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मीडिया में दलित होने के मायने

दलित को मीडिया स्वतंत्र पहल लेने से रोकना चाहता है। वह दलितों को दया और सहानुभूति की मांग करने वाला और खुद को दाता के रूप में बनाए रखना चाहता है। यह उसकी खबर की प्रस्तुति का मूल सूत्र है

मीडिया में दलितों का प्रश्न जब भी सामने आता है, कहा जाता है कि मीडिया में दलित प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है। सवाल यह पैदा होता है कि जिस तरह संसदीय व्यवस्था की दूसरी संस्थाओं में दलित प्रतिनिधित्व है, उसी तरह से मीडिया में भी उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाए तो क्या उससे कोई वास्तविक परिवर्तन संभव होगा? दूसरी बात, दूसरे संस्थानों में दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाले क्या आम दलितों के हितों की सुरक्षा और उनसे सरोकार बनाए रखने की मानसिकता से लैस रहते हैं ? मीडिया में दलित के होने की निश्चित ही अपनी एक बड़ी भूमिका है, जो उस जातीय वर्चस्व को तोड़ती है जो भारतीय समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन इसकी अपनी एक सीमा भी है।

मीडिया में दलित होने का अर्थ अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सरोकारों से जुड़े प्रतिनिधित्व से होना चाहिए। वरना आमतौर पर यह देखा जाता है कि सत्ता संस्थाएं अपने आधारों को बचाए रखने के लिए सहायक के तौर पर इन प्रतिनिधियों का बखूबी इस्तेमाल कर लेती हैं। क्या हम भूल सकते हैं कि देश के बड़े-बड़े समाचार पत्रों और दूसरे मीडिया संस्थानों में महिला विरोधी तमाम प्रस्तुतियों में महिला प्रतिनिधियों की एक बड़ी भूमिका देखी जाती है। यही दलितों के मामले में भी होता है।

अब इस प्रश्न पर विचार करें कि मीडिया में दलितों को कैसे प्रस्तुत किया जाता है। दलित केवल जातीय उत्पीडऩ के ही शिकार नहीं रहे हैं बल्कि उनका आर्थिक और राजनीतिक शोषण भी होता रहा है। उनकी राजनीतिक और आर्थिक पराधीनता के कारण भी साफ दिखाई देते हैं। इस देश में आर्थिक उपार्जन और रोजगार-घंधे के सबसे बड़े माध्यम-कृषि क्षेत्र-में दलित-मजदूरों की तादाद सबसे ज्यादा है और उनमें भी महिलाएं ज्यादा हैं। लेकिन यदि मीडिया की प्रस्तुतियों के जरिए दलितों की स्थिति का विश्लेषण करें तो वह 1947 से पहले की मन:स्थिति से बाहर निकलता नहीं दिखाई देता।

उत्पीडऩ की घटनाओं का महज उल्लेख काफी नहीं होता। उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्षों को लामबंद करने में मीडिया सहायक नहीं होना चाहती है। संसद के लगभग प्रत्येक सत्र में देश भर में दलितों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता और दूसरे तमाम कानूनों के तहत होने वाले अपराधों की सूची प्रस्तुत की जाती है। यदि पिछले पचास सालों का आंकड़ा जमा किया जाए तो पता चलेगा कि बड़े से बड़े युद्ध में इतनी संख्या में हत्या और बलात्कार नहीं हुए होंगे जितने कि दलितों के खिलाफ हुए हैं। लेकिन इसे उत्पीडऩ के खिलाफ एक विचारधारात्मक आधार बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जाता है और मीडिया पूरे दलित समुदाय को संगठित करने की पृष्ठभूमि तैयार नहीं कर पाती है।

मैं यहां दो उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूं, जिनसे मीडिया के दलित सरोकारों की पड़ताल की जा सकती है। अंग्रेजी के एक पत्रकार हैं जो कि फिलहाल अंग्रेजी में कमजोर वर्गों, जिनमें दलित प्रमुख है, की आवाज के सबसे मुखर प्रतिनिधि मान लिए गए हैं। हरियाणा की एक नगरपालिका में सफाई कर्मचारी अपने अधिकारी को पीट डालते हैं। भारत में यह आम है। छोटे कस्बों व नगरपालिकाओं में यह अक्सर देखा जाता है और खासतौर से हिन्दी पट्टी में कभी यह चेतना के विकास को उद्घाटित करने वाला समाचार नहीं माना गया। समाज इसे नगरपालिकाओं की स्थापना के साथ देखता आ रहा है और इससे चेतना के विकास का सच तो कतई नहीं जुड़ा है। सफाईकर्मी द्वारा समय और जरूरत पर तनख्वाह नहीं देने वाले अधिकारी को अक्सर झाडू से पीटने की घटना उनके बीच एक संबंध का रूप ले चुका है। लेकिन अंग्रेजीदां पत्रकार सामाजिक यथार्थों से इतना अलग-थलग रहा है कि उन्हें पांच दशक में यह पहली घटना के रूप में दिखती है!

दूसरा उदाहरण मेरे व्यक्तिगत अनुभव से जुड़ा है। मैंने दलितों को आत्मसुरक्षा के लिए हथियार दिए जाने चाहिए, इस विषय पर एक लेख लिखा। मैंने यह लेख बिहार में दलितों के नरसंहार की घटनाओं और कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रित्वकाल में दलितों को हथियार देने और उसे चलाने के लिए प्रशिक्षण देने के फैसले के साथ-साथ डॉ. जगन्नाथ मिश्र और बिंदेश्वरी दुबे की सरकार द्वारा भूपतियों के घरों में जाकर हथियारों के लाइसेंस देने और उनके प्रशिक्षण के लिए शिविर आयोजित करने के फैसले को आधार बनाकर लिखा था। लेकिन इसे अंग्रेजी के किसी भी दैनिक समाचारपत्र ने नहीं छापा। ठीक उसी तरह, मैंने लोकतांत्रिक समाज में पुलिस गोलीकांडों को नकारते हुए एक लेख लिखा और उसे भी यह कहते हुए अंग्रेजी के समाचारपत्रों ने जगह नहीं दी कि पुलिस को गोली चलाने के अधिकार से कैसे वंचित किया जा सकता है। जबकि दलितों को हथियार देने के सवाल पर यह जवाब मिला कि इससे हिंसा को बढ़ावा मिलेगा। इससे यह साफ होता है कि कैसे हिंसा पर एकाधिकार कायम रखने के लिए तर्क तैयार किए जाते हैं। बहरहाल, यह तो बात दैनिकों की है। लेकिन बात कुछ उससे आगे बढ़ती है। मैंने यह लेख सीमित दायरे में पढ़ी जाने वाली उन पत्रिकाओं को दिया जो कि क्रांंतिकारी और प्रगतिशील मानी जाती हैं। उनमें से एक ‘इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ है। इसके पूर्व संपादक से मुंबई में बातचीत करने के बाद मैंने यह लेख उनको भेजा। संपादक ने उसे दोबारा भी मंगवाया। लेकिन आखिरकार उसे जगह नहीं मिली। फिर ‘सेमिनार’ में भी भेजा, जिसने ‘दलित अंक’ निकाला था। लेकिन लेख भेजे जाने के एक हफ्ते के बाद उन्होंने बताया कि लेख की लंबाई ज्यादा हो गई है, उसे छोटा करना होगा। और जब उसे उनकी जरूरत के हिसाब से छोटा किया गया तब भी वह नहीं छप सका। बाजार में अंक आने के बाद जब संपादक से लेख के न छपने का कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि इसमें बंदूक की बातें हैं।

इस तरह यह मानकर चला गया कि दलितों को हथियार देने से हिंसा बढ़ेगी। लेकिन जब यही हथियार भूपतियों और सवर्णों के कंधे और उनके घरों की दीवारों पर लटके होते हैं तो उसे आत्मसुरक्षा का हथियार मान लिया जाता है। जबकि उन हथियारों से सबसे ज्यादा दलित कत्लेआम किए गए। पुलिस और सामंतों के हाथों मारे जाने वाले दलित को सरकार की भाषा में मीडिया में नक्सलवादी करार देकर उसकी हत्या को न्यायोचित ठहराया जाता रहा है तो भूपति और सामंत को किसान कहकर उसे समर्थन और संरक्षण की वकालत की जाती रही है। उत्पीडऩ का शिकार तो दलित है लेकिन उत्पीडऩ के खिलाफ लडऩे वाला अपराधी, नक्सलवादी और माओवादी हो जाता है। दरअसल दलित को मीडिया स्वतंत्र पहल लेने से रोकना चाहता है। वह दलितों को दया और सहानुभूति की मांग करने वाला और खुद को दाता के रूप में बनाए रखना चाहता है। यह उसकी खबर की प्रस्तुति का मूल सूत्र है। वह उसके उन प्रतिनिधियों को स्थापित करने और बनाए रखने की जुगत में रहता है जो दलित उत्पीडऩ की कड़ी पर चोट नहीं करते हैं। अंग्रेजी के एक समाचारपत्र ने लिखा कि कैसे चूहे खाने वाली जाति मुसहर की एक प्रतिनिधि गिरिजा देवी अमेरिका में जाकर भाषण देने वाली है। मुसहर कितनी क्रांतिकारी चेतना से लैस जाति रही है, उसे चूहे से कतरवा दिया, क्योंकि चूहे खाने वाली जाति कहने से एक तो उसमें आकर्षण और रोमांच पैदा किया जा सकता है, दूसरे यह साबित करने का उदाहरण भी बनता है कि एक प्रतिनिधि को ही सही, द्ररिदता से निकालकर अमेरिका ले जाने का एक क्रांतिकारी काम भूमंडलीकरण ने कैसे किया। इस परिप्रेक्ष्य में मीडिया में दलित का सवाल, दलित प्रतिनिधित्व और दलित सरोकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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