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इतिहास अपने आपको दोहराता है : फरीदपुर (1873) और ऊना (2016)

सन् 1873 में बंगाल के फरीदपुर जिले, जो अब बांग्लादेश में है, के चांडालों ने हड़ताल कर दी। उन्होंने मुसलमानों और हिन्दुओं की अन्य सभी जातियों के लिए काम करना बंद कर दिया। इस हड़ताल से रोज़ाना की ज़िंदगी ठप्प हो गई। तब तक किसी को यह पता ही नहीं था कि हड़ताल क्या होती है

हम अक्सर सुनते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। हाल में ऊना, गुजरात में गोरक्षकों के विरूद्ध दलितों का आंदोलन, इस कथन की सत्यता को प्रमाणित करता है। आइए, पहले हम देखें कि इतिहास क्या है और फिर यह कि उसने अपने आपको कैसे दोहराया। सन् 1873 में बंगाल के फरीदपुर जिले, जो अब बांग्लादेश में है, के चांडालों ने हड़ताल कर दी। उन्होंने मुसलमानों और हिन्दुओं की अन्य सभी जातियों के लिए काम करना बंद कर दिया। इस हड़ताल से रोज़ाना की ज़िंदगी ठप्प पड़ गई। इस हड़ताल का प्रभाव इतना गहरा और व्यापक था कि आधिकारिक संदेशों में उसे ‘आम हड़ताल’ बताया गया। यह पूरी तरह से शांतिपूर्ण, असहयोग आंदोलन था। तब तक कोई यह जानता ही नहीं था कि हड़ताल क्या होती है (उसी दौरान बंगाल में ‘पुनर्जागरण’ का दौर चल रहा था परंतु उसके झंडाबरदारों को उनके ही आसपास बसी एक अछूत जाति के लोगों की व्यथा से कोई मतलब नहीं था। पुनर्जागरण केवल समाज के ऊपरी तबके तक सीमित था। सन 1911 में इन दुर्भाग्यशाली अछूतों का सरकारी नामकरण नामशूद्र कर दिया गया और अब यह बंगाल की सबसे बड़ी जाति है)।

amreli-gujarat-2016हड़ताल की शुरूआत आमग्राम नामक एक गांव से हुई, जो बकरगंज (अब बारीसाल) के नज़दीक था। गांव के एक धनी और प्रभावशाली चांडाल चोरोन सपाह ने अपने पिता के श्राद्ध के अवसर पर आयोजित भोज में 10,000 लोगों को आमंत्रित किया। उन्होंने ब्राह्मणों, कायस्थों, शूद्रों आदि सभी जातियों के लोगों को निमंत्रित किया। कायस्थों ने अन्य जातियों के लोगों को चांडालों के खिलाफ भड़काया और परिणामस्वरूप उन्होंने ‘‘निमंत्रण स्वीकार करने से इंकार कर दिया और चांडालों पर खूब ताने कसे और उन्हें भला-बुरा कहा’’। उन्होंने कहा कि ‘‘क्या हम अब उन लोगों के साथ खाना खायेंगे जो अपनी महिलाओं को बाज़ार भेजते हैं और जो जेलों में मेहतर का काम करते हैं और कूड़ा-करकट व अन्य गंदगी साफ करते हैं? इसके बाद और क्या बचेगा!’’ [1] फरीदपुर के पुलिस अधीक्षक डब्ल्यू.एस. ओवेन ने अपनी जांच में यह पाया कि ‘‘गरीब चांडालों की महिलाएं हाटों और बाज़ारों में सामान खरीदने और बेचने जाती हैं, जिसके कारण उच्च जाति के हिन्दू उनसे घृणा करते हैं और उन्हें जानवरों से थोड़ा ही बेहतर मानते हैं”। [2]

बंगाल की जनगणना 1872 की रपट, एच बेवरले, बेंगाल सेक्रटेरिएट प्रेस, कलकत्ता पृष्ठ 26-29. चांडाल महिलाएं निःसंदेह अपने समय से आगे थीं। आज, उन वर्गों की महिलाएं, जो चांडालों से घृणा करते थे, बाज़ारों में घूमते-फिरते देखी जा सकती हैं। परंतु उस समय इस कटाक्ष ने चांडाल समुदाय के नेताओं को क्रोधित कर दिया। समुदाय के प्रधानों ने एक बैठक आयोजित कर तीन ऐतिहासिक संकल्प पारित किए।

  1. ‘‘भविष्य में चांडाल महिलाएं हाटों और बाज़ारों में नहीं जाएंगी।
  2. किसी भी जाति को किसी भी तरह की सेवा उपलब्ध नहीं करवाई जाएगी।
  3. ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य किसी भी जाति के व्यक्ति द्वारा पकाया गया भोजन चांडाल नहीं खायेंगे।’’ [3]

ahmedabad-gujarat-2016सबसे पहला संकल्प चांडाल महिलाओं की गरिमा की रक्षा से संबंधित था। इस हड़ताल ने आम लोगों के लिए इतना बड़ा संकट खड़ा कर दिया कि औपनिवेशिक प्रशासन को उसका संज्ञान लेना पड़ा। 18 मार्च, 1873 को लिखे अपने पत्र में ओवेन ने इस हड़ताल के प्रभावों पर चर्चा करते हुए लिखा :

अगर दूसरे संकल्प का पालन किया गया तो कच्छ क्षेत्र में रहने वाले अन्य जातियों के लोगों को बहुत नुकसान होगा। वर्तमान में मुसलमानों और अन्य जातियों की ज़मीनों पर चांडाल ही खेती करते हैं और इसके बदले वे उत्पादित फसल का आधा भाग लेते हैं। इन ज़मीनों पर अब खेती नहीं हो सकेगी। चांडाल ही नावें बनाते हैं और उन्हें चलाते हैं। ऐसे में वे नावें, जिनके मालिक अन्य जातियों के लोग हैं, नहीं चलेंगी और व्यापार ठप्प पड़ जाएगा। खेती और घर में काम आने वाले लोहे के उपकरण सुधारने वाला कोई न होगा। इससे चांडाल और अन्य जातियों के बीच के परस्पर संबंध पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाएंगे, उनके बीच शत्रुता पैदा हो जाएगी और अंततः इससे शांति भंग होने की आशंका होगी’’। [4]

फरीदपुर जिले से शुरू हुई चांडालों की हड़ताल जल्दी ही पड़ोसी बकरगंज और जैसोर जिलों में फैल गई। परंतु हड़तालियों ने तनिक भी हिंसा नहीं की और इसके कारण शांति और व्यवस्था में कोई खलल नहीं पड़ा। फरीदपुर के जिला मजिस्ट्रेट डब्ल्यू.एस. वेल्स, जिन्हें इस हड़ताल की व्यक्तिगत रूप से जांच करने को कहा गया था, ने सरकार को लिखा ‘‘…बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान मुझसे मिले और यह शिकायत की कि चांडालों की कार्यवाही के कारण वे बरबाद हो रहे हैं’’। उन्होंने अपनी रपट में लिखा कि खेत खाली पड़े हैं, घरों की छतों को फूंस से ढंकने के लिए कोई नहीं है, एक भी चांडाल किसी भी हिन्दू या मुसलमान के लिए कोई काम करने को तैयार नहीं है और बाज़ारों में एक भी चांडाल महिला दिखाई नहीं पड़ती…’’ (पत्र क्रमांक 340, दिनांक 8 अप्रैल, 1873)। बंगाल सरकार को सतर्क करते हुए जिला मजिस्ट्रेट ने लिखा, ‘‘वे (चांडाल) हमेशा से एकताबद्ध रहे हैं और इसलिए यह आंदोलन बहुत गंभीर रूप ले सकता है’’।

dalit-asmita-yatra-gujarat-2016इस हड़ताल की जड़ में था सरकार का उन चांडालों के साथ व्यवहार, जो किसी कारण जेलों में बंद थे। उन्हें फर्श पर झाड़ू लगाने और जेलों के शौचालय साफ करने के लिए मजबूर किया जाता था। जिला पुलिस अधीक्षक ने 22 अप्रैल, 1873 को लिखे गए अपने एक पत्र मे इसकी पुष्टि करते हुए कहा, ‘‘यह एक निंदनीय व्यवस्था है जिसे तुरंत समाप्त किया जाना चाहिए…हमारे कानून के अंतर्गत सभी मनुष्य बराबर हैं परंतु यदि केवल चांडालों को गंदे काम करने के लिए मजबूर किया जाएगा तो वे अन्य जातियों के लोगों के बराबर कैसे रह जाएंगे’’। जिला पुलिस प्रमुख ने लिखा कि चांडालों की शिकायत यह है कि, ‘‘अन्य हिन्दुओं के कहने पर सरकार, उन चांडालों को, जो जेलों में हैं, मेहतर का काम करने के लिए मजबूर करती है। उनसे जेलों का पूरा परिसर साफ करवाया जाता है और सारी गंदगी उठवाई जाती है…’’। चांडालों [5] का कहना था कि, ‘‘जेलों में यह गंदा काम करने से ब्राह्मणों, कायस्थों, शूद्रों और मुसलमानों को छूट क्यों है?’’ यह कानून की नज़र में सबके बराबर होने के सिद्धांत का उल्लंघन था। तीन जिलों के 7,54,323 चांडालों  की हड़ताल छह माह तक चली। बंगाल के लैफ्टिनेंट गवर्नर (1870-1874) सर जार्ज कैंपबेल ने इस आशय का आदेश जारी किया कि ‘‘भविष्य में जेलों में चांडालों को मेहतर का काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए…’’ (पत्र क्रमांक 523टी. दिनांक 7 जून, 1873)।

एक सदी बाद

गोरक्षों के निशाने पर मुख्यतः मुसलमान, सफाईकर्मी और चर्मकार हैं। दलितों और मुसलमानों को हाशिए पर ढकेल दिया गया है। स्वाधीनता के 70 साल बाद भी भारत उनके खिलाफ अपराधों और हिंसा को रोक नहीं सका है। उनके विरूद्ध गंभीर अपराध होने पर भी उन्हें न्याय नहीं मिलता। उन्हें अपनी मुक्ति के लिए एक राजनैतिक एजेंडे की तलाश है। दलित और आदिवासी, भारत की जनसंख्या का 23 प्रतिशत हैं परंतु उन्हें हिन्दू उच्च जातियां न तो उनके साथ न्याय कर रही हैं और ना ही उन्हें गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार दे रही हैं। हिन्दू उच्च जातियों का कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका में वर्चस्व है। मुसलमानों की आबादी, दलितों और आदिवासियों से भी कम है। वे देश की आबादी का मात्र 14 प्रतिशत हैं। उनकी स्थिति और खराब है। दलित यदि मरे हुए पशुओं को ठिकाने लगाना, सड़कें साफ करना और सार्वजनिक स्थानों से कचरा उठाना बंद कर दें तो वे अपनी आवाज़ पूरे देश और पूरी दुनिया तक पहुंचा सकते हैं। दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों को यह समझना होगा कि अगर वे एक हो गए तो उन्हें उनके अधिकार मिलते देर नहीं लगेगी। भारत का प्रजातंत्र उनकी मुक्ति में सहायक बन सकता है।

[1]   फरीदपुर के पुलिस अधीक्षक द्वारा जिले के जिला मजिस्ट्रेट को लिखा गया पत्र क्रमांक 66, 18 मार्च, 1873

[2]    पूर्वोक्त, अनुच्छेद-3

[3]   पूर्वोक्त, अनुच्छेद-6

[4]  पूर्वोक्त, अनुच्छेद-8

[5]  बंगाल की जनगणना 1872 की रपट, एच बेवरले, बेंगाल सेक्रटेरिएट प्रेस, कलकत्ता पृष्ठ 26-29.


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लेखक के बारे में

एके विस्वास

एके विस्वास पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और बी. आर. आम्बेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर बिहार के कुलपति रह चुके हैं

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