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भेदभाव और शोषण को दर्ज करती आत्मकथायें (होलिस्टिक ऑटो एथनोग्राफी)

दलित-ओबीसी जाति से आने वाले लेखकों की आत्मकथायें सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव की स्थितियों, परिवेश और उसके कारकों को स्पष्ट करती हैं। ये आत्मकथायें मानवशास्त्रीय अधययन के लिए एक स्रोत होती हैं। दलित-ओबीसी लेखकों की आत्मकथाओं में शोषण की कुछ समान पृष्ठभूमि है कुछ अलग। इन आत्मकथाओं के जरिये दलित-ओबीसी समुदायों के लिए शैक्षणिक परिदृश्य को स्पष्ट करता तृप्ति सिंह का आलेख :

नस्ल और जाति आधारित भेदभाव, शोषण, उत्पीड़न और हिंसा की सबसे प्रामाणिक व्याख्या/विवेचन शोध अध्ययनों से कम और होलिस्टिक आटो इथनोग्राफीज से अधिक सटीक होती है (कैरोलिन इलिस : 2011; स्टेनली यल वाटकिन्स : 2014)। आटो इथनोग्राफी एक ऐसा प्रणालीगत प्रयोग होता है जो व्यक्तिगत अनुभवो को इस प्रकार विश्लेषित करता है जिससे कि उन्हें सांस्कृतिक अनुभव के रुप में सटीक रुप से समझा जा सके। तुलसी राम अपनी आत्मकथा के संदर्भ में कहते हैं, “मुर्दहिया कोई मेरी आत्मकथा नहीं है बल्कि उस माहौल में पूरे समाज की आत्मकथा है जिसमें जीव जंतु भी शामिल हैं। मेरी समझ से आत्मकथा जो है वह समाज का वृतांत होता है इसमे आदमी निश्चित रुप से एक माध्यम होता है लेकिन समाज उसमें चलता रहता है” (विभावरी : 2015 : पृष्ठ : 82-83)। उपरोक्त मानक के आधार पर इस अध्ययन में छः लेखकों की आत्मकथाओं/संस्मरणों को सम्मिलित किया गया है। ये लेखक और इनकी कृतियाँ हैं : ओम प्रकाश वाल्मिकि (दो खंडों की आत्म-कथा “जूठन”), बलबीर माधोपुरी (आत्म-कथा “छांग्या रुक्ख”), तुलसीराम (दो खंडों की आत्म -कथा “मुर्दहिया” और “मणिकर्णिका”), हरनाम सिंह वर्मा (अब तक के तीन खंडों के प्रकाशित संस्मरण “अ‍पने-पराये” , “राज रोग” और “पर्त -दर पर्त” और चौथा अभी तक अप्रकाशित खंड “स्याह-सफेद”), तेम्सुला ( आत्म -कथा “वन्स अपान ये लाइफ: ब‌र्न्ट करी एंड ब्लादी रैग्स”) और लाल बहादुर वर्मा (आत्म -कथा “जीवन प्रवाह में बहते हुए”)।

बलबीर माधोपुरी

इस अध्ययन के पहले तीन लेखक दलित, चौथे लेखक पिछड़े वर्ग के, पाँचवीं प्रतिनिधि ईसाई तेम्सुला औ उत्तर-पूर्व की जनजाति के प्रतिनिधि हैं लेकिन छठे प्रतिनिधि कायस्थ लाल बहादुर वर्मा को एक कंट्रोल ग्रुप, द्विज प्रतिनिधि के रुप में सम्मिलित किया गया है। हरनाम सिंह वर्मा और औ के संस्मरण अपने अपने निराले रुप में अनूठे हैं। हरनाम सिंह वर्मा अकेले लेखक हैं जिनके लेखन में लगभग सभी प्रकरणों में भूत, वर्तमान और भविष्य एक साथ मौजूद है और उनका व्यंग्य भी अन्य सभी से नितांत भिन्न रुप लिए हुए है-कहीं कहीं तो वह मारक है। लेखकों की व्यक्तिगत और प्रोफेशनल ज़िंदगियो में द्विजो द्वारा एक प्रकार (एक सा नहीं) का भेदभाव, प्रताड़ना, तिरस्कार, अपवंचन और हिंसा में काफी तुलनात्मकता होते हुए भी एक सा हो ही नहीं सकता था और वह वास्तव में है भी नहीं। इस अध्ययन के इस हिस्से में इन आत्मकथाओं में दलितों-पिछड़ों के लिए पठन-पाठन की दुस्सवारियों को समझने की कोशिश की गई है।

हरनाम सिंह वर्मा

शिक्षा का महत्व

वंचित समाज की गतिशीलता में शिक्षा की अहम भूमिका होती है। यह केवल दलितों के लिए ही नहीं बल्कि बिना शिक्षा के अन्य पिछड़े लोग भी जीवन में तभी आगे बढ़ेंगे जब वह शिक्षित होंगे। तुलसीराम कहते हैं कि गुरुकुल प्रणाली आम लोगों को शिक्षा से रोकने का सबसे बड़ा माध्यम था (विभावरी : 2015 : पृष्ठ : 85)। हरनाम सिंह वर्मा तुलसीराम से भी आगे जा कर कहते हैं कि आज की भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर द्विज वर्चस्व द्विजो के बच्चों को श्रेष्ठ बनाते रहने और वंचित वर्गों के बच्चों को शिक्षा में फलने-फूलने से रोकने का सबसे बड़ा माध्यम है (हरनाम सिंह वर्मा : अपने-पराये : 2015 : विश्वविद्यालय के शिक्षक ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट की नजर से)। यह भेदभाव लाल बहादुर वर्मा से तो हुआ ही नही। तेम्सुला औ के सन्दर्भ में यह भेदभाव उनके गरीब होने के कारण हुआ, किसी जनजाति विशेष से संबंध रखने के कारण से नहीं। तीन दलित लेखकों से भी द्विज शिक्षकों का व्यव्हार बहुत ही बुरा रहा।

शिक्षकों के द्वारा शोषण

वाल्मीकि के ‘आदर्श शिक्षकों’ का उनसे व्यवहार द्रोणाचार्य जैसा था। उन्हें स्कूल के पहले तीन दिन तो पूरे स्कूल और उसके बड़े मैदान को झाडू लगाने में ही बीत गए थे। तीसरे दिन जब वह सीधे क्लास में आ कर बैठ गए तब हेड मास्टर ने गलियाँ देते हुए उनकी कस कर पिटाई की।  वह तीसरे दिन जब हेड मास्टर की मार खाने के उपरांत झाडू लगा रहे थे तब उनके पिता उधर से गुजरे और माजरा जानने पर वह हेड मास्टर से भिड़ गए। हेड मास्टर ने वाल्मीकि के पिता को स्कूल से ले जाने के आदेश दे दिए। पिता ने अगले दिन अल सुबह ही गाँव प्रधान से शिकायत की और प्रधान की हिदायत के बाद ही उन्हें झाडू लगाने से निजात मिली (वाल्मीकि : जूठन : पहला खंड: 14-16)। उन्हें बिना किसी कारण के पीटना एक आम घटना होती थी (तदेव: 62)। उन्हें क्लास में सवाल पूछने पर गलियाँ दी जाती थीं,पिटाई की जाती थी और मुर्गा बनाया जाता था(तदेव: 34-35)। उनके शिक्षक द्वारा उन्हें गणित की ट्यूशन देने के बहाने घर बुला कर विभिन्न प्रकार की बेगार करवाई जाती थी(तदेव: 72)।  वाल्मीकि और उनकी  जाति के छात्रों को प्रायोगिक परीक्षाओं में कम नम्बर दिया जाना एक आम रीति थी(तदेव: 72)। गाँव के दूसरे त्यागी नागरिक भी शिक्षा में बाधा डालने से कोई परहेज़ नहीं करते थे। वाल्मीकि के हाई स्कूल के गणित के पर्चे के एक दिन पहले उनके गाँव के त्यागी पहलवान द्वारा पूरे दिन गन्ना बोने की बेगार में झोंक दिया गया था। पूरे दिन वह वहीं लगे रहे। गन्ना बुवाई के उपरांत वहाँ पर सवर्णों को पूरा खाना दिया गया लेकिन वाल्मीकि और उनकी जाति के लोगों को दो रोटियाँ और अंचार का एक टुकड़ा फेंक दिया गया था(तदेव::74)। माधोपुरी का मास्टर तो उन्हें कई मील दूर् अपने खेत पर खेती का बताया हुआ काम करने को भेज देता। माधोपुरी को उनके चमार होने की लानत भी स्कूल में हमेशा ही मिलती रही!

ओम प्रकाश वाल्मिकि

वाल्मीकि के सहपाठी उनकी इस लिए खिल्ली उड़ाया करते थे कि ‘वह चूहड़ा हैं, वह चावल का मांड और सुअर खाते हैं,उतरन के कपड़े पहनते हैं। यह भी ताना मरते थे कि चूहड़ों चाहे जितना पढ़ लो,रहोगे तो चूहड़े ही(तदेव : 44)। त्यागी सहपाठी उन्हें नियमित रुप से अकारण मारते पीटते रहते थे, उनके बस्ते को कीचड़ में फेंक देते थे(तदेव : 40-41)।  इस त्रासदी से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने तगड़े बदन के गूजर सहपाठी से दोस्ती बनाई (तदेव : 26 ।  स्कूल के दह्शत भरे वातावरण में व्यक्तित्व का निर्माण हुआ (तदेव : 63)

वाल्मीकि को स्कूल में हमेशा सहपाठियों  और शिक्षकों के व्यंग बाण झेलने के अतिरिक्त मार भी खानी पड़ती थी( जूंठन : पहला खंड : 12-13)। साफ़ सुथरे कपड़े पहन कर आने पर तो क्लास के लड़के कहते थे कि ‘अबे चूहड़े  का, नए कपड़े पहन कर आया है’ और मैले-पुराने कपड़े पहन कर स्कूल जाओ तो कहते, “अबे चूहड़े के, दूर हट, बदबू आ रही है” (तदेव : 13)। उन्हें कभी कभी त्यागियो के बच्चे बिना कारण पीट भी देते थे (तदेव : 13)। वाल्मीकि स्वभाव से चुप्पा थे लेकिन शिक्षा ग्रहण करते समय उनके सहपाठियों, शिक्षकों और समाज के लोगों द्वारा उनसे किए गए व्यवहार की यातनापूर्न ज़िंदगी ने उन्हें अन्तर्मुखी और चिड़चिड़ा, और तुनुक मिज़ाज़ी बना दिया था(तदेव : 13)।

गरीबी शिक्षा की बाधा

शिक्षा प्राप्त करने में और भी तमाम अड़चनें थीं। घर में पढ़ने -लिखने का वातावरण ही नहीं होता था। खासकर परीक्षा के समय सामाजिक आयोजनों के कारण बड़ी अड़चनें पड़ती रहती थीं (तदेव : 75) पाँचवीं क्लास के बाद वाल्मीकि का ऐडमिशन गाँव के ही बरला कालेज में तभी हो सकी जब उसे सुलभ कराने के लिए उनकी विधवा भाभी ने अपना पाजेब बेच दिया। यहाँ उन्हें दो तीन दोस्त मिल जाने के कारण व्यंग्य झेलने से थोड़ा बहुत मनोवैज्ञानिक राहत मिली। यद्यपि वह पढ़ने में काफी अच्छे थे और उच्चस्त्रीय आयोजन क्षमता भी उनके पास मौजूद थी लेकिन जाति कारण उन्हें कालेज के आयोजनों से उन्हें दूर् रखा जाता था। संयोग वश वह पिता के साथ मुज़फ्फरनगर गए और वहाँ किताब की दुकान से गीता खरीदी। घर आ कर गीता पढ़ी और यह पाया कि गीता कर्मकांड स्थापित करती है। इससे उन्हें दिमागी उलझन पैदा हुई। इस संदेह पर शिक्षकों से पूंछा, तो यह कह कर सजा मिली कि बामन बन रहा है (तदेव : 78)

वाल्मीकि ने इंटर में साइंस ली। वहाँ के एक शिक्षक, ओम दत्त त्यागी हमेशा भंगी होने का एहसास दिलाते रहते थे। उनका सहपाठी राम सिंह चमार सबसे कुशाग्र होता लेकिन हमेशा प्रताड़ित किया जाता(तदेव:80)। ओम दत्त त्यागी के व्यवहार से खीझ कर वाल्मिकि और राम सिंह ने मिल कर ओम दत्त त्यागी का “व्यक्ति चित्र ” लिख डाला और जिसे दूसरों ने भी पढ़ा और कालेज में उस पर चर्चा हुई। संयोग वश यह व्यक्ति चित्र राम सिंह की एक किताब में रखा हुआ था और मास्टर ओम दत्त त्यागी ने वह किताब राम सिंह से माँग ली,  जिसमें उन्हें व्यक्ति चित्र लिखा पन्ना मिला।  न्होंने राम सिंह को शिक्षक कमरे में ले जा कर खूब पीटा और फिर प्रिंसपल के पास शिकायत करने ले गए जहाँ प्रिंसपल ने भी उसे जलील किया। गनीमत यह हुई कि प्रिंसिपल ने चेतावनी दे कर छोड़ दिया(तदेव: 81)।

जब वह हाई स्कूल पास हुए तब उनके परिवार ने पूरी बस्ती को दावत खिलाई थी। चमन लाल त्यागी उन्हें घर पर बधाई भी देने आए थे। वह वाल्मीकि जी को अपने घर बुला ले गये,अपने बर्तनो में ही खाना खिलाया,शाबाशी दी और उन्हें जूठे बर्तन नहीं धोने दिया(तदेव: 77)।

वाल्मीकि का बड़ा भाई जसबीर देहरादून में सर्वे आफं इंडिया में नौकरी करता था। उसी ने वाल्मीकि को देहरादून आने की सलाह दी (तदेव : 83-84)। डीएवी कालेज में बड़ी मुश्किल और सिफारिश की वजह से दाखिला मिला (तदेव : 85)। सहपाठियों द्वारा यहाँ भी वाल्मीकि को अपने कपड़ों के कारण तब तक खिंचाई होती रही जब तक उन्होंने अपने एक पहाड़ी सहपाठी मित्र थापा की सहायता नहीं ली। थापा ने खिंचाई करने वाले सहपाठी की जम कर धुनाई की और उसके उपरांत  सहपाठी संक्रमण पुराण का अंत हुआ। लेकिन वाल्मीकि को आर्थिक संकट तो था ही और उसके हल के लिए वह शाम को मज़दूरी करते थे।

अलग अनुभव था तुलसीराम का

तुलसीराम

कुल मिला कर तीन दलित लेखकों में से दो की शिक्षा उनके परिवार की खस्ता आर्थिक हालत, समाज के सवर्णों के शोषण और शिक्षकों के भेदभाव, अपवंचन, और प्रताड़ना के चलते बीच में ही थम गई : उनमें से मात्र तुलसीराम ही ऐसे दलित साबित हुए, जिन्होंने उपरोक्त बाधाओं को अपने व्यक्तिगत प्रयासों और कुछ मित्रों की मदद से सफलतापूर्वक पार किया और पीएचडी पूरी की। वाल्मीकि और माधोपुरी ने भेदभाव, अपवंचन, और प्रताड़ना का प्रतिरोध नहीं किया लेकिन तुलसीराम ने बनारस में एक धर्मशाला के कमरे से मात्र दलित होने के कारण निकालने का केवल विरोध ही नही किया बल्कि सम्बंधित व्यक्ति को कमरे में पड़े लकदी के चैले से मारने को भी उतारू हो गए और बाद के समय में कमरे का किराया भी नही देने की धमकी भी दे डाली! तुलसीराम द्वारा अपनी प्राथमिक स्तर की पढ़ाई संबन्धी अध्याय का शीर्षक “मुर्दहिया का स्कूली जीवन” रखा है क्योंकि उसमे उन्होंने अपने स्कूली जीवन के साथ घटी घटनाओं और उनकी उनके जीवन में महत्व को रेखांकित करना चाहते थे। उन्होंने अपनी स्कूलिंग को मुर्दहिया के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक पारिस्थितिकी में ही विश्लेषित किया है। तुलसीराम ने अपने गाँव, आज़मगढ़ और बनारस में अपनी पढाई की।

मुर्दहिया उनके प्रथम दो स्थानों- उनके गाँव,और आज़मगढ़ –पर शिक्षा प्राप्त करने को उन दोनों स्थानों की परिस्थिति विवेचित करती है जबकि मणिकर्णिका उनके बनारस के दिनों का। तुलसीराम की पढाई में उनके परिवार के ही सदस्यों ने भी काफी बिघ्न डाले, जिनमें उनके एक गुस्सैल चाचा और स्वयं उनके पिता भी शामिल थे। उनके भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में ब्राह्मणों ने यह बात फैलाई हुई थी कि अधिक पढ़ने पर संबंधित व्यक्ति पागल हो जाता है। तुलसीराम के स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय में उन्हें उनकी जाति के कारण प्रताड़ित करने वाले सहपाठी और शिक्षक भी मिले, लेकिन तीनों स्थानों और संस्थाओं में उन्हें सहारा देने वाले दलित और सवर्ण भी हमेशा ही मिलते रहे, जिनकी बैसाखी के सहारे उनकी शिक्षा पूरी हुई। बनारस में उन्होंने मात्र औपचारिक पढाई ही नहीं की बल्कि जीवन शैली और व्यक्तितव भी विकसित किया। उन्होंने पढाई के लिए ही अपना परिवार, गाँव और परिवेश हमेशा के लिए छोड़ा और उनकी आज़मगढ़ और बनारस  की पढाई भुखमरी और कड़े संघर्ष की दास्ताँ है। आज़मगढ़ से बनारस आने के उपरांत उनकी पढाई और वयस्क प्रोफेशनल जीवन दोनों साथ साथ चले और इसी कारणवश उसे मात्र पढाई वाला अंश ही मानना तथ्यों के विपरीत होगा।

तेंसुला औ

तेंसुला औ की ईसाई स्कूल में शिक्षा

शिक्षा प्राप्त करने के मसले पर तेंसुला औ की स्थिति अन्य सभी सम्मिलित लेखकों से भिन्न हैं, क्योंकि वह ईसाई स्कूल में पढ़ीं और उन पर पहले अपने मकान मालिक अँगरेज अफसर की नजरें इनायत रही। उनके भाइयों ने उन्हें माँ-बाप के दिवंगत हो जाने के उपरांत ख़ुद दूसरी जगह रहते हुए भी बड़ी कठिन पारिवारिक परिस्थितियों में पढ़ाया। हाँ, यह अवश्य हुआ कि उनकी दोनो शिक्षण संस्थाओं की सुपर और मैट्रनों ने उनसे बहुत बुरा व्यवहार किया लेकिन वह मिशनरी शिक्षण संस्थाओं में सभी जगह होता है और ख़ास कर गरीब छात्रों और छात्राओं के साथ तो ज़रूर होता है। मिशनरी शिक्षण संस्थायें अमूमन अच्छी शिक्षा प्रदान करती है लेकिन उनका रेजीमेंटेशन इतना कड़ा होता है कि बड़े-बड़े उससे काँपते हैं। तेंसुला को गरीब होने की वजह से हॉस्टल और शिक्षण संस्था के प्रांगण को गोबर से लीपना पड़ता था और मल- मूत्र की बाल्टियों को काफी दूर ले जा कर विसर्जित करना पड़ता था! उनके पास न तो जाड़े से निबटने लायक कपड़े होते थे और ना ही ओढ़ने की ठीक व्यवस्था! उन्होंने इन शिक्षण संस्थाओं में किसी प्रकार अपनी गरीबी बड़ी शिद्दत से जी और समय बड़ी मुश्किल में व्यतीत किया।

स्कूल में जाति-संरक्षण, कॉलेज में वह चक्र टूटा

हरनाम सिंह वर्मा की शिक्षण व्यवस्था में कुछ अलग रंग थे। उनके पहले दो साल उनके मामा जी के घर की निजी पाठशाला में गुजरे और चौथा और पांचवा दर्जा एक ऐसे सरकारी स्कूल में जहाँ के प्रधानाध्यापक एक कुर्मी ही होते थे और दूसरे मास्टर उनके मामा जी के घर की पाठशाला के मुन्शी जी के शाहबजादे और जहाँ अधिकतर छात्र भी कुर्मी ही होते थे। वर्मा की मुश्किल 1950 से शुरू हुई जब वह फतेहपुर तह्सील के छपरा कालेज में गए। यद्यपि यह कालेज मुख्यतः कुर्मियो के संसाधनों द्वारा ही स्थापित किया गया था लेकिन उसके कर्ता-धर्ता  द्विज थे और प्रिंसपल उमा शंकर पांडे बड़ा कट्टर ब्राह्मण था, जो वर्मा जैसे छात्रों को बड़ी प्रताड़ना देता था और उन्हें सार्वजनिक रुप से बेइज़्ज़त कर के छात्रों में हीनता ग्रन्थि को कूट कूट कर भरने का नेक द्विज कर्म निभाया करता था। वर्मा के मानस पर द्विज विरोध यहीं से घर कर गया, जिसे उनके लोहिया के व्यक्तिगत संपर्क ने एक नया रुप दिया (हरनाम सिंह वर्मा : आपने-पराय: छपरा कालेज)।

द्विजों के लिए आसान राह

लाल बहादुर वर्मा के साथ शिक्षा ग्रहण करते समय कोई भेदभाव किसी भी देशी या विदेशी संस्था में नहीं हुआ बल्कि कायस्थ जाति की समृद्ध सामाजिक पूँजी के चलते उन्हें गोरखपुर, लखनऊ और पेरिस विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर भी बड़ी आसानी से मिले। वह तो गोरखपुर से लखनऊ इसलिए आए क्योंकि वहाँ उनकी गोरखपुर विश्वविद्यालय की एक शादीशुदा सहपाठी लखनऊ चली आई थीं! देश के अधिकतर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को एक पीएचडी करने में ही अवसरों के लाले पड़ते हैं, लेकिन लाल बहादुर वर्मा ने दो-दो पीएचडी की, एक गोरखपुर विश्वविद्यालय से और दूसरी फ्रांस में पेरिस विश्वविद्यालय से! वह एक उच्च श्रेणी के इतिहासकार हैं, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन उन्हें नार्थ हिल यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पैठ इस लिए भी असानी से मिली क्योंकि शिक्षण संस्थाओं में ब्राह्मणों के बाद कायस्थों का बोल बाला रहा है (लाल बहादुर वर्मा : जीवन प्रवाह में बहते हुए)!

यह लेख छः आत्मकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए लिखे गये एक बड़े लेख का हिस्सा है


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लेखक के बारे में

तृप्ति सिंह

तृप्ति सिंह विकास अध्ययन स्कूल, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई में शोधार्थी हैं।

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