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सहारनपुर : सवाल बहुजन राजनीति के भविष्य का

पार्टियों को समझना पड़ेगा कि प्रशासन उत्पीडित समूहों को न्याय देने में अक्षम रहा और हिंदुत्व की सेनाएं लोगों को जहां-तहां पीटती रहीं तो जवाब में लोग भी अन्याय का मुकाबला करने के लिए जातीय राजनीति और उसकी अक्षमता के फलस्वरूप जातीय सेनाओं पर भरोसा करेंगे। सहारनपुर की घटना पर विद्या भूषण रावत की विचारपूर्ण लेख :

सहारनपुर के घटना के बाद दलितों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा। प्रशासन प्रभावितों की मदद के बजाय ‘भीम सेना’ को अपराधिक समूह घोषित करने पर आमादा है। भीम सेना के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस तलाश रही है और उनपर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ लगाने की चर्चा है। घायल दलित परिवार अस्पताल में हैं लेकिन प्रदेश से लेकर केंद्र तक का एक भी मंत्री, सांसद या विधायक लोगों की खोज-खबर नहीं लिया। जिनका सब कुछ खत्म हो चुका है, उनके सुरक्षित घर वापसी या जीवन को पटरी पर लाने की कोई विशेष योजना भी अभी तक नहीं घोषित हुई। जो लोग अभी भी ग़लतफ़हमियाँ पाले हैं तो वे निकाल लें। मंचों से प्रधान सेवक के जय भीम के नारे और इमोशनल भाषण चाहे बाबासाहेब पर हो या बुद्ध पर, उससे ज्यादा प्रभावित न हों। लोगों को दलितों और पिछडों के प्रति सरकार के पिछले कुछ सालों के कार्यकाल पर गौर करना चाहिए। राहित वेमुला से लेकर जेएनयू तक में, छात्रवृत्ति का प्रश्न हो या दलितों के लिए स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान, सभी न्यूनतम हो चुके हैं। अगर वेलफेयर योजनाओं को देखें तो सरकार की उनमें भी कोई दिलचस्पी नहीं है। बीफ बैन हो या अन्य कोई मामला, सभी किसानों और दलित-पिछडों के विरुद्ध हैं।

प्रधानमंत्री मोदी बाबासाहेब आंबेडकर और बुद्ध में दिलचस्पी दिखाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को आंबेडकरवाद में दिलचस्पी नहीं है। अभी मेरठ के एक दिवसीय दौरे पर एक दलित बस्ती में जाते समय वो बाबासाहेब आंबेडकर के प्रतिमा को माल्यार्पण नहीं किये, जबकि लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे। ऐसी बातें भूल से नहीं होती, अपितु उनके पीछे अपने वोट बैंक को एक संदेश देना भी है कि हम सबसे अलग हैं।

योगी आदित्यनाथ के आने के बाद से उत्तर प्रदेश के राजपूत अति उत्साहित हैं। शायद बहुत सवर्ण उन्हें महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के बाद सबसे मजबूत राजा मान रहे हों क्योंकि अभी तक खुले तौर पर योगी आदित्यनाथ वर्णवादी व्यस्था के पोषक दिखाई दे रहे हैं। उनके प्रशासन पर राजपूतों कि पकड़ है और ये अनायास ही नहीं जब वे लखनऊ में समाजवादी नेता चंद्रशेखर के जन्म दिवस 19 अप्रैल को एक कार्यक्रम में अतिथि बन कर गए एवं उनकी स्मृति में एक पुस्तक का विमोचन किया। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवो में चंद्रशेखर की ताकत उनकी जाति ही थी। लोगों को उनके समाजवाद से कम और ठाकुर होने से ज्यादा मतलब था। मंडल कमीशन के लागू होने पर उसके विरोध में सबसे ज्यादा चंद्रशेखर ही थे और अंत तक उनका विरोध था। उनके क्षेत्र के दलित-पिछड़ों को चंद्रशेखर की राजनीति में कोई भरोसा नहीं था, लेकिन वह नेताओं के नेता थे। माननीय मुलायम सिंह ने भी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर की स्मृति में एक दिन की छुट्टी घोषित की थी।

उत्तर प्रदेश वर्चस्व की राजनीति हावी है। नेता दूसरी जाति के बजाय अपनी जाति के अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचाते हैं। इस हकीकत से सब वाकिफ हैं। हिंदुत्व भी तो ब्राह्मणवादी राजनीति है, लेकिन अब योगी को भी बिरादरी की आवश्‍यकता महसूस हो रही है। कल उत्तर प्रदेश के एक साथी कह रहे थे कि योगी जी अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन भाजपा के महत्वाकांक्षी नेता उन्हें कुछ करने नहीं देंगे। हकीकत तो यह है कि छोटी-छोटी निर्णयों पर मीडिया ने लालू, अखिलेश और मायावती को घोर जातिवादी करार दे दिया, जबकि इनके किचन कैबिनेट में भी ब्राह्मणों की अच्छी खासी भूमिका थी। इस वक़्त योगी और मोदी को मीडिया-कर्मी उनके नेतृत्व के तौर पर नहीं अपितु प्रशंसक के तौर पर देख रहा है। अतः उनकी न तो आलोचना हो सकती है और न ही कोई सवाल किया जा सकता है। उनके भक्तों की जमात सवाल करने वालों से बदला लेने को तैयार है। इतने दिनों से उत्तर प्रदेश में गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों का उत्पीड़न हो रहा है, लेकिन प्रधान सेवक और मुख्यमंत्री ने कुछ भी नही बोला। चेतावनी तक नहीं दी कि कानून हाथ में न लो। हम हमेशा से मानते हैं कि संघ के कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग जाति और धर्म के संकीर्ण दायरे में हुई है, वो अचानक से नहीं बदलेंगे। लेकिन उन्हें अभी भी नहीं लग रहा कि सरकार में आने के बाद सत्तारूढ़ पार्टी को ज्यादा जिम्मेदारी और समझदारी से बोलना होता है। जब आपकी सरकार की उपलब्धियां देखी जाएंगी तो केवल गौसेवक, राष्ट्रवाद और अब सहारनपुर के दंगे ही नजर आएंगे।

सहारनपुर के दंगों का मुख्य उद्देश्य जिले की राजनीती में सवर्ण वर्चस्व कायम करना है। सहारनपुर में दलितों के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक हालत उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों से बेहतर हैं। यह बसपा का गढ़ भी रहा है। भाजपा के लम्बी रणनीति का उद्देश्य हिन्दू-मुसलमान की राजनीति में पिछडों और दलितों का नेतृत्व खत्म करना है। जातियों के वर्चस्व को कायम करने के लिए ही महाराणा प्रताप के जन्मदिन को मनाने की बात हुई। लेकिन दिल में रहने वाली घृणा को देखिए कि राजपूत बाबासाहेब आंबेडकर की मूर्ति की स्थापना चमार बस्ती में भी नहीं होने देना चाहते थे। स्पष्ट है कि सवर्णों को अम्बेडकरवादी अस्मिता से बहुत परेशानी है क्योंकि वो व्यस्था को चुनौती दे रहे हैं।

सहारनपुर घटनाक्रम में भीम आर्मी का बहुत जिक्र हो रहा है। बहुत से ऑनलाइन पोर्टल्स में आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेकर आजाद और उसके अध्यक्ष के साक्षात्कार हैं। चंद्रशेखर राजनैतिक तौर पर जागरूक व्यक्ति नज़र आते हैं और उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं की है जो समाज विरोधी या संविधान विरोधी हो। भीम आर्मी ने लोगो को न केवल जागरुक किया है अपितु उन्हें स्वरोजगार और व्यवसाय की तरफ भी आकर्षित किया है। भीम आर्मी अभी तक दलितवर्ग में आत्मसम्मान जगाने और एकता लाने हेतु कार्य कर रही है। लेकिन भीम आर्मी को समझना पड़ेगा कि उनका इस्तेमाल बसपा की ताकत को समाप्त करने के लिए भी किया जा सकता है। जोर इस पर होना चाहिए कि आन्दोलन अभी सामाजिक ही रहे, राजनीतिक प्रयोग का प्रयास न हो। क्योंकि उत्तर प्रदेश में 2019 तक बहुजन समाज को अपनी स्थापित पार्टियों में ही परिवर्तन लाकर मज़बूत करना होगा, नहीं तो मनुवादी शक्तियों के ही हाथ मज़बूत होंगे।

अभी तक बसपा की ओर से सहारनपुर हिंसा पर बहुत कुछ वक्तव्य नहीं आया है। भीम आर्मी से पार्टी ने पूर्णतया किनारा कर लिया है, लेकिन वो ठीक नहीं है। बसपा को मान्यवर कांशीराम ने आत्मसम्मान के लिए ही खड़ा किया। ये सब आसानी से नहीं होता। इसलिए जो लोग भीम सेना या अन्य लोगों को बसपा के विकल्प के तौर पर खड़ा करने की कोशिश करेंगे तो वो केवल वोट काटू की भूमिका में रहेंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे। राजनीति के धरातल की हकीकत कुछ और होती है। बसपा प्रमुख सुश्री मायावती को चाहिए कि वो भीम सेना या देश भर में हुए छात्र आन्दोलन के नेताओं को एक मंच प्रदान करें। पिछले तीन वर्षों में हैदराबाद से लेकर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय और अखलाक से लेकर पहलु खान तक की मौत ने, रोहित वेमुला से लेकर नजीब तक के लिए न्याय मांगते छात्र सडको पे हैं। विश्वविद्यालयों की पढाई अब मुश्किल होती जा रही है। शिक्षा में हिंदुत्व का एजेंडा अब लागू हो चुका है। एक तरफ शिक्षा निजीकरण बढ़ रही है तो दूसरी तरफ पाठ्यक्रम में मनुवादी विचारधारा घुसाई जा रही है। क्या बसपा या सपा जैसी पार्टियां युवाओं और छात्रों के ज्वलंत सवालों से मुंह चुरा सकती है? क्या ये अवसर नहीं कि ये दोनों दल अपने अन्दर पूर्णतया पारदर्शिता लाए, युवा नेतृत्व विकसित करें। देश के युवा नेतृत्व भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद हो, जिग्नेश मेवानी या कोई और, सबको कार्यक्रमों के जरिये एक मंच पर लाये ताकि जो युवा बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे हैं उन्हें एक राजनैतिक मंच मिल सके।

बसपा राजनैतिक मजबूरियों के तहत चाहे ब्राह्मणों के साथ ‘अन्याय’ की बात कहे लेकिन वो दलितों, अकलियतों पर हो रहे अत्याचारों पर अगर खुल कर सामने नहीं आती है और यदि ऐसे आन्दोलनों का समर्थन नहीं करती जो दलितों की अस्मिताओं की रक्षा और उनकी सामाजिक आन-मान के लिए बनायी गयी है तो उसका अस्तित्व नहीं रहेगा। बसपा को अभी भी समाज का समर्थन प्राप्त है लेकिन एक बात बसपा नेतृत्व को समझनी पड़ेगी कि लोगों की सहनशीलता जवाब दे रही है। बसपा की मजबूती दलित अस्मिता के लिए जरुरी है, लेकिन इसके साथ ही बसपा के अन्दर नए युवा नेतृत्व को विकसित करना पड़ेगा। आज से 20 साल बाद बसपा का नेतृत्व क्या होगा और कौन करेगा इसके लिए एक नहीं कई युवा खड़े करने पड़ेंगे।

सहारनपुर का घटनाक्रम योगी आदित्यनाथ की राजनीति और उसके आड़ में ठाकुरशाही चलाने वालों के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। संघ दलित-पिछड़ों के बीच के अंतर्द्वंद्व का लाभ लेता आया है। मुसलमानों को जबरन बीच में डालकर उसने सवर्ण नेतृत्व सबके उपर लाद दिया। लेकिन जहाँ दलित-पिछडों के अंतर्द्वंद्व हैं वही ब्राह्मण-ठाकुरों के भी गंभीर अंतर्द्वंद्व हैं और उनकी एकता का एक ही बिंदु है, वो दलित-पिछड़ा विरोध की राजनीति। लेकिन जब सत्ता के मलाई की बात आती है तो दोनों के अंतर्द्वंद्व आपस में टकरायेंगे। सुश्री मायावती ने ब्राह्मणों के साथ हो रहे ‘अन्याय’ के मुद्दे को खड़ा करने की कोशिश की हैं लेकिन वो अभी नहीं कामयाब होगीं, क्योंकि ब्राह्मण और ठाकुर या अन्य सवर्ण जातियां अभी हिंदुत्व को छोड़कर कहीं और जाने से रहीं। क्योंकि मोदी और योगी युग स्वर्ण प्रभुत्ववाद की एक नयी शुरुआत है और इसे वो आसानी से नहीं छोड़ेंगे।

फिलहाल सहारनपुर में दलितों को न्याय देने की बात अभी तक एक भी मंत्री ने नहीं की है। सारा प्रशासनिक फोकस भीम सेना पर है। दुखद यह है कि कोई भी राजनैतिक दल अभी भी संघ के चालों को समझ नहीं रहे या उसकी काट नहीं ढूंढ पा रहे और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है। जरुरत है दलितों के साथ अन्याय को ख़त्म करने की, दलित परिवारों पर हमला करने वाले लोगों को गिरफ्तार करने और पीड़ितों को मुआवजा दिलवाने की। सहारनपुर के दलितों को सुरक्षा और सम्मान चाहिए क्योंकि इसके अभाव में इस क्षेत्र में शांति व्यवस्था कायम करना बहुत मुश्किल होगा।

वैसे भी संघ का एजेंडा दलित-बहुजन समाज और अन्य विपक्ष को नेतृत्वविहीन कर देने का है। बसपा में विघटन का प्रयास किया गया है और अब नसीमुद्दीन सिद्दीकी मीडिया को रोज ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ देंगे, जैसे कपिल मिश्रा दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के लिए और कांग्रेस के कई नेता अब सोनिया और राहुल के लिए दे रहे हैं। वैसे ही मुलायम सिंह को लगातार खबरों में रखा जायेगा ताकि अखिलेश यादव भी लाइन पे रहें। लालू यादव को पहले ही फंसाने की पूरी तैयारी है, मतलब यह कि विपक्ष में खुले तौर पर फूट डालने ही एजेंडा है।

गौर करना पड़ेगा कि मुख्यधारा की राजनीति ने अभी तक जनता के ज्वलंत प्रश्नों पर गहरी चुप्पी साधे हुई है। बस्तर में आदिवासियों के जंगल में अधिकार का मामला हो या कश्मीर में राजनैतिक पहल, झारखण्ड के आदिवासियों का संघर्ष हो या विश्वविद्यालयों में छात्रों के संघर्ष, सभी जगह स्वयंस्फूर्त आन्दोलन खड़े हैं और राजनैतिक दल कुछ कह तक नहीं पा रहे हैं। पार्टियों में इन सवालों पर ज्यादा चर्चा नहीं है, नेतृत्व इन प्रश्नों को सही नहीं मानता। हकीकत यह है कि बहुजन युवा अब अन्याय सहने को तैयार नहीं है। चाहे रोहित वेमुला हो या भीम सेना का प्रश्न, लोग नेताओं का इंतज़ार नहीं करेंगे और आन्दोलन होंगे। बहुजन राजनीति को चाहिए कि वो इन युवाओं के सपनों और आकांक्षाओं को मज़बूत करे। उन्हें राजनैतिक रूप दे अन्यथा आन्दोलन किसी प्रश्न से शुरू होते हैं और राजनैतिक भटकाव का शिकार हो जाते हैं। ये आन्दोलन राजनैतिक तिकड़में नहीं जानते। अतः आवश्यक है कि बहुजन राजनीति इन आन्दोलनों से बात करे और भविष्य की ओर देखे ताकि बिखराव की स्थिति पैदा न हो।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों से लोगों में बहुत निराशा है, लेकिन भीम सेना ने उनमें पुनः उर्जा का संचार किया है। जब बहुजन राजनीति इन प्रश्नों पर खामोश रहेगी तो लोग अपना रास्ता खुद तय कर लेंगे लेकिन वो स्थिति बहुत अच्छी नहीं होगी। उस परिस्थिति का लाभ वो लोग लेंगे जिन्होंने योजनाबद्ध तरीके से सहारनपुर के घटनाक्रम को अंजाम दिया। देश में युवाओं की बहुत बड़ी आबादी जिसके मन में मौजूदा नेतृत्व और उसके तौर-तरीकों के प्रति गहरी निराशा है क्योंकि वो उनकी भावनाओंं और महत्वाकांक्षाओं को समझने में या तो नाकाम रहा है या जानबूझकर उनकी अनदेखी कर रहा है। यह लम्बे समय में राजनैतिक तौर पर नुकसानवर्धक हो सकता है। पार्टियों को समझना पड़ेगा कि प्रशासन उत्पीडित समूहों को न्याय देने में अक्षम रहा और हिंदुत्व की सेनाएं लोगों को जहां-तहां पीटती रहीं तो जवाब में लोग भी अन्याय का मुकाबला करने के लिए जातीय राजनीति और उसकी अक्षमता के फलस्वरूप जातीय सेनाओं पर भरोसा करेंगे। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। ध्यान रहे अगर बिहार में रणवीर सेना दलितों का उत्पीडन नहीं करती तो जवाबी सेनाएं नहीं बनतीं। इसलिए जरुरी है कि प्रशासन कानून का शासन स्थापित करे जिससे लोगों को न्याय मिल सके।


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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