h n

क्या बिलकिस बानो को न्याय मिलेगा

बिलकिस पर जुल्म ढाने वाले अभी सुप्रीम कोर्ट में आएंगे और हम उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उनकी सजा को बरकरार रखेगा। हम केवल ये कहना चाहते हैं जब सरकार की विभिन्न संस्थाओं ने न्याय के इस मामले में अपनी भूमिका सही से नहीं निभाई और जब बिलकिस बिलकुल नयी जिंदगी जीना चाहती है, अपने बच्चों के लिए और अपने लिए, उसके इस जज्बे को जिन्दा रखने के लिए क्या हमारी न्याय प्रक्रिया इतना कर पाएगी कि उसे दर-दर की ठोकरे न खानी पड़े। पढि़ए विद्याभूषण रावत की रिपोर्ट :

पिछले हफ्ते की दो बड़ी खबरे हमारे सामने अलग-अलग तरीके से परोसी गयी। सुप्रीम कोर्ट में निर्भया कांड के अभियुक्तों को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो वहां मौजूद लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से इस फैसले का स्वागत किया। शायद इतने वर्षो में पहली बार हमने ऐसा सुना जब कोर्ट का फैसले पर बॉलीवुड स्टाइल प्रतिक्रिया आई हो।

बिलकिस बानो एवं उनके पति याकूब

निर्भया के साथ सेक्सुअल हिंसा 16 दिसंबर 2013 को हुई जब वह अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने के बाद रात को घर लौट रही थी। एक प्राइवेट बस ने उनको लिफ्ट दी और वही से उसके साथ दरिंदगी का खेल शुरू हुआ। उसके बाद जो दिल्ली में हुआ उसने इतिहास बनाया और आनन-फानन में निर्भया एक्ट भी बन गया। पुलिस ने त्वरित कार्यवाही की और सभी अपराधियों को पकड़ लिया। केस बहुत टाइट बनाया गया इसलिए अपराधियों के बचने की गुंजाइश नहीं थी। पब्लिक डिस्कोर्स इतना राष्ट्रवादी था कि सुप्रीम कोर्ट भी इस पर प्रभावित न हुआ हो इसकी संभावना नहीं दिखती। सभी बलात्कारियो को फांसी मिलनी चाहिए जैसे नारे जंतर मंतर पर जोर-जोर से लगे।  निर्भया के माँ-बाप टीवी चैनल्स के प्रमुख स्तम्भकार बने क्योंकि हर एक उनसे विशेषज्ञ के तौर पर सवाल पूछता।

फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों पर अपनी सहमति दे दी है। अभियुक्तों को फांसी हो जायेगी और हम सभी को संतुष्टि हो गयी है कि न्याय हो गया है। निर्भया के बाद ऐसे बहुत मामले सामने आये हैं लेकिन न तो उनको न्याय मिला है और न ही हमारे राष्ट्र की  ‘सामूहिक आत्मा’ जगी है। मुजफ्फरनगर से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से जातिगत हिंसा और उसके बाद महिलाओं पर अत्याचारों की खबरे रोज आती है लेकिन हम निर्लज्जतापूर्वक चुप रहते हैं। ऐसा क्या था कि जो मोमबत्तियां निर्भया के लिए जली वो दूसरे स्थानों पर हुई हिंसा पर नहीं जली। हमारी सामूहिक संवदेना क्यों चुप हो जाती है जब बलात्कार जाति और धर्म की सर्वोच्चता दिखाने का घृणित तरीका बन जाता है।

निर्भया से लगभग 10 वर्ष पूर्व सन 2002 में गुजरात में एक बहुत बड़ा हादसा हुआ था, जिसके फलस्वरूप बहुत से भारतीयों की हत्या हुई, सामूहिक बलात्कार हुए और लोगो को जिन्दा भी जलाया गया। हिंसा की ऐसी जो भी घटनाएं हुई हैं उनमें ये भी जुड़ गया। गुजरात 2002 ”राष्ट्रवादी” राजनीती का ऐसा सूत्रपात हुआ कि जिन लोगों पर हिंसा हुई और यौनाचार हुआ उनके साथ खड़ा होना और उनके लिए न्याय की बात करना भी अपराध हो गया। जो लोग भी उत्पीड़ित लोगो को न्याय दिलवाने के लिए खड़े हुए उन पर विभिन्न प्रकार के दवाब थे और अपराधियों और उनको संरक्षण देने वाले राजनेताओ ने उनके हौसलों को डिगाने के लिए पुरा प्रयास किया। मीडिया में भी कुछ लोग इन प्रश्नों पर बोलते रहे लेकिन जब से देश की ‘हवा’ बदली है न्याय की बात करने वाले भी चुप हो गए हैं और मीडिया ने तो मानो मुद्दों को छुपाने और बनाने की महारत हासिल कर ली है।

गुजरात के उस दुःस्वप्न में उम्मीद और संघर्ष की एक बहुत बड़ी कहानी हैं बिलकिस बानो। जिसको सुनकर हमारे अंदर की नैतिकता जागृत नहीं हुई और न ही हमने कभी उसकी मज़बूती के लिए जंतर मंतर पर कोई मोमबत्ती ही जलाई। 27 फ़रवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस को गोधरा में हमले और जलाने की घटना में 59 हिन्दुओ की मौत के बाद गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा में बहुत तबाही देखी, जिसमें लोगों के घर लुटे गए, हिंसा और बलात्कार की बड़ी घटनाएं हुईं। बहुत से स्थानों से मुसलमानों और हिन्दुओं ने अपने-अपने ‘इलाको’ के लिए पलायन किया। अहमदाबाद शहर से लगभग 200 किलोमीटर दूर, दाहोद जिले के रंधीकपुर गांव में दंगाइयों ने मुसलमानों के घर जला दिए थे। पहली रात उन्होंने सरपंच के घर पर, फिर गांव के स्कूल और खेतो में छिपने की कोशिश की लेकिन बचने की कोई सम्भावना नहीं थी इसलिए उन्होंने गांव छोड़ कर भागने का प्रयास किया।

19 वर्षीया बिलकिस अपने परिवार के 20 सदस्यों के साथ ट्रक पर बैठ कर गांव से बाहर जा रही थी ताकि उन्हें किसी मुस्लिम बहुल गाँव में रहने के लिए जगह मिल जाए। लेकिन उनके खून को प्यासे लोगो ने रास्ते में उन्हें घेर लिया। यह लगभग 35 लोगों की भीड़ थी जो गांव के संभ्रांत लोग थे, जो लोकल दुकानदार, एक डॉक्टर का बेटा, पंचायत के सदस्य और अन्य कई जिनके साथ बिलकिस और उनके परिवार ने अपने बचपन से अब तक गुजारा था। मात्र एक घटनाक्रम ने पड़ोसियों को इंसानियत छोड़कर दरिंदगी अपनाने को मज़बूर किया जो बेहद शर्मनाक है। बिलकिस की आँखों के सामने उनके परिवार के 14 सदस्य मारे गए। उनकी तीन साल की बेटी को भी निर्दयता से मार डाला गया। बिलकिस 5 महीने के गर्भवती थी, लेकिन भीड़ में मौजूद दरिंदों ने उनके साथ बलात्कार किया। उसके चचरे भाई शमीम का उससे एक दिन पहले ही पुत्र हुआ था उसे भी मार डाला गया।  महिलाओ के साथ बलात्कार के बाद हत्यायें कर दी गई। उसकी हालत बहुत ख़राब थी और वह बेहोश हो कर गिर पड़ी। दरिंदों ने उसे मरा समझकर छोड़ दिया। जब  उसे होश आया तो उसने अपने सामने परिवार के लोगों का शव देखा। किसी तरह हिम्मत कर वो सामने पहाड़ी पर चली गई और वहीं सो गई। अगले दिन पानी भरने आने आई एक आदिवासी महिला ने उसे देखा और कुछ कपडे दिए। कुछ देर बाद वहां से गुजर रहे एक पुलिसवाले से मदद की गुहार पर वह बिलकिस को लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन ले गया, जहां उसने प्राथमिक सूचना रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की, लेकिन पुलिसवालों ने उसको धमकी दी और रिपोर्ट लिखने के बजाय उसको रिलीफ कैंप भेज दिया। पुलिस और प्रशासन किसी भी प्रकार से मदद को तैयार नहीं था। उसकी दर्दनाक दास्ताँ को सुनने को राजी नहीं था। मेडिकल भी 4 दिनों बाद किया गया। सबसे बड़ी शर्मनाक बात यह है कि एफआईआर घटना के 15 दिनों के बाद लिखी गयी और कुछ महीनो के बाद पुलिस जैसा की अमूमन ऐसे मामलों में होता है, क्लोजर रिपोर्ट 25 मार्च 2003 को लगा दी।  

लेकिन मज़बूत बिलकिस ने अपना रास्ता नहीं छोड़ा। वो न्याय के लिए दर-दर भटकी। मानवाधिकारों और इंसानियत में यकीं करने वाले बहुत से लोगों ने उसकी मदद की लेकिन वहां के हालात ऐसे नहीं थे कि उसको आसानी से न्याय मिल पाता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर संज्ञान लिया और सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका लगवाई, जिसके कारण कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच के आदेश दिए। सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट से ये अनुरोध किया कि मामले की निष्पक्ष जांच के लिए उसे गुजरात से बाहर स्थानांतरित किया जाए। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने परिस्थितयों का ध्यान करते इस मामले को महाराष्ट्र ट्रांसफर कर दिया और फिर यह मुंबई हाईकोर्ट के अंतर्गत आ गया। 15 वर्षों में उन्हें बहुत धमकियां मिली। अपराधी पैरोल पर घर आते और इशारो-इशारो में धमका के चले जाते। मुश्किल हालातों में उसके जीवन-यापन के लिए कोई स्थाई उपाय नहीं था और हर जगह से उसको घर बदलना पड़ रहा था। पिछले 15 वर्षों में बकौल याक़ूब जो बिलकिस के पति हैं, उन्होंने लगभग 20 से 25 बार अपने घर बदले।

4 मार्च 2017 को बम्बई हाई कोर्ट ने सीबीआई की याचिका पर 11 लोगों को दोषी करार दिया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि कोर्ट ने 7 पुलिसवालों और 1 डॉक्टर को भी सबूतों के साथ छेड़छाड़ या उन्हें मिटाने के कारण उन्हें दोषी मानते हुए मात्र तीन वर्षों का कारावास दिया। कोर्ट ने पुलिस के क्रिया-कलापों पर कड़ी टिप्पणी की लेकिन क्या मात्र तीन वर्षो की सजा उनके साथ सही न्याय है। क्या कानून के रक्षकों को कानून की मर्यादाओं के उल्लंघन के सिलसिले में सजा नहीं होनी चाहिए।

मैंने बिलकिस और उसके पति याक़ूब  को सुना। बिलकिस ने कहा उन्हें न्याय मिल गया है और वो बहुत खुश हैं। अब वह नयी जिंदगी जीना चाहती है। अपनी तीन साल की बेटी को वकील बनाना चाहती है। उसने साफ़ तौर पर कहा कि उसे न्याय चाहिए और कोई किसी से बदला नहीं लेना। अच्छी बात यह है कि उसके वकीलों और सभी साथियों ने मौत की सजा के खिलाफ ही बात की। ये बात साफ़ है कि बिलकिस के साथ हुई घटना किसी भी प्रकार से निर्भया मामले से ज्यादा संगीन है, क्योंकि यह एक सामूहिक मामला था लेकिन ऐसे कैसे कि एक में सभी लोगों को सजा-ए-मौत होती है और दूसरे में नहीं। ऐसा कैसे है कि एक में हम इतने उद्वेलित होते हैं कि इंडिया गेट और जंतर मंतर पर कई दिनों तक संघर्ष करते हैं जब तक कानून नहीं बन जाता, जबकि दूसरे में हमारी सहनुभूति कही नज़र नहीं आती। मीडिया ज्यादा उल्लेख भी चाहता और देशभक्त इसे भी सही साबित करने के लिए कई कारण ढूंढ निकाल देंगे। याकूब बताते हैं के उनका पुस्तैनी पेशा पशुपालन है लेकिन अब उसमे भी बहुत दिक्कत है। पशुपालक यदि मुस्लमान है तो सीधे कसाई कहा जा रहा है। आज पशुपालकों की सुरक्षा खतरे में है। इतने वर्षों में उनकी जिंदगी घुमन्तु समाज वाली हो गयी थी और सरकार या प्रशासन की ओर से एक भी व्यक्ति ने उनसे उनकी समस्याओं के बारे में एक भी प्रश्न नहीं पूछा।

बिलकिस कहती हैं सब जगह शांति हो और सभी औरतों को न्याय मिले। लेकिन उसकी आँखों में दर्द है, और अनिश्चितता का भय भी है। आज के हालातों को वो न समझ पा रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता। हालाँकि हम सब मौत की सजा के खिलाफ हैं लेकिन जिसकी आँखों ने इतने तूफ़ान देखे, अन्याय की पराकाष्ठा देखी वो निश्चित तौर पर इस प्रकार निर्णयों से खुश हो अभी कहना मुश्किल है। आखिर क्यों बिलकिस को हमारी सेकुलरिज्म की बिसात पर अपने दिल की बात कहने से रोका जा रहा है। निर्भया का  वह बयान बहुत चल रहा है जिसमे उसने बलात्कारियों को जलाने की बात कही। उसके माँ-बाप और वकील एक मत से इस पक्ष में थे कि सभी को सजा-ए-मौत होनी चाहिए। खैर, मैं बिलकिस के क़ानूनी सलाहकारों की इस बात के लिए सराहना करता हूँ कि उन्होंने सजा-ए-मौत पर ज्यादा जोर नहीं दिया, लेकिन बिलकिस के साथ न्याय कैसे होगा, यदि उसके सम्मान पूर्वक पुनर्वास की बात नहीं होगी। उसके बच्चों और उसकी अपनी जिंदगी बिना भय के चले इसके लिए आवश्यक है कि उसे जरुरी मुआवजा मिले। निर्भया की हत्या के बाद सरकार ने जिस प्रकार से घोषणाएं करके लोगो का गुस्सा ख़त्म करने की कोशिश की वो हम सब जानते हैं और पहली बार हमने देखना सरकार ने निर्भया कानून बनाया, मुआवजे की राशि बढ़ाई और निर्भया के माँ-बाप को एक मकान भी अलॉट किया, लेकिन ऐसा कुछ न बिलकिस बानो के साथ हुआ और न ही अन्य किसी भी महिला या पुरुष के साथ जो सामुहिक हिंसा, बर्बरता और जातीय या धार्मिक घृणा का शिकार हुई हो। क्या वे इस देश के नागरिक नहीं?

न्याय का मतलब केवल अपराधी को सजा-ए-मौत या उम्रकैद नहीं है। न्याय का मतलब यह भी होना चाहिए कि उत्पीड़ित अपनी जिंदगी को इतने तनावों और अलगाव के बाद कैसे शुरू करे। जब जिंदगी का सब कुछ लुट गया हो तब दोबारा से जीने का साहस कहां से लाए। इतने वर्षों तक न्याय पाने के लिए इतना बड़ा हौसला रखना कोई मज़ाक बात नहीं जब आपके पास कोई संसाधन न हो।  बिलकिस के साहस और धैर्य को सलाम। याकूब को भी जो अपनी पत्नी के साथ पूरी सिद्द्त से खड़ा है।

बिलकिस पर जुल्म ढाने वाले अभी सुप्रीम कोर्ट में आएंगे और हम उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उनकी सजा को बरकरार रखेगा। हम केवल ये कहना चाहते हैं जब सरकार की विभिन्न संस्थाओं ने न्याय के इस मामले में अपनी भूमिका सही से नहीं निभाई और जब बिलकिस बिलकुल नयी जिंदगी जीना चाहती है, अपने बच्चों के लिए और अपने लिए, उसके इस जज्बे को जिन्दा रखने के लिए क्या हमारी न्याय प्रक्रिया इतना कर पाएगी कि उसे दर-दर की ठोकरे न खानी पड़े, बार-बार किराये के घर न बदलने पड़े और उसके बच्चों को एक बेहतरीन शिक्षा मिल सके। हम उम्मीद करते हैं न्याय की इस प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ध्यान देगा। सवाल केवल अपराधियों की सजा नहीं अपितु असल परीक्षा इस बात की है कि जो जिंदगी में उनके अपराधों की सजा भुगत रहे हैं उनके जीवन के बदलाव और बेहतरी के लिए हमारा कानून, संविधान और न्यायतंत्र क्या कुछ कर पायेगा?


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...