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श्रमिक आंदोलन : मार्क्स और आंबेडकर का मिलन जरूरी

वामपंथी पार्टियां आज तक यह स्वीकार नहीं कर सकी हैं कि भारत में अगर कोई क्रांति होगी, तो जाति अनिवार्यतः उसका केन्द्रीय तत्व होगी। दूसरी ओर, दलित आंदोलन, मेहनतकश वर्ग के मुद्दों को नज़रअंदाज़ करता आ रहा है। वह इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है कि जाति व्यवस्था, दरअसल, श्रम विभाजन (या श्रमिकों का विभाजन) है

भारतीय श्रमिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। अधिकांश जानकार यह कहते हैं कि 90 प्रतिशत श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इस तरह, भारतीय श्रमिक वर्ग में एक बहुत गहरी विभाजक रेखा है। एक ओर संगठित क्षेत्र है, जिसमें काम करने वालों को रोज़गार की पूर्ण सुरक्षा प्राप्त है और उन्हें विभिन्न श्रमिक कानूनों के प्रावधानों का लाभ भी मिल रहा है। दूसरी ओर, श्रमिकों का एक बड़ा तबका मुश्किल हालातों में काम कर रहा है और उसे किसी तरह की कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है। असंगठित क्षेत्र के अधिकांश श्रमिक, बंधुआ मज़दूर प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम में परिभाषित ‘बंधुआ’ की श्रेणी में आते हैं। इसे एक तरह की आधुनिक गुलामी कहा जा सकता है।

भारत में ढेर सारे श्रम कानून हैं। केन्द्रीय श्रम कानूनों की संख्या ही 40 से अधिक है। कई प्रगतिशील राज्यों ने अपने-अपने श्रम कानून भी बनाए हैं परंतु इन श्रम कानूनों का लाभ भारतीय श्रमिक वर्ग का केवल एक छोटा सा तबका उठा रहा है। यह विडंबना ही है कि इन कानूनों से लाभांवित होने वाले वर्ग वे हैं, जिनकी इन्हें सबसे कम आवश्यकता है। भारत के संगठित श्रमिक वर्ग में शासकीय उपक्रमों जैसे एयर इंडिया, राष्ट्रीयकृत बैंक, तेल कंपनियों व रेलवे जैसे सरकारी विभागों और कुछ बड़े निजी उद्यमों के कर्मी शामिल हैं। इन्हीं उपक्रमों में ठेकेदारों के ज़रिए नियुक्त श्रमिक भी हैं जिन्हें कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है और जिन्हें अक्सर नीची श्रेणी के काम करने होते हैं। इन उपक्रमों के श्रमिक संघ केवल नियमित कर्मचारियों के हितों का संरक्षण करते हैं और ठेका श्रमिकों की तनिक भी फिक्र नहीं करते।

शासकीय कर्मचारी, श्रमिक वर्ग का सबसे संगठित तबका है। उन्हें नाराज़ करने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता। अगर वे एकजुट हो जाएं तो वे राज्य सरकारों को बना या गिरा सकते हैं। एक समय था जब ऐसा माना जाता था कि सरकारी कर्मचारियों को बहुत कम वेतन मिलता है और इसे उनके भ्रष्टाचार में लिप्त होने का कारण और औचित्य भी बताया जाता था। अब ऐसा नहीं है। सरकारी कर्मचारियों का वेतन, बाज़ार दर से कहीं ज्यादा है और केवल चुनिन्दा निजी क्षेत्र के कर्मचारियों से कुछ कम है। जहां तक भ्रष्टाचार का प्रश्न है, उसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल जैसे न जाने कितने लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध की घोषणा की परंतु भ्रष्टाचार का दानव अब भी उतना ही शक्तिशाली है। मध्यम वर्ग के भारतीयों के लिए, भ्रष्टाचार जीवन का हिस्सा बन गया है।

असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या बहुत बड़ी है। प्राथमिक और द्वितीयक उद्योगों में अधिकांश कार्य ठेका श्रमिकों द्वारा किया जाता है। तेज़ी से बढ़ते सेवा क्षेत्र के लगभग सभी कर्मचारी असंगठित क्षेत्र में हैं। असंगठित क्षेत्र के कर्मियों का बड़ा हिस्सा प्रवासी श्रमिक हैं। इन्हें ठेकेदारों द्वारा दूरदराज़ के क्षेत्रों से लाया जाता है। वे अक्सर कार्यस्थल पर या उसके नज़दीक अस्थायी आवासों में रहते हैं। उनके रोज़गार की कोई सुरक्षा नहीं होती और कई बार उन्हें वह वेतन नहीं दिया जाता, जिसका वायदा उन्हें किया जाता है। उन्हें शुरूआत में कुछ पेशगी दी जाती है और बाद में काम के अनुसार भुगतान होता है। इस कारण कई बार ये श्रमिक दिन में बारह या उससे भी अधिक काम करते हैं। हमारी सरकारें शिक्षा के अधिकार के बारे में कुछ भी कहें परंतु तथ्य यह है कि बाल श्रमिकों की संख्या बढ़ रही है। कई नए औद्योगिक उपक्रमों में केवल किशोर लड़कियों को नियोजित किया जा रहा है। इससे ऐसा लगता है कि उद्योगपतियों को कम उम्र की महिलाओं से काम लेना अधिक आसान लगता है।

भारतीय श्रमिक वर्ग का यह विभाजन दरअसल भारतीय समाज के विभाजन को प्रतिबिंबित करता है। संगठित क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश श्रमिक या तो ऊँची जातियों के हैं या ओबीसी के ऊपर की ओर बढ़ते तबकों के। असंगठित क्षेत्र में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और निम्न ओबीसी वर्गों का बाहुल्य है। उन्हें यदि बहुत कम वेतन दिया जाता है और उनके काम करने के हालात यदि बहुत खराब हैं तो इसके पीछे भी जाति व्यवस्था से उपजी सोच, है जिसमें शारीरिक श्रम को निचली श्रेणी का और शूद्रों व अछूतों के लिए उपयुक्त काम माना जाता है। ऊँची जातियों के सदस्य केवल साफ-सुथरे, प्रबंधकीय कार्य करते हैं। पुराना सामंती जातिगत ढांचा आज की तथाकथित आधुनिक दुनिया में एक नए रूप में हमारे सामने उपस्थित है।

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इस विरोधाभास को समझकर ही हम भविष्य के अपने संघर्ष का रास्ता निर्धारित कर सकते हैं। नागरिक समाज का एक बड़ा तबका, जिसमें ऊँची जातियों का बोलबाला है, यह अपेक्षा करता है कि स्थापित श्रमिक संगठन, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को संगठित करें। यह सोच बेमानी है। इन श्रमिक संगठनों ने न तो आज तक ऐसा किया है और ना ही वे भविष्य में ऐसा करेंगे। स्थापित श्रमिक संघ-चाहे उनकी राजनैतिक वफादारियां कुछ भी हों-केवल संगठित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी दुनिया बैंकों, जीवन बीमा कंपनियों और रेलवे के कर्मचारियों तक सीमित है। श्रमिक वर्ग के इस तबके और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बीच एक बहुत गहरी खाई है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि बैंक कर्मचारियों की ट्रेड यूनियनों के नेता भी अपने घर पर काम करने वालों को उचित वेतन देते होंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में कार्यरत कर्मचारी यदि मोटा वेतन पा रहे हैं तो इसके पीछे ठेका श्रमिकों का खून-पसीना है।

संगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले अधिकांश लोग उच्च श्रेणी के कार्य कर रहे हैं और वे मध्यम वर्ग से हैं। एक तरह से वे शासक वर्ग के सदस्य हैं। उनका वर्गीय चरित्र, उनकी विचारधारात्मक अभिमुखता में भी झलकता है। ऐसा बताया जाता है कि दक्षिणपंथी भारतीय मज़दूर संघ इस समय देश का सबसे बड़ा श्रमिक महासंघ है। वामपंथी श्रमिक यूनियनों के सदस्य भी चुनावों में दक्षिणपंथी उम्मीदवारों को वोट देते हैं। संगठित और असंगठित क्षेत्रों के बीच जो भारी अंतर है, वह इससे स्पष्ट है कि हाल में एक बड़े वामपंथी श्रमिक संगठन ने सप्ताह में केवल पांच कार्यदिवस रखे जाने का प्रस्ताव किया। यह, ऐसे देश में एक क्रूर मज़ाक हैए जहां असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को एक महीने में भी एक दिन की छुट्टी नहीं मिलती।

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आगे का रास्ता  : यह घिसीपिटी बात लग सकती है परंतु यह सच है कि केवल एक क्रांतिकारी आंदोलन ही भारतीय श्रमिक वर्ग के इस विभाजन को समाप्त कर सकता है। आइए हम उन मुद्दों के बारे में विचार करें जिनके आधार पर यह क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता है।

संयुक्त श्रम संहिता : हम भारतीयों को कानून बनाना बहुत अच्छा लगता है। हमारा संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, देश में केन्द्रीय श्रम कानूनों की संख्या ही 40 से ज्यादा है। बहुत समय से ऐसे प्रस्ताव आते रहे हैं कि इन सभी श्रम कानूनों को मिलाकर एक श्रम संहिता तैयार की जाए। इसी तरह, देश में अलग-अलग टैक्स कानूनों को मिलाकर एक कानून बनाने की मांग भी उठती रही है। संयुक्त श्रम संहिता को लागू करना आसान होगा और इससे असंगठित और संगठित क्षेत्रों के बीच का अंतर भी समाप्त हो जाएगा। हमारे वर्तमान श्रम कानून दोनों क्षेत्रों के बीच अंतर करते हैं। उदाहरणार्थ ठेका श्रम अधिनियम, ठेका श्रम व्यवस्था को मान्यता देता है। संयुक्त श्रम संहिता, सरकारी कर्मचारियों सहित सभी श्रमिकों पर लागू होगी।

जाति व्यवस्था को तोड़ना : जैसा कि कहा जा चुका है,  श्रमिकों का विभाजन, दरअसल, समाज के विभाजन को प्रतिबिंबित करता है। अतः असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के समकक्ष लाने के लिए जाति व्यवस्था को तोड़ना जरूरी है। यह असंभव नहीं है। एक समय था जब जाति व्यवस्था का ध्वंस, जागरूक लोकमत के एजेण्डे पर था। आंबेडकर ने ‘‘एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट’’ शीर्षक का अपना प्रबंध, जांतपांत तोड़क मंडल के वार्षिक अधिवेशन में भाषण देने के लिए तैयार किया था। करीब 100 साल पहले, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों के समानांतर सोशल कांग्रेस के सत्र भी हुआ करते थे, जो सामाजिक मुद्दों पर केन्द्रित होते थे। जाति के ध्वंस को सार्वजनिक एजेण्डे पर फिर से लाए जाने की जरूरत है।

श्रम की गरिमा की पुनर्स्थापना : श्रम विभाजन के चलते, अधिकांश समाजों में शारीरिक श्रम को निचली निगाहों से देखा जाता है। भारत में जातिगत आधार पर श्रम विभाजन ने शारीरिक श्रम के दर्जे को और नीचा कर दिया है। पहले इस तरह की सोच दुनिया के सभी समाजों में थी परंतु शनैः-शनैः सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के साथ यह समाप्त हो गई। भारतीय समाज में यह अब भी जिन्दा है। मध्यम वर्ग के लोग आज भी झाड़ू लगाना या बर्तन मांजना पसंद नहीं करते। उन्हें ऐसा लगता है कि यह काम नीची जातियों की मुख्यतः महिलाओं का है। यह ज़रूरी है कि हम श्रम की गरिमा को पुनस्र्थापित करें और शारीरिक श्रम व टेबिल पर बैठकर किए जाने वाले काम के लिए मिलने वाले वेतन के बीच के अंतर को कम करने का प्रयास करें।

अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का संगठन : भारत के श्रमबल की प्रकृति तेजी से बदल रही है। अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश श्रमिक प्रवासी होते हैं, जो हर वर्ष एक निश्चित समय पर अपने परिवार सहित काम की तलाश में अपने गांवों से निकल पड़ते हैं। इन लोगों की भर्ती ठेकेदार करते हैं और हर साल ये श्रमिक बदलते रहते हैं। अतः इनको संगठित करने के लिए श्रमिकों को एकजुट करने के पुराने तरीके काम नहीं आएंगे। इसके लिए एक नए तरीके का विकास करना आवश्यक है। हमारी दृष्टि में इसके लिए निम्न कार्य करने होंगे :

  1. किन इलाकों से पलायन होता है और पलायनकर्ता कहां जाते हैं, उन स्थानों की पहचान करना।
  2. स्रोत और गंतव्य दोनों क्षेत्रों में काम करना।

3.प्रवासी मजदूरों के उनके निवासस्थानों से कार्यस्थल पर पहुंचने और फिर कार्यस्थल से वापिस अपने निवास जाने की पूरी प्रक्रिया पर नजर रखना।

  1. जहां संभव हो वहां श्रम ठेकेदारों से संपर्क स्थापित कर उनके साथ कार्य करना।
  2. श्रमिकों के कार्यस्थल के क्षेत्रो में प्रगतिशील ताकतों के साथ गठजोड़ बनाना।
  3. राज्य तंत्र से संबंधित मुद्दों पर बातचीत करना।

मार्क्स और आंबेडकर का मिलन जरूरी : यह एक ऐतिहासिक त्रासदी है कि भारतीय राजनीति की दो क्रांतिकारी धाराएं पिछली एक सदी से अलग-अलग बह रही हैं। वामपंथी पार्टियां- जिनमें संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी करने वाली पार्टियों से लेकर चरम वामपंथी तक शामिल हैं-आज तक यह नहीं स्वीकार कर पाई हैं कि भारत में अगर कोई क्रांति होगी तो जाति अनिवार्यतः उसका केन्द्रीय तत्व होगी। दूसरी ओर, दलित आंदोलन, मेहनतकश वर्ग के मुद्दों को नज़रअंदाज़ करता आ रहा है। वह इस बात को समझने को तैयार नहीं है कि जाति व्यवस्था, दरअसल, श्रम विभाजन (या श्रमिकों का विभाजन) है। इन दोनों विचारधाराओं को एकसाथ लाना, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के आंदोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सुधीर कुमार कटियार

सुधीर कुमार कटियार सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन के संस्थापक हैं। सेंटर गुजरात, राजस्थान व देश के अन्य राज्यों में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के श्रमिक व मानव अधिकारों के लिए कार्य करता हैं। जाति व्यवस्था व सामाजिक परिवर्तन पर लिखे सुधीर के लेख इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली तथा दलित वौइस् में प्रकाशित हो चुके हैं।

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