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सामाजिक परिवर्तन के आख्यान के रूप में डॉ. आंबेडकर

डॉ आंबेडकर की क्रान्तिकारी विरासत को सुरक्षित रखने के लिए केवल देश भर में नीची जातियों की बस्तियों में उनकी मूर्तियाँ लगाना काफी नहीं है। आज के युग के अनुरूप, बाबासाहेब को एक नए कलेवर में प्रस्तुत करने के लिए यह आवश्यक है कि कार्यकर्ता उनके आख्यान को एक अभिनव स्वरूप में लोगों के समक्ष रखें

डॉ बीआर आंबेडकर को भारतीय राष्ट्र के एक निर्माता और जाति-विरोधी अभियान के एक महत्वपूर्ण पितामह के रूप में देखा जाता है। अध्ययन के विभिन्न क्षेत्रों के अपने-अपने ‘पितामह’ होते हैं। शांति और संघर्ष अध्ययन के कई अध्येता और कार्यकर्ता, योहान गालटुंग को इस क्षेत्र का पितामह मानते हैं। इस क्षेत्र में कार्यरत हम लोग योहान गालटुंग के हिंसा के मौलिक वर्गीकरण का इस्तेमाल, यह समझने के लिए करते हैं कि शांतिपूर्ण प्रणालियों का विकास कैसे किया जाये। गालटुंग की मान्यता थी कि शांति को परिभाषित करने के लिए पहले इसके विरुद्धार्थी शब्द हिंसा को समझना होगा। सन 1969 में लिखे गए उनके प्रसिद्ध लेख “वायलेंस, पीस एंड पीस रिसर्च”[1] में उन्होंने हिंसा के एक ऐसे वर्गीकरण का प्रतिपादन किया, जिसे अक्सर एक समबाहु त्रिभुज की तीन भुजाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसकी तीन भुजाएं हैं – प्रत्यक्ष, संरचनात्मक और सांस्कृतिक हिंसा। शांति को समझने और उसकी स्थापना के लिए इन तीनों प्रकार की हिंसाओं को समझना ज़रूरी है। गालटुंग का हिंसा का त्रिभुज, सकारात्मक और टिकाऊ शांति की स्थापना के मार्ग को स्पष्ट भी करता है और उसे जटिल भी बनाता है। गालटुंग ने हिंसा के त्रिभुज के आधार पर ‘संरचनात्मक हिंसा’ (Structural violence) और ‘नकारात्मक व सकारात्मक’ शांति जैसी महत्वपूर्ण अवधारणाएं विकसित कीं। इन अवधारणाओं ने पिछली लगभग आधी सदी में सामाजिक परिवर्तन व शांति पर विपुल लेखन और चिंतन को जन्म दिया। गालटुंग की संरचनात्मक हिंसा की अवधारणा ने शांति अध्ययन और संघर्ष रूपांतरण (Peace studies and conflict transformation) के क्षेत्रों सहित अन्य अनेक क्षेत्रों में विचार-विमर्श को गति दी और नए विचारों का को जन्म दिया। ऐसा इसलिए क्योंकि यह अवधारणा सामाजिक न्याय के मुद्दे से जुड़ी हुई है {इस महत्वपूर्ण और अंतःविषय विचार-विनिमय के उदाहरण के लिए फार्मर (2004), हो (2007) व काप्रिओली (2005) देखें}[2]। इस लेख में हमारा तर्क यह है कि जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के जीवन में सर्वव्याप्त, परन्तु आसानी से दिखलाई न देने वाली संरचनात्मक हिंसा ही अधिकारों के प्रति चेतना जगाती है और परिवर्तन की वाहक बनती है। वोल्कन (1997) के अनुसार, जाति-विरोधी आन्दोलन के अपने द्वारा चुनी गई  ‘दुखद स्मृतियों ’ व ‘गौरव बोध’ में हम हिंसा प्रणालियों में सामाजिक व संरचानात्मक परिवर्तनों के रणनीतिक अवसरों पर दलित कार्यकर्ताओं के आख्यानों को देख सकते हैं। यद्यपि डॉ आंबेडकर ने जाति के यथार्थ के सन्दर्भ में संरचनात्मक हिंसा शब्द का प्रयोग नहीं किया परन्तु वे यह अच्छी तरह से समझते थे कि जिसे हम आज संरचनात्मक हिंसा कहते हैं, वही सामाजिक परिवर्तन की राह में सबसे बड़ी और मूल चुनौती है। परन्तु प्रश्न यह है कि संरचनात्मक हिंसा का प्रणालीगत प्रेत, जो किन्ही व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा संचालित नहीं है, को हम आखिर कैसे चुनौती दें। मेरे विचार से यह उन लोगों के समक्ष उपस्थित चिरस्थायी प्रश्न है, जो डॉ आंबेडकर के जाति-विरोधी अभियान पर श्रद्धा रखते हैं।

संरचनात्मक हिंसा से तात्पर्य ऐसे सुनियोजित तरीकों से है, जिनके जरिये सामाजिक ढांचा, किसी समाज में व्यक्तियों को हानि पहुंचाता है या उन्हें अवसरों से वंचित करता है। चूँकि यह हिंसा प्रत्यक्ष व व्यक्तिगत न होकर, संरचनात्मक और सुनियोजित होती है, इसलिए इसके लिए किसी व्यक्ति-विशेष को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जो लोग इस हिंसा का उन्मूलन करना चाहते हैं या उसे उजागर करना चाहते हैं, उनकी नज़रों से उसका स्त्रोत ओझल रहता है। गालटुंग, संरचनात्मक हिंसा की अवधारणा को समझाने के लिए तपेदिक की बीमारी का उदाहरण देते हैं। यूरोप में १८वीं सदी में यदि कोई व्यक्ति इस बीमारी से ग्रस्त हो कालकवलित हो जाता था तो शायद ही कोई इसे हिंसा के रूप में देखता था क्योंकि तपेदिक से बचने का कोई उपाय ही न था।  समाज को न तो इस बीमारी की कोई समझ थी और न ही समाज के पास उसका निदान करने या उसे नियंत्रित करने का कोई तरीका था।  चूँकि इसके पीछे कोई व्यक्ति या समूह नहीं होता था इसलिए इस दुर्भाग्य और पीड़ा को हिंसा नहीं माना जाता था।  इसके विपरीत, यदि आज कोई तपेदिक से मर जाये तो यह संरचनात्मक हिंसा का उदाहरण होगा क्योंकि आज (वैश्विक समाज के रूप में) हमारे पास तपेदिक का इलाज करने और उसे रोकने के उपाय हैं। [3] चूँकि आज हमारे पास सामूहिक एजेंसी (जिसे पोर्टर “स्व-चयन करने की जागरूकता”[4] बताते हैं), उपलब्ध है, इसलिए किसी के तपेदिक से ग्रस्त होने पर उचित उपाय करने में विफलता संरचनात्मक बाधाओं (चाहे वे आर्थिक हों, संचालन सम्बन्धी हों या नीतिगत) के कारण ही हो सकती हैं और इसे गालटुंग, संरचनात्मक हिंसा का एजेंट विहीन स्वरुप बताते हैं। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि इस विभेद का पीड़ा से कोई संबंध नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि 18वीं सदी में तपेदिक से मौत उतनी ही (या शायद ज्यादा) पीड़ादायक होती होगी जितनी कि आज। परन्तु आज यदि हम तपेदिक से मौत को संरचनात्मक हिंसा कहते हैं तो वह इसलिए क्योंकि अब हमारे पास तपेदिक से मौत रोकने के  उपाय हैं। इन उपायों का प्रयोग करने में विफलता एक ऐसी विफलता है, जिसे रोका जा सकता है, भले ही रोकने के  उपायों का प्रयोग करने में कितनी ही संरचनात्मक जटिलताएं क्यों न हों। गालटुंग के अनुसार, संरचनात्मक और सांस्कृतिक हिंसा की अनुपस्थिति ही सामाजिक न्याय और अंततः सकारात्मक शांति के आदर्श की स्थापना की सम्भावना उत्पन्न कर सकती है। यहाँ यह मान कर चला जा रहा है कि प्रत्यक्ष हिंसा और उसकी ऐतिहासिक विरासत पर नियंत्रण स्थापित कर लिया गया है, भले ही उनका पूर्णतः उन्मूलन न हुआ हो।

जहाँ प्रत्यक्ष हिंसा वर्तमान में अन्याय का उपकरण होती है, वहीं संरचनात्मक और सांस्कृतिक हिंसा, अन्याय को भविष्य में भी बनाये रखने का कारक होती हैं। गालटुंग के शब्दों में, “सांस्कृतिक हिंसा के चलते प्रत्यक्ष और संरचनात्मक हिंसा उचित (या कम से कम अनुचित या गलत नहीं) प्रतीत और महसूस होती है”। [5] यद्यपि ऐसा कहना गलत होगा कि किसी विशिष्ट प्रकार की हिंसा पर हमें अन्य प्रकार की हिंसा से ज्यादा ध्यान देना चाहिए, परन्तु यह स्पष्ट है कि संघर्ष रूपांतर के लिए केवल प्रत्यक्ष हिंसा की अनुपस्थिति ही पर्याप्त नहीं है। भारत में आज हमें जो जातिगत हिंसा दिखलाई दे रही है, उसके उन्मूलन के लिए ढांचागत परिवर्तन की आवश्यकता होगी, केवल कानूनी कार्यवाही से कुछ नहीं होगा। कुल मिलाकर, हम यह नहीं कह सकते कि गालटुंग का हिंसा का वर्गीकरण, हम मनुष्यों को हिंसा और उसके प्रकारों के बारे में संपूर्ण जानकारी देता है।  हिंसा की हर घटना (चाहे वह प्रत्यक्ष हो, संरचनात्मक या किसी और प्रकार की), सांस्कृतिक सन्दर्भों में अनन्य होती है। यही कारण है कि- जैसा कि मनुष्यों की हिंसा पर केन्द्रित अनेकानेक पुस्तकें हमें बताती हैं[6] – हिंसा का कोई वर्गीकरण अंतिम और संपूर्ण नहीं हो सकता।  शांति और संघर्ष अध्ययन के अध्येता, हिंसा की अपनी समझ को निरंतर विकसित कर रहे हैं और स्थाई सकारात्मक शांति की स्थापना के लक्ष्य की पूर्ति की राह तलाश रहे हैं।  ज्ञान का यह विकास अध्येताओं और कार्यकर्ताओं दोनों के लिए महत्वपूर्ण है और इस विकास के लिए यह आवश्यक है कि वे समाज के सदस्यों के उनके दमन के विवरण को ध्यान से सुनें-समझें और उसकी विवेचना करें।

ज्ञान के विकास की इस श्रृंखला में सारा कोब (2013) एक “नयी प्रकार की हिंसा”[7] – आख्यानात्मक हिंसा – की बात करतीं हैं।  परन्तु इसे नयी प्रकार की हिंसा कहने के बजाय ”हिंसा का नव-अविष्कृत प्रकार” कहना बेहतर होगा। आख्यानात्मक हिंसा (narrative violence) एक विशेष प्रकार की हिंसा है, जो कथावाचन और सामान्य बातचीत के ज़रिये की जाती है।  कोब के अनुसार, “संरचनात्मक हिंसा” को ‘कथा’ के ज़रिये किया जाना संभव नहीं है क्योंकि इस प्रकार की हिंसा का संबंध इतिहास के किसी विशेष दौर से नहीं होता[8]।  गालटुंग की संरचनात्मक हिंसा, एजेंट विहीन और सुनियोजित  है और उसका किन्ही विशेष चरित्रों और/या घटनाओं से संबंध अदृश्य रहता है और इस कारण यह कथानकों को धुंधला और अस्पष्ट बना देती है। आख्यानात्मक हिंसा की समझ इस अलगाव को कम करने में मदद करती है क्योंकि वह संघर्ष में उलझे लोगों के लिए, कोब के शब्दों में, “अपवाद की अवस्था”[9] (state of exception) का निर्माण करती है। “अपवाद की अवस्था” का विवरण देते हुए कोब लिखतीं हैं कि यह गालटुंग द्वारा वर्णित निर्वैयक्तिक और एजेंट विहीन संरचनात्मक हिंसा से आगे बढ़कर है।  कोब अपने इस विवरण में जिन सन्दर्भों और व्यक्तियों (या पहचानों) की चर्चा करती हैं, उन्हें पढ़कर दलित अधिकार कार्यकर्ताओं को ऐसा लगेगा कि वे उनकी रोजाना की ज़िन्दगी के बारे में बात कर रहीं हैं।

कोब “अपवाद की अवस्था” को ऐसे स्थान के रूप में परिभाषित करतीं हैं “जहाँ कानून का इस्तेमाल कर ऐसे स्थान का निर्माण किया गया हो जहाँ कोई कानून न हो, एक ऐसा स्थान जो आख्यायित ही नहीं किया जा सकता”। [10] और इस “अपवाद की स्थिति” में वे लोग रहते हैं जो आख्यानात्मक हिंसा के पीड़ित हैं।  वे “समाज से बेदखल और अकेले होते हैं।  वे समाज के दायरे से बाहर होते हैं और राज्य और समुदाय से उनके कोई रिश्ते नहीं होते”। [11] जिन सन्दर्भों और व्यक्तियों की कोब यहाँ बात कर रहीं हैं, उनमें और जातिगत दमन के आधुनिक विवरणों में एक भयावह समानता दिखती है। वर्तमान चेतना और गुजरे हुए वक्त की घटनाओं के सन्दर्भ में आख्यान हमें यह बता सकते हैं कि किस प्रकार “अपवाद की स्थिति”[12] को “लौकिक रिश्तों के ढ़ांचे का हिस्सा बना दिया गया है”। [13] आख्यानात्मक हिंसा के लेंस से जातिगत हिंसा को देखने से जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं का इतिहास और उनके वर्तमान अनुभव जीवंत हो उठते हैं”।

‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ में आंबेडकर लिखते हैं, “किसी जाति को अपनी किसी अन्य जाति से सम्बद्धता का ख्याल तब तक नहीं आता जब तक कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे नहीं होते। अन्य सभी मौकों पर हर जाति की यही कोशिश होती है कि वह दूसरी जाति से दूरी बनाये रखे और उससे अपने को अलग दिखाए”।[14] इस तरह की अपवाद की स्थिति में रहने का अर्थ यह होता है कि हर जाति अपनी पहचान और अपने से उच्च या निम्न जातियों की पहचान के बीच सीमारेखा खींचने की प्रक्रिया में सतत लगी रहती है”।  इस सन्दर्भ में किस्सागोई को अनुभवों के परोक्ष या “प्रच्छन्न लिप्यांतर”[15] के रूप में समझा जा सकता है, जो नीची जातियों की सामाजिक दुर्दशा के संबंध में जागृति के अभाव को चुनौती देता है। दूसरे शब्दों में, आख्यानात्मक हिंसा, पहचान, अधिकारों और आत्म-जागरूकता के बीच ऐसी सीमारेखाएं खीचती है, जो समय के साथ ऐसे शक्तिशाली विमर्शों में बदल जाती हैं। वैसे विमर्श  जो यथास्थिति को बनाये रखने या उसे चुनौती देने का प्रयास करते हैं।  हिंसा के इस  महत्वपूर्ण प्रकार – आख्यानात्मक हिंसा – जिसकी पहचान कुछ ही समय पहले की गयी है – को कोब, दमन की सभी प्रणालियों का मूल बताती हैं और यही जातिगत दमन में भी स्पष्ट परिलक्षित होती है।  इसके साथ ही, यह उन सामाजिक आंदोलनों में भी दिखलाई देती है जिनका लक्ष्य इस दमन को समाप्त करना है।

जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं में आख्यानात्मक हिंसा

आंबेडकरवादी कार्यकर्ता अक्सर अपने परम आदरणीय डॉ बीआर आंबेडकर के बारे में श्रद्धा से लबरेज ऐसी कहानियां सुनाते हैं, जिनकी तुलना महान मूर्ती स्थापित करने वाले लेखन से ही की जा सकती है। दलित जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं से मेरी मुलाकातों का यही निष्कर्ष है कि वे डॉ आंबेडकर के जीवन और कार्यों पर संदेहातीत श्रद्धा और सम्मान रखते हैं। यह उसी तरह की श्रद्धा है जो किसी देव-स्वरूप व्यक्ति या आधुनिक समय में किसी अति-लोकप्रिय पॉप सितारे के प्रति लोगों के मन में रहती है। आंबेडकरवादियों के साथ मेरी बातचीत का अनुभव लगभग हमेशा यही रहा है। आंबेडकर की 125 वीं जयंती के अवसर पर आंबेडकरवादियों से मेरी चर्चा भी इसका अपवाद नहीं थी। उल्लास के इस मौके पर मैंने मिशिगन विश्वविद्यालय में आंबेडकरवादियों के एक समूह को संबोधित किया। मैंने उनसे कहा कि वे स्वयं को समाज के प्रतिनिधि के रूप में देखें।  आंबेडकरवादी जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते समय हमेशा व्यावहारिक सुझाव देने और वर्तमान जाति-विरोधी आन्दोलन की समालोचनात्मक विवेचना करने के बीच संतुलन बनाये रखना पड़ता है। जैसा कि अब तक स्पष्ट हो गया होगा, मैं नहीं सोचता कि आख्यान, सामाजिक अंतर्व्यव्हार का निष्प्राण और अभिकरण-रहित तथ्य हैं। और ना ही मैं यह मानता हूँ कि कहानियां या आख्यान, केवल व्यक्तिगत सचों की आत्मपरक अभिव्यक्ति होते हैं और उनकी सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई सामाजिक या राजनैतिक प्रासंगिकता नहीं होते।  इसलिए इस तरह के व्याख्यानों में मेरा जोर उन्हीं कहानियों की ओर ध्यान दिलाने पर होता है, जिन्हें मैं कार्यकर्ताओं से सुनता रहता हूँ। एक सामाजिक निर्माणवादी (social constructionist) बतौर मेरा यह दृढ़ मत है कि कहानियां, सामाजिक और ढांचागत परिवर्तनों को प्रभावित करतीं हैं और मैं यह मानता हूँ कि परिवर्तन का कारक उन व्यक्तियों को बनना चाहिए, जिन्होंने इन कहानियों को अनुभव किया है और जो इन्हें एक बार और बार-बार सुना सकते हैं।  मैंने अन्यत्र इन कहानियों की दुरुहता और उनकी कार्यकर्ताओं को लामबंद करने की क्षमता के बारे में लिखा है। [16] परन्तु लोगों को लामबंद करने के अतिरिक्त ये कहानियां क्या करतीं हैं? वे पहचानों की सीमाओं को मजबूत करने और अप्राप्त आत्मसम्मान व अधिकारों के सम्बन्ध में जागरूकता उत्पन्न करने में क्या भूमिका निभाती हैं?

मिशेल फूको के शब्दों में, “लोग यह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं; अक्सर वे यह भी जानते हैं कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं; परन्तु वे यह नहीं जानते कि जो वे कर रहे हैं, वह क्या कर रहा है”[17]

जाति विरोधी आंबेडकरवादी कार्यकर्ताओं को यह समझाने के प्रयास में, कि उनकी कहानियां सामाजिक ढांचे को परिवर्तित करने (या कभी-कभी उसे बनाए रखने) में क्या भूमिका अदा करती हैं, मैं आख्यानों की अपनी विवेचना के जरिए कार्यकर्ताओं को समाज में परिवर्तन लाने के लिए सशक्त करने का प्रयास करता हूं। सारा कोब की तरह मैं मानता हूं कि आख्यान महत्वपूर्ण हैं और उनमें परिवर्तन लाने की शक्ति है। ‘‘वे गंभीर हैं, उनमे वजन है।’’ आख्यान अपने आप में विमर्श को बदल सकते हैं और अंततः प्रणालियों को भी। परंतु यहां यह कहना जरूरी है कि विवेचना करने के लिए विवेचक में मुद्दे की समझ होनी चाहिए। दलित अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ मेरे एक दशक से भी लंबे अंतर्संबंधों से मैं भारत में जाति की भूमिका और उससे संबद्ध संघर्षों को कुछ हद तक समझ सका हूं। यह सही है कि आख्यानों की कई अलग-अलग व्याख्याएं हो सकती हैं और यह भी सही है कि आख्यानात्मक हिंसा के जटिल सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्त्रोत होते हैं। परंतु इसके चलते भी हम आख्यान के उपयोग पर ध्यान देकर इस मुद्दे पर अपनी समझ को और विकसित कर सकते हैं। सच तो यह है कि आज जब हमें यह ज्ञान हो गया है कि आख्यानात्मक हिंसा जैसी कोई चीज होती है, तो हमारे लिए उसकी व्याख्या करना जरूरी हो गया है। हमें इस तरह से विचार और कार्य करना चाहिए जिससे हम आख्यान की समाज की  भलाई करने की क्षमता का उपयोग ‘न्यायपूर्ण शांति’ की स्थापना के लिए कर सकें। नीचे मैं कुछ उदाहरण दे रहा हूं, जिनसे यह पता चलता है कि आख्यान किस तरह परिवर्तनकामी कार्यकर्ताओं के लिए अवसर और बाधा दोनों हैं। मुझे उम्मीद है कि पहचान के निर्माण से जुड़े आख्यानों की इस संक्षिप्त व्याख्या से हम डा. आम्बेडकर के जीवन और उनके अनुभव में से महत्वपूर्ण अवसर ढूंढ सकेंगे और उनका उपयोग कर स्थायी परिवर्तन ला सकेंगे।

आंबेडकरवादी जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के आख्यान

आंबेडकर के जीवन के संबंध में श्रद्धा से ओतप्रोत जो कहानियां सुनाई जाती हैं, उनमें से एक उनकी 1934 की महाराष्ट्र के दौलताबाद किले की यात्रा के संबंध में है। अपने लगभग तीस ‘अछूत‘ मित्रों के साथ वे इन ऐतिहासिक अवशेषों तक पहुंचे, तब तक वे सभी बहुत थक चुके थे। उन्होंने किले के प्रवेशद्वार के समीप बनी टंकी के पानी से हाथ-पैर धोकर ताजा दम होने का निर्णय किया। इसके बाद जैसे ही वे किले के सामने के दरवाजे से अंदर घुसे, एक बुजुर्ग मुसलमान व्यक्ति दौड़ता हुआ आया। वह चिल्ला रहा था, ‘‘इन धेड़ों (अर्थात अछूतों) ने टंकी को अपवित्र कर दिया है। स्थानीय अधिकारियों के साथ तनावपूर्ण बहस के बाद इन लोगों को किले के अवशेष देखने की इजाजत तो मिल गई परंतु उनके साथ एक हथियारबंद सिपाही भेजा गया ताकि वे ‘‘किले में कहीं भी पानी को न छुएं।’’ डा. आम्बेडकर ने स्वयं इस घटना का विवरण देने के बाद लिखा है कि ‘‘इससे यह स्पष्ट है कि जो व्यक्ति एक हिन्दू के लिए अछूत है, वह व्यक्ति एक मुसलमान के लिए भी अछूत है‘‘। इस कहानी को दलित कार्यकर्ता अविश्वास और कुंठा के भाव से बार-बार सुनाते हैं और इस पर आधारित नुक्कड़ नाटक, नीची जातियों की बस्तियों में खेले जाते हैं। इसका असली परिणाम क्या होता है?

डा. आम्बेडकर का इस कहानी को सुनाने के पीछे लक्ष्य यह दिखाना होगा कि किस तरह जातिप्रथा की अमानवीयता का प्रभाव हिन्दू धर्म के बाहर भी है। परंतु आम्बेडकर को भी जल्द यह अहसास हो गया होगा कि इस कहानी को किस तरह आगे ले जाया जाएगा, उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। कोब के शब्दों में ‘‘आख्यानों पर उनके लेखक का आंशिक नियंत्रण होता है।’’ और ‘‘अक्सर हम ऐसे आख्यान का निर्माण कर देते हैं जिसे हमने बनाया ही नहीं है। इस तरह का आख्यान हाशिए के लोगों की एक सामूहिक पहचान का निर्माण करने में मदद करता है परंतु विडंबना यह है कि इससे दलितों की ऐसी पहचानें भी बन जाती हैं जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता। सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षरत जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के समक्ष यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि इस कहानी का इस्तेमाल उनके अनुयायी और विरोधी किस तरह के निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए करते हैं। जहां यह कहानी दलितों के साथ हो रहे अन्याय और अमानवीय व्यवहार को रेखांकित करती हैए वहीं वह उन्हें एक ऐसी पहचान देती है जो मुसलमानों से अलग और संभवतः उनकी विरोधी है। इस तरह की कहानी दलित कार्यकर्ताओं के लिए एक विडंबनापूर्ण स्थिति का निर्माण करती है। वह एक ‘दूसरी‘ पहचान का निर्माण करती है और उस पहचान और उससे जुड़े अनुभवों को मजबूती देती है। यद्यपि यह कहानी दलित या अनुसूचित जाति के सदस्यों के जीवन में अन्याय और अमानवीयता को उजागर करती है तथापि वह अन्यों से संवाद की राह भी बंद करती है (इस मामले में मुसलमान और संभवतः अन्य पददलित व आर्थिक दृष्टि से पिछड़े संभावित सहयोगी) क्योंकि यह दलितों की विशिष्ट पहचान को मजबूती देती है और उन्हें या तो पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करती है या एक ऐसे एकजुट समुदाय के तौर पर जो ‘दूसरों’ से अलग है। ये सभी स्थितियां सामाजिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे दलित कार्यकर्ताओं के लिए वांछनीय नहीं हैं और इस तरह की कहानियों से अन्य समुदायों के साथ संवाद की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि दलितों को यह कहानी नहीं सुनाना चाहिए बल्कि यह है कि इस तरह की कहानी का इस्तेमाल चुनिंदा मौकों पर ही किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह सकारात्मक पहचान के निर्माण और जागरूकता उत्पन्न करने के लिए की जा रही कोशिशों के अनुरूप हो। यद्यपि यह कहानी कोब की ‘आख्यानात्मक हिंसा’ की अवधारणा का बहुत अच्छा उदाहरण नहीं है तथापि यह आख्यान उस अनवरत आख्यनात्मक हिंसा को चुनौती नहीं देता जिसका दलितों को अपने दैनिक जीवन में रोजाना सामना करना पड़ता है। यह दलितों के आख्यानात्मक जीवन को ‘सघन’ करने में मददगार नहीं है। सच तो यह है कि डा. आंबेडकर के व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित इस कहानी के दलित श्रोताओं की इसके निहितार्थों को समझने में उलझाव के कारण श्रोता फ्रांसिस्का पोलेटा के शब्दों में ‘आख्यानात्मक अस्पष्टता’ में फंस जाते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी कार्यकर्ता द्वारा कोई कहानी सुनाए जाने पर उसकी अस्पष्टता को समझने के लिए अन्य कार्यकर्ता उस कहानी को बार-बार दुहराने के लिए मजबूर हो जाते हैं। कहानी केवल कहानी बनकर रह जाती है और उसमें निहित संभावनाओं का दोहन नहीं हो पाता।

इस तरह की कहानी में निहित अकथ अमानवीयता के कारण न चाहते हुए भी कार्यकर्ता समुदाय की अलग- अलग पहचान और उसके पीड़ित होने के भाव को मूर्त रूप देती है। वह संवाद की शुरूआत का माध्यम नहीं होती। इसके अतिरिक्त ऊँची जातियों के विरोधी इस तरह के आख्यान का इस्तेमाल नीची जातियों को हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करने हेतु करते हैं। उनका तर्क यह होता है कि जाति केवल हिन्दुओं की समस्या नहीं है (जबकि यह आंबेडकर की जाति व्यवस्था की व्याख्या के ठीक उलट है)। संक्षेप में इस कथा के इस्तेमाल से न तो सामजिक स्तर पर किसी कार्यवाही को करने का वातावरण उत्पन्न होता है और ना ही दलितों या अन्य नीची जाति के समुदायों को सामाजिक न्याय दिलवाने में मदद मिलती है। तब फिर जाति-विरोधी कार्यकर्ता कहानियों को किस रूप में प्रस्तुत करें ताकि वे आख्यानों को सघन कर सकें और अन्यों के साथ प्रामाणिक संवाद के उत्प्रेरक बन सकें? यह आधुनिक जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा से चुनौती बनी हुई है। वे रणनीतिक स्तर पर दमन की कहानियों का इस्तेमाल इस तरह से करने में विफल रहे हैं जिससे वे अलग पहचान की वाहक न बनें और साथ-साथ स्वतंत्रता व बंधुत्व के मूल्यों और अन्याय की सामूहिक चेतना को प्रोत्साहित कर सकें। इस असफलता ने जाति-विरोधी आंदोलन को बिखरा दिया है। इस बिखराव के कारण जाति-विरोधी कार्यकर्ता उच्च जातियों के भारतीयों के दिलो-दिमाग को प्रभावित करने में असफल रहे हैं।

विश्व स्तर पर आंबेडकरवादी समुदायों के अध्ययन से जो एक अन्य आख्यान सामने आता है वह है डा.आंबेडकर के भारतीय संविधान का पिता/स्रोत होने का राष्ट्रवादी आख्यान। इस आख्यान का विभिन्न सामाजिक समुदायों और संदर्भों में अलग-अलग अर्थ है। दलित समुदायों की कानून के राज में आस्था है और वे भारत के 1949 में तैयार हुए संविधान पर गर्व करते हैं क्योंकि उन्हें यह लगता है कि वह वंचितों को उनके अधिकार पाने के लिए कानूनी कार्यवाही करने का अधिकार देता है। इसीलिए भारत भर में आंबेडकर की मूर्तियों में उन्हें भारतीय संविधान की एक प्रति अपने बाएं हाथ और कंधे के बीच लिए हुए दिखाया जाता है और वे अपनी ऊँगली से समानता पर आधारित भविष्य की ओर इशारा करते दिखाए जाते हैं। डा. आम्बेडकर संविधान की मसविदा समिति के अध्यक्ष थे। परंतु दलित उन्हें इस महत्वपूर्ण दस्तावेज का एकमात्र लेखक मानते हैं। जबकि सच इससे कहीं जटिल है और वह यह है कि संविधान कई लोगों के सामूहिक परिश्रम का परिणाम था और आंबेडकर को ज्यादा से ज्यादा केवल उसका सह-लेखक कहा जा सकता है। उनके आसपास बुने गए राष्ट्रवादी आख्यानों के कारण सरकार के बाहर उनके क्रांतिकारी कार्यों को अनदेखा किया जाता है। मेरे दलित मित्र मुझे बताते हैं कि आंबेडकर ने जो कुछ लिखा उनमें संविधान सबसे महत्वपूर्ण है और आंबेडकर के अन्य लेखन में वे उनके ‘एनीहीलेशन आफ कास्ट’ को भी शामिल करते हैं। आंबेडकर के देश के पहले विधिमंत्री और एक राष्ट्रवादी नायक के रूप में आख्यान उनके व्यक्तित्व और कार्यों के अन्य पक्षों को मानो गौण बना देता है। सच तो यह है कि जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के बीच डा. आम्बेडकर के प्रति भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में और बौद्ध धर्म अपनाने के उनके निर्णय के प्रति असीम श्रद्धा के कारण डा. आंबेडकर के गैर-दलित समुदायों पर प्रभाव को कम करके आंका जाता है। भारतीय समाज के सभी तबकों में आंबेडकर की विरासत और उनके प्रभाव की समझ काफी उथली है। यदि हम आख्यानात्मक हिंसा का उन्मूलन करना चाहते हैं तो हमें कोब के आख्यानात्मक स्वरूप पर ध्यान देने के आह्वान को स्वीकार कर न केवल उनके संबंध में नीची जातियों और आंबेडकर के अनुयायियों के बीच प्रचलित आख्यानों का वरन ऊँची जातियों में प्रचलित आख्यानों का भी अध्ययन करना होगा।

डा. आंबेडकर, जो कि भारतीय राष्ट्र के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे, के बारे में विशेषाधिकार प्राप्त जातियों की सोच दलित समुदायों से भी ज्यादा एकांगी है। वे उन्हें प्रजातांत्रिक कानून के शासन के संस्थापक या समाज सुधारक से कहीं अधिक स्वाधीन भारत के कई निर्माताओं में से एक मानते हैं। उनकी दृष्टि में आंबेडकर गांधी, नेहरू, पटेल और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं की श्रेणी में शामिल हैं। वे राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं और उनका जातिगत दमन और सामाजिक सुधार से कोई सरोकार नहीं है। ऊँची जातियों के परिप्रेक्ष्य में आंबेडकर स्वतंत्रता के प्रतीक तो हैं परंतु यह स्वतंत्रता एक राष्ट्र की स्वतंत्रता है किसी एक समुदाय की स्वतंत्रता नहीं। यह एक सूत्र में बंधे और मुख्यतः हिन्दू भारत की स्वतंत्रता है। दलितों द्वारा आंबेडकर को मूलतः कानून के शासन का प्रतीक मानने को भी विशेषाधिकार प्राप्त जातियां राष्ट्रवादी आख्यान का हिस्सा मानती हैं और वे यह नहीं मानतीं कि आंबेडकर किसी भी रूप में हिन्दुओं के विशेषाधिकार के लिए चुनौती हैं। इस तरह भारतीय राष्ट्र के निर्माता या पिता के रूप में आंबेडकर की विरासत, दलितों और वर्चस्वशाली जातियों – दोनों के लिए एक राष्ट्रवादी आख्यान का भाग है। इससे आंबेडकर के प्रति श्रद्धा समाप्त तो नहीं होती परंतु उन्हें राष्ट्रीय एकता का आव्हान करने वाले एक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है न कि सामाजिक सत्ता के समालोचक के रूप में। आंबेडकर के राष्ट्रवादी और भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में एकांगी प्रस्तुतीकरण से उनसे जुड़े अन्य जटिल और क्रांतिकारी आख्यान निस्तेज पड़ जाते हैं और सामाजिक परिवर्तन के संबंध में उनके क्रांतिकारी विचारों पर सकारात्मक संवाद और/या आलोचना के सभी द्वार बंद हो जाते हैं।

अधिकांश दलितों के लिए बाबासाहेब क्रांतिकारी परिवर्तन के वाहक और एक मेधावी राजनेता थे। परंतु ऊँची जातियों के बहुसंख्यक सदस्यों के लिए आंबेडकर के व्यक्तित्व का यह पक्ष गौण है। आंबेडकर के स्वाधीन भारत के एक प्रमुख निर्माता होने के राष्ट्रवादी आख्यान ने उनके द्वारा शुरू की गई बौद्धिक और सामाजिक क्रांति को अपेक्षाकृत महत्वहीन बना दिया है। आंबेडकर के क्रांतिकारी वक्तव्यों और कथनों को या तो प्रस्तुत ही नहीं किया जाता या फिर उनका मृदु संस्करण प्रस्तुत किया जाता है। दलितों के विपरीत, ऊँची जातियां, आंबेडकर को एक क्रांतिकारी कार्यकर्ता के रूप में नहीं देखतीं। तथ्य तो यह है कि बाबासाहेब के व्यक्तित्व के क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी पक्ष से ऊँची जातियों का कोई लेनादेना ही नहीं है।

परंतु गेल ओमवेट की जाति-विरोधी आंदोलन पर कई पुस्तकों में से एक ‘डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन’  का शीर्षक उधार लेते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि आंबेडकर के प्रजातांत्रिक क्रांति के एक नेता के रूप में राजनैतिक दृष्टि से प्रभावी आख्यान, आख्यानात्मक हिंसा को चुनौती देने का आंबेडकर के स्वयं के अन्याय के अनुभवों से अधिक बेहतर तरीका है। आंबेडकर के एक राष्ट्रपिता होने के राष्ट्रवादी आख्यान पर निश्चित तौर पर हिंन्दू दक्षिणपंथियों ने कब्जा कर लिया है परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इसी आख्यान का जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के बीच अधिक जटिल व ‘सघन’ दुहराव स्थायी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अन्याय की कहानियों, जिनमें आंबेडकर का उनके साथ दौलताबाद में हुए व्यवहार का विवरण शामिल है, की बजाए भारतीय प्रजातंत्र की नीची जातियों द्वारा समालोचना के आख्यान अधिक प्रभावी हैं। अतः यह आवश्यक है कि नीची जातियां डा. आंबेडकर के संविधान के निर्माता मात्र होने के आख्यान को चुनौती दें। भारतीय प्रजातंत्र की नींव और उससे प्रेरित ‘अतुल्य भारत‘  के स्वप्न, जाति पर आधारित हैं। ऊँची जातियों को उस दर्द से परिचित करवाया जाना चाहिए, जिससे नीची जातियां गुजरी हैं और उन्हें आधुनिक भारत के जाति पर आधारित होने के संबंध में सामूहिक रूप से जागृत किया जाना चाहिए। डा. आंबेडकर को केवल राष्ट्रवादी नहीं वरन् एक क्रांतिकारी के रूप में प्रस्तुत करने से हमें भारत के इतिहास का पुनरावलोकन करने का मौका मिलेगा। जिस तरह मालकोम एक्स जैसे व्यक्तित्व नागरिक अधिकार आंदोलन के उस क्रांतिकारी पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे अपेक्षित मान्यता नहीं मिली, उसी तरह आंबेडकर, ऐतिहासिक अन्यायों के प्रति मुख्यधारा की और क्रांतिकारी – दोनों तरह की प्रतिक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। कार्यकर्ता आंबेडकर की कहानी को किस तरह से सुनाते हैं इस पर ही यह निर्भर करता है कि सुनने वाले उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे और वह हमें हमारे इच्छित भविष्य की ओर ले जाएगी या नहीं।

‘एनीहीलेशन आफ कास्ट’ (1936) में आंबेडकर लिखते हैं कि ‘‘ऐसे बहुत से भारतीय हैं, जिनकी देशभक्ति उन्हें यह इजाजत नहीं देती कि वे यह स्वीकार करें कि भारत एक राष्ट्र नहीं हैं बल्कि केवल व्यक्तियों का आकारहीन समूह है…। केवल भौगोलिक निकटता से व्यक्ति समाज नहीं बन जाते…”। आंबेडकर की भारतीय राष्ट्र की समालोचना, उनके जाति से जुड़े व्यक्तिगत अनुभवों से उपजी थी और भारत के प्रागआधुनिक इतिहास के उनके अध्ययन पर आधारित थी। इतिहास की जटिल और बहुस्तरीय समालोचना के बगैर आम्बेडकर की जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए प्रासंगिकता कम होगी और जाति के आख्यान में किसी परिवर्तन की संभावना और अवसर घटेंगे। कार्यकर्ताओं के लिए यह जरूरी है कि वे यह समझें कि हाशिए के लोगों के आख्यान, ‘गुप्त लिप्यांतरों’ से परिपूर्ण हैं और इनमें हस्तक्षेप ही हमें सामाजिक परिवर्तन की दिशा में ले जा सकता है।

डा. आंबेडकर के राष्ट्रवादी आख्यान को उनकी जातिगत दमन की क्रांतिकारी समालोचना के संदर्भ में ही सुनाया जाना चाहिए। आंबेडकर के राष्ट्रवाद को अगर हम उनके जाति-विरोधी अभियान से अलग करके देखेंगे तो इससे वे केवल अनेक राष्ट्रीय नेताओं में से एक रह जाएंगे। वे देश के पहले विधिमंत्री थे और कानून और व्यवस्था को संगठित स्वरूप देने वाले देशभक्त थे। परंतु इससे आगे बढकर वे भारतीय समाज के निष्ठुर आलोचक थे। एक मेधावी विधिवेत्ता तो वे थे ही, वे सामाजिक बदलाव के शिक्षक और परिवर्तन के योद्धा भी थे। जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं को आंबेडकर की सामाजिक परिवर्तन के उत्प्रेरक व सरकार के नीति निर्धारक के रूप में भूमिका को विस्मृत करने की सत्ताधारियों की कोशिश को असफल करना चाहिए। आंबेडकर के जीवन और उनके कार्यों का यह अधिक जटिल आख्यान, दलित कार्यकर्ताओं को इस बात का अवसर देता है कि वे अन्यों को, जिसे जोजफ मांटवेल, ‘इतिहास की यात्रा’  कहते हैं, में उनके साथ चलने के लिए आमंत्रित कर सकें। आंबेडकर के राष्ट्रवादी और जाति-विरोधी क्रांतिकारी कार्यकर्ता होने के आख्यान को सघन कर आधुनिक जाति-विरोधी कार्यकर्ता डा. आम्बेडकर के इस आह्वान को ही पूरा करेंगे कि ‘‘संगठित हो, शिक्षित बनो और आंदोलन करो।’’ यह तथ्य है कि भारत का मुख्यधारा का समाज, जिसमें उदारवादी और प्रगतिशील कार्यकर्ता शामिल हैं, अक्सर आंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों को नजरअंदाज करते हैं।

मांटवेल की तरह, इतिहास की यात्रा (2001/2006) करने के लिए लोगों को आमंत्रित करना, जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे वे दमनकर्ताओं को शिक्षित कर सकेंगे और दमितों में मुक्ति चेतना और आत्माभिमान जगा सकेंगे। आंबेडकर के राष्ट्रवादी नेता और जाति-विरोधी क्रांतिकारी दोनों के रूप में सघन आख्यान, लोगों को शिक्षित करने, उनमें समालोचनात्मक चेतना जागृत करने और भारतीय इतिहास को देखने के नजरिए में परिवर्तन लाने का अवसर देते हैं। इस तरह के सघन आख्यानों को समाज के विशेषाधिकार प्राप्त तबके में फैलाना अपेक्षाकृत कठिन है परंतु आख्यानात्मक हिंसा के शांतिपूर्ण रूपांतर के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

आंबेडकर को पुनः जीतना

डा. बीआर आंबेडकर अपने अधिकांश सार्वजनिक भाषणों की शुरूआत ‘संगठित हो, शिक्षित बनो और आंदोलन करो’ के नारे के साथ करते थे। मेरा यह विश्वास है कि हम उनकी विरासत के साथ न्याय तभी कर सकेंगे जब हम उनके जीवन और कार्यों की जटिल कहानियां सुनाएं। डा. आंबेडकर का जीवन कई उतार-चढावों, अलौकिक सफलताओं और बड़े अवसरों से परिपूर्ण था। वे जान डयूई के शिष्य थे, उन्होंने ढेर सारा लेखन किया, वे भारत के पहले विधिमंत्री थे और पृथक मताधिकार के पैरोकार थे। इस सूची को हम और लंबा कर सकते हैं। डा. आम्बेडकर कई अर्थों में आदर्श थे। वे इस अर्थ में क्रांतिकारी थे कि उनके समय में उनके विचार एकदम नवीन और अलग थे। अगर आज उनकी मृत्यु के लगभग 60 वर्ष से अधिक गुजर जाने के बाद भी कार्यकर्ता उन्हें नवीन और सबसे अलग बनाए रखना चाहते हैं तो इसके लिए यह जरूरी है कि वे उनके बारे में कहानियां सुनाएं। जब तक कार्यकर्ता उनके जीवन और कार्यों की कहानी को जटिल नहीं बनाते तब तक वे उनकी विरासत के साथ अन्याय करते रहेंगे। डा. आम्बेडकर की क्रांतिकारी विरासत को सुरक्षित रखने के लिए केवल देश भर में नीची जातियों की बस्तियों में उनकी मूर्तियां लगाना काफी नहीं है। कार्यकर्ता, डा. आंबेडकर को नया और प्रासंगिक बनाए रख पाते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वे उनके जीवन की कथा को कितना जटिल बना पाते हैं।

भविष्य की ओर बढते हुए भी दलितों को यह सीखना होगा कि वे गुजरे हुए वक्त की कहानियां कैसे सुनाएं। इसकी रणनीति का विकास सामाजिक शिक्षण की ऐतिहासिक प्रक्रिया से होगा। कहानियां सुनाने के निहितार्थ पर ध्यान देते हुए कार्यकर्ता अपने सामूहिक सामाजिक शिक्षण को संसाधन के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। इस सिलसिले में सकारात्मक पहचना का निर्माण करने में वामिक वोल्कन (1998) का लेखन बहुत उपयोगी है। युद्ध के पश्चात बाल्कनस के बारे में लिखते हुए वोल्कन, सामूहिक दुह्स्मृतियों की बात करते हैं और यह बताते हैं कि किस तरह नेता और वक्ता ‘चयनित दुह्स्मृतियों’ या ‘चयनित महिमाओं’ की कहानियां सुनाते रहे हैं।’’ वोल्कन, चयनित दुह्स्मृतियों को ‘किसी बड़े समूह द्वारा अवचेतन रूप से अपनी पहचान को, अपने आहत मानस को एक पीढी से दूसरी पीढी तक पूर्वजों की स्मृति के साथ जोड़कर सम्प्रेषित करने के रूप में परिभाषित करते हैं। दूसरी ओर चयनित महिमाओं से आशय है ‘किसी ऐसी ऐतिहासिक घटना का मानसिक निरूपण जो सफलता और विजय के भाव उत्पन्न करती है।’ बाबासाहेब की कहानयिां जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए चयनित अभिघातों व चयनित महिमाओं का काम करती हैं। परंतु प्रश्न यह है कि अतीत के अभिघात और अतीत की महिमाएं, जाति-विरोधी और हाशिए के समुदायों में सामाजिक परिवर्तन लाने हेतु आज की दुनिया में किस तरह उपयोगी हैं। अगर जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं को अपना काम प्रभावकारी ढंग से करना है तो उन्हें इस प्रश्न पर विचार करना होगा। जब तक सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग, क्षति और प्रतिशोध के उस कुचक्र में से नहीं निकलते, जिसमें वे फंसे हुए हैं, तब तक वे विवाद के जाल से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाएंगे। तथ्य यह है कि विरोधाभासी आख्यान अपने आप में एक अभिकरण हैं और केवल वे आंकड़े, जिन्हें मेरे जैसा शोधार्थी विवेचना या अध्ययन के लिए चुनता है, ही अभिकरण नहीं हैं। समुचित ध्यान दिए बगैर यह संभव नहीं होगा कि हम उन आख्यानों के संदर्भ में सावधान रहें जिनका हम इस्तेमाल करते हैं और उन आख्यानों की समालोचना करें जिन्हें हम सुनते और दुहराते हैं। सदियों के सामाजिक शिक्षण ने नीची जाति के समुदायों में प्रतिरोध की ‘इन्फ्रापालिटिक्स’ का विकास कर दिया है। अब जरूरत इस बात की है कि इसी तरह का सामाजिक शिक्षण, विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों को सुलभ कराया जाए। इसके लिए आख्यानात्मक किस्सागोई का रणनीतिक इस्तेमाल आवश्यक है।

हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि अगर हम विवाद और अतीत के अभिघातों को नजरअंदाज करेंगे तो वे गायब नहीं हो जाएंगे। उनकी विरासत बार-बार उभरती रहेगी और संरचनात्मक व सांस्कृतिक हिंसा और संभवतः अंततः प्रत्यक्ष हिंसा को जन्म देगी। जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे आख्यानों का समालोचनात्मक अध्ययन कर उनके जरिए संघर्ष और टकराव के मुद्दों को समाप्त करें और उस सामाजिक न्याय की स्थापना करें जिसका स्वप्न वे देखते आए हैं। समुचित समालोचनात्मक अध्ययन के बिना संघर्ष की दास्तानों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, बल्कि वे नियंत्रक बन जाती हैं। विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के लिए यह आवश्यक है कि वे दलितों के सामूहिक दुखद स्मृतियों को समझें। यद्यपि विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों को इनके बारे में समझाने का दायित्व दलित कार्यकर्ताओं का नहीं है तथापि उनकी यह जिम्मेदारी है कि वे सहअस्तित्व की आवश्यकता के बारे में जागृति उत्पन्न करें। आंबेडकर के इतिहास और उनकी विचारधारा को पुनः पाने की आवश्यकता है। जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे आंबेडकर के आख्यान को इस तरह से सुनाएं कि वह दलितों के अतीत के जटिल दुह्स्मृतियों को नजरअंदाज न करे।

[1] जोहान गाल्टुंग, “वायलेंस, पीस, एंड पीस रिसर्च”, जर्नल ऑफ़ पीस रिसर्च, 6, क्रमांक 3 (1969): 167-91

[2] पॉल फार्मर, “एन एंथ्रोपोलॉजी ऑफ़ स्ट्रक्चरल वायलेंस”, करेंट एंथ्रोपोलॉजी, 45 क्र. 3 (जून 2004), 305-325; कैथलीन हो, “स्ट्रक्चरल वायलेंस एज ए ह्यूमन राइट्स वायलेशन” एसेक्स ह्यूमन राइट्स रिव्यु, 4, क्र 2, (सितम्बर 2007); एम कैप्रिओली, प्राइमड फॉर वायलेंस: द रोल ऑफ़ जेंडर इनइक्वालिटी इन प्रीडिक्टिंग इंटरनल कनफ्लिक्ट” इंटरनेशनल स्टडीज क्वार्टरली , 49, क्र 2 (जून 2005), 161-178

[3] जोहान गाल्टुंग, “वायलेंस, पीस, एंड पीस रिसर्च”, 168

[4] एलिसाबेथ पोर्टर, “कनेक्टिंग पीस, जस्टिस, एंड रीकंसीलीएशन” (बोल्डर, सीओ; लिन रिएंनेर, 2015), 47.

[5] जोहान गाल्टुंग, “कल्चरल वायलेंस” जर्नल ऑफ़ पीस रिसर्च, 27, क्र. 3 (1990), 291

[6] हालिया उदाहरणों के लिए देखिये: डेविड निबर्ट, एनीमल ओपरेशन एंड ह्यूमन वायलेंस; डोमेसीक्रेशन, कैपिटलिज्म एंड ग्लोबल कनफ्लिक्ट (न्यूयार्क: कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 2013); मार्क पिलिसुक एवं जेनिफर राउंडट्री, “द हिडन स्ट्रक्चर ऑफ़ वायलेंस; हू बेनिफिट्स फ्रॉम ग्लोबल वायलेंस एंड वार” (न्यूयार्क: मंथली रिव्यु प्रेस, 2015); एवं जेफ़ ल्युइस, “मीडिया, कल्चर एंड ह्यूमन वायलेंस: फ्रॉम सेवेज लवर्स टू वायलेंट कॉमप्लेक्सिटी” (लान्हम, एमडी. रोमैन एवं लिटिलफील्ड, 2016) व अन्य.

[7] सारा कोब, स्पीकिंग ऑफ़ वायलेंस, 27.

[8] उपरोक्त, 27.

[9] उपरोक्त, 27.

[10] उपरोक्त, 27.

[11] उपरोक्त, 27.

[12] सारा कोब, स्पीकिंग ऑफ़ वायलेंस, 27

[13] वीना दास, “द एक्ट ऑफ़ विटनेसिंग: वायलेंस, पायसिनस नॉलेज एंड सब्जेक्टिविटी”, 220.

[14] भीमराव आंबेडकर, “द एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट: ए स्पीच प्रीप्रेयर्ड बाय बीआर आंबेडकर”, “द एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट: द एनोटेतिड एंड क्रिटिकल एडिशन”, संपादन एस. आनंद (न्यूयार्क: वर्सो, 2014) 242.

[15] जेम्स स्कॉट, “डोमिनेशन एंड द आर्ट्स ऑफ़ रेजिस्टेंस: हिडन ट्रांसक्रिप्ट्स” (न्यू हैवन: येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 1990).

[16] देखें, रिंकर, जेरेमी, “व्हाई शुड वी टॉक टू पीपुल हू डू नॉट वांट तो टॉक टू अस? इंटर-कास्ट डायलाग एज अ रिस्पांस टू कास्ट-बेस्ड मारजीनेलाईज़ेशन”, पीस एंड चेंज, 38, क्र. 2 (अप्रैल 2013), 237-262. और देखें पोल्लेटा, “इट वाज़ लाइक ए फीवर; स्टोरीटेलिंग इन प्रोटेस्ट एंड पॉलिटिक्स”, 2006, 43-45.

[17] ह्यूबर्ट ड्रेफस एवं पॉल राबिनो द्वारा उदृत, मिशेल फोको “बियॉन्ड स्ट्रक्चरालिस्म एंड हेर्मेन्यूटिक्स”, द्वितीय संस्करण, (शिकागो: यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, 1983)


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लेखक के बारे में

जेरेमी ए रिंकर

डा. जेरेमी ए रिंकर अमेरिका के नार्थ केरोलीना गंरीन्सबारो विश्वविद्यालय के शांति व संघर्ष अध्ययन विभाग में सहायक प्राध्यापक और पूर्वस्नातक अध्ययन के निदेशक हैं। वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, भारत के मालवीय शांति शोध केन्द्र में सन् 2013 में फुलब्राईट फेलो थे।

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