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दलित और ओबीसी साहित्य का शाब्दिक द्वंद्व

भारतीय समाज की जाति व्यवस्थापक संरचना दुराग्रही और कुटिलतावादी रही है। एक ओर यह कुछ के आर्थिक एकाधिकार, सम्मान, सत्कार, सर्वोच्चता का पोषक रही है तो दूसरी ओर बहुत को हीन-दीन, वंचित और उपेक्षित बनाए रखने की नीति की अनुगामी

हिंदी साहित्य में दलित एवं स्त्री-विमर्श का प्रादुर्भाव, वर्णवादी दंश, अस्पृश्यता, उपेक्षा, अपमान के प्रतिकार का प्रतिफल है। अभी तक ओबीसी साहित्य जैसी किसी अवधारणा के न होने का कारण यह रहा है कि उसने स्वयं को शूद्र वर्ण की अवधारणा से आच्छादित रखते हुए, दलित साहित्य का ही अंग समझा। विगत दो-ढाई दशक पहले तक, कुछ अपवादों को छोड़कर, हिंदी साहित्य मुख्यत: सवर्णवादी साहित्य था। वहां दलित, आदिवासी, पिछड़ा या स्त्री अस्मिता की आहट नहीं सुनाई देती थी। वह धार्मिक आवरण ओढ़े, परम अवैज्ञानिक यथार्थ से टकरा रहा था और कुल मिलाकर हाशिए के समाज, जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़े और स्त्रियां ही मुख्य रूप से शामिल थीं, की सामाजिक और
साहित्यिक उपेक्षा कर रहा था।

भारतीय समाज की जाति व्यवस्थापक संरचना दुराग्रही और कुटिलतावादी रही है। एक ओर यह कुछ के आर्थिक एकाधिकार, सम्मान, सत्कार, सर्वोच्चता का पोषक रही है तो दूसरी ओर बहुत को हीन-दीन, वंचित और उपेक्षित बनाए रखने की नीति की अनुगामी। उसने प्रगतिशील विचारों, वैज्ञानिकी और समतावादी मूल्यों के बरक्स, मिथ, मान्यताओं और गैर मानवीय मूल्यों को स्थापित किया है। साहित्य में भी इन मूल्यों की घुसपैठ देखी जा सकती है। सनातनी धर्म के साथ नाभि-नाल बनी हिन्दू जाति व्यवस्था ने तमाम प्रगतिशील धर्मों को भी अवतारवाद और कर्मकांड में उलझाकर, विचारधारा का संकट पैदा किया और समाज के रूपांतरण की पूरी प्रक्रिया को भोथरा बना दिया। यहां की गैर बराबरी की सामाजिक और आर्थिक संरचना ने, जो धर्म का चोला पहने थी, श्रमशील समाज से सामाजिक बदलाव की ऊर्जा को सोख लिया। ऊर्जा विहीन श्रमशील समाज का निर्माण, भाषा, कला, संस्कृति और साहित्य पर कुलीनतावादी विचारों का आधिपत्य स्थापित करना एक चाल रही है। इस चाल ने शूद्र समाज को अहस्तक्षेपकारी बनाए रखा और कभी कोई संत, सिद्ध, निरंकारी, निर्गुणमार्गी, नाथपंथी या कबीरपंथी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही भी तो उसे हर प्रकार से ओझल, हतोत्साहित और मूल्यहीन बनाने का प्रयास किया। यह अकारण नहीं है कि समृद्ध संत और सिद्ध साहित्य की उपस्थिति को रेखांकित करने में सदियों लगे। हीरा डोम की एकमात्र कविता के अलावा और कुछ प्रकाश में नहीं आ पाया। इस विभेदकारी नीति के कारण ही साहित्य की भाषा, मुहावरे और कथ्य परकुलीनतावादियों का एकाधिकार रहा और दलितों तथा पिछड़ों की उपेक्षा हुई।

विभेदकारी पीड़ा को सबसे ज्यादा दलितों ने भोगा और महसूस किया है। अंग्रेजी शासन में सनातनी शिक्षा से भिन्न, ज्ञानार्जन के साधन उपलब्ध होने के कारण राजनीतिक जागरण की शुरुआत हुई। शूद्र समाज का दलित वर्ग, पिछड़ों से निम्न? स्थिति में था, इसलिए उसकी पहल पहले होनी ही थी। उसकी राजनीतिक पहलकदमी ने ही दलित साहित्य की नींव रखी। दलितों की अनुभूतियां पिछड़ों के करीब तो थीं, पर भिन्न भी थीं। उनकी भाषा, मुहावरे, संवेदना और समझ भिन्न थी। पिछड़ा वर्ग कुलीन और अस्पृश्य के बीच से टीवॉल्वल के रूप में उभरा था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि यह भिन्नता इतनी अधिक थी कि दीवार खड़ी की जाए। पिछड़ों को जातिदंश और ऊंच-नीच की पीड़ा से गुजरना पड़ता है। उन्हें भी कुलीनतावादी भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। ऐसे में साहित्य में दलितों और पिछड़ों की उपस्थिति का यथार्थ, बहुजन यथार्थ होना चाहिए था। उनकी चिंताएं, झंडाबरदार बनने की बजाय, ऊंच-नीच के संबंधों के प्रतिकार के लिए होनी चाहिए थी। सवर्ण या गैर दलित के प्रति दुर्भावना को भी स्थान नहीं मिलना चाहिए था। जाहिर है साहित्य में कुछ सवर्णों या गैर दलितों की सोच और संवेदना भी, न्यूनतम ही सही, गैर बराबरी के विरुद्ध रही है। राजनीतिक और सामाजिक जागरण का प्रतिफल यह रहा कि हिन्दी पट्टी में भी दलित चेतना का विकास हुआ। साहित्य में दलितों और स्त्रियों ने अपनी उपस्तिथि, अपनी स्वानुभूति की वैचारिकी के सहारे दर्ज की। भोगा हुआ यथार्थ निस्संदेह, देखे हुए यथार्थ से बड़ा था। ‘जूठन’ की रचना, स्वानुभूति से ही संभव थी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रेमचंद की रचनाओं में दलित पात्रों की उपस्थिति या दलित पीड़ा व्यक्त करने का कोई बनावटी प्रयास था।

जब साहित्य में वर्णवादी नजरिए का विरोध किया जाएगा तो उस नजरिए का भी विरोध किया जाएगा, जो गैर-दलितों को, दलित यथार्थ व्यक्त करने से रोके। प्रेमचंद की रचनाओं में अस्पृश्यता की सघनता कम हो सकती है पर उन पर चालाकी या दुर्भावना का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। उसी प्रकार पिछड़ों के जातिदंश की पीड़ा, उनकी अभिव्यक्ति की भाषा और मुहावरे को बहुजनवादी साहित्य के अंग के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए। दलित साहित्य और ओबीसी साहित्य को बहुजन साहित्य समुच्चय में ही रहना चाहिए और हाशिए के समाज को शूद्र साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास करना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि हाशिए के समाज केयोगदानों को रेखांकित करते हुए व्यापक बहुजन एकता की नींव रखी जाए। यही पहलकदमी, कुलीनतावाद का प्रतिकार करती। खेद का विषय है कि दलित साहित्यकारों का एक वर्ग, स्वयं को गैर दलितों, जिसमें पिछड़े भी शामिल हैं, को अलग रखना चाहता है। उसकी यह मनोवृत्ति, ब्राह्मणवादी मनोवृत्ति के करीब जान पड़ती है। वह किसी भी दशा में बहुजन साहित्य की अवधारण को स्वीकार नहीं करना चाहता। रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए। दलित साहित्य और ओबीसी साहित्य को बहुजन साहित्य समुच्चय में ही रहना चाहिए और हाशिए के समाज को शूद्र साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास करना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि हाशिए के समाज केयोगदानों को रेखांकित करते हुए व्यापक बहुजन एकता की नींव रखी जाए। यही पहलकदमी, कुलीनतावाद का प्रतिकार करती। खेद का विषय है कि दलित साहित्यकारों का एक वर्ग, स्वयं को गैर दलितों, जिसमें पिछड़े भी शामिल हैं, को अलग रखना चाहता है। उसकी यह मनोवृत्ति, ब्राह्मणवादी मनोवृत्ति के करीब जान पड़ती है। वह किसी भी दशा में बहुजन साहित्य की अवधारण को स्वीकार नहीं करना चाहता। कुल मिलाकर यह प्रवृत्ति कुलीनतावाद का ही पोषण करेगी और समाज के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में, समतामूलक समाज की स्थापना में बाधा पैदा करेगी। दूसरी ओर, दलित साहित्य की यह मनोवृत्ति ही आने वाले दिनों में ओबीसी साहित्य की परिकल्पना को स्थापित करने की ऊर्जा देगी।

(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

सुभाष चंद्र कुशवाहा

सुभाष चन्द्र कुशवाहा एक इतिहासकार और साहित्यकार के रूप में  हिंदी भाषा भाषी समाज में अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके हैं। हाल के वर्षों में प्रकाशित ‘इनकी दो किताबों ‘चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’ तथा ‘अवध का  किसान विद्रोह : 1920 से 1922’ ने निम्न वर्गीय और निम्न जाति दृष्टिकोण से संपन्न एक इतिहासकार के रूप में स्थापित किया है। इन दोनों किताबों में परंपरागत इतिहास दृष्टियों के बरक्स वे एक नयी इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।

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