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नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था : सामंती गावों की ओर वापसी

नगदी-विहीन अर्थव्यवस्था का शोशा बहुजनों को उन गावों, ज़मींदारों और साहूकारों की याद दिला रहा है, जिन्हें वे पीछे छोड़ आये हैं- उस दौर की जब उन्हें उनके श्रम का भुगतान हमेशा वस्तुओं में किया जाता था, नकदी में नहीं। उन्हें उनकी मेहनत का वाजिब मुआवजा कभी नहीं मिलता था क्योंकि उसका हिसाब लगाने का कोई तरीका ही नहीं था

इन दिनों नोटबंदी की चर्चा चारो ओर हो रही है शहरों से लेकर गावों तक। परन्तु हम तो सिर्फ मीडिया की बातें सुन रहे है, जो दूर-दराज़ के गावों में जाकर यह पता लगाने की कोशिश ही नहीं कर रहा है कि वहां के लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है। यह दिलचस्प है कि सभी विद्वतजन – चाहे उनकी विचारधारा का रंग भगवा हो या लाल – एकमत हैं कि नोटबंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था और देश के आमजनों को अकल्पनीय नुकसान हुआ है। उनके तर्क आर्थिक वर्गों, राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताओं और बैंकिंग व्यवस्था के कायाकल्प से जुड़े मुद्दों पर केन्द्रित हैं। इस बीच, नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था की बात भी जोर-शोर से की जा रही है। यह, दरअसल, एक पर्दा है, जिसके पीछे सरकार अपनी नीतिगत नाकामियों को छुपाने का प्रयास कर रही है।

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यह महत्वपूर्ण है कि नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था के मुद्दे को जाति के परिप्रेक्ष्य से देखा ही नहीं जा रहा है। तथ्य तो यह है कि नोटबंदी पर बहस-मुबाहिसों से जाति सिरे से गायब है। क्या नोटबंदी या नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था से जाति समाप्त हो जाएगी? जाति का प्रभाव सभी सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों में देखा जा सकता है। नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था की चर्चा ने जाति को फिर महत्वपूर्ण बना दिया है। कैसे? नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था के पौरोकार कहते हैं कि नोटबंदी से दूरस्थ गावों में रहने वालों को थोड़ी-बहुत परेशानी हो सकती है, परन्तु वस्तु-विनिमय प्रणाली के चलते उन्हें उनकी मजदूरी का भुगतान जारी रहेगा। शायद इन लोगों का ख्याल है कि रोज़ कमाने-खाने वाला श्रमिक वर्ग शहरों में है ही नहीं। वे यह कहते भी नहीं थक रहे हैं कि शहरों में नोटबंदी से केवल भ्रष्ट लोग परेशान हो रहे हैं। शहरों में बैंकों और एटीएमों की कमी नहीं है और इसलिए शहरी गरीब, नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था से कोई ख़ास प्रभावित नहीं होगा। वे बार-बार यह दोहरा रहे हैं कि काले धन के विरुद्ध युद्ध से नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था मज़बूत होगी। उनका यह भी मानना है कि नोटबंदी से केवल रईस प्रभावित होंगें और बसपा, सपा, आरजेडी और जदयू जैसे क्षेत्रीय दलों की हालत पतली हो जाएगी।

ये विचार कुछ उच्च-शिक्षित लोगों के है। ये वे लोग हैं जो कीमती स्मार्ट फ़ोनों का इस्तेमाल करते हैं और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं।

उनके तर्कों से पता चलता है कि एक विशिष्ट मानसिकता, जो सुषुप्तावस्था में थी, नोटबंदी के कारण बाहर आ गयी है। इस मानसिकता वाले अधिकांश लोग उच्च जातियों के हैं और आरआरएस-भाजपा की ताकत में वृद्धि के साथ, उच्च-मध्यम वर्गों के समर्थक भी इनके साथ हो लिए हैं।

नोटबंदी और नकदी-विहीन अर्थव्यवस्था से अंततः कमज़ोर, और कमज़ोर होंगे और धनी व शक्तिशाली, और धनी व और शक्तिशाली बनेगें। और यही मोदी सरकार के समर्थक चाहते हैं। वे चाहते हैं कि ऊंची जातियां फलें-फूलें और नीची जातियों की आर्थिक बर्बादी हो।

नकद-विहीनता का इतिहास

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दुनिया कोई अर्थव्यवस्था नकदी-विहीन नहीं है। मैं नकदी-विहीनता की अवधारणा से ही सहमत नहीं हूँ। अभी हाल तक, हमारे देश में जानबूझकर और एक रणनीति के तहत, ग्रामीण भूमिहीनों को नकदी से वंचित रखा जाता था। उन्हें उनके श्रम का भुगतान नगद में नहीं किया जाता था। उन्हें उनकी मेहनत का वाजिब मुआवजा कभी नहीं मिलता था क्योंकि उसका हिसाब लगाने का कोई तरीका ही नहीं था। यह पूरी दुनिया की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सच रहा है। इसके कारण ही अतिशेष का सृजन होता था, जो सामंती अर्थव्यवस्था का आधार था। कुल मिलाकर, नकदी नहीं बल्कि उसकी अनुपलब्धता से अन्याय और असमानता उपजी। नगदी-विहीनता ने गरीबों को और गरीब और अमीरों को और अमीर बनाया।

जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यहाँ नगदी-विहीनता के कारण शोषण का शिकार होने वालों में से अधिकांश नीची जातियों के थे। जब भी वे साहूकारों द्वारा वसूले जाने वाले भारी-भरकम ब्याज को नहीं चुका पाते थे, उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया जाता है। साहूकारी के चलते, नगदी कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित हो गयी थी, जिनमें से अधिकांश ज़मींदार थे। अगर इस सम्बन्ध में कोई मानवशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हो, तो मेरा यह पक्का विश्वास है कि हमें यह पता चलेगा कि उनमें से अधिकांश ऊंची जातियों के थे। उनका नीची जातियों के गरीबों पर पूर्ण नियंत्रण था। यह अर्थव्यवस्था अन्याय, असमानता और भूमिहीनता की जननी तो थी ही, इसके कारण ग्रामीण निर्धन रोज़गार की तलाश में पलायन करने पर भी मजबूर हुए। वाजिब मजदूरी से वंचित नीची जातियों के ये भूमिहीन – जिनके श्रम का कोई सम्मान न था – नकदी की तलाश में शहरों में पलायन कर गए। और यही नकदी अब मोदी सरकार द्वारा लूटी जा रही है।

चूँकि ऊंची जातियों के पास नीची जातियों के विरोध में कहने को कुछ नहीं था, इसलिए उनने नीची जातियों को अपराधी व भ्रष्ट बताना शुरू कर दिया। यह पूरे देश में हुआ। अगर हम नोटबंदी का समर्थन करने वालों की जाति और उनके वर्ग को ध्यान से देखें और ‘नकदी-रहित अर्थव्यवस्था’ के समर्थन में उनके बेसिरपैर के तर्कों को सुनें, तो हमें समझ में आ जायेगा कि यह, दरअसल, गरीबों – जिनमें से अधिकांश नीची जातियों के हैं – को लूटने का बहाना है ताकि उन्हें आर्थिक दृष्टि से अस्थिर कर उन पर फिर से शासन स्थापित किया जा सके। उद्देश्य यह है कि उनके आत्मसम्मान और गरिमा को कुचल दिया जाये ताकि वे अपने संरक्षकों – जो कि ऊंची जातियों के हैं – की प्रशंसा के गीत गाने लगें।


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लेखक के बारे में

धर्मराज कुमार

धर्मराज कुमार, दिल्ली स्थित जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में पीएचडी शोधकर्ता है।

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