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दलित-ओबीसी एकता : हजारो ने अपनाया बौद्ध धर्म

नागपुर में आयोजित विशाल धर्मपरिवर्तन कार्यक्रम की अध्यक्षता सदानंद फुलझले ने की। इसी स्थान पर 60 साल पहले उन्होंने आंबेडकर के नेतृत्व में बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। उस समय वे नागपुर के डिप्टी मेयर थे

25 दिसम्बर, 2016 को महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से आये हजारो लोग नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में एकत्रित हुए, जहाँ उन्हें भदंत नागार्जुन सुरई ससई ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। कार्यक्रम का आयोजन सत्यशोधक ओबीसी परिषद् ने किया था। भदंत ने उन सभी 22 प्रतिज्ञाओं का वाचन किया, जिन्हें इसी स्थान पर लगभग 60 वर्ष पहले बाबासाहेब आंबेडकर ने लिया था, जब वे अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध बने थे। भदंत नागार्जुन सुरई ससई 81 वर्ष के जापानी बौद्ध भिक्षु हैं, जो 1967 से बिहार के राजगीर में रह रहे हैं।

दलित लम्बे समय से बौद्ध धर्म अपनाते आ रहे हैं। बाबासाहेब के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के 100 वर्ष पहले, पंडित ल्योथी थास ने बौद्ध धर्म अंगीकृत किया था। बौद्ध धर्म अपनाने के बाद, विशेषकर महाराष्ट्र में, दलितों के जीवन और उनकी संस्कृति में भारी बदलाव आए हैं। अशोक विजयादशमी के दिन दीक्षाभूमि में लाखों लोग इकट्ठा होते हैं और उस समय ये परिवर्तन स्पष्ट देखे जा सकते हैं। यह आयोजन नागपुर में दशहरे के आयोजन से भी बड़ा होता है। इसी तरह, हर छह दिसंबर को मुंबई की चैत्यभूमि पर इकट्ठा होने वाली भीड़, महाराष्ट्र में किसी भी अन्य आयोजन से बड़ी होती है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस मौके पर दीक्षाभूमि में दलित-ओबीसी साहित्य बिक्री के लिए उपलब्ध होता है। यह एक तथ्य है कि आंबेडकरवादी साहित्य ने दलितों, या जिसने भी उसे पढ़ा है, के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

सत्यशोधक ओबीसी परिषद ने इस कार्यक्रम का आयोजन इसलिए किया क्योंकि उसकी  मान्यता है कि जब तक सांस्कृतिक संशक्तिकरण के ज़रिए, ओबीसी भारत की जागृति में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को नहीं समझेंगे, तब तक ब्राह्मणवादी शक्तियों को परास्त करना संभव नहीं होगा। जिस तरह उत्तरप्रदेश और बिहार के कुशवाह और मौर्य, स्वयं को अशोक और मौर्यों के बौद्ध वंशज मानते हैं, उसी तरह सत्यशोधक ओबीसी परिषद की यह मान्यता है कि महाराष्ट्र के ओबीसी, दरअसल, नागवंशी और इस तरह मूलतः बौद्ध हैं। बौद्ध धर्म अपने अनुयायियों का राजनैतिक सशक्तिकरण करता है परंतु संघ परिवार और हिन्दुत्वादी शक्तियां, उसे हिन्दू धर्म का हिस्सा बनाने पर आमादा हैं।

दीक्षाभूमि पर चर्चा के दौरान एक वरिष्ठ बौद्ध मित्र ने मुझे बताया कि जब वे भारत सरकार द्वारा आयोजित बौद्धों की एक बैठक में भाग लेने पहुंचे तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहां विवेकानंद फाउंडेशन के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। जहां भारत सरकार बौद्ध धर्म का उपयोग दक्षिणपूर्व एशियायी देशों में भारत के हितों को साधने के लिए कर रही है, वहीं भारत में वह बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म का हिस्सा बनाना चाहती हैए ताकि ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और संस्कृति के विरूद्ध विद्रोह को दबाया जा सके।

ओबीसी सत्यशोधक परिषद की स्थापना सुप्रसिद्ध चिंतक हनुमंत उपारे ने 2008 में की थी। उनका यह मानना था कि महाराष्ट्र में पांच करोड़ से अधिक ओबीसी हैं और वे जातिगत भेदभाव के शिकार हैं। उपारे दीक्षाभूमि में इस सामूहिक धर्मपरिवर्तन कार्यक्रम में महाराष्ट्र से पांच लाख से अधिक ओबीसी को लाना चाहते थे परंतु मार्च 2015 में वे अचानक मौत के मुंह में समा गए और इस कारण यह दिन न देख सके। उनकी मृत्यु से महाराष्ट्र में सत्यशोधक ओबीसी परिषद के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन को अपूर्णनीय क्षति हुई है। ‘इंडिया टुडे’ के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि उनके आंदोलन का उद्देश्य लोगों को उनके मूल धर्म में वापस लाना है। उनका कहना था कि यह धर्मपरिवर्तन नहीं होगा बल्कि असली अर्थों में घर वापसी होगी। उन्होंने अपने साक्षात्कारकर्ता से कहा था कि हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था, ओबीसी के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है और हिन्दू धर्म में ओबीसी को उचित सम्मान प्राप्त नहीं है। उन्होंने कहा था कि धर्मपरिवर्तन, ‘‘जातिगत दमन से छुटकारा पाने की क्रांति है।”

उपारे न केवल उच्च शिक्षित थे वरन एक सफल व्यवसायी भी थे। वे महाराष्ट्र के ओबीसी को सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से सशक्त बनाने के प्रति प्रतिबद्ध थे और ओबीसी व दलितों के बीच गठबंधन के हामी थे। उपारे ने सन 2008 में बौद्ध धर्म अपना लिया था। आठ साल बाद उनके पूरे परिवार की उपस्थिति में हज़ारों लोगों ने उनके पदचिन्हों पर चलते हुए बौद्ध धर्म को अंगीकार किया। भदंत नागार्जुन सुरई ससई ने मुझे बताया कि ‘‘मुझे उम्मीद है कि ओबीसी की बौद्ध धर्म में घर वापसी, लोगों को चिंतन-मनन करने पर मजबूर करेगी। इस समुदाय का राजनैतिक नेतृत्व गलत राह पर चल रहा है और अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भेदभाव करने वाली ब्राह्मणवादी शक्तियों का तुष्टिकरण कर रहा है। यह ज़रूरी है कि ओबीसी अलग ढंग से सोचना शुरू करें। भारत जागृत होकर प्रबुद्ध तब ही बनेगा जब दलितों के साथ-साथ ओबीसी और वे सब, जो बाबासाहेब आंबेडकर और बुद्ध के सपने के अनुरूप सही अर्थों में जाति मुक्त, मानवतावादी और तार्किकतावादी समाज का निर्माण करना चाहते हैं, हिन्दू धर्म से मुक्ति पाएंगे।’’

यह कार्यक्रम दलितों और ओबीसी को एकसूत्र में बांधने की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हो सकता है। दीक्षाभूमि में इस ऐतिहासिक समारोह को देखने के लिए सैकड़ें आंबेडकरवादी उपस्थित थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ आंबेडकरवादी सदानंद फुलझले ने की। उन्होंने 1956 के सामूहिक धर्मपरिवर्तन कार्यक्रम में भाग लिया था। उस समय वे नागपुर के डिप्टी मेयर थे।

दीक्षाभूमि के इस कार्यक्रम में उपस्थित जिन भी लोगों से मैंने बातचीत की, उनका यही कहना था कि अब समय आ गया है कि दलितों और ओबीसी को एक होकर स्वयं को ब्राह्मणवादी व्यवस्था की मानसिक और सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त करना चाहिए।


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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