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संदेह के घेरे में गीता

वस्तुत: गीता एक बहुजन नायक के कंधे पर बन्दूक रख कर चलायी गए द्विजवादी गोली है। गीता और कुछ नहीं मनुस्मृति का प्रतिरूप है। फिर गीता के उस बहुजन नायक और प्रवक्ता की हत्या एक बहुजन बहेलिए के ही तीर से कराई जाती है

rerwse-300x228”श्रीमद्भगवद्गीता” या ”गीता” महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। इसमें 18 अध्याय और 700 से अधिक श्लोक हैं। गीता की पृष्ठभूमि कुरूक्षेत्र में लड़ा गया महाभारत का युद्ध है। यह युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच कुरू साम्राज्य के सिंहासन के लिए लड़ा गया था। जब उभय पक्ष की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में आकर खड़ी होती हैं और पांडव वीर अर्जुन स्वजनों के भावी संहार से विचलित हो जाते हैं, तब कृष्ण उन्हें कर्तव्य-पालन का उपदेश देते हैं। कृष्ण द्वारा दिया गया यही उपदेश ”गीता” है। हालाँकि यह उपदेश महाभारत के पहले दिन ही दिया जाना चाहिए था। आश्चर्य कि ”गीता” महाभारत के भीष्म पर्व से जुड़ी हुई है, जबकि भीष्म पर्व युद्ध के दसवें दिन प्रारंभ होता है। शायद इसीलिए इतिहासविद् डीडी कोसांबी ने लिखा है कि गीता को तो महाभारत में बाद में जोड़ दिया गया हैं।

गीता का  प्राचीनतम उल्लेख                              प्राचीन काल में आदि शंकराचार्य से पूर्व गीता का उल्लेख बहुत कम या यों कहें कि नहीं के बराबर मिलता है। वाणभट्ट की ”कादंबरी” को छोड़कर प्राचीन काल की किसी भी पुस्तक में ”गीता” का उल्लेख नहीं है। यदि कालिदास की रचनाओं में ”गीता” का प्रयोग है, तो वह अन्य अर्थ में है और उसका संबंध कृष्ण की गीता से नहीं है। भारत के इतिहास में 7वीं शती का चीनी यात्री ह्वेनसांग वह पहला व्यक्ति है, जिसने गीता की ओर संकेत करते हुए कहा है कि वह किसी ब्राह्मण का जाली ग्रंथ है। यदि गीता प्राचीन है तो 9वीं शती से पहले भी इस पर कई भाष्य लिखे गए होते। आश्चर्य कि गीता जैसे लोकप्रिय ग्रंथ पर पहला भाष्य 9वीं शती में शंंकराचार्य द्वारा लिखा जाता है।

संदेह के घेरे में गीता का रचयिता
sold-300x193वस्तुत: गीता का छद्म रचयिता ब्राह्मण-धर्म का प्रचारक है। वह शंकराचार्य में विश्वास करता है और मनुस्मृति की भाँति वर्ण-व्यवस्था को स्थापित भी करता है। यदि गीता के रचयिता कृष्ण होते तो वे भला अपने को शूद्र वर्ण में क्यों रखते? वे तो वर्ण-व्यवस्था के निर्माता हैं। वर्ण-व्यवस्था का निर्माता अपने को समाज की सर्वाधिक निचली श्रेणी में रखने की जोखिम क्यों उठाएगा, जबकि कहा जाता है कि साँवले रंग के कृष्ण यदुओं के नायक हैं।
गीता के रचयिता ने अपना वास्तविक नाम छिपा लिया है। उसे अपनी ख्याति की तनिक भी चिंता नहीं है। उसे तो अपने धर्म-प्रचार की चिंता है। धर्म-प्रचार का उन्माद इतना प्रबल होता है कि ऐसे अनेक रचयिता मिल जाएंगे, जो अपने ग्रंथ को प्राचीनता और प्रामाणिकता देने के लिए उसे किसी ख्यात और प्राचीन लेखक की कृति बता देते हैं।

आपने ‘आनंद रामायण’ का नाम सुना होगा। इसके रचयिता ने ब्राह्मण-धर्म के प्रचार में अपने को गुमनाम रखते हुए इतने श्रमसाध्य लेखन का श्रेय महर्षि वाल्मीकि को दे दिया है। गीता का रचयिता ने भी ब्राह्मण-धर्म के प्रचार की खातिर अपने को गुमनाम रखते हुए इतने श्रमसाध्य लेखन का श्रेय वेदव्यास को दे दिया है। गीता का यह गुमनाम रचयिता कृष्ण का इस्तेमाल ब्राह्मण-धर्म के प्रचार के लिए करता है। रीतिकाल के कवि भी अपनी अश्लील भावनाओं को प्रकट करने के लिए कृष्ण का इस्तेमाल करते हैं। उसी तरह गीता का रचयिता भी ब्राह्मण-धर्म के प्रचार हेतु कृष्ण का सहारा लेता है। गीता के कृष्ण उस छद्म रचयिता के लिए सिर्फ सुविधा मात्र हैं, माध्यम हैं, बहाना हैं।

गीता का शिल्प विधान
हम और आप किसी काव्यग्रंथ अथवा कथा-साहित्य की प्रस्तुति के ढंग को ही सत्य मान बैठे हैं। कहने का ढंग तो कवि-कौशल है, शिल्प विधान है। वह प्रस्तुति का तरीका है। कथावस्तु की बुनावट है-टेक्नीक। वह सत्य नहीं, सिर्फ सत्याभास है। गीता के रचयिता ने कवि-कौशल का प्रयोग करते हुए अपनी ब्राह्मणवादी वाणी को कृष्ण के मुँह में डाल दिया है और फिर महाभारत के साथ सावधानीपूर्वक जोड़कर उसके लेखक का नाम वेदव्यास बता दिया है।

manabasia_oil_on_canvas-261x300वेदव्यास तो वेदों के संपादक भी हैं। वेदों की प्रस्तुति में भी कवि-कौशल का प्रयोग किया गया है। वेदों के लेखक ने अपनी रचनाओं के निर्माण का श्रेय ईश्वर को दे दिया है, जैसे गीता के रचयिता ने कृष्ण को। इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर वेदों के लेखक हैं। यह तो वेद-लेखकों की वेद-प्रस्तुति का तरीका है-टेक्नीक। बौद्ध साहित्य में ‘जातक-कथाओं का प्रस्तुति-कौशल अलग है। जातक-लेखक महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों को अपनी बात प्रस्तुत करने का माध्यम बनाता है। गीता का लेखक सीधे-सीधे कृष्ण के मुख में ब्राह्मणवादी उपदेशपरक वचनों को प्रक्षेपित करता है। तुलसीदास ने भी रामकथा की प्रस्तुति चार वक्ताओं के माध्यम से की है जबकि रामकथा के मूल वक्ता शिवजी हैं। तात्पर्य यह कि वेद लेखकों ने ईश्वर के मुख में, वेदव्यास ने कृष्ण के मुख में और तुलसीदास ने शिव के मुख में अपनी विषयवस्तु को प्रक्षेपित कर अपनी रचनाओं की प्रस्तुति की है। ऐसी प्रस्तुति सत्य नहीं, सत्याभास है, कवि कौशल है।

आधुनिक युग के एक उपन्यास ”शेखर: एक जीवनी” को बतौर उदाहरण आप ले सकते हैं। अज्ञेय के शेखर को अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बगावत का झंडा उठाने के जुर्म में फाँसी होती है। किंतु भारत के किसी भी जेल के रिकार्ड में शेखर नामक किसी ऐसे क्रांतिकारी को फाँसी पर चढ़ाए जाने का विवरण प्राप्त नहीं होता है, जैसा कि अज्ञेय ने वर्णन किया है। शेेखर तो अज्ञेय की कल्पना की उपज है। वह सत्य नहीं है। अज्ञेय ने तो पाठकों को सत्याभास कराने के लिए उपन्यास का नाम ”शेखर: एक जीवनी” रख दिया है। कारण कि ”जीवनी” नाम देने से उपन्यास को प्रामाणिक होने का भ्रम पैदा किया जा सकता है। ऐसे ही गीता के लेखक ने भी अपनी ब्राह्मणवादी वाणी को कृष्ण के मुँह में कवि-कौशल द्वारा डालकर उसके प्रामाणिक होने का भ्रम पैदा किया है।

कृष्ण की भाषा
कहा गया है कि वेद ईश्वर की वाणी है और गीता कृष्ण की। ईश्वर वैदिक संस्कृत बोलता है क्या? कृष्ण सधी हुई संस्कृत बोलते थे क्या? कृष्ण तो प्राचीन देवता हैं। भला वे क्लासिकल संस्कृत क्यों बोलेंगे? यदि उन्हें संस्कृत में बोलना था तो वे वैदिक संस्कृत बोलते। कवि की भाषा और वास्तविक पात्र की भाषा एक हो, ऐसा जरूरी नहीं है। सूरदास के कृष्ण ब्रजभाषा बोलते हैं। ऐसा नहीं है कि कृष्ण ब्रजभाषा बोलते थे। वह तो कवि की भाषा है। गीता की भाषा क्लासिकल संस्कृत है, गुप्तकाल के कवियों की भाषा। इसीलिए डीडी कोसांबी ने लिखा है कि गीता की संस्कृत ईसा की तीसरी सदी के आसपास की है। गीता की संस्कृत सधी हुई और अत्यंत प्रभावशाली है। ऐसी भाषा को कृष्ण के युग द्वापर तक पीछे नहीं खींची जा सकती है। गीता की भाषा कवि की भाषा है। वह कृष्ण की भाषा नहीं है। इसलिए गीता की वाणी को सीधे-सीधे कृष्ण की वाणी मानना निरर्थक है। यदि कृष्ण अनार्य देवता थे, तब तो वे कोई अनार्य भाषा बोलते रहे होंगे।

कृष्ण का इस्तेमाल
dgdgd-300x115वस्तुत: गीता एक बहुजन नायक के कंधे पर बन्दूक रख कर चलायी गए द्विजवादी गोली है। गीता और कुछ नहीं मनुस्मृति का प्रतिरूप है। फिर गीता के उस बहुजन नायक और प्रवक्ता की हत्या एक बहुजन बहेलिए के ही तीर से कराई जाती है। पहले इस्तेमाल और फिर काम तमाम। ऐसे होते हैं गीतावादी। गीतावादियों की दोहरी मार। साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।

गीता की जाँच की तकनीक
आज जबकि पुरावषेशों में फ्लोरिन की मात्रा और काठ कोयले और हड्डी में रेडियोधर्मिता की मात्रा का मापन भूचुंबकीय अवलोकन और वृक्ष तैथिकी पर आधारित है, तब सतयुग या द्वापर जैसे भोथरे कालमापक से किसी पौराणिक नायक या वस्तु की उम्र तय करना निरर्थक है। वेदों की रचना सृष्टि के आरंभ में हुई है या देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 1,31,521 दिनों का होता है या गीता की उम्र पाँच हजार साल से अधिक है, काल्पनिक है। पुस्तकों की उम्र तय करने के लिए भी बेहतर तकनीकें खोजी जा चुकी हैं। भाषा-कालक्रम विज्ञान का सिद्धांत है कि सामान्यत: एक हजार सालों में कोई भी भाषा अपने शब्दकोश के सौ में से 81 शब्द रख पाती है। शेष 19 शब्द लुप्त हो जाते हैं। इस तकनीक से यदि ”गीता” की जाँच करें तो उसकी उम्र पता चल जाएगी।

(इस लेख के साथ प्रकाशित पेंटिंग्स डॉ लाल रत्नाकर ने बनाई है।)

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्रप्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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