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अपनी राह से क्यों भटके ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन?

राज्य का फोकस दलितों पर रहने के कारण भी ब्राह्मणवाद के विरूद्ध लड़ाई में दलित और ओबीसी एक साथ नहीं आ सके। कुछ लोग कहते हैं कि यह ‘‘ब्राह्मणवादी’’ राज्य का खेल है। ओबीसी का एक अलग नेतृत्व उभर गया है। मंजूर अली का विश्लेषण

भारत में सामाजिक न्याय का आंदोलन स्वाधीनता संग्राम के पहले शुरू हुआ और स्वतंत्रता के बाद तक जारी रहा। इस आंदोलन को यह अहसास था कि जाति व्यवस्था ही सामाजिक असमानता का स्त्रोत है। यद्यपि जाति-विरोधी सोच मध्यकालीन भारत में भी थी तथापि उसने अंग्रेजों के शासनकाल में जोर पकड़ा। जब अंग्रेज़ भारत पर राज कर रहे थे, उस समय उनके अपने देश में नागरिक अधिकारों, स्वतंत्रता और विधिक न्याय की परिकल्पनाएं थीं। अंग्रेजो के भारत का शासन संभालने से ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था के विरुद्ध आवाज को और मजबूती मिली। आधुनिक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना के साथ दलितों को ऐसे काम मिलने लगे, जिन्हें करने के लिए अधिक कौशल की आवश्यकता नहीं थी। ज्ञान तक पहुंच ने दलितों के मानसिक क्षितिज को विस्तार दिया। पिछड़े वर्ग के जोतिराव गोविंदराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने इस ज्ञान का उपयोग जातिगत अत्याचारों के खिलाफ अपने आक्रोश को प्रकट करने के लिए किया। फुले की पुस्तक ‘‘गुलामगिरी’’ ने न केवल हाशिए पर पटक दिए वर्गों को एक नई आवाज़ दी, बल्कि उसने आने वाली पीढ़ियों को भी रास्ता दिखलाया। तमिलनाडु के एक ओबीसी बुद्धिजीवी ईव्हीआर पेरियार ने हिन्दू धर्म के मूल पर हमला किया – उसके देवी-देवताओं पर, उसके कर्मकांडों पर और उसके धर्मग्रंथों पर। भारत के सामाजिक न्याय आंदोलन के इन शीर्ष व्यक्तित्वों की जातियां महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्होने स्वतंत्रता के बाद सामाजिक न्याय के संघर्ष पर गहरा राजनीतिक प्रभाव डाला।

डा. बी.आर. आंबेडकर, जो महाराष्ट्र के एक दलित थे, ने फुले के काम को आगे बढ़ाया और भारत में सामाजिक न्याय आंदोलन में उनका योगदान अविस्मरणीय है। सन 2014 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘‘कांशीराम : लीडर ऑफ़ दलित्स’’ में बद्रीनारायण लिखते हैं कि आंबेडकर के तीन प्रेरणा स्त्रोत थे – बुद्ध, कबीर और फुले। यद्यपि जाति व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करने वालों में विभिन्न जातियों और वर्गों के लोग शामिल थे तथापि उन सब को यह अहसास था कि जाति व्यवस्था का मूल स्त्रोत कहां हैं, वह समाज को अपनी जकड़न में कैसे बनाए रखती है, और उससे मुक्ति का रास्ता क्या है। वे सब यह जानते थे कि दलितों की समस्याओं का स्त्रोत मनु के नियम हैं। ‘मनुस्मृति’ ही चतुर्वर्ण व्यवस्था और अछूत प्रथा की जनक है और उसी से उपजा है वह समाज, जो न केवल श्रम विभाजन करता है, बल्कि श्रमिकों का भी विभाजन करता है। यह समाज श्रेणीबद्ध असमानता पर आधारित है। हर व्यक्ति के अधिकार, कर्तव्य और गरिमा, सामाजिक पदक्रम में उसके स्थान पर निर्भर करती है। अछूतों को कोई अधिकार उपलब्ध नहीं थे। ओबीसी  ऊँची जातियों की बस्तियों के नज़दीक रहते थे और उन्हें विभिन्न सेवाएं उपलब्ध करवाते थे। जाहिर है कि दलित इस व्यवस्था के सबसे बड़े पीड़ित थे। जाति-विरोधी योद्धाओं ने यह तय किया कि जाति व्यवस्था का उन्मूलन उनका मिशन होगा और राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में वे ब्राह्मणवाद का विरोध करेंगे। परंतु फुले और आंबेडकर में जाति उन्मूलन के आंदोलन की रणनीति को लेकर मतभेद थे। इस आंदोलन में किन वर्गों और जातियों को साथ लिया जाना चाहिए, इस संबंध में वे एकमत नहीं थे। फुले का कहना था कि स्त्रियों, शूद्रों और अतिशूद्रों को जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए मिलकर काम करना चाहिए। आंबेडकर इस गठबंधन की सफलता के प्रति उतने आश्वस्त नहीं थे।

डा. बी.आर. आंबेडकर

आंबेडकर ने जाति व्यवस्था और उसके पैरोकारों- विशेषकर ब्राह्मणों – के विरूद्ध लंबी सामाजिक और राजनीतिक लड़ाई लड़ी। अंततः आंबेडकर ने उदारवादी, राष्ट्रवादी हिन्दू नेताओं को उनकी मांगों को मंजूर करने के लिए मजबूर कर दिया। सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण और एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धांत क्रांतिकारी कदम थे। परंतु इसके बाद भी आंबेडकर ने यह चेतावनी दी कि स्वाधीन भारत में सामाजिक और आर्थिक न्याय न होने से कई तरह की समस्याएं उठ सकती हैं। ओबीसी को आरक्षण मिलने में कुछ और समय लगा। कुछ राज्यों ने ओबीसी की बेहतरी के लिए कदम उठाए परंतु अखिल भारतीय स्तर पर उनके लिए आरक्षण अगस्त 1990 में भारत सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों को मंजूर करने के बाद ही उपलब्ध हो सका।

रामस्वरूप वर्मा

ओबीसी के लिए आरक्षण देने में देरी कर  राज्य ने आंबेडकर को केवल एक दलित नेता बना दिया। आंबेडकर का संघर्ष जाति प्रथा के विरूद्ध था, केवल अछूत प्रथा के विरूद्ध नहीं। आंबेडकर को केवल दलितों के नेता के रूप में प्रस्तुत करने का नतीजा यह हुआ कि ओबीसी का एक अलग नेतृत्व उभरने का रास्ता खुल गया। स्वतंत्रता के पूर्व सन 1933 में बिहार में कुशवाहों, यादवों और कुर्मियों ने राजपूतों और भूमिहारों का विरोध करने के लिए एक संस्था गठित की जिसका नाम था त्रिवेणी संघ। स्वतंत्र भारत में राममनोहर लोहिया ने ओबीसी के लिए आरक्षण की मांग उठाते हुए ‘‘संसपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’’ का नारा दिया। प्रजा समाजवादी पार्टी और उसके बाद समाजवादी पार्टी से अलग होकर कई ओबीसी नेता राजनीतिक परिदृश्य पर उभरे। इनमें शामिल थे कर्पूरी ठाकुर, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, ललई सिंह यादव आदि। इनमें से कुछ ने बिहार और उत्तरप्रदेश में अपनी मजबूत ज़मीन तैयार करने में सफलता प्राप्त की। जाति-विरोधी आंदोलन के अपने पूर्ववर्तियों की तरह  इन नेताओं का भी साध्य था जाति का उन्मूलन और साधन, ब्राह्मणवाद का विरोध।

रामस्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ की स्थापना की। बाद में जगदेव प्रसाद और ललई सिंह यादव भी उनके साथ आ गए। सन 1970 के दशक में उन्होंने ब्राह्मणवाद और जाति प्रथा के खिलाफ ओबीसी और दलितों को लामबंद किया। परंतु अर्जक आंदोलन का राजनीतिक प्रभाव उत्तरप्रदेश के कुछ ज़िलों तक सीमित था। इनमें शामिल थे इलाहाबाद, कानपुर और फैजाबाद के कुछ हिस्से। अन्य इलाकों में सामाजिक परिस्थितियों के चलते यह आंदोलन जड़ नहीं पकड़ सका। भारतीय समाज की श्रेणीबद्ध असमानता के कारण शूद्र और अतिशूद्र आमने-सामने आ गए। आंबेडकर की यह आशंका सही सिद्ध होने लगी कि स्त्रियों, शूद्रों और अतिशूद्रों का गठबंधन जाति उन्मूलन के मिशन को सफल नहीं बना सकेगा। इस बीच दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस4) का उदय हुआ, जिससे बाद में बसपा उभरी। इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठने लगा कि बहुजनों, जो आबादी का 85 प्रतिशत हैं, के नेतृत्व को राजनीतिक क्षेत्र में प्रमुखता क्यों नहीं मिलनी चाहिए। ओबीसी और दलितों के बीच नेतृत्व की लड़ाई ने सामाजिक न्याय के आंदोलन पर दूरगामी विपरीत प्रभाव डाला। चूंकि अर्जक संघ का प्रभाव कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित था इसलिए उत्तरप्रदेश के दलितों का एक बड़ा हिस्सा डीएस 4 के साथ जुड़ गया।

कांशीराम और मायावती

बसपा को दलितों और अति पिछड़ी जातियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ। परंतु यादव, कुर्मी और कोयरी जैसी प्रभावशाली ओबीसी जातियों ने दलित नेतृत्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया। राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना इस आंदोलन का लक्ष्य बन गया और फुले, आंबेडकर और पेरियार के मिशन को भुला दिया गया। बसपा और वर्चस्वशाली ओबीसी जातियों, दोनों ने ब्राह्मणवाद के विरोध को ठंडे बस्ते में डाल दिया। शुरूआती दौर में ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरूद्ध बसपा के तेवर काफी तीखे थे। परंतु शनैः-शनैः केवल सत्ता पाना बसपा का लक्ष्य बन गया। बसपा के सत्ता में आने से उत्तरप्रदेश के जाटवों और चमारों को लाभ हुआ। बसपा ने जातिवादी और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों से हाथ मिलाना शुरू कर दिया। हम सब को यह नारा याद है कि ‘‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’’। दूसरी ओर, मंडल के बाद ओबीसी नेतृत्व अपने नए अवतार में सामने आया। उसकी भूमिका केवल सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के रक्षक भर की रह गई।

आरएसएस अपने नेताओं से असंतुष्ट दलित-बहुजनों को अपने साथ जोड़ रही है

आज न तो व्यक्तिगत और ना ही सामूहिक तौर पर ओबीसी का कोई सामाजिक लक्ष्य है और ना ही उस तक पहुंचने का कोई रोडमेप उनके पास है। समाज के मूल ढांचे में बदलाव लाना अब ओबीसी नेतृत्व का लक्ष्य नहीं रह  गया है। उसे शीर्ष पदों पर बैठे ब्राह्मणों से तो परहेज़ हो सकता है परंतु उसे ब्राह्मणवाद से कोई परहेज़ नहीं है। उसका एकमात्र लक्ष्य ऊपर की ओर बढ़ना और देश के नए ब्राह्मण और राजपूत बनना है। इसके लिए वे कोई भी मुद्दा उठाने के लिए तैयार रहते हैं। बिहार में ओबीसी नेतृत्व, धर्मनिरपेक्षता का झंदाबरदार भी रहा है और उसने दक्षिणपंथी राजनीतिक शक्तियों से गठबंधन भी किया है। शायद इसी से उपजे असंतोष के कारण ओबीसी ने सन 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का खुलकर साथ दिया। उन्हें यह लगने लगा कि वे विकास की दौड़ में पिछड़ते जा रहे हैं।

बीजेपी उन दलित और ओबीसी जातियों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रही है, जिनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व या तो कम या नहीं है

भाजपा ने ओबीसी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उन्हें विभिन्न पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की नीति अपनाई। यादव जैसी कुछ जातियों को छोड़कर, भाजपा, अन्य लगभग सभी ओबीसी जातियों का समर्थन हासिल करने के अभियान में जुटी हुई है। इनमें शामिल हैं मौर्य, कोयरी, कुशवाह, केवट, जाट व राजभर। इसी तरह, भाजपा महत्वाकांक्षी गैर-चमार व गैर-जाटव दलितों को भी अपनी ओर आकर्षित करने में लगी हुई है। वह उन्हें यह वायदा कर रही है कि उन्हें सत्ता में उचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। एक तरह से भाजपा एक ऐसी बड़ी छतरी बन गई है जिसके नीचे सभी के लिए जगह है। एक दौर में कांग्रेस भी इसी तरह का राजनीतिक संगठन थी।

राज्य का फोकस दलितों पर रहने के कारण भी ब्राह्मणवाद के विरूद्ध लड़ाई में दलित और ओबीसी एक साथ नहीं आ सके। कुछ लोग कहते हैं कि यह ‘‘ब्राह्मणवादी’’ राज्य का खेल है। ओबीसी का एक अलग नेतृत्व उभर गया है। सामाजिक न्याय की बातें करने वाले राजनीतिक दलों ने पिछड़ी और दलित जातियों का विकास करने में कोई रूचि नहीं दिखलाई। ये जातियां आगे बढ़ने को आतुर हैं और उनकी इस महत्वाकांक्षा ने दक्षिणपंथियों को उनके बीच घुसपैठ करने का मौका दे दिया है। आज फुले, आंबेडकर और पेरियार केवल चुनाव जीतने के साधन बनकर रह गए हैं। समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाने के उनके स्वप्न को भुला दिया गया है। इस स्थिति में बदलाव लाना ज़रूरी है।


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लेखक के बारे में

मंजूर अली

डा. मंजूर अली, गिरी इंस्टीट्यूट ऑफ़ डव्लपमेंट स्टडीज़, लखनऊ में सहायक प्राध्यापक हैं।

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