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आंबेडकर, गांधी और धर्म परिवर्तन का अधिकार

धर्म और धर्मपरिवर्तन को लेकर डा. आंबेडकर और महात्मा गांधी के अलग-अलग और परस्पर विरोधी विचारों के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के इस संदर्भ में साम्प्रदायिक विचार के खिलाफ इन महापुरुषों में मतैक्यता थी। आंबेडकर और गांधी को हडप लेने के आरएसएस के प्रयासों के बीच यह लेख वैचारिकता के इस इतिहास को चिह्नित करता है। प्रमोद मीणा का एक महत्वपूर्ण आलेख

गांधी और डा. आंबेडकर

भाजपा की शह पाकर राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठन राष्‍ट्र के माहौल में सांप्रदायिक विद्वेष का जहर फैलाने के लिए जिसप्रकार घर वापसी के नाम पर शुद्धि आंदोलन का एक नया संस्‍करण निकालने का प्रयास कर रहे हैं और दलितों-आदिवासियों के इस्‍लामीकरण और ईसाईकरण के खिलाफ जेहाद छेड़े हुए हैं, उसने राष्‍ट्रीय एकता और अखंडता के लिए एक नया खतरा पैदा कर दिया है। एक ओर जहाँ भाजपा आंबेडकर  के नाम को हथियाकर दलितों में अपनी पैठ बनाने का प्रयास कर रही है, वहीं दूसरी ओर दलितों के धर्मांतरण और धर्मांतरित दलितों के पुन: हिंदूकरण की मुहिम छेड़कर आंबेडकर  के उस मूल सिद्धांत की खुलेआम धज्जियाँ उड़ा रही है, जो हिंदू धर्म के त्‍याग में ही दलितों की मुक्ति देखता है। स्‍वयं को राष्‍ट्रवादी कहने वाले भाजपा और राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ जैसे हिंदुत्‍ववादी राजनीतिक और तथाकथित सांस्कृतिक संगठन यह भूल जाते हैं कि आंबेडकर  जाति भावना के परित्‍याग को ही सच्‍चा राष्‍ट्रवाद मानते थे जबकि हिंदुत्‍ववादी संगठन भूलकर भी जाति व्‍यवस्‍था के खिलाफ एक शब्‍द तक नहीं बोल सकते। एक सामान्‍य राजनीतिक समझ रखनेवाला व्‍यक्ति भी इस बात को जानता है कि हिंदू धर्म अनुमोदित जाति व्‍यवस्‍था दलितों के साथ अस्‍पृश्यता और अमानवीय भेदभाव का हेतु है और इसीलिए आंबेडकर  हिंदू धर्म त्‍याग को दलितों की मुक्ति के एक उपाय के रूप में देखते थे। लेकिन हिंदुत्‍ववादी संगठन और राजनीतिक विचारधारा जानते-बूझते हुए भी इस सच्‍चाई को झुठला देना चाहती है। मुसलिमों और ईसाइयों के खिलाफ दलितों और आदिवासियों को लामबंद करने के भगवा षड्यंत्र को नंगा करना हर जिम्‍मेदार सच्‍चे राष्‍ट्रवादी का फर्ज़ है ताकि राष्‍ट्र की एकता और अखंडता पर संकट के बादल न घिर सकें। चूँकि आंबेडकर  आज दलित अस्मिता के पर्याय बन चुके हैं अत: दलितों के धर्मांतरण और घर वापसी को मुद्दा बनाकर राष्‍ट्र की सामाजिक-आर्थिक समस्‍याओं से भटकाने वाली केंद्र सरकार की कथनी-करनी के अंतर को सामने लाने के लिए धर्मांतरण पर आंबेडकर  और गाँधी के बीच जो संवाद या विवाद रहा था, उसे सबके सामने पुन: लाया जाना चाहिए। यह बहस इसलिए भी गौरतलब है क्‍योंकि यह उस भ्रामक भगवा दुष्‍प्रचार की भी पोल खोलकर रख देती है जिसके तहत काँग्रेस और गाँधी पर हिंदू बहुसंख्‍यकों का विरोधी होने का आरोप लगाकर भाजपा और राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ स्‍वयं को हिंदू धर्म रक्षक कहते नहीं अघाते।

सुनियोजित धर्म परिवर्तन

यह सब जानते हैं कि 14 अक्‍टूबर, 1956 को आंबेडकर ने नागपुर में अपने लाखों दलित अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था लेकिन यह तथ्‍य प्रतियोगिता परीक्षाओं के वस्‍तुनिष्‍ठ प्रश्‍न से परे दलितों और हिंदुओं, दोनों के लिए कहीं गहन मायने रखता है। आंबेडकर  जैसे गंभीर चिंतक और दलित नेता ने मन के किसी एक झौंके में आकर हिंदू धर्म का त्‍याग करके बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया था, इस धर्मांतरण के पीछे हिंदुओं द्वारा दलितों का सदियों से किया जा रहा शोषण और उत्‍पीड़न था, इसके पीछे था हिंदू सुधारकों से आंबेडकर  का मोहभंग और सबसे महत्‍वपूर्ण तात्‍कालिक कारण थी गाँधीजी की हठधर्मिता जिसने आंबेडकर  को हिंदू धर्म का परित्‍याग करने के लिए मजबूर किया। गाँधीजी भारत के दलित समाज में आंबेडकर  की स्‍वीकार्यता जानने के बाद भी उनके दलित नेतृत्‍व का कभी सम्‍मान नहीं कर पाये। गोलमेज सम्‍मेलनों में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में गाँधीजी द्वारा आंबेडकर  को नकारा जाना और दलितों के पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के खिलाफ आमरन अनशन करना गाँधीजी की वह हठधर्मिता थी, जिसने आंबेडकर  और दलित स्‍वाभिमान को चुनौती दे दी थी। आगे चलकर दलितों की स्‍वायत्‍त पहचान मिटाने की एक रणनीति के तहत गाँधीजी और काँग्रेस द्वारा ‘दलित’ संज्ञा के स्‍थान पर ‘हरिजन’ संज्ञा का प्रयोग किये जाने ने आंबेडकर  के सामने हिंदू धर्म त्‍याग के सिवाय कोई अवसर नहीं रहने दिया था। लेकिन वास्‍तव में धर्मांतरण का मसला गाँधी और आंबेडकर  के आपसी अहं से संबद्ध करके नहीं देखना चाहिए। आंबेडकर  इस कठोर निर्णय पर दलित जीवन की वास्‍तविकताओं के साक्षात्‍कारों की राह से गुजरकर ही पहुँचे थे।

नागपुर की दीक्षाभूमि, जहां आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी

अपने पिता और परिवारवालों के समान ही आंबेडकर  भी संतों में श्रद्धा रखते थे और जीवन के उत्‍रार्द्ध में वे संत साहित्‍य पर एक पुस्‍तक भी लिखने की योजना पर कार्यरत थे किंतु मृत्‍यु के कारण उसे मूर्त रूप नहीं दे सके। आगे चलकर भले ही उन्‍होंने हिंदू धर्म त्‍याग दिया हो किंतु वे कभी भगतसिंह की जैसे नास्तिक नहीं रहे थे। भगवानदास ने अपने एक लेख में तो यहाँ तक दावा किया है कि ब्रिटेन से उच्‍च शिक्षा प्राप्ति के बाद उनके लौटने पर अछूतों ने ‘बंबई’ में जो सम्‍मेलन बुलाया था, उसमें आंबेडकर  ने उनसे अन्‍य धर्म विशेषत: मुस्लिम धर्म न अपनाने का आग्रह तक किया था क्‍योंकि ऐसी स्थिति में आर्य संस्‍कृति वाले इस देश में विदेशी संस्‍कृति के वर्चस्‍व की आशंका थी।[1] पता नहीं भगवानदास के इस दावे में कितनी सच्‍चाई है, किंतु हम जानते हैं कि आंबेडकर  ने सार्वजनिक रूप से पहली बार हिंदू धर्म त्‍याग करने की बात पूना समझौते के बाद 13 अक्‍टूबर, 1935 को येवला में अछूतों के एक सम्‍मेलन में कही थी। इससे स्‍पष्‍ट है कि चाहे वे दलितों के धर्मांतरण के विरोधी न भी रहे हों लेकिन इस तिथि से पहले तक समर्थक भी न थे। वे तो नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर आंदोलन तक में हिस्‍सेदारी कर चुके थे। साफ है कि अगर आंबेडकर  हिंदू धर्म त्‍याग के निर्णय पर पहुँच गये थे, तो इसमें पूना पैक्‍ट का सीधा हाथ था। आंबेडकर के प्रयासों से ब्रिटिश सरकार 1932 के सांप्रदायिक निर्णय (कम्‍यूनल अवार्ड) के तहत अछूतों के पृथक् प्रतिनिधित्‍व पर सहमत हो गयी थी किंतु गाँधीजी ने दलितों के इस प्रस्‍तावित अधिकार के खिलाफ आमरन अनशन करके आंबेडकर आंबेडकर को मात दे दी। आंबेडकर को दलितों के लिए आरक्षित स्‍थानों के साथ संयुक्‍त निर्वाचन पर सहमति देनी पड़ी। गाँधी यहीं तक नहीं रूके अपितु उन्‍होंने दलितों में जन्‍म लेती स्‍वायत्‍त राजनीति चेतना की जड़ों पर मट्ठा डालने के लिए आक्रामक ढंग से हरिजनोत्‍थान का आंदोलन भी चलाया। आंबेडकर का दलित विवेक गाँधी जी को शंकराचार्य के बाद सबसे बड़े हिंदू नेता के रूप में देख रहा था जो हरिजन आंदोलन की आड़ में दलित स्‍वायत्‍त चेतना को हिंदुत्‍व के उदर में पचा लेना चाहते थे। आंबेडकर  की दलित चेतना दलित स्‍वाभिमान के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकती थी अत: उन्‍हें अंतत: हिंदू धर्म छोड़ना ही था। ध्‍यातव्‍य है कि येवला सम्‍मेलन में आंबेडकर ने सीधे-सीधे इस निर्णय पर पहुँचने के लिए हिंदुओं के प्रतिक्रियावादी नेतृत्‍व को दोषी ठहराया जिन्‍होंने हिंदू समाज के सदस्‍य के रूप में प्राप्‍त होने वाले अधिकारों की माँग को लेकर किये गये दलितों के आंदोलनों को असफल बना दिया था।[2] कल तक हिंदू मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए आंदोलनरत रहे आंबेडकर  इसी सम्‍मेलन में मंच से अपना यह अनुभव भी साझा कर देते हैं कि मंदिर आंदोलनों में खर्च पैसा, समय और प्रयास व्‍यर्थ गये हैं।

अन्‍य धर्मों के सापेक्ष हिंदू धर्म की प्राचीनता और उत्‍तरजीवितता को उसकी महानता का व्‍यंजक मानते हुए सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन और गाँधीजी उसकी प्रशंसा करते हैं। गोया हिंदू धर्म की इस महानता को समय सिद्ध बताते हुए दलितों को धर्मांतरण न करने की सीख दी जा रही हो। इस विषय में 24 नबंवर, 1927 के यंग इंडिया में लिखते हुए गाँधी जी ने कहा था – ‘‘हिंदू धर्म में कोई ऐसी बात है जिसने इसे अब तक जीवित रखा है। इसने बैबिलोनिया, सीरिया, फारस और मिस्र की सभ्‍यताओं का ह्रास देखा। अपने आसपास एक नज़र डालिये – कहाँ है रोम, कहाँ है यूनान ? क्‍या आपको गिबन्‍स की इटली या उसी का रूप प्राचीन रोम कहीं मिल सकता है ?’’[3] लेकिन आंबेडकर  गाँधी के हिंदू धर्म की प्राचीनता को मानते हुए भी जीने और सम्‍मान से जीने के अंतर पर बल देते हैं।[4] और वे इस बात पर बल देते हैं कि इस हिंदू धर्म में बहुसंख्‍यक दलितों को आत्‍मसम्‍मान के साथ जीने का हक नहीं दिया गया। ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों और अस्‍पृश्‍यों पर अशिक्षा, अज्ञानता, निर्धनता लाद दी गई।

गाँधीजी का मानना था कि हिंदू धर्म में रहते हुए ही दलितों की मुक्ति संभव है और वे दलितों के दोयम दर्जे के लिए हिंदू जाति व्‍यवस्‍था को कहीं दोष नहीं देते थे अपितु उल्‍टा वे तो यह मानते थे कि जाति ने ही हिंदू धर्म को विघटन से बचाया है।[5] वे जाति द्वारा पैदा मूलभूत विभाजन का समर्थन यह कहकर करते थे कि यह तो अधिकारी भेद के स्‍वाभाविक कानून को आधार मानने वाले वर्णाश्रम धर्म द्वारा अनुमोदित भेद है। किंतु आंबेडकर जाति भेद को श्रम का नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन बताते हैं। वे असमानता और भेदभाव को हिंदू धर्म के डी.एन.ए. में रचाबसा बताते हैं अत: उनका साफ कहना था कि हिंदू धर्म में रहते हुए दलितों की मुक्ति असंभव है। इसीलिए वे 1936 में अपने महार बंधुओं के बंबई सम्‍मेलन में उनसे हिंदू धर्म छोड़ने और हिंदू रीति-रिवाज त्‍यागने की अपील करते हैं।

सिखों की नजर आंबेडकर पर

आंबेडकर के हिंदू धर्म त्‍याग की घोषणा और दूसरे धर्मों के प्रतिनिधियों से विमर्श की शुरुआत ने ने भारतीय राजनीति में भूचाल लाकर रख दिया। इससे हिंदुओं में यह भय व्‍याप्‍त हो गया कि उनकी संख्‍यात्‍मक ताकत कमजोर पड़ जायेगी, वहीं मुस्लिम  राजनीति तो मानो इसी अवसर की ताक में बैठी थी क्‍योंकि मुसलिम नेता तो पहले से ही हिंदुओं की संख्‍या बल की काट के रूप में दलितों को पृथक् वर्ग के रूप में देखने पर जोर देते आये थे। यद्यपि आंबेडकर  की दूरदर्शिता को यह गवारा न था कि वे और उनके दलित भाई-बहिन मुस्लिम  राजनीति का मोहरा बने किंतु मुस्लिमों  में दलितों को लेकर एक हमदर्दी तो पैदा हो ही गई थी। ईसाई मिशनरियों ने तो दलितों के संभावित ईसाईकरण की तस्‍वीर पेश करके पश्चिमी जगत में इसके लिए अपेक्षित धन संग्रह का काम भी शुरू कर दिया। भगवानदास कहते हैं कि सिख दलितों के धर्मांतरण की घोषणा से सर्वाधिक उत्‍साही समुदाय था क्‍योंकि दलितों को गले लगाकर यह धार्मिक समुदाय देश का तीसरा बड़ा समुदाय बन सकता था।[6] विधानसभाओं में आरक्षित स्‍थानों की संख्‍या वृद्धि की संभावना ने भी सिखों की दलितों के धर्मांतरण में दिलचस्‍पी पैदा की होगी। अगर दलितों के धर्मांतरण के लिए लालायित विभिन्‍न धर्मों के प्रचारकों के प्रति गाँधीजी का रूख देखें तो वह गैर तार्किक सा लगता है। 1940 में एक मुस्लिम  प्रश्‍नकर्ता के सवाल के जबाव में उन्‍होंने का था कि अस्‍पृश्‍यता की समस्‍या हिंदुओं की आंतरिक समस्‍या है। इसके पाप की जिम्‍मेदारी सवर्ण हिंदुओं पर है अत: इस पाप का प्रायश्चित भी उन्‍हें ही करना है। अपनी इस मान्‍यता के साथ वे अस्‍पृश्‍यों के संदर्भ में अन्‍य धर्मालंबियों के द्वारा हिंदू धर्म में किये जाने वाले किसी भी प्रकार के हस्‍तक्षेप के बिल्‍कुल खिलाफ थे। जहाँ गाँधीजी सवर्ण हिंदुओं पर अस्‍पृश्‍यता दूर करने की जिम्‍मेदारी डाल रहे थे, वहीं आंबेडकर  हिंदू समाजसुधारकों से कतई निराश हो चले थे और इतनी दूर आ निकले थे कि अस्‍पृश्‍यता की समस्‍या के हल के लिए वे सवर्ण हिंदुओं का मुँह तक नहीं ताकना चाहते थे। वैसे भी एक स्‍वाभिमानी व्‍यक्ति भला क्‍योंकर गैर लोगों की बाट देखेगा कि वो पहल करे तो उसका उद्धार हो !

महास्थविर चन्द्रमणि से 14 अक्टूबर 1956 को दीक्षा लेता डा. आंबेडकर और उनकी पत्नी सविता आंबेडकर

दलितों के धर्मांतरण को लेकर आंबेडकर  और गाँधीजी के बीच तो तीखा मतभेद था उसके मूल में थी इन दोनों महापुरूषों की अपनी-अपनी प्राथमिक प्रतिबद्धताओं की पारस्‍परिक टकराहट। गाँधीजी चाहे स्‍वयं को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि कहते थे किंतु आंबेडकर  उन्‍हें दलितों का प्रतिनिधि मानने के लिए तैयार नहीं थे। वे उन्‍हें शंकराचार्य के बाद दूसरा सबसे बड़ा हिंदू हित रक्षक बताते थे। और आगे चलकर दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों के मुद्दे पर आंबेडकर  ही सही साबित हुए क्‍योंकि गाँधीजी अछूतों की कीमत पर भी हिंदू धर्म में पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में किसी प्रकार का विभाजन नहीं देख सकते थे। दलितों के लिए अंग्रेज सरकार द्वारा प्रस्‍तावित पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों के खिलाफ ब्रिटिश प्रधानमंत्री को आमरन अनशन के अपनी निर्णयगत अडिगता की सूचना देते हुए गाঁधी जी कठोर चेतावनी देते हैं कि आप बाहर के आदमी हैं अत: हिंदुओं में फूट डालने वाले ऐसे किसी भी मसले में कोई हस्‍तक्षेप न करे – ‘‘दलित वर्गों के लिए यदि किसी पृथक निर्वाचन मंडल का गठन किया जाना है तो वह मुझे ज़हर का ऐसा इंजेक्‍शन दीख पड़ता है, जो हिंदू धर्म को तो नष्‍ट करेगा ही, साथ ही उससे दलित वर्ग का भी रंचमात्र हित नहीं होगा। आप मुझे यह कहने की अनुमति देंगे कि भले ही आप कितनी भी सहानुभूति रखते हों, पर आप संबद्ध पक्षों के लिए ऐसे अति महत्‍वपूर्ण तथा धार्मिक महत्‍व के मामले पर कोई ठीक निर्णय नहीं ले सकते।’’[7] स्‍पष्‍ट है कि गाँधीजी के लिए दलितों के हित दूसरे स्‍थान पर थे, उनकी पहली प्राथमिकता थी हिंदू धर्म को तथाकथित सर्वनाश से बचाना, जबकि आंबेडकर  अपना पहला दायित्‍व दलितों का उत्‍थान मानते थे। उन्‍हें हिंदू धर्म से कोई लेना-देना नहीं था।

धर्म, अध्यात्मिकता और असमानता

जिसप्रकार धर्मांतरण पर गाँधीजी और आंबेडकर  की प्रतिबद्धताएँ उनके दृष्टिकोणों का निर्धारण कर रही थीं, वैसे ही धर्म को लेकर उनके अपने-अपने नज़रिये थे जिनके चश्‍मों से जहाँ एक दलितों के धर्मांतरण को व्‍यर्थ की कवायद बताते थे, वहीं आंबेडकर उसमें दलितों की मुक्ति देखते थे। दलितसामाजिक और आर्थिक विषमताओं और पूर्व ग्रहो से आजादी चाहते थे। लेकिन आंबेडकर को गाँधीजी की इस अवधारणा पर आपत्ति थी कि धर्म नर और नारायण के बीच का व्‍यक्तिगत मसला है। और वे इस मान्‍यता से भी मतैक्‍य नहीं रखते थे कि धर्म का कोई सामाजिक पक्ष नहीं होता।[8] आंबेडकर  का स्‍पष्‍ट मानना था कि धर्म का ईश्‍वरीय मीमांसा वाला पक्ष गौण होता है जबकि रीति-रिवाज और कर्मकांड वाला व्‍यावहारिक पक्ष ही महत्‍वपूर्ण होता है। और आंबेडकर  के लिए दलितों के प्रति हिंदुओं का रवैया ईश्‍वरीय मीमांसा से ज्‍यादा धर्म के व्‍यावहारिक आचरणात्‍मक पक्ष से तय होता है। आपके अनुसार जीवन और जीवन का संरक्षण ही सभी धर्मों का मूल सार है। बर्बर समाजों के धर्मों को भी आपने अंधविश्‍वासमूलक कर्मकांड तक ही सीमित रखने का खंडन किया है क्‍योंकि कहीं न कहीं ये सारी क्रियाएँ जीवित रहने के उद्यम अंतर्गत रखी जा सकती हैं और रखी भी जानी चाहिए। आंबेडकर तो आधुनिक समय के धर्मों का भी यही सार बताते हैं – ‘‘यह सच है कि परिष्‍कृत ब्रह्म विज्ञान की चकाचौंध वाले आधुनिक समाज में धर्म का यह सार दृष्टि से ओझल हो गया है और विस्‍मृति के गर्भ में भी चला गया है। लेकिन यह निर्विवाद तथ्‍य है कि आधुनिक समाज में भी जीवन और जीवन का संरक्षण धर्म का सार है।’’[9]

स्‍पष्‍ट है कि आंबेडकर  आंबेडकर के लिए धर्म के जो मायने रहे थे, उनकी कसौटी पर तो हिंदू धर्म कदाचित भी दलितों का धर्म साबित नहीं हो सकता। कारण कि हिंदू जाति व्‍यवस्‍था में दलितों को गरिमापूर्ण जीवन के अधिकारों से भी वंचित रखा गया है। मनुस्‍मृति जाति के आधार पर छोटे-छोटे अपराधों के लिए अस्‍पृश्‍यों और शूद्रों को कठोर दंड का विधान करती है। और हिंदू जाति व्‍यवस्‍था में उन्‍हें पढ़ने-लिखने, संपत्ति रखने और सांस्‍कृतिक क्रियाकलापों से व्‍यवस्थिति ढंग से वंचित रखा गया है। दलित हिंदू समुदाय का अंग होकर भी इस समुदाय में बहिष्‍कृतों सा जीवन बिताने को बाध्‍य किये जाते हैं। आंबेडकर  दलित बंधुओं की ओर से हिंदू धर्म पर सवाल उठाते हैं कि दलित क्‍यों हिंदू धर्म को अपना धर्म नहीं मान सकते। आंबेडकर  दलितों के प्रतिनिधि के रूप में हिंदुओं और उनके हिंदू धर्म से पूछते हैं – ‘‘क्‍या हिंदू धर्म उन्‍हें मानव प्राणी के रूप में स्‍वीकार करता है ? क्‍या वह उनके लिए समानता का समर्थन करता है ? क्‍या वह उन्‍हें आजादी का लाभ देना चाहता है ? कम से कम क्‍या वह उनके तथा हिंदुओं के बीच भाईचारे की गाँठ को मजबूत करने में मदद देता है ? क्‍या वह हिंदुओं को सिखाता है कि अस्‍पृश्‍य उन्‍हीं के सजातीय हैं ? क्‍या वह हिंदुओं से कहता है कि यह पाप है कि अस्‍पृश्‍यों से मानव तो क्‍या पशु से भी बदतर व्‍यवहार किया जाये ?’’[10]लेकिन अफसोस कि इनमें से एक भी सवाल का जबाव हिंदू समुदाय हाँ में देने की स्थिति में न था। तो ऐसे में भला हिंदू के साथ अछूत अपनत्‍व कैसे महसूस कर सकते थे?

14 अक्टूबर 1956 को दीक्षाभूमि में डा. आंबेडकर और उनकी पत्नी सविता आंबेडकर

आंबेडकर  के लिए गाँधीजी की तरह धर्म का महत्‍व इसलिए नहीं था कि वह व्‍यक्ति को आध्‍यात्मिक बनाता है अपितु धर्म उनके लिए इसलिए अहं स्‍थान रखता था क्‍योंकि वह सामाजिक मूल्‍यों को सर्वव्‍यापी बनाने वाला होता है, उन्‍हें व्‍यक्ति के मन में गहराई तक बैठाकर बृहत्‍तर मानव जीवन की भलाई में व्‍यक्ति के जीवन का नियंत्रण करने वाला होता है। आंबेडकर  के लिए धर्म से जुड़े ये सामाजिक मूल्‍य ही आध्‍यात्मिकता की कसौटी थे, न कि परंपरागत आध्‍यात्मिकता का आपके लिए कोई निहितार्थ था। इसप्रकार की अंबेडकरी आध्‍यात्मिकता ही प्रत्‍यक्ष वैयक्तिक हितों से परे सामाजिक हितों की प्रतिष्‍ठा करने वाली होती है। चूँकि धर्म की यह नियंत्रणकारी भूमिका सरकार और कानून से कहीं बढ़कर प्रभावी होती है अत: हिंदू धर्म अनुमोदित जाति व्‍यवस्‍था और अस्‍पृश्‍यता को प्रतिबंधित करने वाले कानून बनाकर हिंदू उच्‍च जातियों को बाध्‍य नहीं किया जा सकता कि वे दलितों के साथ गलबाहियाँ करके अपने तमाम पूर्वाग्रहों को तिलांजली दे डाले। स्‍पष्‍ट है कि हिंदू धर्म की सामाजिक संरचना में ही जातीय अस्‍पृश्‍यता और भेदभावों के ऐसे कीटाणू भरे पड़े हैं जिन्‍हें गाँधीवादी आध्‍यात्मिकता का कोई भी साबुन साफ नहीं कर सकता अत: समतामूलक सामाजिक मूल्‍यों को महत्‍व देने वाले धार्मिक समुदाय का अंग बन जाना आंबेडकर  दलितों के लिए मुक्तिदायक मानते थे।

धर्म को आध्‍यात्मिक मुक्ति का मार्ग बताने वाले गाँधी जी भौतिक प्रलोभन आदि के लालच दिखाकर किये जाने वाले दलितों के धर्मांतरण को अनैतिक बताकर उसकी घोर आलोचना करते हैं। वास्‍तव में गाँधी जी ईसाई मिशनरियों के सेवा कर्म से आकर्षित हो दलितों द्वारा ईसाई धर्म में होने वाले धर्मांतरण के प्रति बहुत ज्‍यादा  असहिष्‍णु थे। उन्‍हें मिशनरियों के सेवा कर्म में विशुद्ध मानवीय भावना के स्‍थान पर अपने अनुयायियों की संख्‍या बढ़ाने का प्रच्‍छन्‍न लक्ष्‍य नज़र आता था। वे ईसाई मिशनरियों के पीछे विदेशी धन और शासन की ताकत भी देखते थे। यंग इंडिया में प्रकाशित खबर अनुसार डॉ. सिरेसोल नामक एक ईसाई मिशनरी के साथ अपनी बातचीत में वर्धा में उन्‍होंने सीधा आरोप लगाया था कि ईसाई मिशनरी सामाजिक कार्य सेवा के लिए नहीं करते बल्कि इसलिए करते हैं ताकि इस बहाने बहुत से लोग ईसाई धर्म में आ जाये। अत: ईसाई मिशनरियों के मन में निष्‍काम सेवा भाव नहीं है।[11] चाहे गाँधी जी ईसाई मिशनरियों पर आरोप लगाते हों कि वे सुविधा के लालच से अपने धर्म में दलितों का धर्मांतरण करते हैं[12] किंतु आंबेडकर  गाँधी जी और उनके हिंदू अनुयायियों की परवाह न करते हुए इस तथ्‍य को पूरी ईमानदारी से स्‍वीकरते हैं कि ‘‘यह निर्विवाद तथ्‍य है कि ईसाई मिशन भारतवासियों को ‘स्‍वस्‍थ देह’ और अपनी शरण में आने वालों को ‘स्‍वस्‍थ बुद्धि’ प्रदान करने की चेष्‍टा कर रहे हैं।’’[13]दूसरी ओर वे हिंदुओं को याद दिलाते हैं कि आपका और आपके धर्म का मानवता की सेवा से कोई नाता नहीं है। आपके धर्म में तो कर्मकांड और रीति-रिवाजों की प्रधानता है। जहाँ आंबेडकर  भारतीयों की शिक्षा और चिकित्‍सा के लिए ईसाई मिशनरियों को साधुवाद देते हैं, वहीं उनकी प्रखर आलोचनात्‍मक ईमानदारी से यह तथ्‍य भी छिपा नहीं रहता कि मिशनरी द्वारा चिकित्‍सा और शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य किया जाता है, उसका लाभ सवर्ण हिंदुओं ने ही उठाया है।[14]दलित ईसाइयों की दृष्टि से वे ईसाई मिशनरियों द्वारा स्‍कूलों, कॉलिजों और होस्‍टलों को चलाने में जो पैसा खर्च किया जा रहा था, उसे इसीलिए अपव्‍यय मानते थे। वे गाँधी जी पर व्‍यंग्‍य भी करते हैं कि उनके हिंदू धर्म को ईसाई मिशनरियों से भौतिक संपदायें और सेवायें ग्रहण करने पर कोई आपत्ति नहीं होती पर वे किसी प्रकार का भी प्रतिदान नहीं चाहते !

सभी धर्म समान हैं …?

धर्मांतरण के खिलाफ गाँधीजी की एक दलील यह थी कि सभी धर्म समान रूप से सत्‍य हैं और कोई धर्म अच्‍छा-बुरा नहीं होता। अत: वे मानते थे कि धर्मांतरण नहीं किया जाना चाहिए अपितु व्‍यक्ति को अपने ही धर्म का सच्‍चा अनुयायी बनना चाहिए। अगर वह उसके धर्म के मूलभूत सिद्धांतों की पालना पूर्ण आस्‍था और सच्‍चे हृदय से करता है तो वह निश्‍चय ही मोक्ष का अधिकारी होगा। और चूँकि हिंदू जाति व्‍यवस्‍था व्‍यक्ति का धर्म अपने जातीय कर्तव्‍यों की पालना बताती है तो इसके मायने हुए कि एक दलित अगर इस नश्‍वर संसार में जारी रहने वाले आवागमन से छुटकारा चाहता है तो उसे पवित्र हृदय और ईमानदारी से सफाई आदि दलित कर्म करते जाना चाहिए ! किंतु क्‍या गाँधीजी को यह पता न था कि दलितों का सारा आंदोलन तो था ही दलित कर्म और अस्‍पृश्‍यता के नरक से आज़ादी का आंदोलन, न कि आध्‍यात्मिक मुक्ति उनका लक्ष्‍य थी ? किंतु गाँधीजी चूँकि सभी धर्मों को समान रूप से सत्‍य का उपासक मानते थे अत: वे हिंदू, मुसलिम और ईसाई आदि धर्मालंबियों से आग्रह करते थे कि किसी दूसरे धर्मालंबी के धर्मांतरण के चक्र में न पड़कर वे स्‍वयं को अपने-अपने धर्मों का सच्‍चा अनुयायी सिद्ध करें। ‘यंग इंडिया’ में इस विषय पर गाँधीजी की लेखनी देखिए – ‘‘अगर हम हिंदू हैं तो हमें यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि कोई ईसाई हिंदू हो जाये, और मुसलमान हैं तो हमें यह दुआ नहीं मांगनी चाहिए कि हिंदू या ईसाई लोग मुसलमान बन जायें। हमें तो एकांत में भी यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि किसी का धर्म परिवर्तन हो, बल्कि हमारी आंतरिक प्रार्थना तो यह होनी चाहिए कि जो हिंदू है, वह और अच्‍छा और सच्‍चा हिंदू बने, जो मुसलमान है, वह और अच्‍छा मुसलमान बने और जो ईसाई है, वह और सच्‍चा ईसाई बने।’’[15]

गाँधजी चाहे हिंदू-मुसलिम एकता के अपने बृहद लक्ष्‍य को ध्‍यान में रखकर सभी धर्मों को समान घोषित करते हुए सभी धर्मों में समान श्रद्धा रखने वाले सर्वधर्म समभाव की वकालत करते हों लेकिन आंबेडकर  सभी धर्मों को वहीं तक समान मानते थे जहाँ तक सभी धर्मों के बारे में यह मान्‍यता है कि सभी धर्म ‘अच्‍छा’ करने में जीवन की सार्थकता घोषित करते हैं। किंतु इससे आगे आंबेडकर  बताते हैं कि इस अच्‍छे को लेकर न केवल विभिन्‍न धर्मों की अलग-अलग मान्‍यताएँ हैं अपितु अपने-अपने ‘अच्‍छे’ का प्रचार-प्रसार करने के लिए विभिन्‍न धर्म जो साधन अपनाते हैं, वे भी समान नहीं होते। आंबेडकर  प्रो. टीले के हवाले से[16]स्‍पष्‍ट करते हैं कि धर्मों की सकारात्‍मक और नकारात्‍मक, दोनों प्रकार की भूमिकाएँ रही हैं। कुछ धर्म हिंसक होते हैं और कुछ अहिंसक। कुछ धर्म प्राणी को मानव बनाते हैं तो कुछ बर्बर। आंबेडकर  गाँधीजी की तरह इस अवधारणा में विश्‍वास नहीं करते कि धर्म प्राणी को प्रभु तक ले जाने वाला रास्‍ता है। किंतु वे कहते हैं कि एक क्षण को अगर मान भी लें कि धर्म ईश्‍वर तक ले जाने वाला मार्ग है, तो भी आंबेडकर  की मान्‍यता है कि ‘‘यह नहीं कहा जा सकता कि हर धर्म निश्‍चय ही प्रभु तक ले जाएगा। न ही यह कहा जा सकता है कि हर मार्ग भले ही वह अंतत: प्रभु तक ले जाता हो, सही मार्ग है।’’[17]यहाँ आप गाँधी और आंबेडकर  में एक अद्भुत विरोधाभास देख सकते हैं। गाँधीजी लक्ष्‍य प्राप्ति से ज्‍यादा चाहे साधन की पवित्रता में विश्‍वास करते हों लेकिन सभी धर्मों को समान रूप से ईश्‍वर तक ले जाने वाला मार्ग बताते हुए वे साधन की विभेदता को दरकिनार कर जाते हैं। किंतु जो आंबेडकर  व्‍यावहारिक माने जाते हैं, वे यहाँ पर ईश्‍वर तक ले जाने का दावा करने वाले विभिन्‍न धर्मों के रास्‍तों की नैतिकता को परखने पर बल दे रहे हैं। आंबेडकर सभी धर्मों को समान बताना गाँधीजी की एक कूटनीति मानते हैं ताकि गुण-दोष के आधार पर हिंदू धर्म की निरख-परख के दलित आग्रह की उपेक्षा की जा सके। सभी धर्मों को समान मानने वाला सिद्धांत असल में तुलनात्‍मक धर्मविज्ञान की देन है जिसने अपौरूषेयता के आधार पर कुछ धर्मों को श्रेष्‍ठ मानने जैसी गैर तार्किक अवधारणा का खंडन करते हुए उन धर्मों को भी इन तथाकथित अपौरूषेय धर्मों की श्रेणी में ला खड़ा किया जो नवीन धर्म होने से इस प्रकार की प्राचीनता और तदजन्‍य ईश्‍वरीय निर्मिति का दावा नहीं कर सकते थे। एक विवेकवान व्‍यक्ति की जैसे आंबेडकर  भी अपौरूषेयता को धार्मिक श्रेष्‍ठता का आधार नहीं स्‍वीकारते किंतु वे गाँधीजी की सीमा तक जाकर सभी धर्मों को समान भी नहीं मानते। अत: जब आंबेडकर के अनुसार गुण-दोष के आधार पर धर्मों में पारस्‍परिक श्रेणीक्रम है तो दलितों का यह दावा भी ठीक बनता है कि वे हिंदू धर्म त्‍यागकर अपने लिए किसी ज्‍यादा बेहतर साबित होने वाले धर्म का चयन कर लें।

1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में डा. आंबेडकर और गांधी दोनो ने भाग लिया

आंबेडकर  हिंदू जाति व्‍यवस्‍था द्वारा दलितों पर लादे गये अलगाव को और तदजन्‍य हीन भावना से दलितों को छुटकारा दिलवाने का एक मात्र रास्‍ता धर्म परिवर्तन को पाते थे बशर्ते कि अपनाया जाने वाला नया धर्म दलितों के साथ हिंदू धर्म में जारी तमाम प्रकार के बहिष्‍कार, बेरूखी और पूर्वाग्रहों से मुक्‍त हो। आंबेडकर  का यह मानना बिल्‍कुल वाजिब था कि अगर नया धर्म दलितों को ऐसा माहौल मुहैया कराने में सफल हो, जिसमें वे किसी भी दूसरे व्‍यक्ति के बराबर अपने को समझ सकें तो उनमें हिंदू जाति व्‍यवस्‍था के कारण घर कर गई सदियों पुरानी हीनभावना भी दूर हो जायेगी।[18]आंबेडकर  ने गहराई से इस चीज को समझाने का प्रयास किया है कि जात-पांत के बंधनों से मुक्‍त किसी धार्मिक समुदाय का सदस्‍य बनने से दलितों का अलगाव कैसे दूर हो सकता है। वे बताते हैं कि ऐसे धार्मिक समुदाय के ईश्‍वर में आस्‍थावान होने पर यह समुदाय धर्मांतरित दलितों को अपने समुदाय का सदस्‍य मानने लगता है और इसप्रकार की सदस्‍यता दलितों के लिए वैसी ही लाभकारी सिद्ध होती है जैसी कि कौटुंबिक फायदों की स्थिति होता है। आंबेडकर  विश्‍लेषण के साथ बताते हैं कि पहले रक्‍त संबंध की समानता किसी समुदाय का सदस्‍य होने की अनिवार्य शर्त हुआ करती थी किंतु अब रक्‍त संबंध की समानता का स्‍थान धार्मिक आस्‍था की समानता ने लिया है। आंबेडकर  धर्म से प्राप्‍त समतामूलक समुदाय विशेष की सदस्‍यता दलितों के लिए इसलिए अपेक्षित मानते हैं क्‍योंकि इस विधि से हिंदुओं के दमन और अत्‍याचार का सामना करने के लिए दलितों को अपना एक सगा समुदाय प्राप्‍त हो जाता है। अन्‍यथा हिंदू धर्म में रहने से दलित दोहरे अलगाव का शिकार बनने को बाध्‍य हैं। एक तो सवर्ण हिंदू जातियाँ उनके साथ बहिष्‍कृत का सा व्‍यवहार करती हैं, दूसरे गैर हिंदू समुदाय भी उन्‍हें हिंदू मानकर उनसे अलगाव रखते हैं। आंबेडकर  दलितों की आँखें खोलते हुए बताते हैं कि उन्‍हें मुक्ति के लिए हिंदू धर्म त्‍यागना ही होगा अन्‍यथा उन्‍हें न्‍याय कभी न मिल सकेगा। कारण कि आंबेडकर  न्‍याय को एक ऐसा विशेषाधिकार मानते हैं समुदाय विशेष के सदस्‍य को ही समुदाय विशेष के तहत प्राप्‍त होता है। स्‍पष्‍ट है कि चूँकि हिंदू समाज का अंग होकर भी सवर्ण हिंदू अछूतों को अपने समुदाय का सदस्‍य नहीं मानते अत: हिंदू धर्म में रहते हुए उन्‍हें उस न्‍याय की आशा नहीं करनी चाहिए जो हिंदू धर्म में सवर्ण हिंदुओं का विशेष अधिकार रहा है।

जो दलित हिंदू धर्म में रहते हुए ही दलितत्‍व से छुटकारे के लिए अपनी जाति और नाम बदलने की, अपनी दलित पहचान से मुक्ति पाने की जद्दोजहद करते हैं, आंबेडकर  जानते हैं कि इसप्रकार का नाम पविर्तन अंतत: ढाक के वही तीन पात वाला ही साबित होता है। ऐसा नहीं है कि आंबेडकर  शेक्‍सपियर सदृश्‍य का नाम का महत्‍व नहीं मानते हों किंतु वे दलितों के नाम परिवर्तन का समर्थन उसी सूरत में करते हैं जब वह नाम ‘‘हिंदू धर्म से बाहर के समुदाय का नाम हो। वह ऐसा हो कि हिंदू धर्म उसे विकृत और अवनत नहीं कर सके।’’[19]हिंदी समेत समस्‍त भारतीय भाषाओं के दलित आत्‍मकथाकारों का यह साझा अनुभव रहा है कि दलित अगर सवर्ण जैसा नाम रखकर स्‍वाभिमान की अभिलाषा रखते हैं तो यह अभिलाषा मृग मरीचिका ही साबित होती है क्‍योंकि एक तो येनकेन प्रकारेन ब्राह्मणवाद दलित की जाति ढूंढ़ कर ही दम लेगा और द्वितीय, दलितों के सवर्ण नामों की धज्जियाँ उड़ाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखेगा।

शुद्धि और घर वापसी

आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन और इसके वर्तमान भगवा संस्‍करण ‘घर वापसी’ ने जिसप्रकार सांप्रदायिक विद्वेष और दंगों को तब और अब जन्‍म दिया है, उस परिप्रेक्ष्‍य में य‍ह तथ्‍य दलितों सहित तमाम भारतीयों के लिए जानना जरूरी है कि न तो गाँधी जी और न ही आंबेडकर  शुद्धि आंदोलन के समर्थक थे। जैसाकि हम पूर्व में भी देख चुके हैं कि गाँधी जी जोर-जबरदस्‍ती, भूख से या कुछ रूपये-पैसों के लालच से संपन्‍न धर्म परिवर्तनों को हृदय परिवर्तन का उदाहरण मानते ही न थे, अत: उनका साफ कहना था कि अगर वे धर्मांतरित हिंदू झूठे धर्मांतरण की विगत भूल के पश्‍चाताप स्‍वरूप हिंदू धर्म में अपनी इच्‍छा से वापिस आना चाहें तो उनके लिए किसी प्रकार की कोई शुद्धि आवश्‍यक नहीं।[20]यहाँ हमें इस संभावना पर भी ध्‍यान देना चाहिए कि संभवत: हिंदू-मुसलिम सौहार्द्र को बचाये  रखने के लिए भी गाँधी जी शुद्धि आंदोलन से असहमति दिखाते हैं। दलितों के ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक कारणों से इस्‍लाम धर्म ग्रहण करने या करवाये जाने की प्रतिक्रिया में हिंदू संख्‍या बल की रक्षा में आर्य समाज आदि के नेतृत्‍व में उस समय जो शुद्धि आंदोलन चलाया गया, उससे कुछ रूढ़ीवादी हिंदू सहमत नहीं थे। इनका मानना था कि हिंदू धर्म और संस्‍कृति में एक ऐसी अंतर्निहित शक्ति है जो सदैव से हमारे धर्म और संस्‍कृति की रक्षा करती आई है और हमारे धर्म में इसीलिए प्रकृतया धर्म परिवर्तन और धर्म प्रचार के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। आंबेडकर  हिंदू पोंगापंथियों की इसप्रकार की आत्‍मश्‍लाघा पर मतैक्‍य रख ही नहीं सकते थे। आंबेडकर  प्रो. जौली आदि विद्वानों के हवाले से अपना यह मत रखते हैं कि हिंदू किसी जमाने में प्रचार-प्रसार करने वाला और दूसरों को अपने धर्म में दीक्षित करने वाला धर्म निश्‍चय ही रहा था अन्‍यथा पूरे भारत वर्ष में आज यह फैला हुआ नज़र नहीं आ सकता था।[21]किंतु वे इस सच्‍चाई पर भी अपनी मुहर लगाते हैं कि आज हिंदू धर्म, धर्म प्रचार करने की अपनी जीवनी शक्ति खो चुका है। आंबेडकर  उन कारणों पर भी प्रकाश डालते हैं जिनके कारण यह धर्म कालांतर में धर्म प्रचारक चरित्र खो देता है। आंबेडकर इस शक्ति ह्रास का कारण वर्णाश्रम व्‍यवस्‍था और तद्जन्‍य जाति प्रथा के जन्‍म को मानते हैं। आज किसी परधर्मी और परदेशी के लिए हिंदू धर्म में धर्मांतरण की कोई संभावना नहीं रही है क्‍योंकि जाति व्‍यवस्‍था की जकड़न दूसरे धर्मालंबी के लिए हिंदू सामाजिक जीवन में हिस्‍सेदारी का कोई स्‍पेस नहीं छोड़ती। आंबेडकर  हिंदू धर्म में सिर्फ सामूहिक धर्मांतरण के लिए ही स्‍पेस देखते हैं ताकि ऐसे धर्मांतरित लोगों की एक अलग जाति ही बन जाये। किंतु आज पूरे के पूरे समुदाय का धर्मांतरण होता नहीं है, अत: इसप्रकार की स्थिति अब असंभवप्राय: ही है। आंबेडकर  हिंदू समाज को जातियों का परिसंघ कहते हैं और हर जाति को अपने-अपने अहाते में बंद पाते हैं। स्‍पष्‍टत: जातियों की चौहद्दियों में बंटा हिंदू धर्म किसी परधर्मी को आत्‍मसात ही नहीं कर सकता क्‍योंकि हिंदू समाज व्‍यवस्‍था एक बंद व्‍यवस्‍था है अत: मुस्लिम संख्‍या बल और दलितों के इस्‍लामीकरण का सामना करने के लिए कुछ प्रतिक्रियावादी तत्‍वों द्वारा शुद्धि आंदोलन का जो हल्‍ला खड़ा किया जाता था, आंबेडकर  भी गाँधी जी की तरह ही उससे असहमत थे। किंतु दोनों की असहमतियों का कारण बिल्‍कुल अलग-अलग था। गाँधीजी दलितों के धर्मांतरण की संभावना से ही इंकार करते थे अत: वे शुद्धि आंदोलन को सैद्धांतिक रूप से और धामिर्क सौहार्द्र की दृष्टि से भी अनुचित ठहराते हैं जबकि आंबेडकर  हिंदू धर्म और समाज की प्रकृति ही धर्मांतरण के प्रतिकूल मानते हैं। अत: प्रकारांतर से शुद्धि या घर वापसी जमीनी धरातल पर असंभव है।

आंबेडकर  हिंदू समुदाय की संख्‍या वृद्धि के उद्देश्‍य से संचालित शुद्धि आंदोलन की व्‍यर्थता बताते हुए हिंदुओं को सलाह देते हैं कि संख्‍या बल किसी समुदाय की ताकत का निर्धारक नहीं होता। वे हिंदुओं को इस यथार्थ का सामना करने और स्‍वीकारने पर बल देते हैं कि मुसलमान संख्‍या में उनसे कम होकर भी उन पर भारी पड़ते हैं तो उनकी ताकत का रहस्‍य उनके संख्‍या बल में नहीं अपितु उनके समाज के संगठनात्‍मक ठोसपन में है। अत: आंबेडकर  का हिंदुओं को स्‍पष्‍ट निर्देश था कि अगर उन्‍हें ताकतवर बनना है और वे सच्‍चे दिल से हिंदू धर्म का भविष्‍य उज्‍जवल देखना चाहते हैं, तो उन्‍हें हिंदू समुदाय की एकात्‍मकता में वृद्धि करनी होगी। और इसके लिए आप जाति प्रथा जैसी विघटनकारी बुराई का जड़ से उन्‍मूलन करना अनिवार्य बताते हैं। कारण कि जितनी अधिक जातियाँ होंगी, हिंदू समाज का उतना ही ज्‍यादा बिखराव और विलगाव होगा। शुद्धि को आंबेडकर  हिंदू समुदाय के और भी ज्‍यादा विघटन के रूप में लेते हैं[22]क्‍योंकि इससे जहाँ मुस्लिम नाराज होते हैं, वहीं जिस व्‍यक्ति की शुद्धि करके पुन: हिंदू धर्म में वापिस लाया जाता है, वह न घर का रहता है, न घाट का। जहाँ पिछला धार्मिक समुदाय उससे छूट जाता है, वहीं वह नये हिंदू समुदाय के सामाजिक-धार्मिक जीवन के लिए बाहरी बनकर ही रह जाता है।

दलितों की तर्कक्षमता को नकारते गांधी

दलितों के धर्मांतरण के मुद्दे पर गाँधीजी दलितों के विवेक और तार्किक विश्‍लेषण के प्रति पूर्वाग्रह रखते हुए उनमें इतनी काबिलियत ही नहीं देखते जो निष्पक्ष ढंग से धर्मों के पारस्‍परिक गुण-अवगुण की तुलना करके धर्मांतरण पर सटीक निर्णय लेने के लिए अपेक्षित होती है। इंटरनेशनल मिशनरी कौंसिल के चेयरमैन डॉ.जॉन मॉट के साथ दलितों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण के मामले में वार्तालाप के दौरान गाँधीजी का यह पक्षपात खुलकर सामने आ जाता है – ‘‘हरिजनों के कल्‍याण के लिए आप प्रभु से प्रार्थना करते तो यह बात मैं समझ सकता था, लेकिन उसके बजाय आपने उन लोगों से जिनमें आपकी बात को समझने जितनी भी बुद्धि नहीं है, ईसाई धर्म में चले आने की अपील की। निश्‍चय ही उनमें ईसा और मुहम्‍मद, नानक और ऐसे ही धर्म प्रणेताओं के बीच अंतर करने लायक समझ नहीं है।’’[23] अगर यहाँ गाँधी जी का इशारा धर्म ज्ञान की मीमांसा और दार्शनिक गहराइयों की ओर है, तो बहुसंख्‍यक अनपढ़ दलित तबका निश्‍चय ही इन सूक्ष्‍म वाद-विवादों की तह तक नहीं जा सकता था और न श्रम की पूजा करने वालों के पास इन सब चीजों के लिए समय ही निकलता है। किंतु दलितों की आवश्‍यकता इसप्रकार की आध्‍यात्मिक-दार्शनिक समस्‍याओं में पारंगतता हासिल करना न थी, उनकी समस्‍याएँ तो हिंदू धर्म की सामाजिक-आर्थिक व्‍यवस्‍था में निहित थीं जहाँ जातीय अस्‍पृश्‍यता और भेदभाव के चलते उन्‍हें दोयम दर्जें का नागरिक क्‍या, इंसान तक नहीं माना गया था। आज का निम्‍नवर्गीय विमर्श गाँधीजी की इस मानसिकता से कोई वास्‍ता नहीं रखता जो मानसिकता यह कहती हो कि दलितों को अपने भले-बुरे की पहचान कर समुचित धर्म चयन की समझ नहीं होती । इस विषय में आंबेडकर  का मानना था कि दलितों का धर्म परिवर्तन इतिहास का पहला वास्‍तविक धर्म परिवर्तन है जहाँ दलित और अस्‍पृश्‍य धर्मों के सद् गुणों और मूल्‍यों पर विचार करके धर्म परिवर्तन करते हैं।[24]अत: वे गाँधी जी से सवाल उठाते हैं कि उन्‍हें अस्‍पृश्‍यों के धर्म परिवर्तन के औचित्‍य पर शंका क्‍यों है ?

ईसाई मिशनरियों के पक्ष और विपक्ष में

जैसाकि हमने पूर्व में उल्‍लेख किया है कि गाँधी जी ईसाई मिशनरियों द्वारा तथाकथित आर्थिक प्रलोभन और सामाजिक सेवा कर्म के लालच से दलितों का जो धर्मांतरण किया जाता है,उसके सख्‍़त खिलाफ थे। लेकिन आंबेडकर  को इस गाँधीवादी पूर्वाग्रह में यहाँ मुसलिम धर्मांतरण के प्रति किंचित उदारता भी नज़र आती है जिस पर वे सवाल उठाने से पीछे नहीं रहते। यह ऐतिहासिक सत्‍य है और इसमें कोई वाद-विवाद नहीं हो सकता कि भारत पर आक्रमण करने वाले मुसलिम आक्रांताओं का एक लक्ष्‍य यहाँ के हिंदू निवासियों का बलात् धर्म परिवर्तन भी था।[25] तत्‍कालीन आजादी के आंदोलन के समय भी मुसलिम सांप्रदायिक ताकतों की यह योजना गोपनीय न थी कि ये ताकतें अस्‍पृश्‍यों को इस्‍लाम में सम्मिलित करना चाहती थीं। 1923 के कोकोनाडा में संपन्‍न काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में मौलाना मोहम्‍मद अली द्वारा अध्‍यक्ष के रूप में काँग्रेस के खुले मंच से इसप्रकार की एक योजना की जो घोषणा की गई थी, उसे आंबेडकर  ने उदाहरण के रूप में प्रस्‍तुत भी किया है। अत: उन्‍हें गाँधी जी से शिकायत है कि जिसप्रकार वे ईसाई मिशनरियों द्वारा दलितों के धर्मांतरण का बुलंद स्‍वर में विरोध करते हैं, उसी प्रकार वे क्‍यों नहीं इस्‍लाम में अस्‍पृश्‍यों को शामिल किए जाने का स्‍पष्‍ट और दृढ़ रीति से विरोध नहीं कर पाते ? गाँधी जी राजनीतिक मजबूरियों के चलते आंबेडकर  के इस सवाल का जबाव नहीं दे सकते थे। किंतु आंबेडकर  स्‍वयं गाँधी जी की इस राजनीति मजबूरी और भेदभाव पर प्रकाश डाल देते हैं। आंबेडकर  जानते थे कि इस रहस्‍य का राज मुसलिमों की बड़ी संख्‍या में था जिनसे दोस्‍ती करना गाँधी जी और काँग्रेस के लिए लाभकारी था, अन्‍यथा वे राष्‍ट्रवाद के मार्ग का काँटा बन सकते थे। लेकिन गाँधी जी इस राजनीति नियम को भी नहीं समझ सके कि सांप्रदायिक ताकतों से समझौता उन्‍हें वैधानिकता और स्‍वीकृति प्रदान करना होता है जिसका खामियाजा हमें भारत विभाजन के रूप में आगे चलकर उठाना पड़ा।

डा. आंबेडकर

आंबेडकर ने गाँधी जी द्वारा दलितों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण और मुसलिम धर्म में धर्मांतरण पर दो राय रखने की आलोचना अवश्‍य की थी किंतु ऐसा भी नहीं कह सकते कि वे स्‍वयं दलितों के मुसलिम धर्मांतरण के बनिस्‍पत ईसाई धर्म में धर्मांतरण को कहीं ज्‍यादा वरीयता देते हों। एकतरफ आंबेडकर  ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धर्मांतरण की गलत रणनीति पर खेद व्‍यक्‍त करते हैं कि उन्‍होंने दलितों की अपेक्षा प्रारंभ में ब्राह्मण आदि उच्‍च जातियों को आकर्षित करने पर व्‍यर्थ में बल दिया[26] वहीं ईसाइयों में व्‍याप्‍त जातिगत ऊँच-नीच के लिए भी वे उनकी भर्त्‍सना करते हैं। इसप्रकार आंबेडकर का दलित दृष्टिकोण न ईसाई धर्म को कोई खास तवज्‍जो देता है, न गाँधी जी की जैसे इस्‍लाम को धर्मांतरण की विशेष छूट देता है। जैसाकि अभी उल्‍लेख हुआ है कि आंबेडकर ने अतीत के ईसाई मिशनरियों की भूल की ओर तत्‍कालीन मिशनरियों का ध्‍यानाकर्षित किया जिसके कारण उन्‍हें अपेक्षित सफलता न मिल सकी। आपके अनुसार उनकी एक महत्‍वपूर्ण रणनीतिगत  त्रुटि थी – प्रारंभिक मिशनरियों द्वारा ब्राह्मणों से शास्‍त्रार्थ करके हिंदू और ईसाई धर्मों के गुण-दोषों की तुलना द्वारा उन्‍हें ईसाई धर्म में दीक्षित करने का प्रयास करना। उनका यह सोचना संभवत: गलत न था कि उच्‍च जातियों के धर्मांतरण कर लेने पर उनका अनुकरण करते हुए निम्‍न जातियों के लोग भी ईसाई धर्म अपना लेंगे। किंतु आंबेडकर  के अनुसार उन्‍हें इस सामान्‍य बात का भी भान न रहा कि चातुर्वर्ण्‍य व्‍यवस्‍था में अपना हित देखने वाला ब्राह्मण भाईचारे का संदेश देने वाले किसी धर्म को भला क्‍योंकर स्‍वीकार करने लगा। इसीलिए आंबेडकर  की अब उन्‍हें सीख थी कि वे ऊँची जातियों को लुभाना छोड़कर दलितों पर अपना ध्‍यान केंद्रित करें।

लेकिन आंबेडकर  दलितों के ईसाई धर्मांतरण से आशान्वित नहीं थे क्‍योंकि व्‍यवहार में उन्‍हें इसका कटु अनुभव[27] हुआ था कि धर्मांतरित ईसाइयों में भी जातिवाद शेष रहता है क्‍योंकि ईसाई मिशनरियों ने हिंदुओं को आकर्षित करने के अभियान में उन्‍हें मूर्तिपूजा और जाति संबंधी व्‍यवस्‍था की छूट जैसी कुछ महत्‍वपूर्ण रियायतें दी थीं। यही कारण है कि ईसाई धर्म में धर्मांतरित लोगों के साथ उनकी जातियाँ भी ज्‍यों की त्‍यों चली आई हैं। दलित ईसाइयों के साथ वहाँ सवर्ण ईसाई भी हैं। इसप्रकार दलित ईसाइयों को एक ओर सवर्ण ईसाई और सवर्ण हिंदू, दोनों की घृणा का सामना करना पड़ता है, वहीं वे हिंदू समुदाय के अपने ही दलित बंधुओं द्वारा किये गये बहिष्‍कार को झेलने के लिए भी बाध्‍य होते हैं।[28]वैसे आंबेडकर  यह भी स्‍वीकारते हैं कि उत्‍तर की तुलना में दक्षिण के ईसाइयों में और प्रोटेस्‍टेंटों की अपेक्ष कैथोलिकों में जातीय भेदभाव ज्‍यादा हैं। यहाँ ध्‍यातव्‍य है कि आंबेडकर  की जैसे गाँधी जी भी दलित ईसाइयों की सामाजिक प्रतिष्‍ठा बेहतर नहीं मानते थे। वे भी दलित ईसाइयों में धर्मांतरण उपरांत भी अस्‍पृश्‍यता का कलंक देखते थे।[29] लेकिन गाँधी जी जहाँ इस समस्‍या के साथ कुछ अन्‍य कारणों से भी दलितों के धर्मांतरण के कट्टर विरोधी थे, वहीं आंबेडकर  दलितों के ईसाईकरण के विरोधी न थे, अपितु वे तो इसप्रकार कर खामियों को दूर करने के लिए ईसाई मिशनरियों से अपेक्षा रखते थे। जैसाकि कहा गया है, उन्‍हें तो ईसाई मिशनरियों द्वारा दलितों पर अपेक्षित ध्‍यान न दिये जाने का खेद भी था।

दलित चेतना रहित ईसाई दलित

वैसे आंबेडकर  ईसाई बन गये दलितों से भी निराश थे क्‍योंकि वे उनमें दलित चेतना नहीं पाते थे और न उन्‍हें शेष दलितों द्वारा अस्‍पृश्‍यता और सामाजिक अन्‍यायों से मुक्ति के लिए चलाये जा रहे राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों और सम्‍मेलनों के साथ खड़ा पाते थे।[30]इसके लिए आंबेडकर  ईसाई धर्म के मूल चरित्र को ही समस्‍याप्रद मानते हैं क्‍योंकि ईसाई मिशन अपने धर्म को मूलत: आध्‍यात्मिक बनाये रखना चाहता है। वह ईसाई बन गये दलितों में अपनी शोचनीय स्थिति के प्रति आक्रोश पैदा नहीं होने देता क्‍योंकि वह दलितों की पतनशील स्थिति के लिए समाज व्‍यवस्‍था को उत्‍तरदायी न ठहराकर उनके मूल पाप को जबावदेह बताता है। यहाँ आकर हिंदू धर्म और ईसाई धर्म का अंतर दलित के लिए मिट जाता है क्‍योंकि एक जहाँ दलित के साथ बरती जाने वाली अस्‍पृश्‍यता के नरक का कारण उसके पूर्व जन्‍मों के पाप में देखता है, वहीं दूसरा इसका हेतु पूर्वजों का पाप बताता है। आंबेडकर  देख रहे थे कि ईसाई बनकर भी दलित अपने पूर्ववर्ती हिंदू देवी-देवताओं का पुछल्‍ला बना रहता है। सर्वाधिक प्रबुद्ध और शिक्षित समुदाय होने पर भी ईसाई धर्म में दलितों के साथ भेदभाव होना कलंक की बात है और आंबेडकर  इसका कारण शिक्षित ईसाइयों और अशिक्षित ईसाइयों के बीच नातेदारी का अभाव मानते हैं क्‍योंकि शिक्षित ईसाई सवर्ण जातियों से धर्मांतरित थे जबकि अशिक्षित ईसाई अधिकांशत: दलित थे। शिक्षित-अशिक्षित की तरह ही सवर्ण और दलित ईसाइयों में वर्ग भेद भी था। और ये भेद आज भी मिट नहीं पाये हैं।

आंबेडकर  जहाँ जातिप्रथा के कारण भारतीय ईसाइयों में एक समुदायगत चेतना का अभाव पाते हैं, वहीं उन्‍हें उनमें एक प्रभावी राजनीतिक संघर्षशीलता भी नहीं दिखाई दी क्‍योंकि तत्‍कालीन भारतीय ईसाई विदेशी मिशनरियों और ब्रिटिश सरकार के आश्रय पर जी रहे थे। आंबेडकर  ने ईसाइयों की देशभक्ति पर गाँधी जी की जैसे सीधे उँगली तो नहीं उठाई थी किंतु इसी परमुखापेक्षी प्रवृत्ति के कारण आंबेडकर  को वे सार्वजनिक जीवन धारा से कटे नज़र आते थे।[31] ध्‍यातव्‍य है कि गाँधी जी दलितों के ईसाई मत में धर्मांतरण का विरोध अपने इस पूर्वाग्रह के तहत भी करते थे कि इससे अराष्‍ट्रीयता को बढ़ावा मिलेगा। उन्‍हें ईसाई भारतीयों में अपने भारतीय होने पर, अपने जन्‍मदाता परिवारों पर लज्‍जा दिखाई देती थी। वे उन्‍हें अपनी मातृभाषाओं से संबंध तोड़ता भी पाते थे। वे उन्‍हें अपने पैतृक धर्म और वेशभूषा से घृणा करते भी पाते थे।[32]

अंत में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आंबेडकर  आधुनिकतावादी और नैतिकतावादी होकर भी आधुनिक शिक्षा और धार्मिक नैतिकता के इस झांसे में नहीं आये कि अकेले इनके भरोसे अस्‍पृश्‍यता का कभी अंत हो सकता है।आंबेडकर  की सूक्ष्‍म दृष्टि शिक्षा जनित विवेक की सीमा जानती थी। वे बुद्धिवादियों के इस आश्‍वासन के कायल न थे कि जब सब पढ़-लिख जायेंगे तब स्‍वत: ही अस्‍पृश्‍यता का अंत हो जायेगा। उन्‍होंने सवाल उठाया है कि कितने ब्राह्मण पढ़-लिखकर अस्‍पृश्‍यता की धारणा से स्‍वयं को मुक्‍त कर सके हैं ! वे इस सच्‍चाई को जानते थे कि शिक्षा जन्‍य विवेक निहित स्‍वार्थों के सामने बौना साबित होता है और अस्‍पृश्‍यता में ब्राह्मण जाति का हित निहित है। धर्म की नैतिकता में विश्‍वास रखने वालों का भी आंबेडकर  से आग्रह हो सकता था कि वे मानव मन में धर्म द्वारा जाग्रत की जाने वाली नैतिक दृष्टि में आस्‍था रखे क्‍योंकि यह नैतिकता सवर्णों को अपने द्वारा बरती जाने वाली अस्‍पृश्‍यता के पाप का बोध करायेगी और दलित बंधुओं के प्रति उनके मन में कर्तव्‍य भाव जगायेगी। किंतु आंबेडकर  का मानना था कि नैतिकता की सारी ताकत अपने समुदाय की चार दीवारी तक सीमित रहती है। और चूँकि सवर्ण जातियाँ अछूतों को हिंदू समुदाय का वास्‍तविक सदस्‍य मानती ही नहीं अत: हिंदू नैतिकता से अस्‍पृश्‍यों को न्‍याय की कोई उम्‍मीद भी नहीं रखनी चाहिए।

इसप्रकार आंबेडकर  हिंदू धर्म समेत किसी भी धर्म के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखते थे। गाँधी जी के साथ धर्मांतरण के मुद्दे पर उनके समझौता विहीनता की हद तक मतभेद थे। वे हिंदू धर्म त्‍याग में ही दलित की मुक्ति देखते थे। किंतु वे दलितों की स्‍वायत्‍त पहचान भी चाहते थे। अत: वे दलितों के लिए ऐसा धर्म अंगीकार करना चाहते थे जो दलितों को ‘मानव’ के रूप में पूरे सम्‍मान के साथ स्‍वीकार करे और उन्‍हें अपनी राजनीति का मुहरा न बनाये। और आंबेडकर का अंतिम निष्‍कर्ष था कि इन दोनों कसौटियों पर बौद्ध धर्म ही खरा उतर सकता था। किंतु परंपरागत बौद्ध धर्म में भी उन्‍होंने दलितों की आवश्‍यकताओं और अपेक्षाओं अनुसार कई सारे वाजिब़ परिवर्तन किये थे।

धर्म परिवर्तन को लेकर गाँधी-आंबेडकर  बहस और संबद्ध प्रश्‍न  कथित घर वापसी के राज्य प्रायोजित हल्ले के इस दौर में हमें रास्‍ता दिखाने वाले हो सकते हैं।

[1] . बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 392

[2] . भगवानदास, ‘आंबेडकर  धर्मांतरण के पथ पर’, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 60

[3]. आंबेडकर  : स्‍पीचेज एंड राइटिंग्‍ज, खंड 1, प्रकाशक – शिक्षा विभाग, महाराष्‍ट्र सरकार, 1979, पृष्‍ठ 80

[4]. यंग इंडिया, अंक 24 नबंवर, 1927

[5]. आंबेडकर , ‘अन्हिलेशन ऑफ कास्‍ट’, स्‍पीचेज एंड राइटिंग्‍ज, खंड 2, प्रकाशक – शिक्षा विभाग, महाराष्‍ट्र सरकार, 1979, पृष्‍ठ 66

[6]. यंग इंडिया, अंक 8 दिसंबर, 1935

[7]. भगवानदास, ‘आंबेडकर  धर्मांतरण के पथ पर’, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 68-69

. [8] बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10 में उद्धृत, पृष्‍ठ सं. 260

[9]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 337

[10]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 338

[11]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 343

[12]. प्रो. के.एस. वासवानी के लेख ‘गाँधीजी और धर्मांतरण की समस्‍या‘ में उद्धृत, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 86

[13]. हरिजन, 1926, पृष्‍ठ 140-141

[14] . बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 392

[15]. प्रो. के.एस. वासवानी के लेख ‘गाँधीजी और धर्मांतरण की समस्‍या‘ में उद्धृत, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 76

[16]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 336

[17]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 390

[18]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 350

[19]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 351

[20]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 356-57

[21]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 359

[22]. क्रिश्चियन मिशनों के साथ गाँधी जी का संवाद, प्रो. के.एस. वासवानी के लेख ‘गाँधी जी और धर्मांतरण समस्‍या में उद्धृत, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 92

[23].  बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 335

[24].‘पाकिस्‍तान अथवा भारत का विभाजन’ में आंबेडकर  ने भारत पर हुये मुसलिम आक्रांताओं के हमलों और इन आक्रमणों के तहत किये गये जबरन धर्मांतरण के ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्‍तुत करते हुए इस सच्‍चाई को स्‍वीकार किया है कि अतीत में हिंदू-मुसलिम एकता का जो मिथक देखने-दिखाने की कोशिश की जाती है, वह मिथक ठोस ऐतिहासिक तथ्‍यों की गर्मी नहीं सहन कर सकता। विस्‍तृत विवरण हेतु देखिए ‘पाकिस्‍तान अथवा भारत का विभाजन’ का अध्‍याय चार ‘एकता का विघटन’, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 15

[25]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 376-377

[26]. दक्षिण भारत के दलित ईसाइयों द्वारा साइमन कमीशन को दिया गया ज्ञापन इस संदर्भ में आंबेडकर  ने उद्धृत किया है। दक्षिण के दलित ईसाइयों की पंचम अथवा पेरिया कहकर निंदा की जाती थी। देखिए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 396-397

[27]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 396

[28]. हरिजन 25, प्रो. के.एस. वासवानी के  लेख ‘गाँधी जी और धर्मांतरण समस्‍या’ में उद्धृत, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 86

[29]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 416-417

[30]. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10, पृष्‍ठ सं. 421

[31]. यंग इंडिया 20,  प्रो. के.एस. वासवानी का लेख ‘गाँधी जी और धर्मांतरण समस्‍या’ में उद्धृत, देवेंद्र स्‍वरूप संपादित ‘मंथन’, अंक 1, वर्ष 5, पृष्‍ठ 96

[32]. अस्‍पृश्‍यों की चेतावनी, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर  संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशक डॉ. आंबेडकर  प्रतिष्‍ठान, नई दिल्‍ली, खंड 10


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लेखक के बारे में

प्रमोद मीणा

युवा आलोचक प्रमोद मीणा महात्मा गांधी सेंट्रल यूनिवर्सिटी, मोतीहारी (बिहार) के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। इससे पहले वे पांडिचेरी यूनिवसिर्टी, पांडीचेरी में भी पढा चुके हैं।

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