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शाहू : फुले और आंबेडकर के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी

अपने 28 वर्ष के शासनकाल में, शाहू ने ऐसे कई क्रांतिकारी सामाजिक और कानूनी सुधार किए, जिनसे हाशिए के समुदायों और वंचितों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। उन्होंने, फुले से जो मशाल ली थी, वह आंबेडकर को सौंप दी

शाहू पर किनके और कौनसे प्रभाव थे? जब उन्होंने सत्ता संभाली, तब ज़मीनी हालात कैसे थे? उनके सुधारों के पीछे कौन सी प्रेरक शक्तियां थीं? तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उन पर किस तरह की सीमाएं थीं? यहां हम कोल्हापुर के क्रांतिकारी शासक शाहू को समझने का विनम्र प्रयास कर रहे हैं।

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11 साल की उम्र में शाहू जी

सन 1884 में जब शाहू को विधिवत गोद लेकर गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, तब वे केवल दस वर्ष के थे। उनका राजतिलक 1894 में हुआ। जब उनकी आयु 20 वर्ष की थी। इन दस वर्षों में उनकी शिक्षा-दीक्षा एक सहृदय, न्यायप्रिय और उदारवादी अंग्रेज़ स्टुअर्ट फ्रेजर की देखभाल में हुई। राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान और भाषाओं के अतिरिक्त, शाहू को जो किताबें पढ़वाई गईं उनमें से एक थी महात्मा फुले के मित्र और विश्वासपात्र मामा परमानंद की पुस्तक ‘लैटर्स टू एन इंडियन राजा’। इस पुस्तक में प्रकाशित पत्रों में शिवाजी को किसानों का नेता और अकबर को एक न्यायप्रिय शासक बताया गया था। ऐसा माना जाता है कि इस पुस्तक का युवा शाहू पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें तीन बार पूरे देश के भ्रमण पर भी ले जाया गया। कोल्हापुर के होने वाले राजा ने अपने राज्य का भी विस्तृत दौरा किया। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने किसानों, चरवाहों और अन्य सामान्य लोगों के साथ चर्चाएं कीं। स्वभाव से ही संवेदनशील और दयालु होने के कारण, शाहू पर आमजनों की घोर गरीबी, उनके जातिगत दमन और शोषण का गहरा प्रभाव पड़ा। इन यात्राओं ने उन्हें आम लोगों की वंचना से परिचित करवाया और उनकी सोच के क्षितिज को विस्तार दिया।

19वीं सदी के महाराष्ट्र में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। केवल वे ही उस आधुनिक पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक ढांचे से लाभ उठाने में सक्षम थे, जिन्हें अंग्रेज़ उस इलाके में शनैः-शनैः स्थापित कर रहे थे। प्रशासन और शिक्षा व्यवस्था पर ब्राह्मणों का कब्ज़ा था और वे अन्य सभी को इनसे बाहर रखते थे। कुटिल ब्राह्मण अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ऐसा दिखाते थे कि मानो समाज केवल दो हिस्सों में बंटा है-ऊँची जाति के ब्राह्मण और नीची जाति के शूद्र। जाति के पिरामिड के शीर्ष पर से एक के बाद एक जातियां नीची ढकेली जा रही थीं। इनमें राजघरानों के सदस्य शामिल थे, जो जातिगत पदक्रम में ब्राह्मणों के नीचे थे।

जब शाहू ने 1894 में कोल्हापुर की सत्ता संभाली तब उन्होंने पाया कि उनके प्रशासन पर ब्राह्मणों का एकाधिकार है। उन्हें यह महसूस हुआ कि यह एकाधिकार, ब्रिटिश राज से भी ज्यादा खतरनाक है। उस समय तक महात्मा फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज की गतिविधियां और प्रभाव बहुत क्षीण हो गए थे। ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई ज़मीनी आंदोलन नहीं था। शाहू की शक्तियां भी सीमित थीं। वे एक तरह से अंग्रेज़ों के अधीन जागीरदार थे। वे अंग्रेज़ों को नाराज़ नहीं कर सकते थे, क्योंकि

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स्टुअर्ट मिटफोर्ड फ्रेजर (1920)

ऐसा होने पर यह खतरा था कि अंग्रेज़ उनके राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना लेते। उन्हें काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं थी।

राजकाज संभालने के कुछ ही दिनों बाद उनका ब्राह्मणों से ‘वेदोक्त’ मुद्दे पर टकराव हो गया। सन 1889 में जब वे स्नान कर रहे थे तब उन्हें पता चला कि ब्राह्मण राजपुरोहित, जिसका यह कर्तव्य था कि वह राजा के लिए वैदिक कर्मकांड करे, उन्हें धोखा दे रहा था और वैसे कर्मकांड कर रहा था, जिन्हें पूर्णोक्त कहा जाता है और जो शूद्रों के लिए होते हैं। इससे शाहू बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने ब्राह्मणों के जातिगत अहंकार के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया। यहीं से उनकी वह लंबी यात्रा शुरू हुई, जिसके दौरान उन्होंने दूरगामी सामाजिक और कानूनी सुधार किए, जिनसे ब्राह्मणों का पारंपरिक वर्चस्व समाप्त हो सके और पिछड़े वर्गों के लोग उच्च पदों पर आसीन हो सकें।

इस घटना के तुरंत बाद उन्होंने अपना क्रांतिकारी घोषणापत्र जारी किया, जिसके अंतर्गत शासकीय नौकरियों में दमित वर्गों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। प्रारंभ में वे भले ही अपने व्यक्तिगत जातिगत अपमान से प्रेरित रहे हों, परंतु बाद में वे जाति के कारण दमन और शोषण का शिकार हो रहे सभी लोगों के प्रति संवेदनशील बन गए। इन वर्गों के प्रति उनके मन में गहरी संवेदना और सहानुभूति थी। परंतु उन्होंने केवल इन वर्गों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रूख अपनाने तक स्वयं को सीमित नहीं रखा। उन्होंने कई ऐसे मौलिक कानून बनाए जिससे पदक्रम-आधारित जातिगत ढांचा उलट सके और ब्राह्मणों को उनकी उच्च स्थिति से अपदस्थ किया जा सके। इस तरह उन्होंने इतिहास रचा और स्वयं को देश का एक अनूठा शासक सिद्ध किया।

फुले से समानताएं और विभिन्नताएं

शाहूजी ने जो कुछ किया, उस पर फुले की छाप स्पष्ट दिखलाई देती है। फुले ने ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना की थी, जो महिलाओं, शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम और अज्ञानी बनाए रखना चाहती थी। फुले ने इन वर्गों का आह्वान किया कि वे ब्राह्मण शेठजी/भट्टजी – पुरोहित, सामंत और साहूकार – के गठबंधन की चालबाज़ियों का विरोध करें। इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी था कि दमित वर्गों को शिक्षित किया जाए। फुले को आशा थी कि शिक्षा और एकजुटता के सहारे दमित वर्ग ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के ढांचे का ध्वंस कर सकेंगे।

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अपने राज्यारोहण के वर्ष (1894) के आस-पास शाहू जी

शाहू ने फुले के शिक्षा के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण करने का प्रयास किया। उन्होंने अछूत प्रथा को उखाड़ फेंकने की कोशिश भी की और ब्राह्मण पुरोहितों के चंगुल से अपने प्रजाजनों को मुक्त कराने की दिशा में कदम उठाए। उन्होंने ब्राह्मण नौकरशाही की रीढ़ तोड़ने का प्रयास भी किया। परंतु जैसा कि पहले बताया जा चुका है, वे अंग्रेज़ों के अधीन थे और पूरी तरह से स्वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर सकते थे। अंग्रेज़ उन पर कड़ी नज़र रखते थे। इसके अतिरिक्त, उनकी प्रशासनिक मशीनरी, जिस पर ब्राह्मणों का नियंत्रण था, भी उनके रास्ते में रोड़े अटकाती थी। अपने शासनकाल के अंत तक उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों और कार्यों के चलते ब्राह्मणों को इतना अधिक नाराज़ कर लिया था कि वे उन पर कई तरह के बेबुनियाद आरोप लगाने लगे थे। इस हमले से मुकाबला करने के लिए उन्हें विदेशी शासकों से हाथ मिलाना पड़ा। उन्होंने यह घोषित किया कि उनका सत्यशोधक समाज से कोई लेनादेना नहीं है और यह भी कि वे आर्य समाज के समर्थक हैं। आर्य समाज, जो जातिगत भेदभाव को तो खारिज करता था परंतु वेदों की पवित्रता में विश्वास रखता था, अंग्रेज़ों को आमूल परिवर्तनवादी सत्यशोधक समाज से अधिक स्वीकार्य था।

शाहू न केवल राजा थे वरन जातिगत पदक्रम में भी वे फुले से काफी ऊपर थे। फुले, मूलतः किसान थे और शूद्र भी। शाहू, फुले की तरह क्रांतिकारी नहीं बन सकते थे। फुले, ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के पूर्ण ध्वंस और पुरोहितों की भक्त व उसके भगवान के बीच मध्यस्थता की समाप्ति के हामी थे। शाहू ने केवल ब्राह्मण पुरोहितों को अन्य जातियों के पुरोहितों से प्रतिस्थापित किया। शासक होने के कारण भी उनकी सोच फुले से भिन्न थी। वे ब्राह्मणवाद को खारिज तो करते थे परंतु न केवल स्वयं बल्कि अन्यों के लिए ब्राह्मणों का दर्जा भी चाहते थे। इन सीमाओं और बाधाओं के बावजूद उन्होंने जातिगत भेदभाव मिटाने, अछूत प्रथा को समाप्त करने और आमजनों को शिक्षित करने के लिए जो कदम उठाए, उनका इतना गहरा प्रभाव पड़ा जितनी शाहू ने स्वयं भी कल्पना नहीं की होगी। उन्होंने पददलितों को जागृत कर दिया और उनके मन में एक समतावादी समाज का हिस्सा बनने की महत्वाकांक्षा पैदा कर दी। उन्होंने दमितों का पूर्ण समर्थन किया परंतु वे अपने वर्गीय हितों के संरक्षण के प्रति भी सजग थे। सौभाग्यवश, ये दोनों उद्देश्य एक दूसरे के पूरक थे। अंततः उन्होंने जिन सामाजिक शक्तियों को खड़ा किया, उनका प्रभाव उनके राज्य के बाहर भी पड़ा।

आंबेडकर : शाहू की विरासत और उससे आगे

शाहू, डा. आंबेडकर के अनन्य प्रशंसक थे और दमित वर्गों के नेता के रूप में उन्हें मान्यता देते थे। आंबेडकर भी शाहू पर श्रद्धा रखते थे और उन्हें आमजनों और उनके हितों का संरक्षक और हिमायती मानते थे। बाबासाहेब, शाहू की ‘सकारात्मक भेदभाव’ की नीतियों और कार्यक्रमों से बहुत प्रभावित थे। जब आंबेडकर स्वतंत्रता के बाद देश के विधिमंत्री बने, तब उन्होंने शाहू के सामाजिक-कानूनी सुधारों को आगे बढ़ाया। इनमें शामिल था वंचित वर्गों के लिए आरक्षण और हिन्दू विधि को संहिताबद्ध कर पूरे देश पर लागू करने का प्रयास। परंतु दोनों के बीच महत्वपूर्ण अंतर भी थे। जहां शाहू एक राजा थे वहीं आंबेडकर एक अछूत थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि शाहू की तुलना में आंबेडकर जाति के उन्मूलन के एजेंडे के प्रति अधिक प्रतिबद्ध थे।

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एक रेसलिंग मैच देखेते हुए शाहू जी

आंबेडकर की जाति की विवेचना और समझ, अद्वितीय और मौलिक थी। आंबेडकर जाति प्रथा को एक ऐसे श्रेणीबद्ध पदक्रम के रूप में देखते थे जिसमें जातियां श्रद्धा के बढ़ते हुए और तिरस्कार के घटते हुए क्रम में जमी हुई थीं। इस कारण इस बात की आशा कम ही थी कि विभिन्न दमित जातियां एक होकर व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करंेगी। इस मामले में वे फुले से भिन्न मत रखते थे। फुले की मान्यता थी कि स्त्रियां, शूद्र और अतिशूद्र एकजूट हो ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष कर सकते हैं। आंबेडकर का मानना था कि ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है और इसलिए उन्होंने हिन्दू धर्म को छोड़कर समतावादी बौद्ध धर्म को अंगीकार किया और अपने समर्थकों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा दी।

फुले, शाहू और आंबेडकर में कई समानताएं थीं। तीनों ने अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण की थी और उन पर उदारवादी, पश्चिमी चिंतकों का प्रभाव था। फुले, थाॅमस पेन की पुस्तक ‘राईट्स आफ मेन’ से बहुत प्रभावित थे। आंबेडकर, जानेमाने बुद्धिजीवी, मानवतावादी और कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनके प्रोफेसर जान डेवी के उत्कट अनुयायी थे। शाहू, अपने गुरू फ्रेज़र से बहुत प्रेम और सम्मान करते थे। वे अमरीकी मिशनरियों के भी प्रशंसक थे, विशेषकर डा. वानलेस व डा. वेलके के, जिनकी सोच समतावादी थी और जो दबे-कुचले वर्गों के बीच काम करते थे। तीनों ने ब्राह्मणों के हाथों अपमान भोगा था और तीनों ही इतने परिपक्व थे कि वे यह समझ सकें कि उनके व्यक्तिगत जख्मों का कारण जाति व्यवस्था थी। तीनों ने अपने व्यक्तिगत अनुभव से ऊपर उठकर सभी के लिए संघर्ष किया। तीनों यह मानते थे कि शिक्षा, दमित वर्गों की मुक्ति की कुंजी है। तीनों ने अपनी सोच को अलग-अलग शब्दों में व्यक्त किया। फुले के शब्दों में शिक्षा लोगों के लिए ‘तृतीय रत्न’ का द्वार खोलेगी और वे यह समझ सकेंगे कि उनका शोषण हो रहा है और उसके विरूद्ध संघर्ष कर सकेंगे। शाहू ने अपनी जनता को ज्ञान प्राप्त करने, एकजुट होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। आंबेडकर ने शिक्षा, आंदोलन और संगठन पर ज़ोर दिया।

शाहू के कानूनी सुधारों की विरासत

तीनों के बीच समानताओं के बावजूद, दुनिया को देखने की उनकी दृष्टि अलग-अलग थी क्योंकि वे जाति की सीढ़ी के अलग-अलग पायदानों पर खड़े थे। तीनों में से शाहू की स्थिति सबसे अलग थी। वे एक राजा थे। वेदोक्त मुद्दा, शाहू के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और इसे उन्होंने ब्राह्मणों के खिलाफ युद्ध में परिवर्तित कर दिया। परंतु उन्होंने अपनी इस लड़ाई में जातिगत पदक्रम में अपने से नीचे के वर्गों को भी शामिल किया और एक सच्चे समावेशी समाज का निर्माण करने की कोशिश की। उन्होंने इसके लिए एक अनूठा तरीका अपनाया। उन्होंने जातिगत पदक्रम के दोनों छोरों पर प्रहार किए। एक ओर उन्होंने शासन में ब्राह्मणों के वर्चस्व को कम करने का प्रयास किया तो दूसरी ओर दमित वर्गों को शिक्षा प्राप्त करने और आगे बढ़ने के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध करवाए। मध्यम जातियों के मामले में उनकी रणनीति अलग थी। उन्होंने इन जातियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपने विश्वस्त नेताओं के नेतृत्व में अपना विकास करें। उन्होंने विभिन्न जातियों के लिए अलग-अलग होस्टल खोले। उन्होंने विभिन्न जातियों के लोगों को एक साथ खाने-पीने और आपस में विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। इन सब कारणों से उन्हें महाराष्ट्र के सामाजिक इतिहास में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त हुआ। उन्हें राजश्री की उपाधि से नवाज़ा गया और ‘‘सामाजिक प्रजातंत्र का स्तम्भ’’ निरूपित किया गया। वे महाराष्ट्र के गैर-ब्राह्मण आंदोलन की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। इस आंदोलन ने आगे चलकर महाराष्ट्र के सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। उनके अप्रितम और अभूतपूर्व योगदानों में शामिल हैं तीन नए कानून। पहला, पिछड़े वर्गों के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण, दूसरा, प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण और तीसरा, महिलाओं के साथ क्रूरता का प्रतिषेध। ये तीनों ही कदम स्वतंत्र भारत में आरक्षण, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और घरेलू हिंसा प्रतिषेध अधिनियम के रूप में हमारे सामने है।

फुले, शाहू, आंबेडकर : लैंगिक क्रांतिकारी

लैंगिक मुद्दों पर भी इन तीनों सामाजिक क्रांतिकारियों में कई समानताएं थीं और तीनों ने लैंगिक न्याय के लिए काम किया।

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शाहू जी (1912)

फुले, शाहू और आंबेडकर को यह सहजबोध था कि जाति और पितृसत्तात्मकता के बीच अपवित्र गठबंधन है और वे एक-दूसरे को मज़बूती देती है। यह कहना मुश्किल है कि कहां जाति का अंत होता है और पितृसत्तात्मकता शुरू होती है। उनका यह भी मानना था कि ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक जाति पदक्रम महिलाओं और ‘नीची जातियों’ को हमेशा अपने अधीन रखना चाहता है ताकि उसकी सत्ता बनी रहे। इसलिए तीनों ने इन दोनों वर्गों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। फुले ने दमनकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए स्त्रियों, शूद्रों और अतिशूद्रों की एकता की वकालत की। उनके अनुसार इन वर्गों के पास खोने के लिए फकत पांव की जंज़ीरें ही थीं। तीनों समाज सुधारकों ने इन वर्गों की भरसक सहायता करने की कोशिश की और व्यवस्था को उखाड़ फेकने के साथ-साथ उसमें इन वर्गों की स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास भी किया।

फुले ने महिलाओं के लिए स्कूल खोले, विधवा आश्रम स्थापित किया और विधवाओं के पुनर्विवाह करवाए। शाहू ने देवदासी प्रथा और घरेलू हिंसा के खिलाफ कड़े कानून बनाए और अंतर्जातीय व अंतर्धामिक विवाहों और विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दी। वे इस तथ्य से वाकिफ थे कि किस तरह महिलाओं को परोक्ष ढंग से प्रताड़ित किया जाता है। उन्होंने एक आदेश जारी कर होली के त्योहार पर नशे में महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार अथवा छींटाकसी को प्रतिबंधित किया। उन्होंने महिलाओं की वयस्कता की आयु को पुरूषों की तरह 18 वर्ष घोषित किया। आंबेडकर ने संविधान के ज़रिए महिलाओं को समान दर्जा दिया। उन्होंने महिला श्रमिकों के लिए सवैतनिक मातृत्व अवकाश की व्यवस्था करवाई और इस बात पर ज़ोर दिया कि महिलाओं को यह निर्णय करने का अधिकार होना चाहिए कि वे कब और कितने बच्चे पैदा करें। आंबेडकर सामाजिक उत्पादन में महिलाओं की भूमिका को समझते थे। उन्होंने यह कोशिश भी की कि महिलाओं को उत्तराधिकार में संपत्ति प्राप्त करने का पुरूषों के बराबर अधिकार मिल सके।

शाहू, फुले और आंबेडकर के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी थे। आंबेडकर और फुले 19वीं व 20वीं सदी के पूर्वार्ध में महाराष्ट्र में उभरे महिला मुक्ति आंदोलन के अगुवा थे। शाहू ने जो मशाल फुले से ली थी, वह उन्होंने आंबेडकर को सौंपी। यह उनका ऐतिहासिक, क्रांतिकारी और लैंगिक न्याय को आगे बढ़ाने वाला योगदान था।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

ललिता धारा

ललिता धारा मुंबई के डॉ आंबेडकर कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स के सांख्यिकी विभाग की अध्यक्ष रही हैं। उन्होंने कई शोधपूर्ण पुस्तकों का लेखन किया है, जिनमें 'फुलेज एंड विमेंस क्वेश्चन', 'भारत रत्न डॉ बाबासाहेब आंबेडकर एंड विमेंस क्वेश्चन', 'छत्रपति शाहू एंड विमेंस क्वेश्चन', 'पेरियार एंड विमेंस क्वेश्चन' व 'लोहिया एंड वीमेनस क्वेश्चन' शामिल हैं। इसके अतिरिक्‍त सावित्रीबाई फुले के पहले काव्य संग्रह का उनका अनुवाद भी "काव्य फुले" शीर्षक से प्रकाशित है।

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