में

वीरेंद्र यादव

फारवर्ड प्रेस, हिंदुस्‍तान, प्रभात खबर समेत कई दैनिक पत्रों में जिम्मेवार पदों पर काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र यादव इन दिनों अपना एक साप्ताहिक अखबार 'वीरेंद्र यादव न्यूज़' प्रकाशित करते हैं, जो पटना के राजनीतिक गलियारों में खासा चर्चित है

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