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संस्कृति का निर्ब्राह्मणीकरण : बरास्ता महिषासुर आंदोलन

पिछले कुछ महीनों में ‘महिषासुर’ की पुनर्व्याख्या ने दलित, पिछड़ों एवं आदिवासियों को एक-दूसरे के निकट लाने का काम किया है। लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से लड़ाई में कोई एक मिथ कारगर नहीं हो सकता

असुरों को कामी, लोभी, लालची, व्यसनी और झगड़ालू दर्शाने वाले विवरण धर्मग्रंथों में भरे पड़े हैं। दुर्व्यसन के लिए ‘आसुरी वृत्ति’ लोकप्रचलित मुहावरा है। ‘सात्विक’ देवता चाहे जो दुराचरण करें,  उनका देवत्व नष्ट नहीं होता। प्रायः उसे ‘लोक-कल्याण के निमित्त’, ‘धर्मसंस्थापनार्थायः’ मान लिया जाता है। असुर सम्राट जलंधर की भार्या वृंदा के साथ दुराचरण करने के बावजूद विष्णु का देव-त्रयी में सम्मानजनक स्थान बना रहता है। ना ही ऋषि-पत्नी अहिल्या के साथ बलात्कार करने पर इंद्र का देवत्व संकट में पड़ता है। उल्टे अहिल्या को ही शिलाखंड जैसा जीवन जीना पड़ता है। भाषा का खेल भी खूब खेला जाता है। देवता नशा करें तो ‘सोम-पान’ और असुर करें तो मदिरापान। सोमपान से देवताओं की सात्विकता पर संकट नहीं आता, परंतु मदिरापान से असुर बदचलन और तिरस्कार-योग्य मान लिए जाते हैं। कारण समझने के लिए ज्यादा माथा-पच्ची की आवश्यकता नहीं है। समस्त धर्मग्रंथ ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं। उनके अपने हित विभेदकारी व्यवस्था से जुड़े थे। इसलिए उनके द्वारा गढ़ी गई संस्कृति में समानता एवं सर्वसम्मति के अवसर बहुत कम हैं। जिधर देखो उधर उसका सर्वसत्तावादी रूप नजर आता है। यह सर्वसत्तावाद कदाचित अनार्य संस्कृति के अग्र-पुरुषों को भी ललचाने लगा था। इसलिए जब आर्यों का आक्रमण हुआ तो अनेक अनार्य योद्धा भी उनके साथ मिल गए। सुदास और दस राजाओं का युद्ध आर्यों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी। उसमें सुदास का नेतृत्व वशिष्ट तथा दसराज्ञों का नेतृत्व विश्वामित्र द्वारा किया गया था। मगर दस राजाओं में अज, शिब्रु, शिम्यु, यदु, यक्षु आदि अनार्य कबीले भी सम्मिलित थे। इस तरह भारत को आर्यवर्त्त बनाने में अनार्य योद्धाओं का भी भरपूर योगदान था। हिरण्यकश्यपु पुत्र प्रहलाद भी इन्हीं में आता है। उसने विष्णु को अपना ईष्ट मानकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह में ब्राह्मणवादियों का साथ दिया था। विभीषण, हनुमान, जटायु जैसे पात्र महाकाव्यीन लेखकों की कल्पना की उपज रहे होंगे। संभव है उनसे मिलते-जुलते पात्र समाज में सचमुच रहे हों, जिन्होंने आर्य-संस्कृति से प्रभावित होकर उनके साथ मिलना स्वीकार किया हो। आर्यों की श्रेष्ठता को दर्शाने के लिए ऐसे मिथकीय पात्रों की कल्पना आवश्यक थी। जिसमें उन्हें भरपूर सफलता भी मिली थी। ब्राह्मणीकरण की यह प्रक्रिया बहुत धीमे, युगों तक चली थी। इसके लिए आर्यों को अनगिनत युद्ध लड़ने पड़े और समझौते भी करने पड़े।

कैसे हुआ असुर सभ्यता का पतन?

स्वाभाविक-सा प्रश्न है कि असुर सभ्यता यदि इतनी ही विकसित थी, तो उसका पतन कैसे हुआ? इसका एक कारण यह जान पड़ता है कि आर्यों के आगमन के पूर्व विभिन्न कबीलों के बीच गणतांत्रिक व्यवस्था थी। भू-क्षेत्र समृद्ध था। इसलिए सभी अपने-अपने प्रांत में सुखपूर्वक रहते थे। खेती में वे पारंगत थे। हड़प्पा सभ्यता में मिले भंडार-गृहों से संभावना जगती है कि किलों का उपयोग सामरिक उद्देश्यों के बजाय, बचे हुए अनाज के भंडारण हेतु किया जाता था। खुद को सुरक्षित मान वे प्रायः निश्चिंत  रहा करते थे। इसलिए जब आर्यों की ओर से आक्रमण हुआ तो वे एकाएक स्वयं को संभाल न सके। कालांतर में आर्यों के संपर्क में आकर उनमें भी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएं पनपने लगी थीं। इसलिए आक्रामकों का एकजुट सामना करने के बजाए वे बंटकर अपने ही लोगों के विरुद्ध मोर्चा संभालने लगे। दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्हें समृद्ध सिंधु प्रदेश छोड़, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण की ओर पलायन करना पड़ा। परास्त होकर या आर्यों के आक्रमण के भय से अनेक अनार्य जातियों ने समझौता कर लिया। धीरे-धीरे वे ब्राह्मणीकरण के दायरे में सिमटने लगे। बावजूद इसके इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ जब सभी ने ब्राह्मणीकरण के आगे हथियार डाल दिए हों। न ही कभी ऐसा हुआ जब किसी युद्ध में सारे आर्य या अनार्य किसी एक पक्ष में रहे हों। रावण, महिषासुर, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु, बालि, बलि जैसे कुछ स्वाभिमानी अनार्य सम्राटों की लंबी कतार है, जो अपने मान-सम्मान की खातिर आर्यों से आजीवन संघर्ष करते रहे। यदि उस संघर्ष का निष्पक्ष भाव से दस्तावेजीकरण किया गया होता तो भारतीय संस्कृति का स्वरूप कदाचित उतना विभेदकारी नहीं होता, जितना कि आज है।

अनार्य संस्कृति के पराभव का मूल कारण उसके राजाओं की सैन्य दुर्बलता न होकर, अपनी संस्कृति और इतिहास के दस्तावेजीकरण की ओर से उदासीन हो जाना था। जबकि आर्यगण जिन दिनों तक लेखनकला का विकास नहीं हुआ था, उन दिनों भी स्मृति-भरोसे इस कर्तव्य को निभाते रहे। लेखनकला का विस्तार होने के पश्चात उन्होंने प्रत्येक ऐतिहासिक प्रसंग का वर्णन अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर किया। यहां तक कि असुरों की उपलब्धियों और खोजों को भी अपने नाम करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने संस्कृति को मूल माना और पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनेकानेक प्रतिभाशाली लेखक अपने नाम से स्वतंत्र ग्रंथ रचने का मोह छोड़, बिना किसी यश-लाभ की अपेक्षा के, पहले से उपलब्ध धर्मशास्त्रों में ही जोड़-घटाव करते रहे। अनेक लोगों द्वारा, अलग-अलग समय में लिखे जाने के कारण धर्म-शास्त्रों में भारी दोहराव है। अंतर्विरोध और असंगतियां भी हैं। परंतु वे इन्हें कमजोरी नहीं मानते। तर्कशीलता के अभाव को ढांपने के लिए उन्होंने  आस्था और विश्वास पर जोर दिया। धर्मशास्त्रों पर किसी भी प्रकार के अविश्वास को पाप मानते हुए वे शब्द के स्वयं-प्रमाण होने की घोषणा करते रहे। इससे नए ज्ञान के अवसर कम हुए। मनुष्य की स्वाभाविक प्रश्नाकुलता पर भी विराम लगा। लेकिन ब्राह्मणवाद या जिस सर्वसत्तावादी ध्येय के निमित्त उन शास्त्रों की रचना हुई थी, उसमें उन्हें भरपूर कामयाबी मिली।

निर्ब्राह्मणीकरण : समानता आधारित समाज का सपना

समानता और स्वतंत्रता के लिए वर्चस्वकारी संस्कृति से मुक्ति आवश्यक है। भारतीय समाज सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर बंटा हुआ है। अद्विज आज भी असमानता का दंश झेल रहे हैं। कारण किसी से छिपे नहीं है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था मनुष्य को जन्म के साथ ही जाति और धर्म के खानों में बांट देती है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक प्रावधानों द्वारा इस अंतर को मेटने की कोशिश तो हुई, मगर सामाजिक-सांस्कृतिक जकड़बंदी इतनी मजबूत है कि आजादी के 69 वर्ष बाद भी लोग उससे उबर नहीं पाए हैं। लोकतांत्रिक परिवेश ने उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों को इतना अवसर जरूर दिया है कि वे इतिहास को अपने ढंग से समझने के साथ-साथ उन कारणों की भी समीक्षा कर सकें, जो उनके दमन और दासता के मूल में हैं। इस छटपटाहट से भारतीय संस्कृति के मुख्य प्रतीकों, घटनाओं, चरित्रों यहां तक कि मिथकों के विवेचन की शुरुआत हुई। धीरे-धीरे ही सही मगर संस्कृति के विखंडनात्मक विवेचन की प्रक्रिया आगे बढ़ी है। उसके सूत्रधार दमित-शोषित वर्गों में जन्मे वे बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें जाति या किसी और कारण से बौद्धिक विमर्श से बाहर रखा गया था। अवसर मिलते ही वे न केवल सवाल उठाने लगे थे। बल्कि उसके जवाब भी अपने बौद्धिक सामर्थ्य के आधार पर स्वयं खोजने को उद्धत थे। उन लोगों के लिए जो अभी तक समाज के बड़े हिस्से को अपनी कूटनीतिक चालों के आधार पर नचाते आए थे, यह बहुत बड़ी चुनौती थी। ‘महिषासुर दिवस’ का आयोजन उसी क्रम में हालिया आंदोलन की एक कड़ी है। वह हमारे समय की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिघटना है। शताब्दियों से जो वर्ग दूसरों की निगाह से खुद को देखता आया था वह ‘महिषासुर दिवस’ के बहाने खुद को अपनी दृष्टि से देखने-समझने की कोशिश में लगा है। यह देर से हुई अच्छी और क्रांतिकारी शुरुआत है।

जो लोग ‘महिषासुर मर्दिनी’ कहकर देवी का गुणगान करते आए थे, बदले परिवेश में वे महिषासुर को मिथ बताने लगे हैं। जल्दबाजी में वे भूल जाते हैं कि महिषासुर को यदि मिथ मान लिया गया तो देवी दुर्गा भी मिथ ही सिद्ध होगी। साथ-साथ उन देवी-देवताओं को भी मिथ मानना पड़ेगा, जिनके कंधों पर कथित देव-संस्कृति की इमारत खड़ी है। ऐसे में यदि कोई राम और दुर्गा के बहाने अपनी संस्कृति थोप सकता है, उनके माध्यम से वर्चस्वकारी सत्ता के शिखर पर टिका रह सकता है, तो उसकी मुक्ति के प्रतीक के रूप में शंबूक और महिषासुर को भी नायक बनाया जाता है। इतिहास की कमजोरी है कि वह बहुत भरोसे की चीज नहीं होता। वह हमेशा विजेता संस्कृति की इच्छाओं और कामनाओं के अनुसार ढाला जाता है। विवेकवान समाज ऐसे इतिहास की परवाह नहीं करता। जानता है कि सुविधानुसार नायक चुनने की जो आजादी अन्य वर्गों को है, उतनी आजादी उसे भी है। ऐतिहासिक भूलों से सीख लेते हुए वह अपने नायक स्वयं चुनता है। ‘महिषासुर’ ऐतिहासिक चरित्र है—इसके समर्थन में उतने ही तर्क जुटाए जा सकते हैं, जितने उनके पास ‘राम’ या ‘रावण’ को इतिहास-पुरुष सिद्ध करने के हैं। पूरा मामला तार्किकता से जुड़ा है। इसमें प्रायः वे असफल होते हैं। उस समय वे आस्था का मामला बताकर लोगों के विवेक और इतिहासबोध को ही प्रभावित करने लगते हैं।

धर्मग्रंथों के जरिये एक बात जो प्रामाणिक रूप से सामने आती है, वह है संस्कृतियों का द्वंद्व। जिसमें महिषासुर की उपस्थिति जनसंस्कृति के प्रभावशाली मुखिया के रूप में है। वह श्रम-संस्कृति में भरोसा रखने वाली, पशु-चारण अर्थव्यवस्था से नागर सभ्यता की ओर बढ़ती, तेजी से विकासमान भारत की प्राचीनतम सभ्यता का महानायक था। वह उस संस्कृति का प्रतिकार करता था जो अनेकानेक असमानताओं, आडंबरों और भेदभाव से भरी थी। दूसरों के श्रम पर अधिकार जताने वाली बेईमान संस्कृति। उसके सर्वेसर्वा रहे देवता सागर-मंथन में बराबरी का हिस्सा देने के वायदे के साथ असुरों से सहयोग मांगते हैं। कार्य पूरा होने पर बेईमानी करते हुए ‘अमृत’ तथा बहुमूल्य रत्न खुद हड़प लेते हैं। इस आंदोलन का वे लोग विरोध कर रहे हैं जिनके मन में 1000—1500 वर्ष पुराना भारत बसता है, जब ऊंची जातियां अपने से निचली जातियों के साथ मनमाना व्यवहार करने को स्वतंत्र थीं। संस्कृति की पुनरीक्षा तथा उसके आधार पर न्याय की मांग को कुछ लोग देशद्रोह भी कह रहे हैं। उनके सोच पर तरस आता है। वे या तो देश और देशद्रोह की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं, अथवा लोगों को अपने शब्द-जाल में उलझाए रखना चाहते हैं। जैसा वे हजारों वर्षों से करते आए हैं।

‘महिषासुर आंदोलन’ का विरोध कर रहे लोग या तो इस देश के प्राचीन इतिहास से अनभिज्ञ हैं, अथवा जान-बूझकर अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं। उनके मानस में पुष्यमित्र शुंग के बाद का भारत बसता है। भौतिक और अधिभौतिक दोनों ही दृष्टियों से वह देश के पराभव का दौर था। विदेशी व्यापार सिमटने लगा था। उपनिषदों की जगह पुराण लिखे जा रहे थे। वैदिक धर्म छोटे-छोटे संपद्रायों में सिमट चुका था। महाकाव्यों को उनका वर्तमान स्वरूप उन्हीं दिनों प्राप्त हुआ, जिसने चातुर्वर्ण्य समाज की अवधारणा को मजबूती से स्थापित किया था। वे प्राचीन भारत की संपन्नता का बखान करते हुए नहीं थकते। बार-बार याद दिलाते हैं कि भारत कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था। इतिहास बताता है कि भारत का सबसे समृद्धिशाली दौर ईसा के चार-पांच सौ वर्ष पहले से लेकर इतनी ही अवधि बाद तक का रहा है। उस दौर के बड़े सम्राट या तो बौद्ध थे, अथवा जैन। दूसरे शब्दों में ब्राह्मणवाद के सबसे बुरे दिन देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अच्छे दिन थे। डॉ. रमेश मजूमदार के अनुसार उस दौर में आजीवक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों के प्रभामंडल में जातीय स्तरीकरण घटा था। सामाजिक भेदभाव तथा यज्ञ-बलियों में कमी आई थी। उसके फलस्वरूप परस्पर सहयोगाधारित व्यापारिक संगठन तेजी से पनपे। बौद्ध दर्शन ने भारतीय मेधा को विश्व-स्तर पर स्थापित किया था। हर कोई भारतीय व्यापारियों के साथ व्यापार करने को उद्यत था। फलस्वरूप व्यापार बढ़ा तथा देश आर्थिक समृद्धि के शिखर की ओर बढ़ता चला गया।

 

ब्राह्मणवाद तभी तक जीवित है, जब तक लोग धर्म, जाति, और आडंबरों के मोहजाल में फंसे हैं। इसलिए वह किसी भी प्रकार के प्रबोधन से घबराता है। ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का आयोजन भारतीय संस्कृति के इतिहास में न तो कोई नया पन्ना जोड़ता है, न ही कुछ गायब करता है। असल में वह ब्राह्मणवाद द्वारा थोपी गई स्थापनाओं से बाहर आने की छटपटाहट है। यह मनुष्य के विवेकीकरण को समर्पित, धर्म और संस्कृति की सनातनी व्याख्याओं के विरुद्ध विखंडनवादी चेतना है। जो अप्रासंगिक हो चुके विचार, धारणा, प्रतीक आदि को किनारे कर आगे निकल जाना चाहती है। इसमें पर्याप्त ऊर्जा और वैचारिक तेज है। जिसका डर सत्ताधारी अभिजन चेहरों पर पढ़ा जा सकता है। वे जानते हैं कि बहुजन दृष्टि से मिथकों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला एक बार आरंभ हुआ तो आगे रुकेगा नहीं। ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणवाद को इतिहास में इससे पहले कोई चुनौती नहीं मिली थी। उसे कई बार चुनौतियों से गुजरना पड़ा है। लेकिन तब से आज तक धरती न जाने कितनी परिक्रमाएं कर चुकी है। ज्ञान पर तो किसी का कब्जा न तब संभव था, न आज। लेकिन तब ब्राह्मणेत्तर वर्गों की प्रतिभाओं को उपेक्षित किया जाता था। आज यह संभव नहीं है। लोकतांत्रिक परिवेश में उनके विरोध को दबाया जाना आसान नहीं है। आज पूरा विश्व एक परिवार सदृश है। उपेक्षित प्रतिभाएं देश-विदेश में कहीं भी यश-सम्मान अर्जित कर सकती हैं। ऊपर से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकारवादी संगठन। ब्राह्मणवादी संगठनों को यही डर खाए जा रहा है। वे भली-भांति समझते हैं कि बहुत जल्दी दूसरे व्यक्तित्व, घटनाएं और मिथ भी पुनर्व्याख्या के दायरे में आएंगे। इससे ब्राह्मणीय सर्वोच्चता का वह मिथ भी भरभरा कर गिर पड़ेगा, जिसे बनाने में उन्हें सहस्राब्दियां लगी हैं।

प्रतिरोध की परंपराएं

महिषासुर दिवस का आयोजन मात्र छह वर्ष पुरानी घटना है। मगर सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति के लिए उत्पीड़ित वर्ग के संघर्ष का सिलसिला नया नहीं है। एकदम हाल की बात करें तो साठ के दशक में बिहार से आरंभ हुए ‘अर्जक संघ’ को ले सकते हैं। जिसने मेहनतकश लोगों ने जीवन में किसी भी धर्म की भूमिका को मानने से इन्कार कर दिया था। मध्यकालीन भारत में रैदास, कबीर, नानक जैसे लोग रहे तो हालिया इतिहास में फुले दंपति  तथा डॉ. अंबेडकर । फुले ने ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया था। यदि बौद्धकालीन भारत तक जाएं तो आजीवक संप्रदाय, जिसे आज बहुजन संस्कृति कहा जा रहा है, भी श्रम-संस्कृति के उन्नयन को समर्पित था। धर्मिक आडंबरवाद से मुक्ति और आर्थिक स्वावलंबन उसका केंद्र था। आजीवक श्रमजीवियों के अपने संगठन थे। उनके माध्यम से वे देश-विदेश के व्यापारियों के साथ कारोबार करते थे। जातक कथाओं के हवाले से डॉ. रमेश मजूमदार ने बौद्धकालीन भारत में 31 प्रकार के सहयोगाधारित संगठनों का उल्लेख किया है। उनमें लुहार, बढ़ई, चर्मकार, पत्थर-तराश, सुनार, तेली, बुनकर, रंगरेज, किसान, मत्स्य पालन करने वाले, आटा पीसने वाले, नाई, धोबी, माली, कुम्हार यहां तक कि चोरों के संगठन का भी जिक्र है। वे अपने आप में स्वायत्त थे। अपने फैसलों के लिए पूरी तरह स्वतंत्र। उनके अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार राज्य को भी नहीं था। सम्राट विशेष अवसरों पर उनसे परामर्श करना आवश्यक समझता था। खास बात यह है कि उन समूहों में श्रम-कौशल और सहभागिता को महत्त्व दिया जाता था। केवल बुद्धि के नाम पर, जैसा ब्राह्मणवादी व्यवस्था में था, विशेषाधिकार का कोई प्रावधान उनमें नहीं था।

‘कूटवणिज जातक’ में बनारस के दो व्यापारियों की कहानी दी है। उनमें एक ‘बुद्धिमान’ था ‘दूसरा अतिबुद्धिमान’। एक बार दोनों ने मिल-जुलकर व्यापार करने का निर्णय लिया। उन्होंने बराबर-बराबर निवेश कर पांच सौ छकड़े माल खरीदा। दोनों व्यापार के लिए साथ निकले और सारा माल बेचकर वापस लौट आए। उसके बाद दोनों मुनाफे के बंटवारे के लिए जमा हुए। ‘बुद्धिमान’ व्यक्ति ने पहल करते हुए लाभ को दो समान हिस्सों में बांट दिया। यह देख ‘अतिबुद्धिमान’ बोला—

‘मैं तुमसे दुगुना हिस्सा लूंगा।’ उसकी बात सुनकर बुद्धिमान चौंका। उसने पूछा—

‘दो गुना क्यों?’

‘इसलिए कि मैं अतिबुद्धिमान हूं।’

‘हमने व्यापार में बराबर धन लगाया है। मेहनत भी बराबर-बराबर की है।’ ‘बुद्धिमान’ बोला।

‘तो क्या! सभी जानते हैं कि मैं तुमसे कहीं ज्यादा बुद्धिमान हूं। इसलिए मुझे लाभ में दुगुना हिस्सा मिलना चाहिए।’ कहते हुए दोनों व्यापारी आपस में झगड़ने लगे। न्याय के लिए अंततः वे बुद्ध की शरण में पहुंचे। बुद्ध ने दोनों का पक्ष सुना और अंत में लाभ को बराबर-बराबर बांटने की सलाह दी। बाइबिल में भी एक कहानी है, जिसमें एक किसान खेतों में काम करने आए मजदूरों को बराबर मजदूरी देने की बात करता है। कहानी आमदनी को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने का समर्थन करती है। लाभ के दुगने हिस्से पर अधिकार जताने वाले ‘अतिबुद्धिमान’ को बुद्ध ने ‘बेईमान व्यापारी’ कहा है।

वर्चस्वकारी व्यवस्था ऐसी बेईमानी कदम-कदम पर करती है। वह श्रम के सापेक्ष बुद्धि को वरीयता देती है। उस व्यवस्था में ब्राह्मण का शारीरिक श्रम से कोई संबंध नहीं होता। वह दूसरों के श्रम पर परजीवी की भांति जीवन-यापन करता है। कमोबेश यही हालत बाकी दो वर्गों की भी है। वर्ण-व्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद शूद्र को अधिकाधिक श्रम करना पड़ता है। लेकिन बात जब लाभ के बंटवारे की आती है तो उसे मामूली मजदूरी देकर टरका दिया जाता है। आय का बड़ा हिस्सा शीर्षस्थ वर्ग हड़प लेते हैं। कहानी के माध्यम से बुद्ध ने इस व्यवस्था को नकारा है। इससे उस बौद्धकालीन समाज में अपने श्रम-कौशल के आधार पर जीवन जीने वालों की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। यह आदर्शोन्मुखी व्यवस्था थी, जिसे समय रहते रेखांकित करने की आवश्यकता थी। लेकिन इतिहास लेखन का काम ब्राह्मणों या ब्राह्मणवादी मानसिकता के लेखकों के अधीन रहने के कारण वह सदैव पूर्वाग्रह-ग्रस्त रहा है। उन्होंने इस देश की प्राचीनतम संस्कृति जिसे समानांतर संस्कृति, जनसंस्कृति या सर्बाल्टन संस्कृति कहा जाता है—के दस्तावेजीकरण के प्रति पूर्ण उपेक्षा बरती। उसके मानवतावादी मूल्यों को नकारा, जिसका खामियाजा विराट बहुजन समाज आज तक भुगत रहा है।

जबकि नैतिक मूल्यों को यदि निकाल दिया जाए तो धर्म में मिथकीय किस्सागोई और कोरे कर्मकांडों के अलावा कुछ नहीं बचता। चूंकि बाजारवादी अर्थतंत्र में नैतिक मूल्य धराशायी हो चुके हैं, और किस्सागोई का काम संचार माध्यम संभालने लगे हैं, ऐसे में धर्म के हिस्से कर्मकांडों के रहस्यमय पिटारे के अलावा कुछ नहीं बचता। स्वयंभू भगवानों के जरिये यदि कहीं कुछ धार्मिक मिथ बार-बार कहे-सुने जाते हैं तो उसके पीछे भी बाजार का ही योगदान है, जिसके चलते धर्म सस्ते मगर सबसे कमाऊ धंधे में बदल चुका है। ऐसे धर्म तथा धर्म को ही सबकुछ मानने वाली संस्कृति का प्रतिकार आवश्यक है। अतः लोगों को बार-बार याद दिलाया जाना चाहिए कि जीवन और समाज धर्म से नहीं, मानवीय मूल्यों से चलते हैं, चलने चाहिए। समाज बदलते हैं, धर्म बदलता है मगर जीवन के शाश्वत मूल्य वही रहते हैं। इसलिए मिथकों की पुनर्व्याख्या की कसौटी समानता, स्वतंत्रता, सौहार्द्र, प्रेम, संवेदना, सामंजस्य-भाव आदि को बनाया जाना चाहिए।

संभल कर चलने की जरूरत

महिषासुर जैसे प्रतीकों की बहुजन व्याख्याएं ब्राह्मणवाद की नींव पर प्रहार करती हैं। उस पतित संस्कृति का विरोध करती हैं जो बलात्कारी को ‘देवराज’ का दर्जा देती है। दलित-बहुजन की नई बौद्धिक खेप का आदर्श राम नहीं है जो अपनी निर्दोष भार्या की शील-परीक्षा लेता है, शंबूक को दंडित करता है। ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन प्रकारांतर में एक सलाह भी है कि बहुजन, ब्राह्मणवादी नायकों को अपना नायक मान लेने की भूल न करें। यह चूक उन्होंने शताब्दियों पहले उनके पूर्वजों की ओर से हुई थी। जिसका दंड वे आज तक भुगत रहे हैं। इस काम में बड़ी सावधानी की जरूरत है। ‘महिषासुर’ एक सम्राट है। उस दौर का है जब यह दुनिया लोकतंत्र के बारे में जानती न थी। केवल तेजी से कुलीनतंत्र की ओर बढ़ता कबीलाई गणतंत्र था। आज जमाना लोकतंत्र का है। ‘महिषासुर’ जैसे प्रतीकों के माध्यम से वर्चस्वकारी संस्कृति पर हमला तो बोला जा सकता है। ऐसे हमलों से बचाव के लिए वह हमारी ढाल भी बन सकता है—लेकिन केवल उसके सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति का रचनात्मक विकल्प दे पाना संभव नहीं है। अतएव आवश्यकता अनुकूल मिथकों के चयन के साथ-साथ उन्हें लोकतांत्रिक परिवेश के अनुकूल ढालने की भी है। ताकि वे मिथक जो अभी तक वर्चस्वकारी संस्कृति के सुरक्षा-कवच बने थे, प्रकारांतर में लोकतंत्र और सहजीवन का समर्थन करते नजर आएं।

पिछले कुछ महीनों में ‘महिषासुर’ की पुनर्व्याख्या ने दलित, पिछड़ों एवं आदिवासियों को एक-दूसरे के निकट लाने का काम किया है। लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से लड़ाई में कोई एक मिथ कारगर नहीं हो सकता। उसके लिए अनेक मिथ तथा विखंडनवादी दृष्टिकोण चाहिए। लेकिन नए मिथ गढ़ना आसान नहीं होता। हां, पहले से ही प्रचलित मिथों को युगानुकूल संदर्भों के साथ पुनपर्रिभाषित अवश्य किया जाता है। अतः जो मिथ की ताकत को जानते हैं, जिन्हें अपने विवेक पर भरोसा है, और जो सचमुच बहुजन संस्कृति के विस्तार का सपना देखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे महिषासुर जैसे दूसरे मिथकों को भी विमर्श के दायरे में लाएं। मिथकों को युगानुकूल संदर्भों में नए सिरे से परिभाषित करना, यह जितना कठिन कार्य है, उतनी ही अधिक उसकी आज हमें आवश्यकता है। जाहिर है यह एक चुनौती है। जिससे निपटने के लिए बहुजन समाज को लक्ष्य-समर्पित बुद्धिजीवियों की पूरी खेप तैयार करनी होगी।

परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए जितना आवश्यक ब्राह्मणवाद की कमजोरियों को समझना है, उतना ही आवश्यक समानांतर संस्कृति खड़ी करना भी है। ब्राह्मणवादी तंत्र में आमने-सामने की चुनौती नहीं होती, उसका एक कोना अपने घर-परिवार में भी मौजूद होता है। व्यवस्था से अनुकूलित लोग परिवर्तन की हर संभावना को निष्फल करने की कोशिश करते हैं। कुछ समय पहले तक धर्म और जाति उसके सुरक्षा कवच थे। बदली परिस्थितियों में उसने राष्ट्रवाद को अपनी बाड़ बनाया हुआ है। ‘महिषासुर’ जैसे मिथों की नवव्याख्या ने ब्राह्मणवाद के मर्मस्थल पर चोट की है। यह ज्ञान और तर्क की लड़ाई है। इतिहास में शताब्दियों बाद ऐसा हुआ है जब दलित और पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद को उसी के क्षेत्र में चुनौती दे रहे हैं। लेकिन यह शुरुआत-भर है। संघर्ष यात्रा बहुत लंबी चलने वाली है। इसमें जो धैर्यवान होगा, सजग होगा और विवेक से काम लेगा, प्रलोभन जिसे डिगाएंगे नहीं, वही और केवल वही लंबे समय तक टिका रहेगा। अंतिम जीत उसी के हाथ रहेगी। जनसंस्कृतिकरण की यात्रा दुर्गम भले हो, असंभव नहीं है।


महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए  ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशनवर्धा/दिल्‍ली। मोबाइल  : 9968527911ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ  जाएँ : महिषासुर : एक जननायकइस किताब का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से उपलब्ध है।

लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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