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आंबेडकर और पेरियार की बौद्धिक मैत्री

आंबेडकर और पेरियार, अपने मतभेदों और अपनी निर्विवाद समानताओं के चलते, दलित और शूद्र समुदायों द्वारा आधुनिकता को अंगीकार करने के प्रतीक हैं और उनकी विश्वदृष्टि से आकर्षित व्यक्तियों, विशेषकर वे जो जाति व्यवस्था के शिकार हैं, के लिए प्रेरणास्त्रोत है

भारत में जाति विरोधी आंदोलनों का इतिहास अत्यंत जटिल और विविधवर्णी रहा है। इसके विभिन्न प्रतिपादकों के बीच बौद्धिक समानताएं और विभिन्नताएं दोनों रही हैं। इस संदर्भ में बाबासाहेब आंबेडकर और ईव्ही रामासामी पेरियार की बौद्धिक

8 जनवरी 1940 को बम्बई में आंबेडकर, पेरियार और जिन्ना

मैत्री, न केवल तर्कसंगत थी वरन् वह काफी लंबे समय तक चली। सन् 1920 के दशक के उत्तरार्ध से, पेरियार के आत्माभिमान आंदोलन (जो 1925 में शुरू हुआ था), ने आंबेडकर के कार्यों के प्रति अपने प्रशंसा भाव को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था। महाड़ में दिसंबर 1927 में मनुस्मृति दहन के पूर्व, उसी वर्ष, मद्रास में आदि द्रविड़ नेता एमसी राजा और आत्माभिमान आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व जेएस कन्नपार ने इस ग्रंथ को अग्नि के हवाले किया था (कुदीअरासू (केए), 30.10.27 व 11.12.27)। सन् 1929 में पेरियार ने जलगांव डिप्रेस्ड क्लासिस कांफ्रेस के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रेषित कीं और उनके साप्ताहिक ‘ ‘कुदीअरासू‘ ने बांबे प्रेसिडेंसी में आत्माभिमान आंदोलन के उदय का स्वागत किया (केए, 16.06.1929)। आत्माभिमान आंदोलन द्वारा प्रकाशित एकमात्र अंग्रेजी साप्ताहिक ‘रिवोल्ट‘ में समता समाज दल (साप्ताहिक में समता सैनिक दल को इसी नाम से संबोधित किया गया है) के सम्मेलनों पर विस्तृत रपटें प्रकाशित हुईं और इनमें कम से कम दो मौकों पर आंबेडकर के भाषणों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया (‘रिवोल्ट‘, 23 जून 1929 और 29 सितंबर, 1929)। बाबासाहेब के विचारों से ‘रिवोल्ट‘ के संपादक एस. गुरूस्वामी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लिखा कि अगर उन्हें भारत का वायसराय बना दिया जाए तो वे आंबेडकर को विधि मंत्री बनाएंगे (पुडुवई मुरूआसू, 7.12.32)।

आंबेडकर के प्रति एकजुटता का यह प्रदर्शन, गोलमेज सम्मेलनों के समय अपने चरम पर था और उस समय भी, जब देश का जनमत दलितों के लिए पृथक मताधिकार की आंबेडकर की मांग के विरूद्ध था। कुदीअरासू में गुस्से से भरे और तीखे लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की गई, जिसमें गांधी के इस दावे पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया कि केवल वे ही अछूतों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं (केए, 18.10.1931; 25.10.1931)। आत्माभिमानियों ने सार्वजनिक सभाएं आयोजित कर पृथक मताधिकार के संबंध में आंबेडकर के विचारों का समर्थन और मुंजे-राजा समझौते का विरोध किया (केए, 29.05.1932)। जब गांधी ने अपने प्रसिद्ध अनशन की घोषणा की, तब कुदीअरासू ने उनकी इस रणनीति की कटु आलोचना की (केए, 18.9.32)। आत्माभिमान आंदोलन और पेरियार, मंदिरों में प्रवेश संबंधी कानून के संदर्भ में राष्ट्रवादियों के असमंजस और अपने असली इरादों को छुपाने के उनके प्रयास को आंबेडकर की तरह साफ समझ पा रहे थे। आने वाले वर्षों में भी आंबेडकर के प्रति उनका प्रशंसा भाव और समर्थन जारी रहा। कुदीअरासू ने (14.7.1936 से) कई सप्ताहों तक आंबेडकर के ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट‘ का तमिल अनुवाद प्रकाशित किया। बाद में इन लेखों को संकलित किया गया और सन् 1937 में इन्हें एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।

महाड़ सत्याग्रह के एलेनोर जेलिएट के विवरण से यह स्पष्ट है कि आंबेडकर, भारत के दक्षिण के घटनाक्रम में गहरी दिलचस्पी रखते थे, विशेषकर वेकाम मंदिर सत्याग्रह, जिसे शुरूआत में गांधी का समर्थन प्राप्त था, के बाद से (जेलिएट, 2013: 77-78)। पेरियार ने वेकाम आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि अंग्रेजी प्रेस ने उनकी भूमिका को रेखांकित किया था अथवा नहीं। महाराष्ट्र के क्रांतिकारी आंबेडकर के लिए दक्षिण का यह घटनाक्रम बहुत दूर नहीं था। महाड़़ के लंबे संघर्ष के दौरान आंबेडकर ने मद्रास उच्च न्यायालय के एक निर्णय की प्रशंसा की, जिसमें अदालत ने आदि द्रविड़ों के मंदिरों में प्रवेश संबंधी एक निर्णय को पलट दिया था (आनंद तेलतुम्ड़े, 2016 में 6 मई 1927 के ‘बहिष्कृत भारत‘ से उद्धत)। आंबेडकर, मद्रास के दमित वर्गों के नेताओं के निकट संपर्क में थे। यह रेतईमलई श्रीनिवासन के साथ उनके रिश्तों और एमसी राजा से उनकी हंगामी भिड़ंत से जाहिर है। वे जस्टिस पार्टी के नेता, मद्रास के मेयर और आत्माभिमान आंदोलन के मंचों के एक प्रमुख वक्ता एन. शिवराज के भी काफी करीब थे। इसी रिश्ते के चलते सन् 1940 के दशक में शेड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन की स्थापना हुई।

पेरियार से आंबेडकर की पहली मुलाकात सन् 1940 में हुई, जिसमें दोनों ने स्वतंत्र भारत में दलितों और गैर-ब्राम्हण (शूद्र) जातियों के राजनैतिक भविष्य पर चर्चा की। मद्रास की सन् 1944 की अपनी यात्रा के दौरान, आंबेडकर ने शहर में पांच बैठकों को संबोधित किया {बाबासाहब डॉ. आंबेडकरः राईटिंग्स एंड स्पीचिज (बीएडब्लूएस), खण्ड 17, भाग 3, 2003ः 314-338}। आंबेडकर की पेरियार से अगली मुलाकात तब हुई जब पेरियार द्रविड़र कषगम का गठन कर चुके थे और उन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि ‘द्रविड़ों‘ ने भारत से अलग होकर अलग जाति-मुक्त द्रविड़स्तान गठित करने का निर्णय लिया है और इस नए देश का संबंध ब्रिटिश भारत की सरकार की बजाए सीधे इंग्लैंड की सरकार से होगा (केए, 2.9.44)। कुदीअरासू में यह खबर छपी कि आंबेडकर भी द्रविड़स्तान के गठन के विरोधी नहीं हैं, बशर्ते उनका क्षेत्र और उनके लोग भी इसका हिस्सा हों! अगले कुछ महीनों में, कुदीअरासू ने कई मुददों पर आंबेडकर के विचारों के संदर्भ में लिखा। इनमें शामिल था पाकिस्तान, पृथक मताधिकार और तथाकथित अछूतों का गैर-हिन्दू होना (केए, 30.9.1944, 16.12.1944, 6.1.1945 और 13.1.1945.)।

1954 में रंगून में मिले थे। वे दोनों विश्व बौद्ध कांफ़्रेंस में भाग लेने बर्मा की राजधानी पहुंचे थे

पेरियार को आशंका थी कि आंबेडकर की शेडूयलड कास्ट फेडरेशन को सन 1946 के चुनाव में भाग लेने से कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि वातावरण कांग्रेस के पक्ष में था (केए, 27.9.1945)। तत्पश्चात, संविधानसभा की बहसों के बारे में लिखते हुए पेरियार ने कहा कि आंबेडकर ने इस विधायी कार्य में अपनी ऊर्जा व्यर्थ ही व्यय की क्योंकि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वे केवल अछूत प्रथा का ‘उन्मूलन‘ करा सके और जाति प्रथा पर न तो कोई प्रश्नचिन्ह लगा सके और ना ही उसे मूलाधिकारों को पाने की राह में बाधक सिद्ध कर सके (विदुथलाई, 7.2.1951)। बाद में उन्होंने जीने के एक तरीके के रूप में बौद्ध धर्म को स्थापित करने के आंबेडकर के प्रयासों और बौद्ध धर्म को उन दलितों के लिए एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने, जो हिन्दू धर्म को त्यागना चाहते थे, की प्रशंसा की। सन 1950 के दशक में जब पेरियार की द्रविड़र कषगम ने ‘द्रविड़‘ कृषकों का संगठन गठित किया, तब उसके प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए आंबेडकर को आमंत्रित किया गया। बीमार होने के कारण आंबेडकर सम्मेलन में हिस्सा नहीं ले सके और उन्होंने अपनी ओर से पी. राजभोज को मद्रास भेजा (द्रविड़र कषगम कार्यकर्ता एसएस बाशा का साक्षात्कार)।

ऊपर मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह पेरियार के लेखन और आत्माभिमान आंदोलन व द्रविड़ कषगम के प्रकाशनों पर आधारित है। यह संभव है कि इस बारे में अधिक विस्तृत जानकारी, शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन द्वारा मद्रास से प्रकाशित ‘जय भीम‘ में उपलब्ध हो। इस विषय में और अधिक शोध से पेरियार और आंबेडकर के परस्पर रिश्तों, इसके परिणामों और उनके आपसी मतभेदों पर अधिक प्रकाश पड़ सकेगा।

बौद्धिक मेल और मतभेद

भीमराव आंबेडकर और रामासामी पेरियार, दोनों, जीवनपर्यन्त उस आस्था के विरोधी रहे, जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है। दोनों का यह मानना था कि वह ऐसी कोई चीज नहीं है जो स्थायी और एकसार हो और जिसे समझा जा सके। आंबेडकर ने इस संदर्भ में दो महत्वपूर्ण लेख लिखे। ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट‘ और ‘ द हिन्दू सोशल आर्डर‘। इसमें से दूसरा लेख, ‘इंडिया एंड द प्रीरिक्यूजिस्टस ऑफ़ कम्यूनिज्म‘ का पहला अध्याय था। इस पुस्तक का लेखन आंबेडकर पूरा नहीं कर सके। इन दोनों लेखों और आंबेडकर के अन्य लेखों में भी हिन्दू धर्म के जिस पक्ष की सबसे कटु आलोचना की गई है, वह है हिन्दू आस्थाओं और उसके धर्मग्रंथों में असमानता को पवित्र दर्जा दिया जानाः

हिन्दू शायद दुनिया में एकमात्र ऐसे लोग हैं, जिनकी सामाजिक व्यवस्था – एक मनुष्य के दूसरे मनुष्य के साथ रिश्ते – को धर्म द्वारा पवित्र दर्जा दिया गया है और उसे अनंत व अखंड बना दिया गया है। हिन्दू शायद दुनिया में एकमात्र ऐसे लोग हैं, जिनकी आर्थिक व्यवस्था – एक श्रमिक के दूसरे श्रमिक के साथ रिश्ते – को धर्म द्वारा पवित्र दर्जा दिया गया है और उसे अनंत व अखंड बना दिया गया है।

इसलिए यह कहना काफी नहीं है कि हिन्दू ऐसे लोग हैं, जिनकी पवित्र धार्मिक संहिता है। वह तो पारसियों, यहूदियों, ईसाईयों और मुसलमानों की भी है। इन सबकी पवित्र संहिताएं हैं। परंतु इनमें से कोई भी सामाजिक ढांचे के किसी विशिष्ट स्वरूप की स्थापना की आज्ञा नहीं देतीं और ना ही उसे पवित्र दर्जा देती हैं। वे मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते को कोई मूर्त आकार नहीं देतीं और ना ही उसे पवित्र और अखंड बनाती हैं। इस मामले में हिन्दू निराले हैं (बीएडब्लूएस, खण्ड 3, 1987ः128-129)।

पेरियार की हिन्दू धर्म की समालोचना, कई विभिन्न ग्रंथों और प्रकाशनों में बिखरी हुई है। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों, अनुष्ठानों, सिद्धांतों, अंधविश्वासों, समाज में ब्राम्हण पुरोहितों और धर्मनिरपेक्ष ब्राम्हणों की भूमिका, तथाकथित अछूतों और महिलाओं के दमन और जाति व्यवस्था में तार्किकता और मानवीय गरिमा के अभाव के अपने समालोचनात्मक अनुसंधान के आधार पर हिन्दू धर्म की जो आलोचना की उसे उनके इन शब्दों में समझा जा सकता हैः

यद्यपि मैंने लगातार जाति के उन्मूलन के लिए प्रयास किया है परंतु इस देश में इसके लिए ईश्वर, धर्म, शास्त्रों और ब्राम्हणों का उन्मूलन भी आवश्यक है। जाति तभी समाप्त होगी जब ये चारों समाप्त होंगे। अगर इनमें से एक भी बचा रहेगा तो जाति पूरी तरह से समाप्त नहीं हो सकती…क्योंकि जाति का निर्माण इन्हीं चारों से हुआ है…जब मनुष्य को गुलाम और मूर्ख बना दिया गया, उसके बाद ही जाति को समाज पर थोपा गया। हम जाति का उन्मूलन तब तक नहीं कर सकते जब तक लोगों में स्वतंत्रता और ज्ञान की पिपासा न पैदा कर दी जाए। ईश्वर, धर्म, शास्त्र और ब्राम्हण, समाज में गुलामी और अज्ञानता की उत्पत्ति और वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं और वे जाति को मजबूती देते हैं (पेरियारः 93वां जन्मदिन स्मारिका 17.9.1971)।

पेरियार और आंबेडकर दोनों इस बात पर जोर देते थे कि हिन्दू धर्म और जाति अविभाज्य हैं और दोनों को ब्राम्हणवादी विशेषाधिकारों और बौद्धिक आधिपत्य से अलग नहीं किया जा सकता। आंबेडकर ने जातपांत तोड़क मंडल से आह्वान किया कि यदि उसे ऐसा लगता है कि वह अपनी ‘वैदिक आस्था‘‘ में सुधार ला सकता है तो उसे अपनी आस्था को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के अनुरूप बनाना चाहिए। यह सुझाव यह जानते हुए भी दिया गया कि ऐसा करना असंभव है क्योंकि अगर हिन्दू धर्म में इस तरह का परिवर्तन किया गया तो वह हिन्दू धर्म ही नहीं रह जाएगा (एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट, खण्ड 13-14, बीएडब्लूएस खण्ड 1, 1979, 69-78)। पेरियार को कतई यह भ्रम नहीं था कि हिन्दू धर्म के भीतर रहते हुए कुछ भी हासिल किया जा सकता है। उन्हें उन लोगों से सहानुभूति थी जो धर्मनिष्ठ हिन्दू रहते हुए अछूत प्रथा के उन्मूलन का प्रयास कर रहे थे। परंतु उन्हें संदेह था कि इस बारे में उनकी नीयत नेक है। शुरूआत में गांधी के प्रति उनके स्नेह और गांधी के विचारों के उनके समर्थन के बाद भी, पेरियार, गांधी के इस आग्रह के कटु निंदक थे कि अछूत प्रथा को वर्णधर्म से अलग कर देखा जा सकता है और यह कि जहां वर्ण धर्म केवल व्यक्तियों के कर्तव्यों का संकलन था वहीं अछूत प्रथा एक विशुद्ध बुराई है (केए, 7.8.1927)।

आंबेडकर और उनकी पत्नी सविता

दोनों ही नेता, शूद्रों और दलितों द्वारा, उन धार्मिक अधिकारों की मांग, जिनसे उन्हें वंचित रखा गया था, को मूलतः नागरिक अधिकारों पर दावा जताना मानते थे और उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि इसके लिए शूद्रों और दलितों के लिए हिन्दू धर्म से जुड़ना आवश्यक नहीं है। मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर बवाल के सम्बन्ध में आंबेडकर का कहना थाः

किसी अछूत को उस जगह प्रवेश पाने के लिए भीख मांगने की क्या जरुरत है, जहाँ से उसे हिन्दुओं ने अपने अहंकार के चलते बहिष्कृत कर रखा है? दमित वर्ग के एक ऐसे व्यक्ति, जो अपनी भौतिक प्रगति चाहता है, की ओर से मैं इस प्रश्न का उत्तर देता हूँ। वह हिन्दुओं से यह कहने को तैयार है कि ‘‘तुम अपने मंदिरों के द्वार मेरे लिए खोलने को तैयार हो या नहीं, यह तुम्हें तय करना है। इस मुद्दे पर मैं कोई आन्दोलन नहीं करना चाहता। अगर तुम्हें लगता है कि मनुष्य का सम्मान न करना असभ्यता है तो उठो और मंदिरों के दरवाजे हमारे लिए खोल कर सज्जन पुरुष बनो। अगर तुम सज्जन के बजाय केवल हिन्दू बने रहना चाहते हो, तो दरवाजे बंद रखो और चूल्हे में जाओ। मुझे अन्दर आने की कोई इच्छा नहीं है।‘‘ (बीएडब्ल्यूए, खंड 17, भाग 1रू 2003ः 198-99)।

पेरियार के भी मंदिर प्रवेश के विषय में यही विचार थे। वे इसे सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश के अधिकार का मुद्दा मानते थे – एक ऐसे सार्वजनिक स्थान में जिसका निर्माण शूद्रों और पंचमों के श्रम से हुआ था। वे कहते थे कि वे इस अधिकार के लिए लड़ रहे हैं न कि मंदिरों में प्रवेश कर धर्मनिष्ठ हिन्दू बनने के अधिकार के लिए (केए, 22.1.1932, 20.10.1932, 20.11.32)।

शूद्र और अछूत

जाति व्यवस्था पर विचार करते हुए, आंबेडकर ने उसे ‘श्रेणीबद्ध असमानता‘ के एक ऐसे ढांचे के रूप में परिभाषित किया, जो श्रद्धा या सम्मान के बढ़ते हुए क्रम और अपमान और घृणा के घटते हुए क्रम पर आधारित है। वे तथाकथित गैर-ब्राम्हण ‘शूद्र‘ जातियों की स्थिति के बारे में विशेष रूप से संवेदनशील थे क्योंकि इन जातियों को न तो द्विजों का सम्मान हासिल था और ना ही वे यह मान सकती थीं कि जाति के विरूद्ध लड़ने से वे कुछ नहीं खोएंगी। वे द्विजों के बराबर शक्तिशाली नहीं थीं परंतु वे अछूतों की तरह जाति व्यवस्था से बहिष्कृत भी नहीं थीं। अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हू वर द शूद्राज?‘ (और ‘रेविल्यूशन एंड काउंटर रेविल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया‘ में भी) आंबेडकर ने यह प्रतिपादित किया कि शूद्र जातियों को जानते-बूझते निम्न और अपवित्र दर्जा दिया गया था क्योंकि उनमें से कुछ ने द्विजों को चुनौती देने का दुस्साहस किया था। उनकी सामाजिक स्थिति में यह गिरावट तब आई जब वर्ण व्यवस्था, जटिल जाति व्यवस्था में बदली (बीएडब्लूएस, खण्ड 7, 1990: 9-12)। एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा कि यद्यपि शूद्र भी श्रमिक हैं, तथापि उन्हें अछूतों के विपरीत, वर्ण व्यवस्था का हिस्सा माना जाता है। अछूतों को वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा गया है। इस तरह, द्विजों के हाथों शूद्रों को जो दमन और प्रताड़ना भुगतनी पड़ती है, उसकी तुलना, उस शोषण और दमन से नहीं की जा सकती, जो वर्ण-जाति व्यवस्था में शामिल सभी वर्गों के हाथों अछूतों को भोगनी होती है (बीएडब्लूएस खण्ड 5, 1989: 164-169)।

पेरियार और उनकी पत्नी मनियम्मई

पेरियार के विचार भी इससे कोई अलग नहीं थे। वे कहते हैं कि हम सब अपने अंदर अपनी-अपनी जाति का श्रेष्ठता भाव लिए रहते हैं, मानों हम एक लंबी सीढी के किसी एक पायदान पर खड़े हों, जो हमारे दर्जे का निर्धारण करता हो (केए 12.4.1931)। वे इस बात पर आपत्ति करते हैं कि गैर-ब्राम्हण, दलितों के प्रति मैत्री भाव नहीं रखना चाहते और उन्हें चेतावनी देते हैं कि यदि वे ब्राम्हणों की निरंकुशता का विरोध करते हुए अछूत प्रथा पर विचार नहीं करेंगे, तो उनकी मुक्ति अधूरी रहेगी (केए 13.5.1928)। गैर-ब्राम्हणों के इस अप्रजातांत्रिक दृष्टिकोण पर उन्हें झिड़कते हुए वे कहते हैं कि वे यह तो समझ सकते हैं कि ब्राम्हण, जाति व्यवस्था या अछूत प्रथा का खात्मा नहीं चाहते। परंतु वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि गैर-ब्राम्हण भी जाति व्यवस्था के पोषक क्यों बने हुए हैं (केए 30.11.1930)। दूसरी ओर, वे जाति व्यवस्था की मूल कुटिलता से अच्छी तरह वाकिफ थे। यह व्यवस्था ब्राम्हणों को उच्च दर्जा देती थी और तमिल व्यवसायी जातियां जैसे चैट्यिारों की अथाह संपदा और गैर-ब्राम्हण संगीतकारों की प्रतिभा भी उन्हें ब्राम्हणों की नजरों में उनके बराबर नहीं बना सकती थी। ब्राम्हण हमेशा स्वयं को सबसे अलग, विशिष्ट और उच्च मानते थे (केए, 25.3.1944, 20.4.1930)।

परंतु शूद्रों की जाति व्यवस्था में इस स्थिति का राजनीति में अर्थपूर्ण उपयोग करने के संबंध में, बाबासाहब और पेरियार की रणनीतियों में महत्वपूर्ण अंतर थे। पेरियार, ग्रामसी के शब्दों में, गैर-ब्राम्हण ब्लाक बनाना चाहते थे, जिसमें शूद्र और दलित दोनों शामिल होते और जो राष्ट्रवाद और कांग्रेस, विशेषकर उसकी उच्च जाति के ब्राम्हण-बनिया नेतृत्व, के आकर्षण का मुकाबला कर पाता। उनकी कल्पना यह थी कि इस तरह के ब्लाक के अंदर खुला सामाजिक अंतर्व्यव्हार होगा और वैवाहिक संबंध भी स्थापित हो सकेंगे। ये वैवाहिक संबंध, जाति की सीमाओं से ऊपर उठकर होंगे। वे जाति प्रथा के अर्थशास्त्र से अच्छी तरह परिचित थे और यह जानते थे कि वह किस तरह श्रम का अवमूल्यन करती है और शूद्रों और दलितों के सभ्यता का निर्माण करने के कौशल और उसमें उनकी भूमिका को कम करके आंकती है। वे यह भी जानते थे कि किस तरह, जाति व्यवस्था के कारण, निचली जातियों की सार्वजनिक संसाधनों तक पहुंच बाधित होती है और उन्हें शिक्षा, विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार और शासनतंत्र में अपेक्षित स्थान नहीं मिलता। परंतु वे दलितों और शूद्रों के परस्पर रिश्तों की संकल्पना, आर्थिक संदर्भों में नहीं करते थे। उनकी यह मान्यता थी कि शूद्रों में जाति की भावना इसलिए बनी हुई है क्योंकि वह उनकी चेतना का हिस्सा बन गई है और वे उसे बदलना नहीं चाहते।

दूसरी ओर, आंबेडकर, शूद्रों और दलितों की दुनिया के बीच की भौतिक विभिन्नताओं के प्रति सचेत थे। कई मौकों पर उन्होंने यह बताया कि किस तरह, सामाजिक बहिष्कार के हथियार का उपयोग, दलितों को आर्थिक दृष्टि से ऊँची जातियों पर निर्भर बनाने और उनका दमन करने के लिए किया जाता है। वे शूद्रों की प्रजातांत्रिक महत्वाकांक्षाओं को समझते थे और उनका समर्थन भी करते थे परंतु वे इस तथ्य से भी वाकिफ थे कि उनमें से कुछ आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली हैं। उन्होंने शूद्रों से साफ कहा कि अगर वे अपने दमित बंधुओं, जिनमें गरीब गैर-ब्राम्हण और दलित दोनों शामिल हैं, के कष्टों की उपेक्षा करेंगे तो वे सच्चे प्रजातांत्रिक नहीं बन सकते। यह बात उन्होंने मद्रास के गैर-ब्राम्हणों की एक सभा में भी कही। यह सभा उन गैर-ब्राम्हणों की ओर से बुलाई गई थी, जो पेरियार के विरोधी थे (बीएडब्लूएस खण्ड 17, भाग 3, 319-320)। उन्होंने कोंकण क्षेत्र के उन गैर-ब्राम्हण काश्तकारों का साथ दिया, जो शक्तिशाली खोतों का प्रतिरोध कर रहे थे। खोत  किसानों और खेतिहर श्रमिकों व राज्य के बीच मध्यस्थ का काम करते थे (संतोष सुरडकर, 2013)। उन्होंने काश्तकारों (जिनमें से अधिकांश शूद्र जातियों के थे) की बेदखली से रक्षा की वकालत की और यह कहा कि उनके पट्टे की अवधि निश्चित की जानी चाहिए (बीएडब्लूएस, खण्ड 15, 1997ः 958-960)। भूमि के सामूहिकीकरण की उनकी मांग, जो तब भी आदर्शवादी प्रतीत होती थी और आज भी ऐसी ही प्रतीत होती है, का उद्धेश्य भी कृषि की जटिल जाति-आधारित अर्थव्यवस्था को तोड़ना था।

महिलाओं का प्रश्न

जाति व्यवस्था से जुड़े एक महत्वपूर्ण मुद्दा, जिस पर आंबेडकर और पेरियार एकमत थे, था महिलाओं का प्रश्न। जाति व्यवस्था को कायम रखने में महिलाओं की भूमिका के बारे में  आंबेडकर ने अपने विचार सबसे पहले विद्यार्थियों की एक विचारगोष्ठी में व्यक्त किए, जो बाद में ‘कास्टस इन इंडिया‘ शीर्षक से प्रकाशित हुए। सन् 1940 के दशक में लिखी गई अपनी पुस्तक ‘रेवोल्यूशन एंड काउंटर रेवोल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया‘ में वे इसी विषय पर वापस आए। उन्होंने धर्मशास्त्रों, विशेषकर मनुस्मृति, में महिलाओं, और विशेषकर द्विज समुदाय की महिलाओं, पर लगाए गए प्रतिबंधों की चर्चा की। उन्होंने बताया कि किस तरह ये ग्रंथ, महिलाओं के जीवन का नियंत्रण और नियमन करने के सूत्रों का निर्धारण करते हैं। विवाह और संतानोत्तपति के संबंध में महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लादे जाते हैं और इसके लिए धमकियों और हिंसा के साथ-साथ, निःसंतान और विधवा महिलाओं को अपमानजनक परिस्थितियों में रहने के लिए बाध्य करने की व्यवस्था भी शामिल है। उनका कहना था कि ये धर्मग्रंथ, ऐसी परिपाटियों और व्यवहार को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं जिनसे बर्हिविवाह कायम रहे, महिलाओं की चुनने की स्वतंत्रता सीमित हो और सामाजिक व यौन संबंधों में विभिन्न जातियों का मिलन न हो सके (बीएडब्लूएस, खण्ड 3, 1987: 293-295)। उनका यह तर्क था कि ‘अतिशेष‘ महिलाओं के ‘व्यवस्थापन‘ के क्रूर तरीके से महिलाओं  पर नियंत्रण स्थापित किया गया और ब्राम्हणवाद की बौद्ध धर्म पर विजय का यह एक महत्वपूर्ण कारक था (उपरोक्त, 296-301)। उन्होंने यह भी कहा कि मातृ-सवर्ण की संस्था, जिसे मनुस्मृति द्वारा परिभाषित किया गया है, के चलते, द्विज पुरूष के लिए अन्य जातियों की महिलाओं के शरीर का उपभोग करते हुए भी, उनके मिलन से उत्पन्न संतानों को उनकी माताओं की नीची जातियों में शामिल रखना संभव हो सका (उपरोक्त, 308-310)।

पेरियार और आंबेडकर

पेरियार ने महिलाओं के प्रश्न पर एक दूसरे कोण से विचार किया। उनका कहना था कि महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखे जाने की जड़ में विवाह, मातृत्व और परिवार की यौन राजनीति है। जाति प्रथा के मूल के रूप में परिवार, स्नेह और नियंत्रण दोनों का केन्द्र है। परिवार ही वह स्थान है जहां महिलाओं (और पुरूषों के भी) के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास होता है। पेरियार का कहना था कि पुरूषत्व और स्त्रीत्व हमारी बनाई हुई अवधारणाएं हैं और हमें जो प्रत्यक्ष तौर पर दिख रहा है, उससे आगे बढ़कर हमें यह समझना चाहिए कि अधिकांश मानवीय गुण महिलाओं और पुरूषों दोनों में होते हैं और जो चीज़ महिलाओं को पुरूषों से अलग करती है वह है उनकी मनुष्य को जन्म देने और उसे जीवित रखने की क्षमता। इसके बाद भी, महिलाओं को नीचा और कमज़ोर समझा गया और उन्हें केवल परिवार तक सीमित कर दिया गया। उनके हिस्से केवल घर के उबाऊ और थकाने वाले काम आए, जिससे उनके मस्तिष्क और चेतना अविकसित रह गए और वे ऐसे मूल्यों की गुलाम बन गईं, जो उन्हें निचला दर्जा देते थे। महिलाओं को सुंदरता और सतीत्व से जोड़ा जाने लगा और उनकी भूमिका को आदर्श पत्नी और आदर्श मां होने तक सीमित कर दिया गया। धर्म और रीति-रिवाजों ने उन्हें इस गुलामी में ढकेला और वे अपने जीवन की मालिक नहीं रह गईं। परंतु, चूंकि ज्ञान और विवेक महिलाओं को भी उसी तरह और उतना ही उपलब्ध है, जितना कि पुरूषों को, अतः महिलाएं अपने प्रयासों से और स्वयं की इच्छा से खुद को मुक्त कर सकती हैं (वी. गीता एवं एसवी राजादुरई, 2008ः 369-375; 382-389)।

आंबेडकर का मानना था कि विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह और सहमति की आयु में वृद्ध जैसे सुधारों का संबंध हिन्दू परिवारों से है। ये सुधार महत्वपूर्ण हैं परंतु इनका संबंध हिन्दू समाज में सुधार से नहीं है। उनका कहना था कि हिन्दू समाज में सुधार, महिलाओं की स्वतंत्रता और उनकी समानता के लिए पूर्व शर्त है। पेरियार का मानना था कि महिलाओं की स्थिति में सुधार तब तक नहीं लाया जा सकता, जब तक कि उनकी बुद्धि और उनकी चेतना में क्रांतिकारी परिवर्तन न ला दिया जाए और उन्हें धर्म और आस्था के झूठे विचारों से छुटकारा न दिलवा दिया जाए। उनका यह तर्क था कि धर्म के बंधनों से मुक्त महिलाएं, परिवार को बदलेंगी और इस तरह समाज में बदलाव आएगा और जाति व्यवस्था टूटेगी।

बुद्ध धर्म और द्रविड़स्तान

आंबेडकर और पेरियार, दोनों, राष्ट्रवादियों को अविश्वास की निगाह से देखते थे और वे सामाजिक परिवर्तन व लैंगिक और जातिगत रिश्तों में क्रांतिकारी सुधार के पैरोकार थे। आंबेडकर का यह मानना था कि केवल साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद से स्वतंत्र, न्यायपूर्ण और समानता पर आधारित भारतीय राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। उनका यह मानना था कि केवल राष्ट्रवाद भविष्य के भारत को मज़बूत प्रजातांत्रिक और गणतंत्रात्मक नींव नहीं दे सकता क्योंकि राष्ट्रवादी अतीत पर गर्व करते थे और उसका गुणगान करते थे। अतीत के भारत के प्रति उनके इस आग्रह का अर्थ यह था कि स्वाधीन भारत में भी ब्राह्मणों के वर्चस्व वाली जातिप्रथा बनी रहेगी (बीएडब्ल्यूएस, खंड 9, 1990ः 204-210)। इसी तरह, पेरियार भी राष्ट्रवादियों के शब्दाडम्बर से प्रभावित नहीं थे और राष्ट्रवाद को धार्मिक जुनून के समान मानते थे। उनका कहना था कि पुण्यात्मा गांधी के नेतृत्व में, हिन्दू उच्च जातियों ने राष्ट्रवाद को एक तरह की आराधना में परिवर्तित कर दिया था। एकताबद्ध राष्ट्र के विचार को इतना पवित्र दर्जा दे दिया गया था कि उसकी समालोचना करना भी मुश्किल हो गया था और धार्मिक जोश और राजनीतिक भावनाओं के घालमेल के चलते, सामाजिक समानता के प्रति राष्ट्रवादियों के उपेक्षा भाव को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना आसान हो गया था (केए, 24.9.1933)।

वैकम मंदिर, केरल

यह महत्वपूर्ण है कि पेरियार और आंबेडकर, दोनों ही, जाति और वर्ग की परस्पर अंतक्र्रिया के प्रति सचेत और संवेदनशील थे। सन 1940 के दशक में दोनों ने ही भविष्य के भारतीय राष्ट्र-राज्य की कटु आलोचना की। पेरियार लगातार इस राष्ट्र-राज्य के ‘ब्राह्मण-बनिया’ चरित्र पर हमले करते रहे और 1940 के दशक में उनकी इस आलोचना में समाजवादी धार जुड़ गई। आंबेडकर ने भी लगभग यही किया, विशेषकर अपने भविष्यद्दर्शी लेख ‘ए प्ली टू द फारेनर’ (बीएडब्ल्यू एस खंड 9: 199-238) में।

वैकम मंदिर के मंदिर परिसर से उस सड़क का दृश्य जिस पर कभी अवर्णों को चलने की इजाजत नहीं थी। इसे लेकर पेरियार ने आंदोलन चलाया था और उनके इस आंदोलन पर आंबेडकर की निगाह थी।

परंतु स्वतंत्र भारत के प्रति दोनों के दृष्टिकोणों में अंतर था। आंबेडकर, कानून के राज के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे और उन्हें ऐसा लगता था कि एक प्रजातांत्रिक गणराज्य में न्याय और समानता की स्थापना की काफी संभावनाएं हैं। वे सामाजिक क्रांतिकारी होने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माता भी थे। वे एक ऐसे एकीकृत भारत के निर्माण के पक्ष में थे, जहां जाति व्यवस्था की सत्ता पर संविधान, केन्द्रीय सरकार और संसद की सत्ता हावी होगी। उनका मानना था कि संविधान, केन्द्रीय सरकार और संसद, क्षेत्रीय और जातिगत संकीर्णताओं पर विजय प्राप्त करने में सक्षम होंगे। परंतु जल्दी ही आंबेडकर के राष्ट्र और राज्य के निर्माण के प्रति पक्की प्रतिबद्धता का स्थान एक ऐसे क्रांतिकारी आदर्शवादी समुदाय के निर्माण के लिए प्रयासों ने ले लिया जो बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित था।

पेरियार, एकीकृत भारत के विचार से सहमत नहीं थे और उनका ज़ोर एक अलग, जाति-विरोधी गणतंत्र, द्रविड़स्तान के निर्माण पर था, जिसमें धार्मिक आस्था, पुरोहिताई, जाति और रीति-रिवाज़ों के लिए कोई स्थान नहीं होगा। यद्यपि द्रविडस्तान के निर्माण की परियोजना एक आदर्शवादी परियोजना थी, जिसे भविष्य में लागू किया जाना था, परंतु इस कल्पना ने पेरियार के लिए भारतीय राष्ट्र-राज्य की अनवरत समालोचना करना संभव बनाया, विशेषकर उसके ‘ब्राह्मण-बनिया’ मूल की। यह दिलचस्प है कि अलग राष्ट्र की अपनी मांग के बावजूद, पेरियार, सुशासन के हितकारी लाभांे से अनजान नहीं थे और उन्होंने स्वतंत्र भारत में के. कामराज के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को अपना पूरा समर्थन दिया क्योंकि उनका मानना था कि वह द्रविड़ों की बेहतरी और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध थी।

 

‘‘श्रमिकों का विभाजन’’ और ‘‘जाति कर्मी’’

आंबेडकर और पेरियार दोनों ने ही संप्रभुता की अवधारणा पर पुनर्विचार किया। दोनों ही यह मानते थे कि संप्रभुता, जनता में निहित है। इस मामले में आंबेडकर के विचार अधिक स्पष्ट थे। आंबेडकर का कहना था कि संप्रभुता, राष्ट्र-राज्य में निहित नहीं है और ना ही उन लोगों में निहित है, जो इतिहास में सक्रिय शक्ति के रूप में देखे जाते रहे हैं। आंबेडकर ने लचीली प्रजातांत्रिक प्रणालियों और संस्थानों के निर्माण का आह्वान किया और उनके महत्व को रेखांकित किया। इनमें संसद और कार्यपालिका शामिल हैं। पेरियार का ज़ोर तर्कसंगत विवेक पर था। उनका यह मानना था कि यह गुण हासिल करने का प्रयास सभी मनुष्यों करना चाहिए। दोनों ही प्रजातांत्रिक रास्ते से समाजवाद की स्थापना के पक्ष में थे क्योंकि समाजवाद ही सामाजिक रिश्तों को एक नया आकार देकर, न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की गारंटी दे सकता था। जाहिर है कि ऐसी व्यवस्था का निर्माण केवल जनता ही कर सकती थी। परंतु प्रश्न यह था कि इस परिवर्तनकारी परियोजना को जनता का कौन-सा हिस्सा कार्यान्वित करेगा।

पेरियार और आंबेडकर का एक चित्र

एक समस्या यह थी कि दोनों ही ‘जनता’ की प्रचलित परिभाषा और अवधारणा के प्रति असहज थे। कांग्रेस का राष्ट्रवाद और कम्युनिस्ट, दोनों ही ‘जनता’ को जिस रूप में देखते थे, उसमें जाति के लिए कोई स्थान नहीं था। वे जनता को अपनी जाति के एक हिस्से के रूप में नहीं देखते थे। दोनों के लिए ‘जनता’ की राष्ट्रवादी अवधारणा को खारिज करना आसान था परंतु दोनों ही साम्यवादी एजेंडे की ओर आकर्षित थे, जो सामाजिक परिवर्तन में सर्वहारा को केन्द्रीय भूमिका देता था। वे श्रमिक वर्ग के आर्थिक शोषण से वाकिफ थे और इससे भी कि उनके बीच जातिगत विभिन्नताओं के चलते, उनमें वर्गीय चेतना के उभार की संभावना कम थी। पेरियार ने यह तर्क दिया कि कम्युनिस्टों को जाति कर्मी और वेतन कर्मी के बीच अंतर करना सीखना चाहिए (विदुथलाई,

16.02.1940)। जाति कर्मी के लिए अपनी उन्नति को मापने का एक ही तरीका है और वह है कि जाति की सीढ़ी पर वह कितने पायदान ऊपर चढ़ा। वह स्वयं को एक श्रमिक के रूप में नहीं देखता।

आंबेडकर का कहना था कि जाति व्यवस्था, दरअसल, श्रमिकों का विभाजन है। इससे श्रमिक इस तरह के उत्पादक संबंधों और प्रणालियों में फंस जाते हैं जो उसके श्रम का इस्तेमाल, अतिशेष मूल्य के सृजन के लिए करती है परंतु जाति के कारण श्रमिकों के लिए विकास की राह अवरूद्ध रहती है। भारतीय संदर्भों में किसी  जाति विशेष में जन्म लेने के कारण श्रमिक अपने जीवीकोपार्जन के लिए क्या करेगा, यह पूर्व निर्धारित होता था और उसे वही काम करना पड़ता था, चाहे वह उसे करना चाहे या न चाहे और चाहे वह उसमें कुशल हो या न हो। विकल्प के इस अभाव के कारण श्रमिकों में एक विरक्ति भाव उत्पन्न हो जाता था। जाति व्यवस्था के कारण श्रमिकों में आत्मचेतना का अभाव रहता था और यह व्यवस्था केवल जाति कर्मियों का निर्माण करती थी, श्रमिकों का नहीं। अतः दोनों ही आश्वस्त थे कि सर्वाहारा को परिवर्तनकारी भूमिका तब तक नहीं सौंपी जा सकती जब तक वह जाति का उन्मूलन करने के लिए तैयार नहीं हो जाता। आंबेडकर का कहना था कि जब तक श्रमिक वर्ग न्याय की भावना से चालित नहीं होगा, तब तक वह क्रांतिकारी नहीं बन सकता (बीएडब्ल्यूएस खंड 1, 1979ः 44-48)। इस तरह दोनों ने ही कम्युनिस्टों की श्रमिक वर्ग में आस्था की कटु और तीक्ष्ण आलोचना की। उनका कहना था कि श्रमिकों की भलाई की इच्छा रखने वालों में जाति के उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्धता आवश्यक है। दोनों जीवनपर्यन्त इसी विचार को प्रतिपादित करते रहे। एक तरह से वे ऐतिहासिक परिवर्तन के लिए एक आदर्श एजेंट की तलाश में थे।

इस संदर्भ में आर्थिक व्यवस्था के संबंध में दोनों के विचारों को समझना भी उपयोगी होगा। आंबेडकर, समाजवादी नियोजन के सोवियत माॅडल से प्रेरित थे और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा उन्हें प्रिय थी। कल्याणकारी राज्य से उनका आशय विश्वव्यापी मंदी के दौर के बाद के ग्रेट ब्रिटेन से था। लंदन में विद्यार्थी के तौर पर वे फेबियन समाजवाद से प्रभावित थे, जो राज्य से यह उम्मीद रखता था कि वह समाज में संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा करे। परंतु आंबेडकर ने अपने इन विचारों में भारतीय संदर्भ में कुछ परिवर्तन किए। वे न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था, सोवियत संघ की तरह सामूहिक खेती और राजकीय स्वामित्व के उद्योग तो चाहते थे परंतु इसके साथ ही वे यह भी चाहते थे कि अर्थव्यवस्था में निजी उद्यमियों के प्रयासों के लिए भी स्थान हो। वे चाहते थे कि राज्य विधानमंडलों और राजकीय सेवाओं में भर्ती में दलितों और शूद्रों के साथ सकारात्मक भेदभाव किया जाए {उनकी इस सोच का विस्तृत विवरण ‘स्टेट एंड माइनोरिटीज़’ में उपलब्ध है (बीएडब्ल्यूएस खंड 1, 1979: 383-449)}।

पेरियार भी समाजवाद की ओर आकर्षित थे और सन 1950 के दशक में उनके द्रविडर कषगम ने अपने श्रमिक संगठन की स्थापना की। यद्यपि पेरियार ने आर्थिक जीवन के संबंध में अपने विचार बहुत विस्तार से प्रस्तुत नहीं किए तथापि वे उत्पादक जीवन के महत्व को प्रतिपादित करते थे। वे चाहते थे कि औद्योगीकिकरण के ज़रिए देश की प्रगति हो और आंबेडकर की तरह, आरक्षण के ज़रिए राज्य के संस्थानों में गैर-ब्राह्मणों और दलितों की उपस्थिति को बढ़ाने के हामी थे। स्वतंत्रता के पूर्व उन्होंने सूदखोरी को समाप्त करने, ज़मीन के पट्टे संबंधी नियमों में सुधार करने और संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण की वकालत की। उनके आंदोलन ने तमिल क्षेत्र की मंदिर-आधारित कृषि अर्थव्यवस्था का विरोध किया। उनका कहना था कि मंदिरों में रहने वाले ‘पत्थर के पूंजीपतियों’ का विरोध उतना ही आवश्यक है जितना कि आधुनिक पूंजीपतियों का (विदुथलाई, 21.08.1947)। द्रविड़स्तान की अपनी मांग के संदर्भ में पेरियार ने भारत में ‘बनियों’ की निर्णायककारी भूमिका का विरोध किया। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आगामी वर्षों में उन्होंने आर्थिक दृष्टि से न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के अपने स्वप्न को त्याग दिया था यद्यपि उन्होंने उसे कोई विशिष्ट आकार या राजनीतिक स्वरूप नहीं दिया।

असीम करूणा और अस्तित्ववादी शंका

पेरियार और आंबेडकर के दृष्टिकोण और उनके तर्क, उन ऐतिहासिक परिस्थितियों के संदर्भ में विकसित हुए थे जो उनके समय में थीं और जिन्हे वे बदलना चाहते थे। इस तरह, उनके आसपास की दुनिया के प्रति उनकी प्रतिक्रियाएं, तत्कालीन संदर्भों पर आधारित थीं। वे विवादित थीं, उत्पादक थीं, दार्शनिक थीं और विचारात्मक थीं। वे दोनों उस आदर्श क्षितिज की ओर देख रहे थे, जिसके प्रकाश में वर्तमान को तोला और पुनर्निर्मित किया जा सके। आंबेडकर के लिए यह आदर्श था स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व और अंततः ‘मैत्री’ की बौद्ध परिकल्पना। पेरियार यह मानते थे कि मानव में इतना विवेक है कि वह चीज़ों को समझ सके, उनका आंकलन कर सके और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कर सके। एक में असीम करूणा थी तो दूसरा अस्तित्ववादी शंकाओं से ग्रस्त था। इसलिए वे अपने समय से जुड़े रहे, यद्यपि उन्होंने उनके काल द्वारा उन पर थोपी गई सीमाओं के आगे समर्पण नहीं किया। आंबेडकर और पेरियार, अपने मतभेदों और अपनी निर्विवाद समानताओं के चलते, दलित और शूद्र समुदायों द्वारा आधुनिकता को अंगीकार करने के प्रतीक हैं और उनकी विश्वदृष्टि से आकर्षित व्यक्तियों, विशेषकर वे जो जाति व्यवस्था के शिकार हैं, के लिए प्रेरणास्त्रोत है। दोनों ही अब इतिहास हैं परंतु हमें उनके विचारों को याद रखना चाहिए और उनके विचारों की ऐतिहासिक संभावनाओं और आदर्शवादी चरित्र की पड़ताल करनी चाहिए।

 

संदर्भ

इस लेख में उद्धृत पेरियार के विचार, उनके आंदोलन द्वारा प्रकाशित तमिल साप्ताहिकों कुदीअरासू, पुडुवईमुरासू और विदुथलई में प्रकाशित लेखों पर आधारित हैं। इनका तमिल से अनुवाद वी. गीता व एसवी राजादुरई ने किया है।

बाबासाहेब अंबेडकरः राईटिंग्स एंड स्पीचेज़, खंड 1 (1979); 3 (1987); 5 (1989); 7 (1990); 9 (1990); 15 (1997); 17 भाग 1 और 3 (2003), शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र शासन।

व्ही. गीता और एस.वी. राजादुरई, ‘टूवड्र्स ए नॉन-ब्राहमिन मिलेनियमः फ्रोम ज्योति थास टू पेरियार’, साम्य, 2008 (द्वितीय संस्करण)।

एस व्ही. राजादुरई, ‘हिन्दू-हिन्दी-इंडिया’, 1993 मनीवासागर पथीपगम।

सुरडकर, संतोष, ‘द एंटी-खोत मूवमेंट इन द डेक्कन, 1920-1942’, वीवी गिरी नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट, 2013।

तेलतुम्ड़े, आनंद, ‘महाड़ः द मेकिंग ऑफ द फस्र्ट दलित रिवोल्ट’, प्राईमस बुक्स, 2016।

ज़ेलियेट एलेनोर, ‘अंबेडकर्स वल्र्डः द मेकिंग ऑफ़ बाबासाहेब एंड द दलित मूवमेंट’, नवायन, 2013।


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लेखक के बारे में

वी. गीता

लेखिका वी. गीता एक अनुवादक, सामाजिक इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इन्होंने तमिल और अंग्रेजी में आधुनिक तमिल इतिहास, जाति, लैंगिक विषयों, शिक्षा और मानव अधिकार पर विस्तारपूर्वक लेखन किया है। इन्होने एस वी राजादुरई के साथ मिलकर द्रविड़ आन्दोलन और राजनीति पर भी लेखन किया है जिसका प्रकाशन ईपीडब्ल्यू (इकोनॉमिक एंड पालिटिकल वीकली) में किया गया है। इसके अलावा इनकी एक पुस्तक, जिसका शीर्षक है ‘‘टुवर्ड्स, अ नॉन-ब्राह्मिन मिलीनियमः फ्रॉम आयोथी थास टू पेरियार’’। इन्होंने पश्चिमी मार्क्सवाद पर भी कई प्रबंधों का लेखन भी किया है जिनमें एन्टेनियो ग्रामसी के जीवन और विचारों पर केन्द्रित एक विषद ग्रंथ शामिल है

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