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लालू प्रसाद पर अदालती फैसले के राजनीतिक अर्थ

लालू प्रसाद पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने बिहार की राजनीति में तूफान ला दिया है। इसकी तुलना कुछ-कुछ 12 जून 1975 के उस फैसले से की जा सकती है, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को दोषी करार दिया था। इस बार हाईकोर्ट की जगह सुप्रीम कोर्ट है। प्रेमकुमार मणि का विश्लेषण :

    लालू प्रसाद यादव

1996 में जिस चारा घोटाले की चर्चा सार्वजनिक हुई थी, वह कई मुकाम तय करते हुए, कोई इक्कीस साल बाद आज एक नये मुकाम पर नमूदार हुई है, अब सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने लालू प्रसाद और अन्य की मुश्किलें काफी बढ़ा दीं हैं।

2013 के आखिर में सीबीआई द्वारा लालू प्रसाद के विरुद्ध चल रहे कुल 6 में से एक में पांच साल की सजा सुनाई थी और लालू प्रसाद को रांची स्थित होटवार जेल में महीनों रहना पड़ा था। बाद में उन्हें जमानत मिल गई। नवंबर 2014 में झारखंड हाईकोर्ट ने उन्हें थोड़ी राहत दी। उन्हें क्रिमीनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट तथा प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट से मुक्त कर दिया। सबसे बड़ी राहत यह दी कि सभी मामले चूंकि एक ही स्कैम से जुड़े हैं इसलिए एक ही साथ नत्थी होंगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सब पर पानी फेर दिया। जस्टिस अरूण मिश्रा की पीठ ने इस मामले में सीबीआई को जबरदस्‍त फटकार लगाते हुए कहा कि उसने बहुत देर से इस मामले को यहां लाया। सीबीआई निदेशक को देरी करने वालों पर जिम्मेदारी तय कर रिपोर्ट करने की सख्त हिदायत भी दी। जस्टिस मिश्रा की पीठ ने झारखंड हाईकोर्ट के उस फैसले को भी निरस्त कर दिया जिसमें लालू प्रसाद को आपराधिक षड्यंत्र रचने के अपराध से मुक्त कर दिया गया था। इसके साथ ही छहों मामले एक में नत्थी न होकर सब में अलग-अलग मुकदमे चलेंगे। झारखंड हाईकोर्ट को कहा गया है कि वह नौ महीने की तय अवधि में ट्रायल पूरा कर ले।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र

चारा घोटाले में कोई लालू प्रसाद अकेले मुजरिम नहीं हैं। एक और पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र सहित कुल छप्पन लोगों पर मुकदमा चल रहा है, इसमें से कोई आधा दर्जन लोगों की मृत्यु भी हो चुकी है। नई पीढ़ी को शायद यह पता भी न हो कि यह घोटाला आखिर है क्या। पिछली सदी के 1980 के उत्तरार्द्ध और 1990 के पूर्वार्द्ध के दशक में यह सब हुआ था। तब बिहार और झारखंड अलग-अलग नहीं थे। पशुपालन विभाग में पशुओं के चारे के नाम पर अलग-अलग जिला ट्रेजरी से भारी मात्रा में धन की निकासी हुई। यह भी नहीं देखा गया कि इस मद में इतना धन स्वीकृत है या नहीं। दरअसल यह सरकारी खजाने में सेंधमारी थी। अनुमानित राशि लगभग 950 करोड़ रूपये, जो उन दिनों बड़ी राशि थी। 1996 में जब सारा खुलासा हुआ तो राजनीतिक महकमे में सनसनी फैल गई। राजनीतिक रूप से तब श्री लालू प्रसाद महानायक थे। 1991 के लोकसभा और 1995 के विधानसभा चुनावों में उनके राजनीतिक कौशल का शानदार प्रदर्शन हुआ था। तब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे। 1996 में चुनाव के ठीक पहले चारा घोटाले का पर्दाफाश हुआ और इसने चुनाव नतीजों को प्रभावित भी किया। लालू प्रसाद 1991 और 1995 की तरह का शानदार प्रदर्शन नहीं कर पाए। 1991 की तरह यदि उनका प्रदर्शन 1996 में भी हुआ होता, तब उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बनना संभव हो सकता था। चाहकर भी वह प्रधानमंत्री न बन सके। उन्हीं के दल के श्री देवगौड़ा तब प्रधानमंत्री हुए। अलगे वर्ष यानि 1997 के 25 जुलाई को तो सीबीआई उनके दरवाजे पर गिरफ्तार करने पहुंच गई। आनन-फानन में पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाकर एक अलग किस्म के कौशल का परिचय दिया। अंततः सीबीआई उन्हें उनके घर से गिरफ्तार कर ले गई।

अपने मुख्यमंत्रीत्व काल के दौरान राबड़ी देवी

इस घटना ने लालू प्रसाद की राजनीति को खत्म नहीं की, लेकिन उनकी साख में जबरदस्त बट्टा लगा दिया। 1998 और 1999 के लोकसभा चुनावों में भी उनका प्रदर्शन खराब रहा। 1999 में तो मधेपुरा से वह स्वयं चुनाव हार गए। अपराजेय समझे जाने वाले लालू प्रसाद का हारना, तब एक आश्चर्य की बात थी। लेकिन यह सब हुआ। 2000 के विधानसभा चुनाव में उन्हें बहुमत तो नहीं मिला, लेकिन कांग्रेस के सहयोग से वह सरकार बनाने में सफल हो गए। हां 2004 के लोकसभा चुनाव में वह एकबार थोड़े शीर्ष पर दिखे। केंद्र से भाजपा को हटाने में उनकी भूमिका को मीडिया ने भी रेखांकित किया। लेकिन 2005 में विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की राजनीति के सामने बौने सिद्ध हुए। 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधान सभा चुनावों में उनका ग्राफ गिरता गया। 2014 में भी वह बुरी तरह पिट गए। यह वही समय था, जब भाजपा से अलग होकर और पिट-पिटाकर नीतीश कुमार भी कमजोर हो गए थे। 2015 के विधानसभा चुनावों में पिछले 17 साल से एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे लालू और नीतीश राजनीतिक रूप से इकट्ठे हुए और करिश्मा कर दिखाया। लालू कानूनी तौर पर चुनाव नहीं लड़ सकते थे। उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत कार्यकर्ताओं को न सौंप कर अपने पुत्रों को सौंपी। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के जनता दल से उनके विधायक अधिक थे, लेकिन उन्होंने नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया। उनके दो बेटों में से छोटा, तेजस्वी, बिहार का उपमुख्यमंत्री बना। बड़ा बेटा तेजप्रताप भी कैबिनेट मंत्री बना। इस तरह बिहार की राजनीति एक नये दौर में आ गई।

जब साथ आए लालू और नीतीश

इस नये दौर की सबसे बड़ी मुश्किल नरेन्द्र मोदी की राजनीति है। वह भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं, लेकिन पिछड़े वर्ग से आते हैं और स्वयं को चतुराई के साथ पिछड़ा वर्गीय घोषित भी करते हैं। अभी हाल में उत्तर प्रदेश के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने मुलायम सिंह यादव और मायावती की राजनीति को ध्वस्त किया है। दिल्ली में केजरीवाल भी पस्त पड़ चुके हैं। ऐसे में बिहार की राजनीति पर लालू प्रसाद से जुड़े इस फैसले का क्या असर होगा, यह सवाल लोगों के मन-मिजाज को मथ रहा है। लालू प्रसाद की मुश्किलों का एक अंदाज तो होता ही है। अदालती फैसलों की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती, लेकिन जो तथ्य हैं और जिनके आधार पर सीबीआई ने उन्हें सजा सुनाई है, वे अपनी जगह बने हुए हैं। यदि लालू प्रसाद जेल जाते हैं, तो उम्मीद की जाती है कि उनके कनिष्ठ पुत्र बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव राष्ट्रीय जनता दल की कमान संभालेंगे। लेकिन सवाल उठता है कि क्या वह यादव समाज के वोटरों को भाजपा की ओर जाने से उसी प्रभाव के साथ रोके रख सकेंगे, जैसे लालू रोकते थे? उत्तर संदेहपरक होगा। भारतीय जनता पार्टी ने बिहार की पार्टी कमान एक युवा यादव सांसद नित्यानंद राय को सौंपी है। पिछले लोकसभा चुनाव में पटना संसदीय सीट पर भाजपा की ओर से रामकृपाल यादव ने लालू पुत्री मीसा भारती को हरा दिया था। रामकृपाल यादव को एक अनुमान के अनुसार कोई तीस प्रतिशत यादव मत हासिल हुए थे। यदि यह प्रदेश स्तर पर हुआ तो नतीजा वही होगा जो पिछले लोकसभा चुनाव में पटना क्षेत्र में हुआ था।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने बिहार की राजनीति में तूफान ला दिया है। इसकी तुलना कुछ-कुछ 12 जून 1975 के उस फैसले से की जा सकती है, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को दोषी करार दिया था। इस बार हाईकोर्ट की जगह सुप्रीम कोर्ट है। सीबीआई और झारखंड हाईकोर्ट को उसके द्वारा दी गई हिदायतें जनता के मनोविज्ञान को निश्चित तौर पर प्रभावित  करेंगी। भाजपा विरोधी राजनीतिक एकजुटता पर इसका कैसा प्रभाव होगा, इसका आकलन करना थोड़ा मुश्किल भरा कार्य हो गया है। 


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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