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ओबीसी साहित्य में संघर्ष का सौंदर्य

ओबीसी साहित्य केवल जन्मना ओबीसी लेखकों का साहित्य नहीं है, बल्कि ओबीसी साहित्य, साहित्य की वह धारा है, जिसमें पिछड़े वर्गों के लोगों के जीवन-संघर्ष को रूपायित किया जाता है। पिछड़े वर्ग के लोगों पर साहित्य-सृजन दूसरे वर्ग के लोग भी करते हैं और वह साहित्य भीे ओबीसी साहित्य में परिगणित किया जाता है

भारत में पिछड़े वर्ग के लोगों की आबादी 52 प्रतिशत से अधिक ही है। इसकी संरचना लगभग 5042 जातियों को लेकर होती है। ऐतिहासिक तौर पर, यह बहुत ही अच्छा हुआ कि हमारे संविधान निर्माताओं ने इन्हें सामंती-पुरोहिती जातिगत ढ़ांचे में न रखकर अलग वर्ग-श्रेणी मे रखा। इससे राष्ट्रीय एकता बनाने तथा छिन्न-भिन्न, बिखरे, सामाजिक तंतुओं को एक-दूसरे से जोडऩे में अनिर्वचनीय सहायता मिल रही है। अगर पिछड़ा वर्ग की अवधारणा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कोख से जन्मी है तो निश्चित तौर से इसके पीछे भारतीय समाज को   चिरकालिक पराधीनता की जंजीरों में जकड़े रखनेवाली पुरोहितवादी वैचारिकी को रिजेक्ट कर आगे बढऩे की अदम्य ललक भी रहीे है। साहित्यिक व सांस्कृतिक क्षेत्र का जो आंतरिक संघर्ष आज दृष्टिगोचर हो रहा है, वह भारतीय मनुष्य के ज्ञानात्मक तथा संवेदनात्मक विकास का प्रतिफ लन है। यह ऐतिहासिक क्रम में यूं ही नहीं परिघटित हुआ है। समाज का प्रत्येक वर्ग साहित्य व संस्कृति में अपनी खोज-खबर करता है। साहित्य में अपने जीवन को देखना चाहता है। यही नहीं वह साहित्य से यह मांग कर रहा है कि उसमें उसकी आकांक्षाएं, उसके मुक्ति-संघर्ष का आख्यान दर्ज किया जाए। उसके समग्र जीवन को चित्रित तथा लिपिबद्ध किया जाए। यहीं से आलोचनाशास्त्र, साहित्य का वर्गीकरण करने की पद्धति अपनाने को विवश हो जाता है। हम पाते हैं कि साहित्यिक धाराओं का निरुपण, वैचारिकी, युगीनप्रवृत्ति, रीति-शैली तथा उसकी अंतर्वस्तु के आधार पर किया जाता रहा है, जो गलत भी नहीं है।

जब कभी भी सामाजिक समानता की बात उठती है या उठाई जाती है तो उसके पीछे बौद्ध मत आधार के रूप में सामने आ ही जाता है क्योंकि उसी ने मानव को मानव के रूप में स्थापित किया। जब साहित्य में ओबीसी को विश्लेषित किया जाता है, तो द्विजवादी मानसिकता जहर उगलने लगती है। चिंता तब होती है जब ओबीसी जन्मा रचनाकार भी ओबीसी साहित्य-विमर्श के खिलाफ अपना नाम दर्ज कराता है। सच तो यह है कि ओबीसी साहित्य केवल जन्मना ओबीसी लेखकों का साहित्य नहीं है, बल्कि ओबीसी साहित्य, साहित्य की वह धारा है, जिसमें पिछड़े वर्गों के लोगों के जीवन-संघर्ष को रूपायित किया जाता है। पिछड़े वर्ग के लोगों पर साहित्य-सृजन दूसरे वर्ग के लोग भी करते हैं और वह साहित्य भीे ओबीसी साहित्य में परिगणित किया जाता है। यहां दुहराव करने में कोई ज्यादा दोष नहीं है कि पिछड़े वर्ग में मुख्यत: किसान, कारीगर, पशुपालक तथा दिहाड़ी मजदूर आते हैं। साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श चलता है तो दलित वर्ग के साहित्यकार ऐसे विमर्श को नकारते नहीं हैं। साहित्य में किसान विमर्श, श्रमिक विमर्श चलाने में जब बुद्धि मारी जाती है, तो ऐसी पलायनवादी प्रवृत्ति से बचने का रास्ता ओबीसी साहित्य विमर्श ही खोलता है।

बाल्जाक (1799-1850) से किसी ने कहा नहीं था कि आप कृषक वर्ग पर एक उपन्यास लिखें। जबकि वे स्वयं राजतंत्रीय व्यवस्था के समर्थक थे। वस्तुनिष्ठता का यही तकाजा है कि लेखक अपने को सचेत ढंग़ से डी-क्लास करके भी साहित्य-सृजन करे। मानवीय सरोकार तथा मानवीय संवेदना राजनीति के केन्द्र में हो या नहीं, पर साहित्य तो उसे छोड़कर, अपने को कूड़ा-करकट बना लेगा। जैसे कालनेमियों का लेखन बहुजन के दिमाग को दिगभ्रमित करने के लिए ही होता है, ताकि बहुजन सत्य, समता तथा सौन्दर्य तक नहीं पहुंच सके। कार्ल मार्क्स  बाल्जाक को यूं ही अनवरत नहीं पढ़ते रहते थे। ‘अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतियों में से एक ‘किसान’ (उपन्यास) में बाल्जाक क्रांति पश्चात् फ्रांस के ग्रामीण जीवन में बढ़ती पूंजी की पैठ, सामंती-भूमि संबंधों के पूंजीवादी रूपांतरण, पुराने भू-स्वामियों का स्थान ले रहे नए व्यापारी-भू- स्वामी-सूदखोर-ठेकेदार गठजोड़ के षड्यंत्रों-तिकड़मों, जमीन की भूख तथा पूंजी की ताकत के हाथों, छोटे किसानों की तबाही, सदियों के शोषण-दमन से गरीब किसानों में उपजे अमानवीयकरण और जीने के लिए उनके अनवरत संघर्ष को वैसी ही सजीवता से तस्वीर खींचते हैं, जिसके बारे में मक्सिम गोर्की ने कहा है-ऐसा लगता है, मानो बाल्जाक की रचनाएं तैलरंगों में लिखी गई हैं।

आज भारत में किसानों की जमीन छीनकर उद्योग के नाम पर पूंजीपतियों को दी जा रही है। बंगाल, उत्तरप्रदेश तथा अन्य इलाकों में इसके खिलाफ किसान लड़ते हैं। कई जानें भी गई हैं। बाल्जाक का किसान लोंदे से कहता है : ‘अगर एक अमीरी में लोट-पोट हो रहा है, तो सैकड़ों कीचड़ में पड़े हैं।….यहां, जहां हम जन्मे हैं, यहीं हम उसे खोदते हैं, इस धरती का। और इसे बराबर करते हैं और इसमें खाद डालते हैं, और इसी में रहते हैं, क्योंकि जैसे आप अमीर पैदा हुए हैं वैसे ही हम गरीब पैदा हुए हैं,…. हममें से कितने लोग ऊपर उठ पाने में कामयाब हो पाते हैं उनकी तादाद उनके आगे कुछ नहीं, जिन्हें आप नीचे धकेल देते है।’

प्राचीन साहित्य में भी पिछड़े समाज का जन ही नायक के रूप में ख्यात  है। जीसस के संदर्भ में कहा गया है कि जीसस की आवाज सुन, भेड़ें समीप आ जाती हैं। कुछ इसी तरह ग्वाला कृष्ण की आवाज सुन, गायें भी अपने गोपाल के पास चली आती हैं। जीसस को शोषक वर्ग ने सूली पर चढ़ा दिया। शायद इसीलिए कार्ल मार्क्स को कहना पड़ा कि ‘धर्म गरीबों की आह है।’ लेकिन श्रीकृष्ण अपने मामा का वध कर, राजगद्दी पर चढ़ बैठे। आज भारत के अनेक प्रांतों में, खासकर उत्तर भारत में ओबीसी के नेतृत्व में सरकारें भी चलने लगी हैं। जब पुरोहितों-सामंतों का राजनीति में वर्चस्व टूट रहा है, तो साहित्य में उनके वर्चस्व की बरकरारी कैसे रहेगी? राजनीति, समाज और साहित्य को अलग- अलग नहीं देखा जा सकता। न्याय और सत्य के लिए संघर्ष करनेवालों का ही जीवन साहित्य में स्पेस पाता है। महाश्वेता देवी संघर्ष करनेवालों पर ईमानदारी से उपन्यास लिखती हैं। बहुत पहले अरस्तू ने अपने ट्रैजडी विवेचन में कहा है कि भ्रष्ट और पतितों को नायक नहीं बनाया जा सकता। भ्रष्ट और पतित समाज के खलनायक हैं। टॉलस्टाय के उपन्यास ‘रीसरैक्सन’ (पुनरुत्थान) की ग्वालकुमारी से एक युवा सामंत दैहिक संबंध बनाता है। इसके एवज में वह दस कोपेक ग्वालन को देना चाहता है। लेकिन वह युवती लेने से इनकार कर देती है। वह कहती भी है कि मैं कोई वेश्या नहीं हूं। ग्वालन अपनी नैतिकता के प्रति बिल्कुल सचेत दिखती है। लेकिन युवा सामंत उसे पतन की ओर ढकेल देता है। ओबीसी के पात्रों का नैतिक उत्थान-पतन तब शुरू होता है, जब वह भी छलांग लगाकर परजीवी-शोषक वर्ग में प्रोन्नत कर जाता है। ‘गोदान’ के होरी महतो, धनिया तथा गोवद्र्धन के चरित्र-स्वभाव में प्रेम-सहयोग, संघर्षशीलता, समता तथा मानवीयता के सहज गुण मिलते हैं। ये किसान वर्ग के पात्र अंत-अंत तक जीवन संघर्ष में डंटे रहते हैं।

शोषण आधारित व्यवस्था में वर्ग-द्वंद्व की तीव्रता को साहित्य में अनदेखी करना मुश्किल है। ‘गोदान’ के राय साहब, पुरोहित, सेठ-साहूकार-सभी किसान का शोषण करते हैं। कर्ज में डूबकर नायक होरी अपनी जमीन गंवा बैठता है। उसकी जमीन को पुरोहित हथिया लेता है। किसान से सर्वहारा बनने की स्थिति को बयां करता है ‘गोदान’। इसके बावजूद किसान वर्ग के पात्रों के चरित्र का अमानुषिकरण नहीं हुआ है, जबकि उपर्युक्त परजीवी वर्ग के पात्र अमानुषिकरण में फंसकर अपना मनुष्यत्व खो देते हैं। ऐसी ही घटना ओडिया के एक उपन्यास में भी दिखाई पड़ती है। फकीर मोहन सेनापति के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘छमाण आठगुंठ’ (छ: बीघा जमीन) का नायक तांती परिवार का है, जिसका नाम भागिया है। सरिया उसकी पत्नी है। ये खेतीहर हैं। इनके खेत, उसी गांव का जमींदार मंगराज हड़प लेता है। उपन्यासों के अवलोकन से पता चलता है कि पिछड़े लोगों का शोषण तीन तरह से किया जाता है। इनके श्रम का अतिरिक्त मूल्य तो हड़पा ही जाता है, साथ ही साथ इनकी बची-खुची जमीन-जायदाद भी छीन ली जाती है। यही नहीं, धार्मिक कर्मकांड के नाम पर पुरोहित भी इनका आर्थिक शोषण करते हैं।

ओबीसी साहित्य विमर्श मनुष्य के स्वत्वहरण के खिलाफ एक बौद्धिक एवं सांस्कृतिक संघर्ष है, जो यथास्थितिवादी, प्रतिगामी तथा  मानवद्रोही शक्तियों की शिनाख्त तो करता ही है साथ-ही ‘विचारों का अंत’ और ‘इतिहास का अंत’ जैसी भ्रामक परिकल्पनाओं को रौंदते हुए, इतिहास की प्रेरक शक्तियों का साथ देता है।

(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

ललन प्रसाद सिंह

आलोचक डॉ. ललन प्रसाद सिंह की आलोचना पुस्तकों में "मुक्तिबोध और उनका साहित्य" (2007), "प्रगतिवादी आलोचना : विविध आयाम" (2011), "आलोचना : संदर्भ मार्क्सवाद" (2012), "आलोचना की मार्क्सवादी परंपरा" (2014) मुख्य हैं। उनके उपन्यास "आल्हा ऊदल : प्रेम और युद्ध" (2011), " अ ब्लूमड वुमन" (2013) विशेष चर्चित हुए। इसके अलावा "समंदर सूखता नहीं", "एक घराने की बहू", "झील के किनारे", "स्टोन ब्रेकर" प्रमुख उपन्यास हैं।

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