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भय आरक्षण का

प्रेमचंद गाँधी की कविता

वे साठ साल पहले भी डरे थे
लेकिन इतना नहीं
तब उन्हें लगता था कि
महज दस साल की बात है
वे पचास साल पहले भी डरे थे
तब भी इतना नहीं
उन्हें मालूम था कि
जो काम दस साल में नहीं हुआ
वो अगले दस साल में भी कहां होगा

इस तरह वे
हर दस साल बाद डरते रहे और
इसी डर में आधी सदी गुजर गई
इस बीच वे लोग ऊपर आते गए
जिनके उभरने का खौफ था

अब वे सचमुच भयभीत हैं कि
आगे क्या होगा
यह दस साल का सिलसिला तो
अनंतकाल की ओर जा रहा है

उन्होंने बहुत चिंतन किया और
नई सामाजिक शब्दावली तैयार की
जो हो चुके हैं समर्थ
अब उन्हेें बाहर कर देना चाहिए

आखिर कितनी पीढिय़ों तक चलेगी
यह व्यवस्था
इसे दो तक सीमित कर देना चाहिए

लेकिन जजमानी, पौरोहित्य और व्यापार में
उन्होंने नहीं माना कि
वहां पीढियों तक यह नहीं चलना चाहिए
दरअसल सारा सत्य एक शब्द में है
‘भय’
कौन होता है भयभीत
जिसे होता है डर
कुछ खो देने का भय
डर होता है भविष्य का
जिनके पास कुछ नहीं होता
वे कभी भयभीत नहीं होते
जिन्हें ज्यादा चिंता नहीं होती भविष्य की
वे कभी नहीं डरते किसी चीज से

इसीलिए भयभीत लोगों के पास होती है
सम्मोहक शब्दावली
वे अपने डर को वाजिब सिद्ध करने के लिए
किसी भी सीमा तक जा सकते हैं
अपनी सत्ता खो देने का भय
बहुत भयानक होता है

इसीलिए वे कहते हैं कि
यह व्यवस्था चलती रही तो
देश छिन्न-भिन्न हो जाएगा
जैसे इससे पहले तो देश
बहुत ही एकताबद्ध था
उन्हें डर है कि
समाज विघटित हो जाएगा
वैमनस्य बहुत बढ़ जाएगा
मानो उनकी बनाई व्यवस्था में
समाज बहुत ही सुगठित था और
लोगों के बीच इतना प्रेम था कि
सब कबूतरों की तरह
एक ही झुण्ड में रहते थे
वे जब एक संवैधानिक व्यवस्? था के औचित्य पर सवाल उठाते हैं तो
सावधान हो जाना चाहिए
वे संविधान के साथ
उसकी मूल भावना पर भी
सवाल खड़े कर रहे होते हैं
भाषा, व्याकरण, समाज और संस्कृति
सभी पर तो उनका हक था
सारी मेधा पर
उनका ही आधिपत्य था
कोई दीन-हीन इस वर्जित क्षेत्र में
कैसे और क्यों दाखिल हो जाए
अगर यही हाल रहा तो
उनकी आगे आने वाली पीढियों का क्या होगा
क्या वे कटोरा लेकर भीख मांगेंगी
वे जब मनुष्य को जाति के आधार पर
भिखारी की हालत में पहुंचने की बात करते हैं तो
उनकी नीयत पर संदेह करना चाहिए
उनके पूरे अतीत और वर्तमान को
खंगालना चाहिए
उन्होंने कितने ऐसे लोगों का उद्धार किया
जो भिखारी हो सकते थे
या कि उन्होंने कितने ऐसे लोगों पर
उपकार किया जिन्हें कहीं और होना चाहिए था
लेकिन उनकी कृपा से वे क्या-क्या हो गए

वे प्रगतिशील नहीं प्रगतिकामी हैं
उन्हें प्रगति अपनी ही व्यवस्था में चाहिए
जिसमें सदियों पुरानी वर्चस्व की परंपरा
कुछ के हाथों में ही महफूज रहे
यही उनका सामाजिक न्याय है

वे हर उस व्यक्ति पर संदेह करते हैं
जो मेहनत या प्रतिभा से ऊपर उठ गया हो
वे मनुष्य की स्वाभाविक शक्ति पर संदेह करते हैं
उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि
कोई दलित, वंचित, हेय जाति का

ऐसा भी निकल सकता है
इसलिए वे उसकी पैदाइश तक पर शक करते हैं
उन्हें लगता है कि मनुष्य में
प्रतिभा, वीरता, मौलिकता और बुद्धि के सारे गुणसूत्र
सिर्फ कुछ जातियों के ही पास हैं

भयभीत लोग हर तरफ हैं
वे सत्ता के साथ भी हैं और
सत्ता के खिलाफ भी, लेकिन
वे इस बात पर एकमत हैं कि
यह व्यवस्था बदलनी चाहिए
इसलिए सत्ता किसी की भी हो
सत्ता में वही रहते हैं
वे ही तय करते हैं कि
अस्सी प्रतिशत लोगों को
कैसे सत्ता से दूर रखा जाए

यूं वे बेहद उदार हैं
इतने समाजवादी हैं कि
साम्यवादी भी उनके आगे
कहीं नहीं ठहरते

वे अतीत का राग गाते हैं
कैसे बरसों पहले उन्होंने
तोड़ दिए थे जाति-धर्म के बंधन
लेकिन उनकी कथाओं के साक्षी
कहीं नहीं मिलते

यह अलग बात है कि
अपनी संतानों को उन्होंने
परंपरानुसार कुल-गोत्र देखकर ही ब्याहा
किसी कुलहीन को कुलीन बनाने का साहस नहीं किया
अपनी कुलीनता के दायरे में
किसी अंत्यज को नहीं आने दिया

इसीलिए वे बेहद भयभीत हैं कि
आने वाली पीढियों का क्या होगा
उनकी आंखों के सामने उनके वंशज
कुलीनता का रास्ता छोड़
स्वाधीनता की राह चल रहे हैं
जाति, कुल, गोत्र कुछ नहीं देख रहे
अपनी मर्जी से मित्रता और विवाह कर रहे हैं
इसे रोका जाना चाहिए
सब कुछ प्रतिभा के आधार पर होना चाहिए
योग्यता का मापदंड पूरा होना चाहिए

अयोग्य, असमर्थ की मदद करनी चाहिए
मुफ़्त शिक्षा और प्रशिक्षण होना चाहिए
जो काबिल हो उसे आगे आना चाहिए
और काबिलियत तय करने का काम तो
आखिर वे ही तय करेंगे ना
इसलिए यह व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए।

(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

प्रेमचंद गाँधी

प्रेमचंद गाँधी वरिष्ठ कवि हैं

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